बंसी : वसंत ढोबले और चुलबुल पांडे / जयप्रकाश चौकसे

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बंसी : वसंत ढोबले और चुलबुल पांडे
प्रकाशन तिथि : 17 जनवरी 2013

आजादी के पहले बनी फिल्मों में पुलिस के पात्र कर्तव्यपरायण और अंग्रेजों की नीतियों का पालन करने वाले पात्र रहे हैं। वी. शांताराम की 'आदमी' का पुलिस नायक तो साहसी और समर्पित प्रेमी भी है और तवायफ से शादी करने का हौसला भी रखता है। आजादी के बाद की फिल्मों में पुलिस पात्र कमजोर कर दिए गए हैं। न वे कर्तव्यपरायण हैं और न ही समर्पित प्रेमी तथा प्राय: अपराध घटित होने और नायक द्वारा खलनायक की भरपूर पिटाई के बाद ही घटनास्थल पर खानापूर्ति के लिए आते हुए दिखाए गए हैं। इफ्तेखार और कमल कपूर ताउम्र फॉर्मूला छवि के पुलिस अफसरों की भूमिकाएं करते रहे। 'जंजीर' में अमिताभ बच्चन अभिनीत पुलिसमैन जांबाज व्यक्ति है और व्यक्तिगत बदले की आग में जल रहा है। 'दीवार' में शशि कपूर अभिनीत इंस्पेक्टर अपने सगे भाई को भी रियायत देने को तैयार नहीं है। दरअसल यह पुलिसवाला दिलीप कुमार और उनके भाई नसीर अभिनीत 'गंगा जमना' के पुलिसवाले की ही सातवें दशक की कड़ी है, जैसा कि 'गंगा जमना' का डाकू नायक 'दीवार' में स्मगलर के रूप में सामने आता है और इसके तकरीबन दस बरस बाद दिलीप कुमार अनुशासनबद्ध कर्तव्यपरायण अफसर हैं, जिन्होंने उस समय भी अपराधी को नहीं छोड़ा, जब उनका अपना मासूम अबोध बेटा अपराधी की कैद में था। यह फिल्म भी सलीम-जावेद की लिखी 'शक्ति' है, जिसकी प्रेरणा उन्हें अशोक कुमार अभिनीत वर्ष १९५० के आसपास प्रदर्शित 'संग्राम' से मिली थी। 'शक्ति' में अफसर का बेटा गलतफहमी का शिकार है और आखिरी रील में अफसर पिता की गोली सीने में खाने के बाद समझ पाता है कि उसके पिता उसे प्यार करते हैं।

प्रकाश झा की 'गंगाजल' में अजय देवगन अभिनीत पुलिस अफसर का पात्र अत्यंत विश्वसनीय है। वह समान न्याय के लिए अपराधी और अपने भ्रष्ट नेता से भी भिड़ सकता है, परंतु उसका आखिरी संघर्ष उसके अपने मातहतों से है, जो उसकी निष्ठा से प्रेरित हैं, परंतु अपराधी को न्यायालय तक ले जाने में यकीन नहीं करते। वे उसे अंधा कर देते हैं, गोयाकि अंधी न्याय-व्यवस्था के प्रति अपना आक्रोश अभिव्यक्त कर रहे हैं। अब अफसर अजय देवगन को अपने ही मातहतों को समझाना है कि कानून हाथ में लेना उनकी अपनी वफादारी की शपथ के खिलाफ जाता है। वह एनार्की अर्थात अराजकता के खिलाफ है और अपराध के भी खिलाफ है।

गौरतलब है कि अजय देवगन अभिनीत अफसर 'सिंघम' में कानून अपने हाथ में लेता है, गोयाकि वह वही आचरण कर रहा है, जिसकी मुखालिफत उसने 'गंगाजल' में की थी। फिल्मों में इस तरह के उलटफेर होते रहते हैं। राज कपूर 'आवारा' में कहते हैं कि जन्म नहीं लालन-पालन से और सामाजिक परिवेश से चरित्र बनता है, परंतु उनके द्वारा निर्मित और सुपुत्र रणधीर कपूर द्वारा निर्देशित 'धरम करम' में 'आवारा' की अवधारणा के खिलाफ दिखाते हैं कि संगीतकार का बेटा गुंडों की बस्ती में पलकर भी सुरीला है और एक जरायमपेशा का बेटा उनके घर में भी पलकर अपराधी प्रवृत्ति का व्यक्ति है। चुलबुल पांडे रॉबिन हुड शैली के पुलिस अफसर हैं, वे रिश्वत लेकर गरीबों में बांट देते हैं। अक्षर कुमार का 'राउडी राठौर' भी 'दबंग' ही है। गोयाकि हमारे सिनेमा में पुलिस अफसर की छवियां दो ही ढांचों में कैद हैं- कर्तव्यपरायण या अराजकता का प्रतीक। अगर हमारे सिनेमा ने पुलिस अफसर पात्र के साथ न्याय नहीं किया है तो किसी और व्यवसाय के प्रतिनिधि को भी विश्वसनीयता से प्रस्तुत नहीं किया है। अत: यह कोई साजिश नहीं है।

हाल ही में मुंबई के पुलिस अफसर वसंत ढोबले का नेता प्रिया दत्त (सुनील दत्त की सुपुत्री) के दबाव के कारण तबादला कर दिया गया है। उन पर आरोप है कि अवैध फुटपाथिया दुकानदारों को हटाने की उनकी न्यायसंगत कानूनी कोशिश के कारण एक सब्जी बेचने वाले का निधन हो गया। वसंत ढोबले या उनके मातहतों ने किसी को पीटा नहीं। दबिश की अग्रिम सूचना के कारण दुकानदार अपना सामान उठाकर भाग रहे थे। मृतक पहले से दिल का मरीज था। ज्ञातव्य है कि इसी अफसर को बांद्रा से इसीलिए हटाया गया था कि वह श्रेष्ठि वर्ग के मनचलों के मस्ती ठियों को कानून के अनुरूप ठीक बारह बजे बंद करवा देता था। वसंत ढोबले ऋषिकेश मुखर्जी के 'सत्यकाम' नहीं हैं कि मात्र कर्तव्यपरायण होने के कारण तबादलों का त्रास भुगतते रहें, क्योंकि अपनी कड़क वर्दी पहनकर वे युवा वर्ग की नैतिकता के भी जज हो गए थे। प्रेमी युगलों के भी वे खिलाफ थे। इन प्रकरणों में नागरिकों का पक्ष देखिए। फटपाथ पर अतिक्रमण के कारण सड़क पर चलना दूभर हो गया था, परंतु उन्हें सस्ती सब्जी भी चाहिए और सड़क पर चलने की स्वतंत्रता भी। इसी तरह बांद्रा में उन्हें प्रेम की रक्षा भी चाहिए और अमीरजादों के बार नहीं चाहिए। दरअसल पुलिस के दायित्व व उनके अधिकारों पर विचार आवश्यक है और राजनीति के दबाव से उन्हें मुक्त तो करना है, परंतु ऐसा करने पर वे आपातकाल के दिनों के अनाचारी भी हो सकते हैं। दरअसल केंद्रीय मुद्दा यह है कि क्या लोकप्रिय फैसले लिए जाएं या न्यायसंगत समानता का आदर किया जाए? गणतंत्र व्यवस्था में अनेक छेद हैं, परंतु इसके बावजूद वह अन्य व्यवस्थाओं और अराजकता से बेहतर है। गोयाकि भारत की डेमोक्रेसी उस बांसुरी की तरह है, जिसमें छेद न हों तो उससे माधुर्य पैदा नहीं हो सकता।