फौजी की ताकत नागरिक का चरित्र / जयप्रकाश चौकसे

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फौजी की ताकत नागरिक का चरित्र
प्रकाशन तिथि : 18 जून 2020


जब चीन ने पहली बार विश्वासघात किया था, तब चेतन आनंद तत्कालीन पंजाब के मुख्यमंत्री से मिले और विश्वासघात पर फिल्म बनाने के लिए आर्थिक मदद मांगी। उन्हें तत्काल ही धन उपलब्ध करा दिया गया। सरकार द्वारा तत्काल लिए फैसले के दिनों को हम याद करते हैं। चेतन आनंद के पास कथा का खांका तो था परंतु उन्होंने पटकथा लिखी नहीं थी। जब चेतन आनंद को लद्दाख में शूटिंग की इजाजत मिली, तब उन्होंने बलराज से सहयोग मांगा। दोनों दिन भर शूटिंग के बाद, रात को अगले दिन शूट किए जाने वाले दृश्य लिखते थे। इस तरह ये तुरंत लिखी पटकथा शूटिंग के साथ लिखी गई। इस तरह चेतन आनंद सिनेमा के आशु कवि माने गए। उस युद्ध में चीनी सैनिक नारा लगाते ‘हिंदी चीनी भाई-भाई’ उनके बारूद से अधिक मारक यह नारा था। शबाना आजमी बताती हैं कि किस तरह चेतन आनंद कैफी आजमी को अपने गीत का विचार चंद शब्दों में बयान करते थे, जिसके बाद उनके बीच खामोशी पसर जाती थी। कुछ देर बाद कैफी आजमी गीत लिखकर चेतन आनंद को दे देते थे। उनका रिश्ता उन्हें शुक्रिया बोलने की इजाजत नहीं देता था। आंखो ही आंखों में संवाद होता था और गीत के जन्म पर ढोल-ताशे पीटे नहीं जाते थे। ‘हकीकत’ युद्ध से अधिक आहत सेना की टुकड़ी की वापसी रिट्रीट की कथा प्रस्तुत करती है। भूखे-प्यासे जख्मी जवान बेस कैम्प लौटते हैं। पश्चिम में युद्ध फिल्में बनी हैं और रूस में ‘बैलेड ऑफ ए सोल्जर’ और ‘द क्रेन्स आर फ्लाइंग’ जैसी क्लासिक फिल्में बनी हैं। इंग्लैंड में युद्ध के समय की गई जासूसी पर फिल्में बनी हैं। देशों का मिजाज उनकी युद्ध पर बनी फिल्मों से भी अभिव्यक्त होता है।

1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध से प्रेरित जे.पी दत्ता की फिल्म ‘बॉर्डर’ अत्यंत सफल फिल्म रही थी। उनकी दो दर्जन सितारों वाली ‘एलओसी’ अपेक्षाकृत कमजोर रही। यह आश्चर्य है कि हमारी युद्ध फिल्में गीत-संगीत के दम पर सफल होती हैं। हमारा मिजाज तो कुछ ऐसा है जैसे युद्ध में टूटी हुई तोप के दहाने पर एक नन्हीं चिड़िया ने घोंसला बनाया हो।

युद्ध पर अनगिनत किताबें लिखी गईं और फिल्में भी बनी हैं परंतु बर्नाड शॉ की रचना ‘आर्म्स एंड द मैन’ अलग नजरिया प्रस्तुत करती है कि व्यवसायिक दृष्टिकोण रखने वाला फौजी युद्ध के समय स्वयं को बचाने को प्राथमिकता देता है। उसके लिए दुश्मन को मारने से अधिक जरूरी है स्वयं को बचाए रखना। बर्नाड शॉ के दौर में फेस बुक नही था अन्यथा बेशुमार ट्रोल होते। ट्रोलिंग एक हथियार है। दूसरे विश्व-युद्ध से प्रेरित एक फिल्म में एक अंग्रेज फौजी बर्लिन में कैद है। पहरेदार की सूरत कैदी से मिलती है। योजना बनाई जाती है कि जर्मन व्यक्ति को इंग्लैंड भेजा जाएगा। वह वहां की फौज की खबर जर्मनी को देगा। योजना के क्रियान्वयन से कुछ पहले अंग्रेज फौजी अपने जर्मन हमशक्ल को घायल कर देता है। इंग्लैंड पहुंचने पर उसे अंग्रेज पुलिस से बचाना है और साथ ही ब्रिटेन में तैनात जर्मन गुप्तचरों से भी बचना है, जिन्हें ज्ञात हो चुका है कि दरअसल कौन स्वदेश लौटा है। इसी रचना से प्रेरित गुलशन नंदा के उपन्यास पर बन रही फिल्म ‘वापसी’ अधूरी रही। फिल्म का एक गीत ये ‘कंकर पत्थर की दुनिया, जज्बात की कीमत क्या जाने, दिल मंदिर भी है, मस्जिद भी है-यह बात सियासत क्या जाने।’

चीन के दो उद्देश्य हैं- एक तो उनकी फौज को युद्धाभ्यास होगा और दूसरा भारत की लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था को करारी चोट पहुंचाई जाए। हमारा सोचना तो यह है कि ‘समरथ को नहीं दोष गुसाईं।’

हकीकत का गीत है- ‘कर चले हम फिदा जानो-तन साथियों, अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों। जिंदा रहने के मौसम बहुत हैं मगर, जान देने की रुत रोज आती नहीं। हुस्न और इश्क दोनों को रुसवा करे, जो जवानी खूं में नहाती नहीं।’