बकरापुर का बकरा 'शाहरुख' / जयप्रकाश चौकसे

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बकरापुर का बकरा 'शाहरुख'
प्रकाशन तिथि : 07 मई 2014


शीघ्र ही प्रदर्शित होने वाली फिल्म 'यह है बकरापुर' में एक बकरे का नाम 'शाहरुख' है और निर्देशक जानकी विश्वनाथन का कहना है कि बकरे पालने वाले, भैंस पालने वाले अपने जानवरों को मानवीय नामों से पुकारते हैं और प्राय: फिल्मी सितारों के नाम ही रखे जाते हैं। उनकी फिल्म में जानकर शाहरुख खान का अपमान नहीं किया गया है वरन् जानवर मंडी की परंपरा अनुरूप नाम रखा गया है और उन्होंने इसके लिए फिल्म निर्माण के पूर्व शाहरुख खान से कोई आज्ञा भी नहीं मांगी। इस नाम पर उनका कॉपीराइट भी नहीं है, यह एक आम नाम है। यह ठीक है कि इस बात पर कोई मुकदमेबाजी नहीं होगी और शाहरुख खान इसे अनदेखा कर जाएंगे परंतु क्या जानकी अपने हृदय पर हाथ रख शपथ लेकर यह कह सकती हैं कि फिल्म लिखते समय बकरे का नाम शाहरुख ही रखना सहज प्रक्रिया है और वे नहीं जानती थीं कि इस कारण उनकी फिल्म की चर्चा होगी तथा कुछ सुर्खियां मुफ्त में बटोर लेंगी? वे अपने बकरे का नाम शाहबुद्दीन या गया प्रसाद भी रख सकती थीं।

वे यह दावा नहीं कर सकतीं कि उन्होंने बकरे का नाम शाहरुख यूं ही रख लिया है। शशधर मुखर्जी ने नासिर हुसैन को 'मुनीम जी' से निर्देशन का अवसर दिया था। उनके अपने भाई सुबोध मुखर्जी और नासिर हुसैन अच्छे मित्र थे और उन्होंने शशधर के मार्गदर्शन में मनोरंजक फिल्मों के गुर सीखे थे। नासिर हुसैन और सुबोध मुखर्जी अपनी-अपनी फिल्मों में किसी मूर्ख मसखरे पात्र का नाम 'नासिर' या 'सुबोध' रखते थे और कभी-कभी जानवरों का नाम करण भी ऐसा ही करते थे। ये दो मित्र फिल्मकारों की आपसी चुहलबाजी थी। रामगोपाल वर्मा ने करण जौहर का मखौल अपनी फिल्मों में बनाया है और करण ने उनकी आलोचना की है।

ये एक-दूसरे से नफरत का रिश्ता था परंतु रामगोपाल वर्मा की नफरत जौहर से नहीं होकर उनकी फिल्मों की लिजलिजी भावुकता से रही है। शांताराम जी को देवदास का 'पलायन' नापसंद था तो उन्होंने इसके विरोध में 'आदमी' फिल्म बनाई जिसमें पुलिस वाला नायक एक वेश्या से प्रेम करता है और समाज के विरोध के बावजूद उससे विवाह करता है। यह उनका अपना तरीका था। देवदास चंद्रमुखी से विवाह नहीं करता और रिश्ते के इस तिकोन को राजिंदर सिंह बेदी ने विमल राय की फिल्म में नई धार दी है जब चंद्रमुखी देवदास से कहती है कि उसके पारो से विरह के माध्यम से स्वयं उसे पारो से प्रेम हो गया है। उसने पारो के लिए देवदास की तड़प और दर्द को देखा जिसने उसका परिचय पारो के व्यक्तित्व से कराया। मूल उपन्यास में दो प्रेमिकाएं कभी मिलती नहीं है परंतु विमल राय ने उन्हें एक राह पर विपरीत दिशा में जाते हुए क्षण भर के लिए उनका सानिध्य दिखाया है और साहिर ने इस महान सिनेमाई क्षण के लिए कमाल का पाश्र्व गीत रचा जिसे सचिन देव बर्मन ने संगीत के माध्यम से अभिव्यक्त की है- 'मंजिल की चाह में राही के वास्ते सुख के भी रास्ते, दुख के भी रास्ते,कहीं घनी छांव है, कहीं कड़ी धूप है, ये भी एक रूप है, वह भी एक रूप है, कई यहां खोएंगे, कई यहां पाएंगे, राही कई अभी जाएंगे, कई अभी आएंगे...मंजिल की चाह में', विमल राय, सचिन, साहिर, बेदी- ये सब विलक्षण लोग शरतचंद्र के अवचेतन को अपनी हथेली की तरह पढ़ सकते थे।

साहिर के पिता अय्याश और निर्मम जमींदार थे। जब साहिर का जन्म हुआ तो ठरकी पिता ने नाम रखा अब्दुल हई जो उनके शत्रु और पड़ोसी का नाम था। वे अपने अहाते में अब्दुल हई को गालियां देते थे और पड़ोसी पूछता कि उसे क्यों गाली दे रहे हैं तो वे कहते कि वे तो अपने पुत्र अब्दुल हई को गालियां दे रहे हैं। क्या कोई व्यक्ति इतना नीच हो सकता है? अब्दुल हई को अपने नाम से नफरत थी और मैट्रिक की परीक्षा के समय उन्होंने अपना नाम साहिर रखा। आम आदमियों के जीवन में बच्चों के नाम प्राय: पवित्र रखे जाते हैं कि इनके बार-बार उच्चारण से घर का वातावरण सुखी रहे। कुछ शिशुओं की मृत्यु के कारण बच्चे का नाम खराब रखते हैं।

ऐसा अंधविश्वास है कि बच्चा दीर्घ आयु होता है- इसलिए कालिया, गब्बर इत्यादि नाम रखे जाते। कभी-कभी कुछ प्रभाव नामकरण में सामने आते हैं जैसे मैं शैली की 'प्रोमीथियस अनबाऊंड' और उससे प्रेरित धर्मवीर भारती की 'प्रमथ्यु गाथा' से प्रभावित था तो ज्येष्ठ पुत्र का नाम प्रमथ्यु रखा। अनेक लोग अपने वंश के किसी व्यक्ति की स्मृति में अपने पुत्र या पुत्री का नामकरण करते हैं। कभी-कभी अपने किसी खोये हुए प्यार को भी इसी प्रक्रिया द्वारा जीवित रखा जाता है। जब देविका रानी ने युवा युसुफ खान को नए नाम रखने की प्रक्रिया में उनकी इच्छा पूी तो युसुफ खान ने कहा 'वासुदेव' परंतु देविका को यह पसंद नहीं आया और उन्होंने नाम रखा दिलीप कुमार परंतु आज का असहिष्णु समाज यह कभी नहीं समझ पायेगा कि मुस्लिम युसुफ खान स्वयं को वासुदेव क्यों कहलाना चाहता था।

सारी कलाएं समाहित हैं वासुदेव के व्यक्तित्व में। बहरहाल सन् 91 के मुंबई दंगों के समय कुछ मुसलमान दिलीप के घर प्रश्रय पाने आये और कुछ दिन साथ रहने पर उन्हें ज्ञात हुआ कि शुक्रवार की नमाज उनकी सफलता के लिए पढ़ी जाती थी। युसुफ खान उर्फ दिलीप कुमार की धर्मनिरपेक्षता हिल गई थी। खुशी की बात है कि इस हिंसक दौर में उनकी याददाश्त आती-जाती है वरन् उनकी आजीवन की निष्ठा का क्या होता? बहरहाल जानकी विश्वनाथन की बकरापुर में किसी बकरे के नाम शाहरुख होने को हमें भूल जाना चाहिए और जानकी का यकीन कर लें कि उन्होंने यूं ही रख दिया गोयाकि 'सरेराह चलते चलते कोई मिल गया था...'।