फूलों की भाषा / माइकल टाओसिग / अनुराधा सिंह

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बग्स बनी और रोड रनर जैसे ख्याति प्राप्त कार्टूनों के रचयिता चक जोन्स से जब एक रेडियो साक्षात्कार में पूछा गया कि वे इन्सानों की बजाय जानवरों के कार्टून बनाना अधिक पसंद क्यों करते हैं तो उन्होंने जवाब दिया, “जानवरों का मानवीकरण इन्सानों के मानवीकरण की तुलना में अधिक आसान है।“ हाल में कोलम्बिया के कलाकार हुआन मैनुएल एचावारिया ने इसे एक नया मोड दिया। अपने देश में वृहत स्तर पर हो रहे खून खराबे पर प्रतिक्रियास्वरूप उन्होंने फूलों का मानवीकरण करते हुए उन्हें वानस्पतिक नमूनों के तौर पर चित्रित किया, लेकिन उनकी डंडियों, पत्तियों, पुष्प और फल के स्थान पर मानव अस्थियों का प्रयोग किया। 1940 और 1950 में कोलम्बिया में वृहत पैमाने पर हुई हिंसा के दौरान किए जाने वाले अंग-भंग कृत्य के लिए प्रयुक्त नाम के आधार पर उन्होंने अपनी श्वेत श्याम चित्रों की इस श्रंखला का नाम ‘द फ्लावर वाज़ कट’, रखा, जिसके तहत एक सिरकटी लाश के कटे हुए हाथ पाँव, गर्दन के रास्ते उसके वक्ष में ठूँस दिये जाते थे।

कार्टूनों में मानव देह की विकृतियों पर हमारा हँसना विनोद से हिंसा की निकटता की ओर इंगित करता है। मनुष्य का रोता हुआ चेहरा उसके हँसते हुए चेहरे से पूरी तरह न मिलते हुए भी निश्चित तौर पर बहुत साम्य रखता हैं। यह तो आमतौर पर देखा गया है कि महान विदूषक और हास्य अभिनेता बहुधा बड़ी त्रासदियों का बोझ उठाए रहते हैं। लेकिन जहां तक हिंसक कार्टूनों की गुणवत्ता का प्रश्न है हमें माइकल हर्र के वियतनाम युद्ध के दौरान प्राप्त अनुभवजन्य प्रसंग सुनने चाहिए, वे यह आग्रह करते हैं कि इन दोनों तत्वों में कोई समानता नहीं है। ऐसा वे ‘नो जाइव कार्टून’ के आधार पर कहते हैं जिनमें पात्रों को बुरी तरह पीटा जाता है, बिजली के झटके दिये जाते हैं, ऊंचाई से गिराया जाता है, कुचल कर चपटा कर दिया जाता है, मोड़ दिया जाता है, तश्तरी की तरह तोड़ दिया जाता है और पुनः उठा कर खेल में शामिल कर लिया जाता है।

‘नो जाइव कार्टून’ (बकवास कार्टून नहीं).... ज़रूर! लेकिन हमने वह प्रेत जीवित ही क्यों किया, फिर मारने के लिए? हमने इतने पास पहुँचने की ज़हमत क्यों उठाई जब कदम वापस ही खींचने थे? क्या सिर्फ इसलिए कि वास्तविकता से इसकी साम्यता बहुत विचलित कर देने वाली थी? एक विचलित कर देने वाला यथार्थ, और इस युक्ति से हम बिलकुल वही करते हैं जो करना आवश्यक होता है। क्या यह एक असंभव, अविचारणीय सत्य की एक झलक लेकर उसे पुनः पूरी तरह बंद कर देने जैसा अनुभव नहीं है? आखिर यह असंभव, अशोचनीय वास्तविकता क्या है कि एक युद्ध की एक कार्टून से एकरूपता स्थापित करने के प्रयास से ही उनके बीच की असमानता तत्काल स्पष्ट हो जाती है, बढ़ जाती है। क्या मैंने कहा ‘और बढ़ जाती है’? कुछ ऐसा ही हर्र ऊंचाई से गिरकर, चपटे हो जाने के दृश्य के कार्टून प्रस्तुतीकरण को संदर्भित करते हुए कहते हैं, “पुनः उठा कर खेल में शामिल कर लिया जाता है“। क्या बिलकुल यही संप्रत्यय घटित नहीं होता है जब एचावारिया पशुओं की बजाय फूलों का मानवीकरण करते हैं। वे अपने वनस्पतिशास्त्र के रेखाचित्रों को इंसानी हड्डियों की ब्लीच की गयी फोटोग्राफ से बड़ी शुद्धता और सनकपूर्वक हूबहू नकल कर लेते हैं।

एक साक्षात्कार में एक जगह वे कहते हैं कि, ‘मेरा उद्देश्य कुछ इतना सुंदर तैयार करना था कि लोग अपने आप इसकी तरफ आकर्षित हों। दर्शक इसके पास आए, इसे देखे, और तब, जब वह यह जाने कि दरअसल यह एक वास्तविक फूल नहीं बल्कि मानव अस्थियों से बना एक फूल है तो उसके दिमाग में या दिल में कुछ हलचल हो।‘ लेकिन मैं खुद ही उनकी तसवीरों को ऐसे नहीं देखता। वे फूल तनिक भी फूल सरीखे नहीं लगते हैं। सुंदरता की बजाय इनका भद्दापन और जानतेबूझते दी गई मक्कारी एक दर्शक को व्यग्र कर देती है — और यह बिलकुल उसी प्रकार की धूर्तता है जो ‘द फ्लावर वाज़ कट’ की विकृति को ऐसा सशक्त बना देती है। एचावारिया के चित्रों में फूलों की डंडियों की जगह गोलाकार पसलियाँ या बाहों की नष्ट होती हुई लंबी हड्डियाँ हैं। पंखुड़ियाँ मनुष्य के पेल्विस (श्रोणि) या कशेरुकाओं (वर्टीब्रा) से निर्मित लगतीं हैं। किन्हीं किन्हीं चित्रों में छोटी हड्डियों, जैसे दाँत या अस्थियों की चिप्पियाँ एक तरफ पड़ी हुई हैं, जिनकी उपस्थिति से चित्रों की समरूपता और समग्रता का छद्म टूट जाता है। एक पसली से एक कशेरुका लटक रही है। आपस में चिपकी हुई तीन कशेरुकाओं के एक कॉलम से पाँच पसलियाँ पौधे की डंडियों के गुच्छे की तरह निकल रही हैं, ये कशेरुकाएँ मानव मेरुदंड के आकार में नहीं बल्कि उससे उखाड़ कर बच्चों के खेलने वाले ब्लौक्स की तरह ब्लीच की हुई पृष्ठभूमि पर आगे से पीछे की ओर चिपका दी गईं हैं। फूल भंगुर, बीच में लटके हुए और निराधार प्रतीत होते हैं । वे उड़ते हुए से लगते हैं, जैसे गुरुत्वाकर्षण का नियम उन पर लागू नहीं होता। उन चित्रों में ऐसा भाव है जैसे दुनिया रुक गयी है, आवाज़ की पीड़ादायक अनुपस्थिति। ईश्वर समेत हम सब अपनी साँस रोके जो देखते हैं वह है ऐसी नीरवता, जैसे कुछ बहुत भयानक घट चुका हो और अब यह बहुत नीचे शून्य में गिर जाने की, हमारे पतन की अवस्था है।

जो और भी अजीब बात है वह हैं इन फोटोग्राफ पर लिखे उनके शीर्षक। ये लैटिन भाषा में बिलकुल उसी तर्ज़ पर लिखे गए हैं जैसे अट्ठारहवीं सदी के अंत में स्पेन के शासन द्वारा जोज़ सेलेस्तीनों म्यूटिस की अध्यक्षता में कोलम्बिया में आयोजित वनस्पतिशास्त्रीय अभियान के अंतर्गत पौधों के चित्रण में लिखे गए थे। एचावारिया इस वंशावली प्रस्तुतीकरण के प्रति बहुत जागरूक दिखते हैं। दरअसल वे अपने फूलों को वंशावली शास्त्र की अधुनातन अभिव्यक्ति मानते हैं। फर्क यही है कि एचावारिया के लातिनी नाम विकृतता को दर्शाने वाले संकर हैं, एक श्रोणीय अस्थि से बने पुष्प का नाम ड्रैकुला नोज़फ़ेरातु है, जबकि एक दूसरा फूल जो एक पसली को मोड़ कर उसके एक सिरे पर कलाई की छोटी छोटी पाँच हड्डियों को पंखुड़ी के आकार में जोड़ कर बनाया गया है, का नाम डायोने मिज़ेरा है। हालांकि ये नाम छोटे छोटे और महीन अक्षरों में लिखे हैं लेकिन इस तरह के नामों का इन चित्रों की व्याख्या के लिए विस्फोटक महत्व है। और इनकी शुरुआत ही उस अंग-भंग त्रासदी के नाम पर हुई है – द फ्लावर वाज़ कट। ये नाम इसलिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि मुझे शंका है कि दर्शक मात्र एक अंगभंग देह का चित्र देखकर उसके रचनाकार का निहितार्थ समझ नहीं पाएंगे। हम लोग मज़ाक में कहते भी हैं — बेनाम। उन्हें तो वहाँ केवल क्षत विक्षत बाँहों और टांगों का खूनी मलबा और हाथ पाँव विहीन धड़ ही दिखाई देंगे।

और इस तरह से, इन नामों के अभाव में अंगच्छेद के इस कृत्य का वर्णन अपूर्ण रह जाएगा, क्योंकि वह अर्थ ही समाप्त हो जाएगा जिसकी वजह से जीवन के वास्तविक अर्थ नष्ट हो जाते हैं। लेकिन मुझे यह समझ में नहीं आता है। शायद मुझे यह समझना ही नहीं चाहिए। लेकिन मैं यह जानता हूँ कि ये और इनके जैसी सभी अंगभंग की घटनाएँ क्या दूरगामी प्रभाव छोडतीं हैं। यह एक प्रकार की लहर उठने जैसा प्रभाव है जिसमें एक शव का एक नाम के साथ कलात्मक संयोजन उस अंग भंग की घटना को एक लहर जैसी गति देता है जिसमें पहले उसका अर्थ बहुत ऊंचाई पा जाता है और फिर विकीर्ण हो जाता है। इसे ऐसे कहा जा सकता है कि यदि किसी अनैतिक या उत्क्रामी कार्य के साथ एक सामान्य सा नाम जोड़ दिया जाए तो वह कृत्य एक तरह से पूर्ण हो जाता है, एक अर्थ से प्रतिष्ठित। लेकिन ऐसा करना अंततः उस उस नाम और उसके वास्तविक अर्थ को ध्वस्त कर देता है। हर्र की उन कटे हुए कानों से बने हुए नेकलेस की कहानी याद आती है, जिनका नाम लव बीड्स यानि प्यार के मनके था।

प्रकृति में कला के स्वरूप

अट्ठारहवीं सदी में म्यूटिस द्वारा चलाये गए वनस्पतिशास्त्रीय अभियान के तहत प्रदर्शित पौधों के चित्र, जिनमें से कई पूरी तरह रंगीन थे, इतने चित्तग्राही थे कि आज कोलम्बिया के बाहर और भीतर सब जगह बहुत ख्याति प्राप्त कर चुके हैं। वे एक राष्ट्रीय प्रतीक जैसा सम्मान हासिल कर चुके हैं। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि वे प्राकृतिक चिन्ह हैं। वे एकबारगी शुद्ध और उदात्त प्रकृति को प्रस्तुत करते हैं। एक तरफ एक आडंबरविहीन पादप और दूसरी तरफ एक राष्ट्र की महानता। वे यूरोप में वैज्ञानिक उत्सुकता और परस्परिक संघर्ष के अद्भुत संयोजन के प्रति उमड़े विश्व के आश्चर्य का मूर्त रूप थे। उनकी कितनी सुंदरता इस अद्भुत सम्मिश्रण की वजह से थी? म्यूटिस एक दूसरे प्रश्न को भी जन्म देते हैं: क्या प्रकृति की कला के अतिरिक्त प्रकृति में कला जैसा कोई संप्रत्यय भी होता है? यही प्रश्न अर्न्स्ट हैकेल के 1904 के आर्ट फॉर्म्स इन नेचर और प्रसिद्ध आधुनिकतावादी कार्ल ब्लोसफ़ेल्ट (1865-1832) की प्लांट फ़ोटोग्राफी में भी अंतर्निहित है। वे यह मानते थे कि “मानव कला के चित्रण के लिए सर्वश्रेष्ठ मॉडेल्स सृष्टि में पहले से उपस्थित प्राकृतिक अवयव ही हैं।”

ब्लोसफ़ेल्ट द्वारा लिए गए प्रकृति के चित्र, जो होते तो वास्तविक थे बस उन्हें थोड़े बड़े स्केल पर, बहुत सावधानीपूर्वक नियंत्रित प्रकाश में खींचा गया था। वे चित्र न केवल उनकी महान अतियथार्थवादी पत्रिका के पृष्ठों को आभा प्रदान करते थे बल्कि उन्होंने ज़ोर्ज़ बथाय द्वारा संपादित दस्तावेजों के मार्फत उनके निबंध ‘पुष्पों की भाषा’ को भी अर्थ प्रदान किया । जब मैंने पहली बार म्यूटिस को देखा तो मुझे लगा कि मैं प्रकृति में निहित कला को देखने जा रहा हूँ। मैं इस विचार से बहुत उत्साहित हो गया कि अब मेरी आँखों के सामने प्रकृति की किताब खुलने जा रही है। लेकिन थोड़ी ही देर बाद मेरा उत्साह जाता रहा। मैं जान गया कि कलाकार ने चित्र लेने से पहले न केवल सौंदर्यशास्त्र के नियमों पर खरा उतरने के लिए बल्कि एक वनस्पतिशास्त्री की हैसियत से दृश्य जानकारी देने के उद्देश्य से भी पुष्पों और डंडियों को व्यवस्थित ढंग से सँजोया है। मुझे बिलकुल वही अनुभूति हो रही थी जो एक मेडिकल छात्र को मानव शरीर रचना विज्ञान पढ़ते समय होती है। जैसे उसके सामने की मेज पर एक नीला पीला शव फैला पड़ा हो, जिस पर पीली पड़ती चर्बी के थक्के जमा हों, और चारों तरफ फॉर्मलडिहाइड की असह्य गंध फैली हो । लेकिन उसके बगल में रखी पाठ्यपुस्तक उसी शरीर को बहुत आकर्षक ढंग से समरूप नीले और लाल रंगों में दर्शा रही हो। यहाँ उस चित्र की सुंदरता का ज़िक्र करना ज़रूरी नहीं क्योंकि उसे तो प्रस्तुत ही इस उद्देश्य और विधि से किया गया था।

तो हुआ यह कि जिसे प्रकृति में निहित कला होना चाहिए था वह प्रकृति की कला बन कर रह गयी। यह उस प्रकार की धोखाधड़ी थी जब बच्चा यह जान लेता है कि सांता क्लॉज़ दरअसल उसकी वेश भूषा में एक आम आदमी है। लेकिन दोष किसे दिया जाए, मुझे मेरे सरलमति होने के लिए या कलाकार को उसकी चतुराई के लिए। और मेरी बेवकूफी देखिये कि अब भी जब मैं म्यूटिस के ये पादप चित्र, जो अब मुझे शुद्ध आडंबर लगते हैं, देखने जाता हूँ, तो मैं पुनः आनंद और निराशा, रहस्य और प्रकटीकरण के उसी क्रम से होकर गुजरता हूँ। क्योंकि वहाँ मेरा प्रकृति में उपस्थित कला से होने वाला तादात्म्य जल्दी ही प्रकृति की कला के कठोर यथार्थ में परिवर्तित हो जाता है। भला ऐसा क्यों होता है, यह ‘अब- तुम- इसे- देख- सकते- हो- अब- नहीं’ जैसा प्रतिभास? क्या अतियथार्थवाद का अति यही है जिसका इस्तेमाल बथाय ने ब्लोस्फ़ेल्ट के चित्रों के जरिये किया था? क्योंकि जब ब्लोसफेल्ट अपने मैग्नीफ़ाईंग काँच से प्रकृति में निहित कला को ढूँढ रहा था बथाय उसके चित्रों द्वारा सृजित विघटन से मंत्रमुग्ध था। बथाय का उद्देश्य प्रकृति के अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन जैसा अपरिपक्व नहीं था बल्कि ब्लोसफ़ेल्ट के चित्र कुछ ऐसी जादुई चालों से युक्त हैं जैसे आपको हाथ की सफाई का आभास भी न हो और अचानक जादूगर की टोपी में से खरगोश निकल आने से आप अचंभित रह जायें। आप दिग्भ्रमित हो जाते हैं, कला और प्रकृति में अंतर करने योग्य नहीं रह जाते, आपकी व्यवहारिक बुद्धि कुछ देर के लिए आपका साथ छोड़ देती है। आप कला की प्रकृति क्या समझेंगे जब आप प्रकृति की प्रकृति ही नहीं समझ पा रहे हैं। और बात जब उस मानव शरीर की हो जिसकी भूमिका प्रकृति और संस्कृति के बीच मध्यस्थ जैसी रही है तो यह तथ्य और भी स्पष्ट हो जाता है।

यह वह अंतर्निहित तत्व है जो सब विकृतियों के भीतर एक समान रूप से उपस्थित रहता है, चाहे वह एक शव हो या जीवित देह की अस्थियों से निर्मित कला। मेरे लिए जो उत्सुकता का विषय है वह यह कि इन सबकी खोपड़ी अनुपस्थित क्यों होती है। वह दाँत फाड़ता हुआ दुष्ट व्यक्ति जो हमारी बाल्यावस्था की सभी मृत्यु संबन्धित परिकल्पनाओं का केंद्र होता था, कहाँ है। आश्चर्य है कि एचावारिया के कृतियों में यह खोपड़ी कहीं दिखाई नहीं देती, और प्रकट रूप से किसी विकृति में भी नहीं। अंगभंग करने वाले कोलम्बियन ने उन खोपड़ियों का क्या किया? हमें मृत्यु का चेहरा दिखाई क्यों नहीं देता? (जैसे शेक्सपियर के प्रसिद्ध नाटक हैमलेट में राजकुमार हैमलेट यौरिक की खोपड़ी देखकर उससे संबन्धित आत्मीय बातें याद करता है , और कहता है) “अलास पुअर यौरिक”। निश्चित तौर पर मानव अस्थियों पर आधारित कला के दूसरे रूपों में, एक वर्ग को नामित करने के लिए, कपाल का एक सम्मान जनक स्थान होता है, इसकी खोखली आँखें अतीत की याद दिलातीं हैं। समुद्री डाकुओं के झंडे पर भी खोपड़ी और हड्डियों से बने क्रॉस का निशान होता था, जिसे कई राष्ट्रों के हर उम्र के बच्चों ने बहुत प्यार दिया। वास्तविक डिज़ाइन की चित्रकारी तो अक्सर बुरी तरह से त्रुटिपूर्ण होती है — लेकिन जब तक हवा इस झंडे को फहराती है और प्रकृति प्रदत्त सजीव गति प्रदान करती है इसकी डिज़ाइन से कुछ फर्क नहीं पड़ता है। वहाँ उसके पीछे की भावना और विचार सर्वोपरि है।

फर्क न पड़ने का एक दूसरा कारण भी है, जलदस्युओं का यह झण्डा एक प्रतिगामी विचारधारा का प्रतीक है- यह न केवल किसी भी राष्ट्र से असम्बद्ध होने का प्रतीक है बल्कि दूसरे सभी चिन्हों के नकार का चिन्ह है और इसी भाव का प्रतिनिधित्व भी करता है। यदि इस अराजक चिन्ह में से मील हटा दिये जाएँ तो ये बथाय द्वारा अगस्त 1930 में रोम के कैपूचिन कैटाकोम्ब्स के दस्तावेजों में प्रस्तुत उन चित्रों जैसे ही लगेंगे जिनमें 1528 से 1870 के बीच मारे गए 4000 लोगों की खोपड़ियाँ और हड्डियाँ चित्रित हैं। सारे चित्र ऐसे हैं जिन्हें देखकर आपके मुँह खुले के खुले रह जायेंगे। सब खोपड़ियों को बहुत सावधानी के साथ एक दूसरे के बगल में सजाया गया है लेकिन उनकी संख्या इतनी ज़्यादा है कि वे अपनी वैयक्तिकता खो बैठी हैं, अधोलोक के एक सपने के दूसरे छोर का हिस्सा भर लगती हैं जैसे समुद्री दीवार पर बने एक जैसे असंख्य सफ़ेद गढ़े ।

इसमें कोई शक नहीं कि यह कला है। थोड़ा तमाशा और थोड़ी हृदयानुभूत धार्मिक भावनाओं का मिश्रण। चेक रिपब्लिक के सेडलेक असुअरी इस अस्थि कला को एक और पायदान ऊपर ले जाते हैं। वे इसे शुद्ध आडंबर में रूपांतरित कर देते हैं। हड्डियों से उनका सब श्रद्धामय व धार्मिक शक्ति सम्बन्ध जिसने बथाय को इतना प्रभावित किया था, बाहर निकाल कर उस विलक्षणता का सम्पूर्ण निष्कासन कर देते हैं। उदाहारण के तौर पर अरुचि से आकर्षण तक होने वाला कंपन। ऐसी गति या संचार जो सामान्य तौर पर अंगभंग के हर कृत्य के पीछे, विशेष तौर पर एचावारिया द्वारा प्रस्तुत द फ्लावर वाज़ कट जैसी कृतियों में उपस्थित था । जहाँ तक कार्टून और हिंसा का सम्बन्ध है सेडलेक का आडंबर यह दर्शाता है कि मृत्यु के कालिमामय मुख और हास्यास्पद चेहरे के बीच कितनी महीन विभाजक रेखा है। वही रेखा जिसे बथाय बार बार पार करते हैं इस बात कि खोज करते हैं कि कैसे पवित्रता के अधिशेष की तैयार फसल काटने के लिए एक संत की अस्थियाँ एक घिनौनी लाश से निकाल कर चर्च के महिमामय शीर्ष पत्थर या पवित्र वेदी तक पहुंचा दी जाती है। जहाँ हर कोई चर्च के कब्रिस्तान में ही दफ़्न है वहाँ इस तरह की घटना को थोड़े कम पैमाने पर अधिनियमित रूपांतरण कह सकते हैं। अंग भंग भी ऐसा ही आंदोलन है, इसका प्रतिगामी है लेकिन ज़रा भी कम धार्मिक नहीं है।

लेकिन सिरविहीनता? पुष्प और मृत्यु

बहुत संभव हैं कि पुष्प वस्तुतः मनुष्य की अस्थियाँ हों । क्योंकि फ्लावर वाज़ कट की विकृतता यही संप्रेषित करती है कि ईसाई जगत में पुष्प और मृत्यु साथ- साथ चलते हैं, उनके कब्रों और अंतिम संस्कार में फूलों का बहुतायत से प्रयोग होने का एक लंबा इतिहास है, तथापि फूल मृत्यु ही नहीं जीवन को भी सलामी देते हैं जैसे जन्मदिवस के अवसरों पर। संभवतः पुष्पों का मृत्यु के अवसर पर बहुत प्रयोग उन्हें जीवन के वाहक के रूप में देखे जाने का प्रतीक है। और चूंकि हमारे दैनंदिन जीवन और रस्मों रिवाजों में जीवन और मृत्यु के इस संयोजन का इतने स्वाभाविक किन्तु अतिशय तिरस्कारपूर्ण, असभ्य, क्रूर और उत्थानकारक तरीके से प्रवेश हो गया है जैसे अतल शून्य में गिरने की वह घटना जो हम कार्टून और हिंसा की मिलीभगत में देखते हैं। “फूल काले नहीं होते हैं” जीन जेनेट पाप और नियमभंग के संदर्भ में लिखती हैं। “लेकिन फिर भी उसकी कुचली हुई उंगली के अंत में वह स्याह हुआ नाखून काले फूल जैसा लग रहा था।“ कोलम्बिया में जीवन और मृत्यु के इस मिश्रण ने पिछले तीस वर्षों में अर्थ के नए आयाम पा लिए हैं, बोगोटा के मैदानी इलाकों से आयातित गार्डेनिया और गुलाबों की सुंदरता और प्राचुर्य और साथ ही मृत्यु की दलाली भी । अकूत दौलत कमाने के लिए निचली भूमि में कोका पौधे से संसाधित कोकीन और हेरोइन और पर्वतों में सुंदर पौपी (अफीम)। ‘हर्र’ पुष्पों के अस्तित्व में जीवन और मृत्यु की यही भागीदारी देखते हैं, जब वे वियतनाम युद्ध के दौरान साइगोन शहर की हालत का ज़िक्र करते हैं। “साइगोन में ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि हम एक विषैले पुष्प की मुड़ी हुई पंखुरियों के भीतर बैठे हैं। आप कितने भी पीछे चले जायें इसका जहरीला इतिहास आपका पीछा नहीं छोड़ेगा क्योंकि यह तो इसकी जड़ों में सींचा गया है।“

पुष्प बिलकुल जीवन की तरह ही सुंदर और नश्वर होते हैं और शायद यही कारण है कि लोग इन्हें मृत्यु और विनाश से जोड़ कर देखना उपयुक्त समझते हैं। यह संदेश सबसे जोरदार तरीके से 22 सितंबर 2001 को बारबरा स्टीवर्ट द्वारा लिखित और न्यूयॉर्क टाइम्स में प्रकाशित एक लेख में संप्रेषित हुआ, यह लेख वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमले के संदर्भ में लिखा गया था। उन्हें उन दिनों शहर में हर जगह बहुतायत में फूल दिखाई देने लगे थे, फूलों की चार- चार, पाँच- पाँच परतें । वे हर कहीं थे, अग्निशामक स्टेशन के मुख्य द्वार पर,चर्चों में, पार्क की घास, खिड़कियों और फ़ुटपाथों पर बने अनौपचारिक पवित्र स्थलों पर हर जगह फूलों की भरमार होने लगी थी। इस बात ने उनका ध्यान उन छोटे छोटे बगीचों की तरफ भी खींचा जो पूरे शहर में पिछले एक दशक के दौरान बना दिये गए थे । शहर की पृष्ठभूमि पर ये फूल उसे बहुत बेमेल लगते थे। “हृदयविदारक ढंग से चटख और भंगुर।“ “पुष्पों से अधिक नश्वर और कोमल और क्या हो सकता है?” उनके ज्ञापक, जिनका नाम उनके कार्य के अनुरूप, माइकल पोलन है, पूछते हैं। पोलन को वे वनस्पति शास्त्र का लेखक और दार्शनिक मानती हैं। साथ ही वे फूलों के व्यर्थ माने जाने के पीछे छिपे हुए उनके मूल्य के विषय में मिस्टर पोलन के द्वारा कही हुई इस बात को पूर्ण सहमति से दोहरातीं हैं, “पुष्प एक विलासिता हैं। वे उपयोगी नहीं हैं, आप तब तक फूलों के विषय में नहीं सोचते हैं जब तक अपने जीवन की दूसरी समस्याओं को सुलझा नहीं लेते।“ उनके प्रश्न, ”पुष्पों से अधिक नाज़ुक क्या है” – यह प्रश्न भी हमें एक फूल जैसा ही लगता है, शब्दाडंबर पूर्ण बेकार प्रश्न। लेकिन जैसे ही विपत्ति प्रहार करती है, अनुपयोगी भी उपयोगी साबित हो जाता है।

परिशिष्ट भाग

1969 से कई बार कोलम्बिया जाना हुआ लेकिन मैंने इससे पहले कभी एचावारिया के फ्लावर वाज़ कट नाम की कलाकृतियों के बारे में नहीं सुना था, और अब मैं इस सूचना की आवृत्ति से हैरान हूँ। एचावारिया अपनी कलाकृतियों का आधार 1978 में प्रकाशित एक पुस्तक को मानते हैं जो 1948-1964 के दौरान तोलिमा क्षेत्र में हुए बहुत वृहत स्तर पर घटित नरसंहार पर आधारित थी। यह सुनिश्चित करने के लिए कि पाठक सभी प्रकार के अंग भंग को भली भांति समझ सकें यह पुस्तक 11 पूरे पन्ने के ऐसे मानव रेखाचित्र प्रस्तुत करती है जैसे रेखाचित्र निशानेबाज़ी के अभ्यास के दौरान प्रयोग किए जाते हैं। पहली दृष्टि में ये रेखाचित्र बचकाने चित्र लगते हैं जिनसे एक प्रकार की नैदानिक अनासक्ति टपकती हुई प्रतीत होती है। अब मैं कल्पना करता हूँ कि पुलिस और शवपरीक्षा करने वालों के पास लाशों के ऐसे ही चित्र होते होंगे, ये चित्र मुझे डरावने और अस्थिर करने वाले प्रतीत होते हैं। वैसे ही जैसे कार्टून हिंसा के साथ एक विवादास्पद और भयप्रद संबंध रखते हैं, बच्चों द्वारा की गयी मनुष्य आकृतियों की चित्रकारी के परिपक्व लोगों द्वारा किये गये स्वायत्तीकरण में भी पुलिस और पोस्टमार्टम करने वालों जैसे अनुभव परस्पर व्याप्त रहते होंगे। और शायद इसलिए भी कि ये रूप वास्तविकता से असम्बद्ध होते हैं, इतने स्पष्ट रूप से, इतने सप्रयास रूप से अवास्तविक फिर भी भीषण रूप से वास्तविक – इतने कि ये क्लिनिकल सेटिंग में इस्तेमाल किए जाते हैं — कि ये भूतों की तरह भयाक्रांत करने की शक्ति उत्पन्न कर लेते हैं? ये रेखाचित्र पूरी तरह जीवनरहित हैं, मनुष्य की बाह्याकृति के ये रेखाचित्र एक ऐसा भयावह खालीपन रचते हैं जैसा कोई भी अंग-भंग का वाकया या कार्टून अब तक उत्पन्न नहीं कर पाया। यहाँ प्रकृति में कला और प्रकृति की कला के प्रत्यय एक जोरदार धमाके के साथ ढहते और आपस में जुड़ जाते हैं ।

थॉमस हॉब्स हमारे सामने एक दूसरा गोरखधंधा प्रस्तुत करते हैं। उन्होंने यह दावा किया था कि हिंसा प्रकृति की एक अवस्था है, और उनके उस प्रसिद्ध अनुबंध का जितना आभार प्रकट किया जाए उतना कम है जिसके कारण हिंसा राज्य की प्रकृति हो गयी। जब मैं म्यूटिस की तरफ देखता हूँ और पाता हूँ कि कैसे प्रकृति में अंतर्निहित कला प्रकृति की कला में रूपांतरित हो गयी, मैं एक तरह से हॉब्स के रूपान्तरण को फिर से जी रहा होता हूँ। हॉब्स का अनुबंध एक कथा मात्र है। यह कभी यथार्थ में घटित नहीं हुआ। लेकिन फिर भी हर चीज़ इस दिशा में ही साजिश करती लगती है जैसे यह अनुबंध वास्तव में हुआ है। और यह वह ताकतवर लट्ठ है जिसके सामने कानून की सत्ता मुअत्तल हुई पड़ी है। इसीलिए हम इसे एक मिथ्या कथा नहीं अनिवार्य कथा कहते हैं, एक राज्य, अंततः, महान कला का साम्राज्य। इसलिए वह राज्य जिसे मानवता का सबसे महान आविष्कार और संस्था कहा जाना चाहिए वह भी बहुत निष्ठापूर्वक महान कला का उत्पाद होने का दावा प्रस्तुत कर सकता है। निश्चित रूप से जहां प्रकृति में कला और कला में प्रकृति का समायोजन व्यक्ति के लिए हिंसा की स्थायी चेतावनी के रूप में प्रकट हुआ हो, ऐसा हो सकता है । तब मृत्युदंड क्या है? क्या यह अपने आप में अंगभंग के नियम का ही उदाहरण नहीं है? ‘हिंसा की आलोचना’ में, वाल्टर बेंजामिन कहते हैं, कि यह राज्य द्वारा स्थापित हिंसा का दोहराव मात्र है। दरअसल इस निबंध का शीर्षक ‘हिंसा की आलोचना’ के दोनों मतलब हो सकते हैं, हिंसा की आलोचना और सत्ता की आलोचना। एक शब्द GEWALT (हिंसा) अपने भीतर दोनों शब्दों का अस्थिर मिश्रण समेटे है, वैसे ही जैसे म्यूटिस /एचावारिया। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो, हम इस सत्ता के द्वारा प्रायोजित हिंसा को वास्तविक मानव संघर्ष मान सकते हैं, जिसमें से अधिकतर हॉब्स के समय में घटित हुआ था, जिसमें राजा के खिलाफ हुई खूनी हिंसा भी शामिल है। फिर भी हम इस स्थापित हिंसा को प्रकृति में कला और कला की प्रकृति के अस्थिर संयोजन की तरह विचारणीय मान सकते हैं, जहां हिंसा सत्ता में तब्दील हो जाती है। अंततः अब यह रहस्य सुलझा लिया गया है — कि शक्ति हमेशा सही होती है। यह अगर बहुत ठोस नहीं तो एक विलक्षण उपलब्धि तो मानी ही जा सकती है।

एचावारिया के फूल मेरे लिए यही अर्थ रखते हैं और इसीलिए चक जोन्स जानवरों के मानवीकरण को इन्सानों के मानवीकरण से अधिक आसान पाते हैं ।

(‘वाल्टर बेंजामिन्स ग्रेव’ नामक पुस्तक से) अनुवाद- अनुराधा सिंह