बकरी / सुकेश साहनी

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आँख खुलते ही रात वाली घटना फिर उसकी आँखों के आगे घूमने लगी। वह ऐसा कैसे कर सकता है? कहीं वह कोई सपना तो नहीं देख रहा? उसे आशा बँधी।

वह धीरे से उठा, शरीर में जैसे जान ही नहीं थी। पैर घसीटते हुए वह अलमारी तक पहुँचा, काँपते हाथों से ड्रार खोल के देखा, सच्चाई उसे मुँह चिढ़ाती नजर आईं, वह बुझे मन से चारपाई पर ढेर हो गया।

उसका सिर किसी फोड़े की तरह दुख रहा था। उस घटना के बाद रात भर वह अंगारों पर लोटता रहा था। कुछ देर पहले आँख लगी थी, मुश्किल से एक घंटे की नींद ली होगी।

बंद दरवाजे के नीचे से अखबार फर्श पर फिसलता हुआ चारपाई के पास आकर टिक गया। उसने अखबार उठाने के लिए हाथ नहीं बढ़ाया ।सूनी-सूनी आँखों से हैडलाइंस को ताकता रहा। उसे डर था कि अखबार खोलते ही रात वाली घटना उसमें छपी दिखाई देगी।

दीवार पर टँगे फोटोग्राफ में पत्नी ने उसके गले में बाहें डाल रखी थीं और वह मुस्करा रहा था। क्या वह इस लायक है कि पत्नी उसके गली में बाहें डाले? उसने सोचा और फिर जल्दी से फोटो पर से नजरें हटा लीं।

वाशबेसिन में कुल्ला करते हुए उसकी नजर आईने पर पड़ी तो वह एकटक देखता रह गया। रात भर में उसका चेहरा कितना बदल गया है, आज अपनी ही आँखें ...नाक...होंठ...सब कितने पराए से लग रहे हैं...

तभी दरवाजे पर दस्तक हुई.

वह इस तरह चौंका मानो किसी ने चोरी करते पकड़ लिया हो। उसने जल्दी-जल्दी चेहरे पर पानी के छींटे मारे फिर तौलिए से जोर-जोर से चेहरा रगड़ने लगा मानो उस पर चिपकी किसी वस्तु को रगड़ कर छुड़ा देना चाहता हो।

दरवाजे तक आते-आते उसके माथे पर पसीने की नन्ही-नन्ही बूँदे चमकने लगीं। उसने झिझकते हुए दरवाजा खोला।

सामने शुचि खड़ी थी।

दालान के बाहर लोहे का गेट खुला हुआ था। शांति मौसी के घर के बाहर बँधी बिंदिया उसे स्पष्ट नजर आ रही थी। उसे लगा वह तिरछी आँखों से उसी को घूर रही है, बकरी के चेहरे पर उसे उसके प्रति घृणा और उपहास के मिले-जुले भाव दिखाई दे रहे थे। उसकी आँखें झुक गई, पीठ में झुरझुरी-सी दौड़ गईं।

"अंकल...यह प्राब्लम सोल्व करवा दीजिए।" शुचि कह रही थी।

कल तक बिंदिया की आँखों में उसके प्रति कितना प्यार दिखाई देता था और आज इतनी नफरत...

"अंकल, क्या हुआ है आपको" शुचि ने फिर कहा।

वह अपने चारों ओर विचित्र-सी रिक्तता महसूस कर रहा था...एक शून्य, जो उसे बार-बार सोच के गहरे कुएँ में उतार ले जाता था, शुचि की आवाज उसे बहुत दूर से आती मालूम दे रही थी। उसने सिर झटका, पर सोच के चुम्बक ने फिर उसे गहरे कुएँ में खींच लिया...क्या अब वह शुचि को भीतर आने के लिए कह सकता है? ...शिथिलता की एक और परत उसके शरीर पर चढ़ती चली गई. शुचि फिर प्राब्लम सोल्व करवाने को कह रही थी।

"मां ने नाश्ते के लिए भी बुलाया है।" शुचि की समझ में नहीं आ रहा था कि आज अंकल को हुआ क्या है, न बोलते हैं...न चालते हैं, भीतर आने को भी नहीं कहा। पहले चाहे कितने भी बिजी हो...सारे काम छोड़कर प्राब्लम समझाने बैठ जाते थे, हंसोड़ इतने कि हँसते-हँसते पेट में दर्द हो जाए।

" शुचि, तुम चलो...मैं आता हूँ।”- उसने कमजोर आवाज में कहा।

"प्राब्लम कब समझाएँगे?"

"वहीं ...वहीं समझा दूँगा।" उसने जल्दी से कहा और खट से दरवाजा बंद कर लिया। उसने साफ महसूस किया कि दरवाजे के उस तराफ शुचि अभी तक खड़ी है मानो उसके अप्रत्याशित व्यवहार ने उसके पैरों को अभी तक जकड़ रखा हो।

वह शांति मौसी के घर जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। सबसे अधिक डर उसे बिंदिया से था जो मौसी के घर के प्रवेश द्वार पर ही बँधी थी। बिंदिया का कल रात वाला आक्रामक पोज किसी सिनेमा स्लाइड की तरह बार-बार उसकी आँखों के आगे आने लगा। उसने ठंडी साँस छोड़ी। मौसी के घर जाए बिना काम नहीं चलेगा। उसे पता था कि अब यदि उसने और देर की तो मौसी खुद चली आएँगी और अपने प्यार भरे अंदाज से उसकी खबर लेंगी। वह जैसे-तैसे तैयार हुआ और फिर घर से बाहर आ गया।

बिंदिया से आँख मिलाने की हिम्मत नहीं हुई. वह उससे थोड़ी दूर पर ठिठक गया। मौसी के घर के भीतर जाने के लिए बिंदिया के बिल्कुल नजदीक से होकर गुजरना था। उसे बकरी से डर लग रहा था।

उसका इस तरह खड़े रहना गली से गुजर रहे लोगों को और अटपटा लग सकता था, यह महसूस कर उसने हिम्मत बटोरी और बिंदिया की ओर देखे बिना तीर की तरह मौसी के घर में घुस गया। उसके नजदीक से गुजरते हुए उसे लगा था मानो बिंदिया ने अपने सींग तेजी से उसकी ओर घुमाए थे। तीस कदम का फासला उसे मीलों लंबा मालूम हुआ। वह बैठक में पहुँचकर कुर्सी पर ढह गया।

"क्या हुआ बेटा?" मौसी ने कमरे में आते हुए कहा।

"कुछ नहीं...कुछ भी तो नहीं" वह सकपकाकर कुर्सी पर सीधा हो गया।

"तबीयत तो ठीक है न?" मौसी ने नजदीक आकर उसके माथे पर हाथ रखा तो उसकी आँखें नम हो गर्इं।

"मैं बिल्कुल ठीक हूँ ...आप चिंता ...न करें।" उसने आँख मिलाए बिना कहा, ताकि वे उसकी आँखों के भाव न पढ़ सकें।

"शुचि भी कह रही थी कि तुम कुछ परेशान दिखाई दे रहे थे, बेटा मैं भी तुम्हारी माँ जैसी हूँ...मुझसे कुछ मत छिपाना। दफ्तर की कोई परेशानी है क्या?"

उसे लगा मौसी इसी तरह पूछ-ताछ करती रहीं तो वह अपने ऊपर नियंत्रण नहीं रख पाएगा।

मौसी सब ठीक-ठाक है। आप तो वैसे ही परेशान हो रही हैं...सिर में हल्का दर्द है...बस, वह खोखली हँसी हँसा। "

"पहले क्यों नहीं बताया? तू नाश्ता कर ले, शुचि बाम मल देगी।" उन्होंने ममता भरे स्वर में कहा।

"मामूली दर्द है...अपने आप ठीक हो जाएगा।"

"बहू और बच्चे मायके से कब लौटेंगे?"

"कल वापस आ जाएँगे।" उसने बताया।

"आने दे बहू को, कहूँगी-तुझे अकेला न छोड़ा करे।"

मौसी ने अपनी बात बहुत स्वाभाविक ढंग से कही थी, पर उसका ध्यान रात वाली घटना की ओर खिंच गया और उसका चेहरा बिल्कुल सफेद हो गया...यदि कल रात रमा घर में होती तो वह ऐसा काम करता...शायद नहीं। यह सोचकर वह और उदास हो गया... शुचि पकौड़े भरी प्लेट उसके सामने रख गई थी। उसकी कुछ भी खाने-पीने की इच्छा नहीं हो रही थी। पर मौसी के सामने उसकी एक नहीं चलने वाली थी। उसने बेमन से एक पकौड़ा उठाया और धीरे-धीरे कुतरने लगा।

"अंकल, अब तो सवाल समझा दो।" नाश्ते के बाद शुचि फिर किताब लेकर उसके सामने आ खड़ी हुई.

वह सोच के कुएँ में डूबा हुआ था।

' शुचि आज मन नहीं है, कल समझा दूँगा। " उसने छत की ओर देखते हुए कहा।

"शुचि!" तभी मौसी ने कमरे में प्रवेश करते हुए कहा, "तू फिर उसे तंग करने लगी, उसके सिर में दर्द है, तू अपने सवाल रहने दे बाम लाकर मल दे।"

"बाम की कोई ज़रूरत नहीं है..." उसने कहना चाहा।

"पागल कहीं का!" मौसी ने प्यार से झिड़कते हुए कहा, अपनी मौसी से शर्म करता है? आज वीरांवाली होती तो तेरे इतने दर्द पर पूरा घर सिर पर उठा लेती।

शुचि न जाने कब बाम की शीशी लेकर उसके पीछे आ खड़ी हुई थी और हल्के हाथों से माथे पर बाम मल रही थी। बाहर बिंदिया की 'मे...मय' काफी बढ़ रही थी। उसे लगा जब से वह मौसी के घर में आया है, बकरी कुछ ज़्यादा ही शोर करने लगी है मानो अपनी जुबान में चिल्ला-चिल्लाकर मौसी से कल वाली घटना का बयान कर रही हो, उसके शरीर में कंपकंपी-सी दौड़ गई.

"बेटी, तूने स्टोर वाली अलमारी में देखा कि नहीं? इस बुढ़ापे में भूलने की बीमारी भी लग जाती है।"

"माँ, मिल जाएगा। तुमने कहीं संभाल कर ही रखा होगा। पहले भी कई बार ऐसा हो चुका है।" शुचि ने तसल्ली दी।

"क्या खो गया?" जानते हुए भी उसे पूछना पड़ा। उसका दिल तेजी से धड़कने लगा था।

"बेटा, मेरा सोने का हार नहीं मिल रहा, पूरे दस तोले का है," मौसी ने बताया, "पता नहीं कहाँ रख दिया है।"

"घर से कहाँ जाएगा," उसने कमजोर आवाज में कहा, "मिल जाएगा।"

बिंदिया जोर-जोर से "मे..." करने लगी थी। उसे लगा जैसे बकरी ने उनकी बातें सुन ली हैं और अपना रोष प्रकट कर रही है। उसकी आँखों के आगे वह दृश्य फ्रीज हो गया, जबे गुस्से में उबलते हुए बिंदिया ने अपने नन्हे सींग आक्रमण की मुद्रा में उसकी ओर ताने थे।

"बेटा, तू किसी जानवरों के डॉक्टर को जानता है।" मौसी ने उससे पूछा।

' डॉक्टर की क्या ज़रूरत पड़ गई? "

"बेटा, बिंदिया पेट से है...कल रात से तबीयत कुछ ज़्यादा खराब लगती है...बहुत बेचैन है, शोर बहुत मचा रही है, सोचती हूँ डाक्टर को दिखा दूँ..."

"पता करके बताऊँगा।" बड़ी मुश्किल से इतना कह पाया। बिंदिया की तबीयत के लिए वह खुद को जिम्मेदार समझ रहा था...डंडे का पहला वार बिंदिया के पेट पर ही तो हुआ था...वह इतना क्रूर भी हो सकता है? उसे अपने आप से नफरत-सी हुई, इसका मतलब तो ये हुआ कि यदि अवसर मिले तो वह किसी भी स्तर तक नीचे गिर सकता है। कुर्सी पर उसका शरीर किसी लकड़ी की तरह अकड़ गया था...क्या वह इस लायक है कि शुचि जेसी भोली लड़की उसके नजदीक भी फटके..."

"शुचि ...बस करो।" उसके मुँह से निकला।

"चुपचाप बैठे रहिए," शुचि ने आदेश भरे अंदाज में कहा, "अभी सिर तो दबाया ही नहीं।"

"कहा न छोड़ दो!" वह चिल्ला पड़ा।

मौसी और शुचि हक्के-बक्के रह गए।

"क्या हुआ बेटा? शुचि! तूने ज़रूर कोई शरारत की होगी।" मौसी को हाथ-पाँव पड़ गए थे।

"मैंने कुछ भी नहीं किया, माँ।" शुचि घबराकर रोने-रोने को हो आई.

यह देखकर वह और भी घबरा गया।

"मौसी!" अगले ही क्षण वह खुद को नियंत्रित करते हुए बोला, "शुचि ने कुछ नहीं किया। मैं बिल्कुल ठीक हूँ। घर जाकर थोड़ी देर लेटूँगा तो बिल्कुल ठीक हो जाऊँगा।"

कहकर वह कमरे से बाहर आ गया। उसकी आँखें बिंदिया की आँखों से टकरा गईं...दो घृणा भरी आँखें ...खिल्ली उड़ाने के अंदाज से लटका हुआ मुँह...वह सिहर उठा। उसने आँखें झुका लीं और जल्दी से घर के भीतर घुस गया। एक प्रश्न लगातार उसके सामने मुँह बाए खड़ा था-कल जब रमा लौटेगी...तब?

' तुम्हें हुआ क्या है? " रमा ने पूछा।

"कुछ नहीं...तुम सो जाओ."

"जब से आई हूँ तुम उखड़े-उखड़े लग रहे हो, बच्चों से भी ढंग से बात नहीं की। आखिर हुआ क्या है?"

"इस बार मम्मी ने आपके लिए गर्म सूट का कपड़ा नहीं दिया, इसलिए नाराज हैं?"

"तुम मुझे इतना कमीना आदमी समझती हो?" वह बिफर पड़ा। तभी जैसे किसी अदृश्य रिमोट कंट्रोल से रात वाली घटना उसके मस्तिष्क में सजीव हो उठी। वह हवा निकले गुब्बारे की तरह सिकुड़ गया और फिर पत्नी की ओर से करवट लेकर लेट गया।

"इधर मुँह करो न, इतने दिनों बाद मिले हैं, फिर भी तुम..." पत्नी ने अपने शरीर का भार उसकी पीठ पर छोड़ा तो चैंक पड़ी। इतनी गर्मी में भी उसका शरीर बर्फ की तरह ठंडा था।

वह घबरा गई. उसने लपककर लाइट जला दी।

पति का चेहरा हल्दी जैसा पीला हो रहा था।

"तुम मुझसे कुछ छिपा रहे हो?"

"पागल मत बनो...लाइट बंद कर दो।" उसने आँखों पर हाथ रखते हुए कहा।

" तुम्हें मेरी कसम, जो मुझसे कुछ छिपाओ!”

वह उठकर बैठ गया। पत्नी से बिना आँख मिलाए काँपती आवाज में बुदबुदाया, "सुनोगी तो तुम मुझसे नफरत करने लगोगी, शायद तुम्हें विश्वास ही न हो..."

"ऐसा क्या कर दिया तुमने?" वह हैरान थी।

"परसों रात की बात है," उसने कहना शुरू किया, "' मैं रमन के घर से लौटा तो देखा बिंदिया हमारे दालान में घूम रही है, पहले भी कई बार वह हमारे यहाँ आ जाती थी, मैं मौसी को आवाज देकर बकरी ले जाने के लिए बुलाने ही वाला था कि मेरी नजर सींग से लटकती चमकीली-सी चीज पर पड़ी। नजदीक आकर देखा, सोने का हार था-काफी भारी। । बिंदिया तो हम लोगों से भी हिली-मिली हुई थी। वह प्यार से अपने सींग मेरी टाँगों पर रगड़ रही थी। मेरा दिल बड़ी तेजी से धड़कने लगा था। मैंने मौसी को आवाज नहीं दी, बल्कि दरवाजा खोलकर उसे भीतर आने दिया...ट्यूबलाइट की रोशनी में उसके सींग में उलझा हुआ हार चमक रहा था। मन में आया कि हार निकाल लूँ...किसी को पता नहीं चलेगा...बकरी खुद उठाकर लाई है। मौसी और शुचि को भी कभी पता नहीं चल पाएगा। मैंने बिंदिया के सींग से उलझा हार निकाल लिया और ड्राज में रख दिया। तभी मेरी नजर बिंदिया पर पड़ी...वह विचित्र नजरों से मेरी ओर देख रही थी...मुझे डर-सा लगा। उसकी आँखों में मेरे प्रति पहले वाला प्यार नहीं था। मैंने उसे बाहर निकालने की कोशिश की तो वह अड़ गई थी। मुझे लगा उसकी आँखों से नफरत उफन रही है और...उसने अपने सींग आक्रमण की मुद्रा में तान लिए हैं। सच कहूँ ...मैं मारे डर के काँपने लगा था। मैंने डंडा उठाया और उसके ऊपर दो-तीन वार किए. वह डरकर भाग गई थी..."

वह बुरी तरह हाँफने लगा।

' हार कहाँ है? " पत्नी ने पूछा।

वह किसी शराबी की तरह लड़खड़ाता हुआ अलमारी के पास गया और सोने का हार लाकर रमा को थमा दिया।

"उस दिन मुझे अवसर मिला और मैं नहीं चूका...! मैंने...इन्हीं हाथों से बिंदिया पर डंडे बरसाए..."

रमा तनकर बैठ गई थी और अपने पति के चेहरे पर छलक आए पसीने की असंख्य बूंदों को हैरानी से देख रही थी।

"इस हार के बारे में क्या सोचा है..."

"मौसी और शुचि को हार के चोरी हो जाने के बारे में कुछ नहीं पता है। वे समझ रही हैं कि कहीं रखकर भूल गई हैं। तुम ये हार उनके घर में कहीं रख आना..."

"ठीक ही तो है," पत्नी ने खुश होते हुए कहा।

"पर इतने परेशान क्यों हो? भूल जाओ सब कुछ।"

"इतना आसान नहीं है," उसने कमजोर काँपती आवाज में कहा, "बकरी का सामना कैसे कर पाऊँगा?"

-0-