बकरशास्त्र के बारे में यत्किचित / पुंज प्रकाश

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सर्वप्रथम इस बात की घोषणा कर देना अहम है कि यह व्यक्ति केंद्रित शास्त्र है, यहाँ व्यक्ति का महत्व किसी भी अन्य वाद से कहीं अधिक है। अब इस प्रश्न का निवारण करना अति आवश्यक प्रतीत होता है कि संक्षिप्त घोषणापत्र क्यों, वृहद क्यों नहीं? कारण सीधा और एकदम सरल है। बकरशास्त्र आज तक एक अलिखित शास्त्र है जिसकी वृहद व्याख्या लिखित क्या मौखिक रूप से भी संभव नहीं है। कारण? इसका विषय इतना ज्यादा व्यापक है कि इसे पूरे का पूरा लिख पाना किसी भी इंसान, देवता, दानव ( अगर यह सब अस्तित्व में हैं तो ) के बस की बात ही नहीं। बची-खुची कमी बकर का मूल चरित्र पूरा कर देता है। इस शास्त्र का मूल चरित्र ही ऐसा है कि हर व्यक्ति अपने लिए अपना शास्त्र खुद गढ़े और उसे अपनी सुविधानुसार जैसे चाहे वैसे प्रतिपादित करे। किसी और के गढ़े-गढ़ाए सिद्धांत पर अमल करना एवं किसी से प्रभावित होकर अपनी राय बनाना इस शास्त्र में सर्वथा वर्जित है। किसी और के बनाए सिद्धांत पर अमल करनेवाला व्यक्ति कभी भी बकर फैला ही नहीं सकता। हाँ, किसी और की मान्यता को सामने रखने की खुजली अगर बर्दाश्त के बाहर होने लगे तो बकर करनेवाले को उस विचार को दुनिया के सामने कुछ इस तरह रखने का अधिकार जन्म से ही प्राप्त है कि वह इस बात को कुछ इस अंदाज से प्रस्तुत करे जैसे यह खयाल बकर करनेवाले के दिमाग के परकोटे में अभी-अभी पनपा है। मसलन, एकदम ताजा-तरीन खयाल की उत्पत्ति एक बकरवाले द्वारा अभी-अभी की गई है।

बकरशास्त्र में बकर का मुद्दा उतना ही महत्व रखता है जितना लोकतंत्र में जनता। जनता का काम सरकार बनाना है या कम से कम यह भ्रम बनायह रखना है कि यह उसकी चुनी हुई सरकार है। उसी तरह दुनिया का कोई भी मुद्दा चाहे वह कितना भी संवेदनशील क्यों न हो उसका काम केवल यह है कि उससे बकर की शुरुआत भर हो जाती है। श्रेष्ठ बकर फैलानेवाला कभी केवल मुद्दे की बात नहीं करता। यहाँ न समय का कोई बंधन काम करता है न विचार और धारा की सीमा। यहाँ ज्ञान का आतंक भी नहीं चलता। संसार में केवल यही एक धारा है जहाँ ऐसा हो सकता है कि समाज जिसे अज्ञानी कहता हो वह बकर का मास्टर हो। यहाँ ज्ञान का महत्व उतना ही है जितना किसी चौबीस घंटे चलनेवाले समाचार चैनल में ब्रेकिंग न्यूज का जो किसी अमीर की छींक के साथ ही बदलती रहती है। यहाँ पूरी जानकारी के साथ बकर करनेवाला मूरख माना जाता है। ज्ञान की ललक बकर के लिए उतनी ही खतरनाक है जितनी कि एक पेट-खराब इंसान के लिए उड़द की दाल। ज्ञान अच्छे-खासे बकरवादी को बीमार कर सकता है। ज्ञान समाज पर एक अभिशाप की तरह है जिससे जितनी जल्दी हो सके बकरवादी को ऊपर उठ जाना चाहिए। श्रेष्ठ बकर तभी हो सकती है जब आप केवल उतनी ही जानकारी रखें जितनी कि किसी रद्दी अखबार के हेडलाइन पढ़ कर मिलती है। बकर कौम का मूल मन्त्र होना चाहिए यह पुरानी कहावत - "अधजल गगरी छलकत जाय।" लोगों ने आज तक इस कहावत की गलत व्याख्या की है। सही व्याख्या यह है कि गगरी आधी भरी हुई है, फिर भी वह छलकती जा रही है, ताकि किसी और को प्यास लगी हो तो बिना संकोच के अपनी प्यास बुझा सके। किसी की गगरी पूरी भरी है और वह छलक ही नहीं रही, तो उससे दूसरे किसी को कोई फायदा है क्या? नहीं न? तो जरा खुद ही सोचा जाय कि इससे ज्यादा सेवा भाव क्या किसी और सिद्धांत में बता सकता है कोई ? यह विश्व का इकलौता और एकमात्र जनवादी एवं समतामूलक सिद्धांत है। यहाँ न कोई नेता होता है न जनता। सब के समान अधिकार, समान कर्तव्य, समान अवसर। यहाँ इंसान चाहे किसी भी वर्ग, वर्ण, गोत्र आदि का हो, सब एक ही उद्देश्य के लिए दिन-रात लगे रहते हैं कि बकर की महान परम्परा अपनी अवध गति से चलती रहे।

सबसे मूल बात यह कि अगर सारे समुद्र को स्याही मान लिया जाय और सारी धरती को कागज और दुनिया का हर जीव लिखने लग जाय फिर भी इसकी गुणवत्ता अपनी "इम्प्रोवाइजेशनल क्वालिटी" की वजह से इतनी विशाल है कि कम से कम लिखित रूप से बकरशास्त्र की रचना संभव ही नहीं है। यह उसी वक्त गढ़ा और गढ़ते हुए जिया जानेवाला शास्त्र है।

बकरशास्त्र अपने आपमें सारे मान्य शास्त्रों से ज्यादा लोकप्रिय, सुलभ तथा सर्वमान्य महाशास्त्र है। हर बात पर संदेह करनेवाला व्यक्ति और उस पर तर्क-वितर्क करनेवाला व्यक्ति बकर कौम का महापंडित माना जाता है। यह अवधारणा मार्क्स की अवधारणा "डाउट एवरीथिंग" की अवधारणा से कहीं ज्यादा आगे की सोच है!

बकरशास्त्र की उत्पत्ति सृष्टि में मानव की भाषा की उत्पत्ति के साथ ही साथ मानी जानी चाहिए। हालाँकि कोई यह साबित नहीं कर सकता कि भाषा से पहले बकर का कोई अस्तित्व नहीं था। एक बार जब बकरशास्त्र अस्तित्व में आ गया अर्थात मानव ने भाषा नामक चामत्कारिक चीज की रचना कर ली, फिर तो यह मानव के नैसर्गिक गुणों में अपने-आप ही शामिल हो गया। हम यह कह सकते हैं कि आज इस विधा में इंसान जन्म से ही कमोबेश पारंगत होता है। जिस प्रकार जीवन में होता है कि कुछ लोग किसी कारणवश पीछे छूट जाते हैं ठीक वैसे ही कुछ लोग दुनियावी उलझनों तथा सही-गलत, तर्क- कुतर्क के घनचक्कर में पड़ कर इस शास्त्र में भी पीछे छूट जाते हैं। ऐसे लोग "बेचारे भले आदमी" माने जाते हैं और इनकी गणना केवल भीड़ के रूप में होती है। जिस प्रकार किसी भी कार्य में महारत हासिल करने के लिए कठोर परिश्रम करना अनिवार्य माना जाता है ठीक वही सिद्धांत यहाँ भी लागू होता है। अंतर केवल इतना है कि यहाँ यह प्रक्रिया थोड़ी उल्टी है। यहाँ धारा के साथ नहीं, धारा के विपरीत बहना होता है। कहने का तात्पर्य यह कि जो कुछ भी कोमल है, सुन्दर है, तार्किक है उसे संदेहास्पद माना जाना चाहिए। यहाँ तर्क से कई गुना ज्यादा जरूरी वह चीज है जिसे बेचारे लोग कुतर्क कहते हैं। जो कोई भी कुतर्क को गलत मानता है उसका सामाजिक बहिष्कार करना हर बकर प्रेमी का परम कर्तव्य होना चाहिए। ऐसे पापियों का नाश धर्म और मर्यादासंगत बात है और अपने धर्म की रक्षा करना हर इंसान का कर्तव्य है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि बकर अपने आपमें एक धर्म है।

बकर करनेवाला इंसान किसी योगी से कम नहीं होता। जिस प्रकार एक सच्चा योगी तमाम सांसारिक मोह-माया त्याग कर हमेशा योग की साधना में लगे रहना चाहता है उसी प्रकार एक बकर करनेवाला इंसान हर परिस्थिति में केवल और केवल बकर ही करना चाहता है। उसकी यह तीव्र चाहत किसी प्रह्लाद की चाहत से कम नहीं होती। एक बकर फैलाने वाला इंसान किसी कारणवश अगर बकर न फैला सके तो उसे अपना और संसार का अस्तित्व ही निरर्थक लगने लगता है। किसी कार्य में उसका दिल नहीं लगता। छप्पन भोग भी उसके किसी काम नहीं आते। ऐसी अवस्था में उसे तब तक शांति नहीं मिलती जब तक वह जी भरके बकर न फैला ले। एक बकर फैलानेवाले इंसान को बकर फैलाने से बलात अर्थात बलपूर्वक रोका जाना उसके प्राण खतरे में डालने के समान है। किसी भी सज्जन पुरुष को ऐसा कृत्य शोभा नहीं देता। हालाँकि यहाँ सज्जन- दुर्जन की बनी-बनाई परिभाषा भी संदेहास्पद है। संदेह ही एक अच्छे बकर-कर्ता की सबसे बड़ी पूँजी है। यही वह कुंजी है जिसके बल पर एक अच्छा-खासा इंसान बकर की दुनिया का शहंशाह बनाने की ओर अग्रसर होता है।

सत्य-असत्य एक भ्रम ही तो है। एक का सत्य दूसरे का असत्य हो सकता है। इसीलिए बकरशास्त्र इस सत्य-असत्य के जंजाल से परे एक ऐसा जनता का, जनता द्वारा और जनता के लिए शास्त्र है जिसमें राग की प्रधानता साफ-साफ देखी जा सकती है। यहाँ राग का अर्थ गायन से नहीं बल्कि कहावत से समझा जाना चाहिए। कहावत है - अपनी डफली, अपना राग। यही वह बात है जो इसे दुनिया की किसी भी चीज से अलग करती है।

बकरशास्त्र अपने उत्तम चरम पर तब होता है जब कई लोग, एक स्थान पर, दीन-दुनिया से बेखबर, एक ही विषय पर, पूरे जोशो-खरोश के साथ, बिना एक-दूसरे से तनिक भी प्रभावित हुए, अपना-अपना राग मूलाधार से आलाप रहे हों। ऐसी स्थिति में पूर्वाग्रह सबसे बड़ा हथियार साबित होता है। यह एक बकर फैलानेवाले इंसान के लिए ठीक वैसे ही काम करता है जैसे नाव में पतवार।

बकर कोई मामूली विद्या नहीं कि किसी भी सरकारी या गैर-सरकारी विद्यालय अथवा महाविद्यालय में रटा दिया जाय। यह एक तपस्या है जो केवल तप के ताप से ही प्राप्त की जा सकती है। सीखने-सिखाने की विधा है ही नहीं बल्कि स्वयं अपनी अंतर-आत्मा की आवाज पर कठोर परिश्रम कर परम पद को प्राप्त कर लेने की विधा है। एक बार इंसान इस परम पद को प्राप्त हो गया तो फिर दुनिया की तमाम चीजें महज माया हैं - मूल बात है बकर। बकर करनेवाला एक अदना-सा इंसान भी समय और मर्यादा की तमाम बाधाओं को पार कर बड़े-बड़े महात्माओं से श्रेष्ठ हो जाता है। यहाँ किसी के मानने या न मानने से किसी भी प्रकार का कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि किसी भी बात को मानना या न मानना भी एक प्रकार का भ्रम ही तो है।

हम जिसे मानते हैं उसे कितना जानते हैं और जिसे जानते हैं उसे कितना मानते हैं और अगर जानते-मानते भी हैं तो कितने दिनों तक कायम रख पाते हैं ?

बकर विद्या में पारंगत होने के लिए किसी मठ, मंदिर, मस्जिद, गिरजा तथा जंगल, पहाड़ आदि-आदि के चक्कर लगाने की जरूरत नहीं। न ही आँख बंद करके किसी बोधिवृक्ष के नीचे बैठ कर धूल-मिट्टी ही फाँकने और अपने सुन्दर बालों को किसी चिड़िया के घोसले में परिवर्तित करने की ही जरूरत है। यह मानव समाज के बीच रह कर समाज पर अपनी बोलाँठपने को स्थापित करने की कला है। यहाँ तर्क-कुतर्क, उचित-अनुचित, प्रासंगिक-अप्रासंगिक सबका दायरा सामान है। बल्कि यहाँ जो चीज जितनी ज्यादा कुतार्किक, अनुचित, अप्रासंगिक हो वह उतनी ही तार्किक, उचित और प्रासंगिक होती है। यहाँ सामनेवाले को प्रभावित करना या अपनी बौद्धिकता का आतंक फैला कर अपनी बात मनवा लेना कोई बड़ी बात नहीं है, बड़ी बात है हर परिस्थिति में बकर को सुचारु रूप से चालू रखना। सालों से केवल एक ही व्यक्ति बकबका रहा हो और सुननेवाले कुढ़न और मजबूरी से लबरेज हों, सुने जा रहे हो, कोई कुछ बोलना भी चाहे तो केवल पहला शब्द ही बोल पाए और पुनः श्रोता बनने को बाध्य कर दिया जाए, यह बकरशास्त्र की भाषा में बकर कौम के लिए एक आदर्श स्थिति मानी गई है। इसे ही तो कहतें है बकरशास्त्र की चरम अवस्था को प्राप्त कर जाना। बकर कौम का एक सच्चा सिपाही किसी भी देश, काल, परिस्थिति में बकर फैलाने के लिए ठीक उसी प्रकार तत्पर रहता है जैसे भूखा शेर शिकार पर झपटने को।