बंद मुट्ठी में चाकलेट / स्वाति तिवारी

Gadya Kosh से
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अभी ठीक से नींद खुली भी नहीं थी कि किसी ने फोन घनघना दिया। एक बार तो मन में आया, बजने दूं अपने आप बंद हो जाएगा। सुबह-सुबह कौन नींद खराब करे। सर्द रात में सुबह-सुबह ही तो अच्छी लगती है नींद, जब बिस्तर गरमा जाता है रातभर में। एक बार बाहर निकले कि गई गरमाहट।

“लो तुम्हारा फोन है...” माथे पर होठों का स्पर्श करते हुए मलय ने जगाया था।

इतनी सुबह...उ... ऽऽऽ...कौन है?

तुम ही देख लो।”

“हैलो, जन्मदिन मुबारक हो!”

“थैक्यू, थैक्यू! मैं हांफने लगी बगैर दौड़े ही।

“मैं आ रहा हूँ दिल्ली, आज का दिन तुम्हारे साथ बिताने...।” उधर से आई आवाज में पिछले पचासवां जन्मदिन है, याद है बचपन में एक बार मैं तुम्हारा जन्मदिन भूल गया था।”

“हां तो ?”

“तब तुम्हारा गुस्सा...तौबा-तौबा!

“ ऽऽऽ...।”

“ तब तुमने वादा लिया था कि तुम्हारा जन्मदिन कम से कम पचास साल तक नहीं भूलूं... तो कैसे भूलता यह पचासवा जन्मदिन?

“ओह! तुम भी ना ...।”

मैने फोन रख दिया। अच्छा हुआ मलय अखबार और मेरे लिए चाय का प्याला लेने चले गए थे, वरना झूठ बोलना मुश्किल होता।

उठकर बैठी तो पंलग के पास ड्रेसिंग टेबल पर एक गिफ्ट पैक और गुलाब के फूल रखे थे और जनाब चाय लिए खड़े थे।

“हैप्पी बर्थ, डे...।”

“मैं तो भूल ही गई थी, वो तो अभी...” बोलते-बोलते चुप हो गई थी मैं।

“किसका फोन था?”

“मेरे ऑफिस... वो नया कम्प्यूटर इंजीनियर आया था न संजीव, उसी का।”

“ओह! तो जनाब हमसे पहले बाजी मारना चाहते थे बर्थ-डे विश करके...क्यूं?

“आप भी न मलय...बाज नहीं आएंगे, अपनी मसखरी से ! “

“पर बर्थ-डे बेबी... हमने तो रात में बारह बजे ही बर्थ-डे विश कर दिया था...हमसे नहीं जीत सकता कोई !” मलय मजाक ही मजाक में अपनी बात कह गए थे।

“क्या मलय आप भी...वो मुझसे दस साल तो छोटा होगा उम्र में, मेरे बेटे से थोड़-सा बड़ा दिखता है बस... “ पर थैंक्स संजीव, तुम्हारा नाम याद आ गया वक्त पर, वरना मलय को बताती कि फोन शेखर का था... तो उनका मूड सारा दिन ऑफ रहता । वो आ रहा है यह बता देती तो शायद पूरे हफ्ते या शायद पूरे महीने ही...

मलय से झूठ बोलना इतना आसान नहीं और झूठ बोलना भी कोन चाहता है? पर कभी-कभी अनचाही परिस्थितियां आदमी को झूठ बोलने पर मजबूर कर देती हैं। घर की शांति बनी रहे और जिसके साथ जीवनभर का रिश्ता है उसे दुःख भी न पहुंचे, यही सोचकर झूठ बोलना पड़ा। मलय और शेखर मेरे जीवन के दो किनारे बन कर रह गए और मैं दोनों के बीच नदी की तरह बहती रही जो किसी भी किनारे को छोड़े तो उसे स्वयं सिमटना होगा। अपने अस्तित्व को मिटाकर, क्या नदी कभी किसी एक किनारे में सिमट कर नदी रह पाई है? बचपन का एक साथी सपनों का हमसफर ही बन पाया था कि दूसरा जीवनभर के लिए हमसफर बन गया। एक ने सात फेरे में सात जन्मों के वचन ले लिए तो दूसरा छूटते हाथ से केवल एक वादा ही कर पाया था जब भी मिलेंगे अच्छे दोस्त बनकर ही मिलेंगे। जीवन के हर सुख-दुःख में अ.श्य साथ खड़े रहेंगे। वादे के साथ तमाम लक्ष्मण रेखाएं दोनों ने अपने बीच खींच ली थीं, और उम्र के पचास सालों में कभी नहीं लांघा और लांघने से मिलना ही क्या था? एक-दूसरे की नजरों में हमेशा सम्मान देखने की इच्छा से ज्यादा शायद कुछ नहीं चाहा था हमने। मर्यादा की लक्ष्मण रेखाएं अ.श्य होती हैं। दूसरे कहां देख पाते हैं! रिश्तों की मर्यादा को देखने से ज्यादा जरूरी होता है समझना! पर उसके लिए अंतर्.ष्टि चाहिए। उसने कितनी सच्चाई से, खुलेपन से मलय को बताया था कि शेखर उसका बचपन का दोस्त है।

पर मलय ने शेखर को वह सम्मान नहीं दिया जिससे वह पारिवारिक रिश्तों में जगह पा सके और तब से शेखर से बात होती भी तो वह बताने से टाल जाती। एक औपचारिकता भर गया था दिल से जुड़ा यह रिश्ता।

और फिर पिछले सालों से तो लखनऊ छोड़ ही दिया था उसने, मलय का प्रमोशन दिल्ली होते ही । शेखर से बस कभी-कभार ही फोन पर बात होती। आठसाल पहले लखनऊ छोड़ते वक्त मुलाकात हुई थी कॉफी हाऊस में। शेखर ने विदाई भोज का निमंत्रण भी दिया था पर अगली बार कहकर टाल दिया था। जानती थी मलय नहीं जाएंगे और मैं अकेले कहीं नहीं जाती लंच या डिनर पर।

इन आठ सालों में कितना कुछ था जो बैठकर बांटना था शेखर के साथ। बाबूजी के जाने के बाद एक वही तो है जिससे कई मसलों पर राय-मशवरा करने से राहत मिलती है मन को। मलय की और बच्चों की शिकायतें, मलय की अच्छाइयां, भाई-बहनों से बढ़ती दूरी, चचेरे, ममेरे रिश्ते वह बचपन से सभी विषयों पर शेखर से बात करती रही है। मलय मेरे जीवन, मेरे घर हर क्षेत्र से जुड़े हैं, कोई भी बात मलय को बताने से वे प्रभावित होते हैं और मैं नहीं चाहती कि मलय परेशान हों। शेखर को बताने से वह अभिन्न मित्र होने के बावजूद एक द्रष्टा की तरह उस बात को देखता और राय देता है। एक अंतर्.ष्टि की तरह जरूरी होता है जीवन में ऐसा द्रष्टा । नाश्ता और खाना बनाते-बनाते मैं अनमनी-सी ही रही। एक उथल-पुथल थी मन में।

हजारों किलोमीटर का लंबा सफर तय करके कोई मुझे पचासवें जन्मदिन पर बधाई देने आ रहा है... इस ख्याल ने उम्र को सोलहवें साल-सा खुशनुमा बना दिया। पर मन ही मन कुढ़ती रही, क्योंकि पचास साल की उम्र में भी मैं एक पढ़ी-लिखी कामकाजी आधुनिक स्त्री सामाजिकता के दायरों में भी वही परंपरागत डरपोक भारतीय नारी जो पति की पसंद-नापसंद से आगे कोई सोच नहीं रखती। भीरू स्त्री जो घर को शक के दायरों से बचाने और अपने सतित्व को सिद्ध करने से ज्यादा कोई हैसियत नहीं रखती। पच्चीस साल की बेटी, बीस साल के जवान बेटे की मां जो परिवार के हर सदस्य के जन्मदिन पर उनके दोस्तों को दावत देती रही पर अपनी उम्र के पचासवें वर्ष तक अपनी पसंद के एक व्यक्ति को चाय पर भी घर आमंत्रित नहीं कर सकी। मलय से बात करूं या न करूं, इसी ऊहापोह में अनिर्णय के साथ दफ्तर जा बैठी। चार बजे तक शेखर को नहीं बता पाई कि मैं कहां मिलूंगी।

“छह बजे मेरा राजधानी एक्सप्रेस का टिकट है वापसी का। क्या तुम मिलना नहीं चाहती अनु?”

“ नहीं शेखर ऐसा नहीं हैं थोड़ा सिरदर्द है। तुम्हें तो पता है इन दिनों मुझे माइग्रेन रहता है। हाँ, ऐसा करो चाणक्यपुरी से आगे मेरा दफ्तर ग्रीन पार्क में है, मैं बीस मिनट बाद वहीं नीचे वाली कैंटीन के बाहर मिलती हूं। तुम्हें भी बीस मिनट आने में लगेंगे... ओ.के.।”

जैसे ही नीचे उतरी सामने से आते शेखर को देख लगा जैसे बांहे फैलाएं चला आ रहा है। मन हुआ कि मैं भी दोड़कर उसके पास पहुंच जाऊं। पास पहुंची तो उसने रजनीगंधा की एक कली देते हुए कहा, “ हैप्पी बर्थ-डे अनु।”

और मैंने अपनी हथेली में दबाई अपने नातिन की चाकलेट सामने कर दी। मुंह मीठा करो शेखर।”

“ वाह! तो तुम अब भी चाकलेट खाती हो।”

“हां, नानी हूं न गुड़िया की। उसके साथ खानी पड़ती है।”

“कैसी हो तुम?”

“ मैं ठीक ही हूं।”

“थोड़ी दुबली हो गई हो।”

“तुम भी तो दुबले लग रहे हो । “

“चलो छोड़ो।”

“जानती हो मैं आज पूरा दिन तुम्हारे साथ बिताना चाहता था... पर तुमने लिफ्ट ही नही दी।”

“कुछ कहूं।”

“ नहीं, कुछ मत कहो तुमसे मिलने का वादा था मेरा, पूरा हुआ। मेरी टैक्सी खड़ी है सामने, हो सके तो वहां तक साथ चलो।”

“चलती हूं वहीं से मुझे मेट्रो पकड़नी है।”

“तुम आज ऑफिस से छुट्टी नहीं ले सकती थी?”

“सब कुछ जानते-समझते हो, तब यह प्रश्न क्यों?

शेखर ने अपनी मुस्कराहट से खुद ही मेरे उत्तर की जगह भर दी थी।

“ फुटपाथ पर चलते हुए तुम्हें डर तो नहीं लगेगा अनुु ?” शेखर ने बचपन की तरह छेड़ा था।

“ तुम साथ हो न किसी से डर नहीं लगेगा।”

कह तो दिया पर मन ही मन डर रही थी, कहीं मलय मेट्रो स्टेशन के सामने गाड़ी लेकर आ गए तो।

शेखर ने पूछा, “चलें।”

“हां।”

मेरे दफ्तर से मेट्रो स्टेशन ज्यादा दूर नहीं है।

थोड़ा-सा ही चलना था, मैं शेखर से बात करते हुए चलती रही। बातें बेमानी थी मात्र औपचारिक सूचनाओं जैसी, लेकिन साथ चलने का अहसास एकदम अलग था। लगा इन चंद पलों में शेखर के साथ पूरा दिन गुजार देने का अहसास है। साथ चलते वे चंद कदम कितनी लंबी दूरी तय कर रहे थे। बचपन से अब तक! शायद हमारे मन कदम-दर-कदम साथ चलते रहे।

“ मैं तुम्हारे लिए रजनीगंधा की एक सौ एक कलियां लाना चाहता था पर केवल एक ही ला पाया।” शेखर के इन शब्दों में वेदना थी या कसक या शायद दोनों का मिला-जुला भाव था।

“ नहीं शेखर! एक सौ एक कलियां हो या केवल एक, हैं तो दोनों भावनाओंकी प्रतीक ही न ? फिर एक कली तों आसानी से मेरे पर्स में मेरे बालों कहीं रखकर घर तक ले जाई जा सकती है। अच्छा हुआ, एक ही लाए, ज्यादा लाते तो कहां रखती। शुभकामनाएं यहां-वहां तो नहीं पटक सकते न और इस एक कली में तुम्हारी सारी शुभकामनाएं हैं।”

' मेरे लिए यह रजनीगंधा की एक तुड़ी-मुड़ी कली नहीं फूलों की बहार है शेखर।' कहना तो यही चाहती थी पर कहा नहीं।

“ शेखर! तुम्हें लंच, डिनर तो दूर एक कप कॉपी भी ऑफर नहीं कर पाई।”

“ कोई फर्क नहीं पड़ता, यह चाकलेट है ना।” शेखर ने उस चाकलेट को अपनी जेब में रखा।

“ जानती हो, यह चाकलेट नहीं, हमारे रिश्ते की मिठास है। इससे मीठा कुछ भी नहीं।”

हाथ हिलाते हुए शेखर ने विदा ली।

मेट्रो से घर पहुंचने तक रजनीगंधा की कली हथेली पर महकती रही, जिसकी महक अगले पचास साल और जीने कीर इच्छा जगा गई।