बच्चा / कामतानाथ

Gadya Kosh से
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‘क’ जंक्शन से रात के नौ बजे चलकर प्रातः पांच बजे अपने गंतव्य पर पहुंचने वाली, केवल दूसरे दर्जे के साधारण डिब्बों से बनी वह पैसेंजर गाड़ी खचाखच भरी हुई थी। बीच के एक डिब्बे की दो बर्थों (वैसे बर्थ कहना शायद गलत होगा क्योंकि आम भाषा में बर्थ तो केवल शयनयान में ही होती है) को छोड़कर पूरी गाड़ी में, जैसा कि मुहावरा है, तिल धरने की भी जगह नहीं थी। इन दो बर्थों पर आमने-सामने दो-दो पुलिस वाले बैठे थे तथा ऊपर सामान रखने वाली वर्थों पर अंगोछे जैसा कोई कपड़ा बिछाए थे जो इस बात का सूचक था कि इन बर्थों पर भी उनके नाम मय वल्दियत (वल्दियत इसलिए जरूरी हो जाती है क्योंकि इस देश में एक ही नाम के अनेक लोग मिल जाते हैं जिसके कारण स्कूलों अथवा दफ्तरों में अमुक एक अथवा प्रथम, अमुक दो अथवा द्वितीय, अमुक तीन अथवा तृतीय लिखना और बुलाना पड़ता है) लिख गए हैं। इन चारों पुलिस वालों की कमर में बंधी चमड़े की पेटियों में लोहे की जंजीर से थ्री नाट थ्री वाली बंदूकें फंसी थीं, जिन्हें 1962 के चीनी आक्रमण के तुरंत पश्चात भारतीय थल सेना द्वारा खारिज कर दिया गया था लेकिन चूंकि अभी भी इन बंदूकों से इस देश के शरीफ आदमियों को डराया जा सकता है, जो इस देश की पुलिस की पहली प्राथमिकता है और चूंकि उनके कुंदों से किसी भी शांतिप्रिय नागरिक की खोपड़ी आसानी से तोड़ी जा सकती है, जो वक्त-जरूरत पड़ने पर करना ही पड़ता है, अतः उन्हें भारतीय पुलिस एवं. पी. ए. सी. को स्थानांतरित कर दिया गया था। जो भी हो, इन बंदूकों को सीट के सहारे टिकाए, चारों पुलिस वाले आराम से बैठे ताश खेल रहे थे। ताश के पत्ते इतने घिस चुके थे कि खलीफा हारून रशीद और उनके वजीर की तरह, जब वे रात में भेष बदलकर रियाया का हालचाल जानने की गरज से बगदाद की गलियों या सड़कों पर निकलते थे, बादशाह और गुलाम में फर्क करना आसान नहीं था। इसके बावजूद ट्रेन की मद्धिम रोशनी में भी उन्हें इन ताशों को खेलने में किसी प्रकार की कोई परेशानी नहीं हो रही थी और वह तो वह डिब्बे के पैसेज में जमा भीड़ के दो-चार लोग भी ऊंट की तरह अपनी गर्दनें आगे की ओर ताने उनके इस खेल को देख रहे थे। बहरहाल, डिब्बे विशेष के भीतर के इस सिनौरियो के साथ लगभग एक शताब्दी पुराने भाप के इंजन द्वारा खींची जा रही यह गाड़ी आराम से ‘कू, छिक, छिक’ करती हुई चली जा रही थी।

इस देश में पुलिस का सिपाही वैसे ही दहशत पैदा करने वाली चीज होता है, उस पर इन चारों की शक्लें भी कुछ ऐसी थीं कि यदि पुलिस की वर्दी के बजाए इन्हें साधारण वस्त्र पहनाकर, उनके फोटो निकाल कर उन्हें किसी पुलिस थाने में लगा दिया जाता तो वे पक्के डाकू दिखते जो इस देश का हर पुलिस वाला किसी न किसी हद तक होता ही है। सो इन चारों की शक्लें काफी डरावनी थीं लेकिन इनमें से एक की, जो पैसेज की तरफ बैठा था, शक्ल तो बहुत ही भयानक थी। उसका पूरा चेहरा घनी गलमुच्छों से भरा था जिस पर वह थोड़ी-थोड़ी देर में रह-रहकर हाथ फिरा कर मूछों पर ताव दे रहा था, जिसके पीछे एक उद्देश्य तो यह हो सकता था कि देखने वाले यह न समझें कि उसकी गलमुच्छें नकली हैं और दूसरा यह कि लोग उसे पृथ्वीराज चौहान या ऐसे ही किसी प्राचीन राजपूत राजा का वंशज समझें। वैसे इन गलमुच्छों के पीछे असलियत यह थी कि उसके आबनूसी चेहरे पर ल्यूकोडर्मा के बड़े-बड़े सफेद दाग थे जो इन गलमुच्छों से किसी जमाने में भले पूरी तरह ढक जाते रहे हों, अब वह अपने इस उद्देश्य में बुरी तरह असफल था।

डिब्बे के पैसेज में इतनी भीड़ थी कि लोगों को बाथरूम आदि जाने में भी खासी तकलीफ हो रही थी। इसके बावजूद सभी सवारियां अपने स्थान पर डरी-सहमी खड़ी थीं और किसी का साहस, पुलिस के इन मुस्टंडों द्वारा कब्जियाई गई, इन बर्थों पर बैठने का नहीं हो रहा था। इसका एकमात्र कारण यह था कि जो भी यात्री इसका साहस करता, पुलिस वाले, खासतौर से गलमुच्छड़, डपट कर उसे उठा देता। इस प्रक्रिया में एक व्यक्ति गलमुच्छड़ के हाथों मार भी खा चुका था। इसके पीछे उस व्यक्ति का मूर्खतापूर्ण दुस्साहस तो था ही, गलमुच्छड़ का दूसरों को मुनासिब सबक सिखाने का उद्देश्य भी शामिल था। और वास्तव में इसका वांछित प्रभाव पड़ा था, क्योंकि जिन यात्रियों ने उस अभागे व्यक्ति को गलमुच्छड़ के हाथों मार खाते तथा लगभग चलती ट्रेन से बाहर प्लेटफार्म पर फेंके जाते देखा था, वे स्वयं तो इस प्रकार का दुस्साहस कर ही नहीं रहे थे, डिब्बे में इतनी भीड़ के बावजूद घुस आए इक्का-दुक्का यात्रियों को ऐसा करने से, कभी उनकी बांह पकड़कर तो कभी वैसे ही आंखों के इशारे से, मना भी कर रहे थे।

गाड़ी का यह हाल था कि जहां उसकी मर्जी आती, खड़ी हो जाती और जब तक मर्जी आती, खड़ी रहती। कुल एक सौ सत्तासी किलोमीटर की दूरी आठ घंटे में तय करने का उसका सरकारी समय (आफिशियल टाइम) था, लगते तो कभी-कभी बाहर घंटे से भी ऊपर थे। वास्तव में इस गाड़ी का कोई पुरसांहाल नहीं था। गदर के जमाने के डिब्बे और लगभग एक शताब्दी पुराने भाप के इंजन वाली यह गाड़ी इन दो स्टेशनों के बीच शटल की तरह सुबह एक तरफ से चलकर शाम तक दूसरी तरफ पहुंच कर रात इधर से चलकर सुबह उधर पहुंचने का अपना कर्त्तव्य किसी तरह लस्टम-पस्टम निभाए जा रही थी। जनता की बराबर मांग के बावजूद न तो दूसरी गाड़ी ही इस रूट पर चली थी और न इस गाड़ी के डिब्बों या इंजन में ही कोई सुधार हुआ था। हां, दो-एक बार मुसाफिरों के लूट लिए जाने के बाद यात्रियों की सुरक्षा के लिए इसमें पुलिस का पहरा जरूर लगा दिया गया था और गलमुच्छड़ सहित यह चारों मुस्टडें इसी प्रबंध के अंतर्गत गाड़ी के इस डिब्बे में बैठे घिसी हुई ताश की गड्डी से ताश खेल रहे थे।

तभी एक स्टेशन पर गाड़ी रुकी तो पूरा गावदी लगने वाला एक युवक हाथ में टीन का एक बक्सा लिए किसी तरह गाड़ी के इस डिब्बे में घुस आया। उसके साथ उसकी जवान पत्नी और उसकी गोद में दस-बारह महीने का उसका बच्चा भी था जिसे वह इस आशा से प्लेटफार्म पर ही छोड़ आया था कि उसके साथ स्टेशन तक उसे छोड़ने आया उसका साला उसे ट्रेन में चढ़ा देगा। लेकिन तभी गाड़ी ने सीटी दे दी और उसका साला अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद अपनी बहन और भांजे को डिब्बे के अंदर ठूंसने में कामयाब नहीं हो पाया। वह तो कहो डिब्बे के गेट पर खड़े यात्रियों ने औरत की जवानी पर रहम खाकर पहले बच्चे को उसके हाथों से झपट कर अंदर किया, तब बच्चे की मां को कमर, बांह और जहां भी जिसका हाथ पहुंच सकता था, वहां से पकड़कर ऊपर खींच लिया, अन्यथा या तो वह डिब्बे का हैंडिल पकड़कर झूलती रह जाती या फिर चलती ट्रेन के नीचे आ जाती। इस पूरी कसरत में औरत की जो गत बनी वह तो बनी ही, बच्चा भी बुरी तरह हलाकान होकर जोर-जोर से रोने लगा और उसकी मां, जो मुश्किल से बीस-बाईस वर्ष की रही होगी और जो देखने में भारतीय फिल्मों की गांव की उस गोरी की तरह थी जो एक ही दृष्टि में हीरो का मन इस सीमा तक मोह लेती है कि हीरो अपने बाप द्वारा चुनी गई खासी खूबसूरत, जहीन, पढ़ी-लिखी और रईस बाप की बेटी से विवाह तय कर दिए जाने के बाद भी फेरे डालने से इंकार कर देता है और उस गंवार, जाहिल मगर खूबसूरत और अच्छे गले वाली गांव के नदी, नालों, झाड़ी झरनों के आसपास गंदी और अश्लील मुद्राएं बनाकर नाचने वाली छोकरी, जिसके खानदान का भी कोई पता नहीं होता है, से विवाह कर लेता है मगर इस विवाह से पहले उसे गांव के अधेड़ जमींदार अथवा साहूकार के गुंडों से निपटना होता है और कम से कम डेढ़ दर्जन हत्याएं करनी होती हैं-देखिए, वाक्य बहुत लंबा हो रहा है इसलिए आदि आदि। बहरहाल, दृश्य कुछ इस प्रकार था कि इधर बच्चे की जवान मां लहंगा ओढ़नी पहने, बच्चे को गोद में लिए, उसे चुप कराने के प्रयत्न में मुब्तला थी और उसके आसपास खड़े जवान, बूढ़े और अधेड़ लोग, निगाह किसी और तरफ किए चोरी-चोरी उसके शरीर की वक्रताओं की नाप-जोख में लगे थे, जबकि उधर उसका बौड़म पति जो पुलिस वाली बर्थों के खाने तक बढ़ आया था, अपना टीन का बक्सा अपने दोनों हाथों पर हनुमान के हाथों में पहाड़ की तरह साधे, यह समझ पाने में असफल था कि इस बक्से को वह कहां पटके और बच्चा था कि मुंह फाड़कर इस तरह चिल्लाए जा रहा था जिस तरह गुलीवर दानवों के देश में दुधमुंहे बालक द्वारा अपना (यानी गुलीवर का) सिर मुंह में भर लेने पर चिल्लाया होगा।

गलमुच्छड़ ने अपने स्थान पर बैठे-बैठे ही इस दृश्य को देखा और एक ही निगाह में अपनी पारखी नजरों से-उसकी आयु पचास से कम नहीं रही होगी-पूरी स्थिति को भांप लिया। ‘और किसी डिब्बे में मरने को नहीं मिला था तुझे?’ उसने दोनों हाथों से बक्सा हवा में ऊपर उठाए उस गावदी को डपटा। तब बिना अपने प्रश्न के उत्तर की प्रतीक्षा किए उससे आगे बोला, ‘बक्सा रख नीचे। किसी की खोपड़ी पर पटकेगा?’ इसे करिश्मा कहिए या जादू, गलमुच्छड़ के इतना कहते ही जहां तिल रखने की भी जगह नहीं थी, वहां बक्सा रखने की जगह बन गई।

बक्सा फर्श पर नीचे रखकर उस गंवार ने डिब्बे में चढ़ने के पश्चात पहली बार पीछे मुड़कर अपनी पत्नी की ओर देखा (बच्चे की चिल्लाहट से वह इस बात से पहले ही आश्वस्त हो गया था कि बच्चा डिब्बे के अंदर है और पूरा गावदी होने के बावजूद उसने यह तर्क भी लगा लिया था कि जब बच्चा अंदर है तो उसकी मां बाहर नहीं हो सकती) और उस भीड़ में जो चुंबक में लोहे की तरह उसकी पत्नी से चिपकी चली जा रही थी, मां और बच्चे दोनों की ही दुर्दशा होते पाया और यह सोचकर कि कम से कम बच्चे को ही सही, इस मुसीबत से उबार लिया जाए, अपनी पत्नी से बोला, ‘ला मुन्ना का हम का दइ दे। मार हलकान ह्वे रहा है।’ उसका इतना कहना था कि बच्चा एक हाथ से दूसरे हाथ होता हुआ उस तक पहुंच गया। औरत के इर्द-गिर्द जमा भीड़ का ख्याल था कि बच्चे के औरत की गोद से हट जाने से उन्हें उसके शरीर की नप-जोख करने में ज्यादा आसानी हो जाएगी, लेकिन हुआ इसका बिल्कुल उल्टा। बच्चे से मुक्त होकर बच्चे की मां ने स्वयं को संभाला और अपने ऊपर झुके आ रहे अधेड़ व्यक्ति को, जिसने बच्चे को उसकी गोद से लेकर आगे बढ़ाया था, परे ढकेलते हुए कहा, ‘सूधे काहे नाई ठाढ़ होत?’ तब जैसे अपने आपसे ही बोली, ‘उपरै लदे चले आ रहे हैं। जइसे आज तक कउनौ मेहिरऐ नाई देखिन है।’ उसके इतना कहने का असर हुआ। उसके इर्द-गिर्द खड़े लोग जो ऊपर से भोले बने लेकिन अंदर से पूरे मुरहपन के साथ उसके शरीर से अपने शरीर को रगड़ कर न्यूटन के घर्षण के सिद्धांत के परीक्षण में लगे थे, अपने-अपने प्रयोग में जहां के तहां रुक गए। औरत ने पहले तो अपनी चुनरी से अपना मुंह पोंछा, तब अपने सामने खड़े व्यक्ति से बोली, ‘हटौ वइसी निकरै देव हमका।’

‘कहां हटें? कहीं जगह भी है। चुप्पे खड़ी रहो यहीं।’ उस व्यक्ति ने शिकार हाथ से निकलते देख किंचित धौंस से काम लेना चाहा।

‘हिऐं ठाढ़ी रही तो हमरे लरिका का दूध तुम पियइहौ का?’ उसने कहा और धक्का देकर उसे एक ओर करती हुई आगे बढ़ गई। औरत की इस ढिठाई से परास्त होकर भीड़ ने हथियार जेब में रख लिए (डालने का प्रश्न नहीं उठता था, क्योंकि फर्श पर जगह ही नहीं थी) और औरत भीड़ को चीरती हुई अपने मर्द के पास आ गई और बुरी तरह गला फाड़कर रो रहे बच्चे को उसके हाथ से लेकर खड़े-खड़े ही अपनी चुनरी की आड़ में करके अपना स्तन उसके मुंह में डालने लगी। लेकिन बच्चा, ऐसा लगता था, अपना गला पूरी तरह फाड़ डालने पर उतारू था अतः उसने स्तन अपने मुंह में लेने से इंकार कर दिया और चिल्लाना बदस्तूर जारी रखा।

इस दौरान पुलिस के मुस्टंडों के बीच चल रहा ताश का खेल बंद हो चुका था और उनमें से दो, निद्रा देवी की गोद में जाने के उद्देश्य से, ऊपर की बर्थों पर लमलेट हो चुके थे, लेकिन गलमुच्छड़ और उसका बचा हुआ साथी अभी सोने के मूड में नहीं थे। अतः अभी भी अपनी-अपनी जगह बैठे थे और गलमुच्छड़ जेब से दोमुंही डिबिया निकाल कर एक तरफ के खाने से गदा छाप तंबाकू और दूसरी तरफ के किंचित छोटे वाले खाने से तर्जनी से चूना निकाल कर बाईं हथेली पर रखकर दाहिने अंगूठे से उसे रगड़-रगड़ कर तंबाकू का भुरकुस बनाने में जुटा था जबकि उसका साथी स्वयं को हिंदी का इयान फ्लेमिंग अथवा जेम्स हैडली चेज से कम न समझने वाले किसी लेखक का अंग्रेजी के किसी जेम्सबांडी उपन्यास के प्लाट को चुराकर हिंदी में लिखी गई महान कृति को हाथ में लिए इस प्रतीक्षा में था कि गाड़ी का बूढ़ा इंजन कुछ और जोर पकड़ ले, जिससे रोशनी कुछ और हो तो वह समुद्र के अंदर बने विलेन के शीशे के महल में, जिसके चारों ओर बड़ी-बड़ी व्हेल मछलियां, विशालकाय आक्टोपस और ऐसे-ऐसे जानवर जो जीव विज्ञान की पुस्तकों में भी नहीं पाए जाते, तैर रहे थे, घुस गए भारत के महान जासूस, मिलेट्री के रिटायर्ड ब्रिगेडियर, महावीर चक्र प्राप्त, कैप्टन अल्फ्रेड दलाल (यह राज लेखक ने नहीं खोला था कि आखिर ‘ब्रिगेडियर’ पद से रिटायर्ड व्यक्ति ‘कैप्टन’ क्यों कहलाता था) के आगे के कारनामे पढ़े। तब तक गलमुच्छड़ ने खैनी बनाकर ठीक से फटकार कर हथेली, अपने हाथ में महान जासूसी उपन्यास पकड़े, अपने साथी की ओर बढ़ा दी। उसके साथी ने एक क्षण के लिए बहुत ही दार्शनिक भाव से हथेली पर रखी खैनी को देखा, तब चुटकी में भरकर उसे तौला और आवश्यकता से ज्याद पाने पर थोड़ी-सी हथेली में वापिस गिराने के बाद उसे अपने होंठ में दबा लिया। शेष बची खैनी गलमुच्छड़ ने हथेली से ही चूरन की ताह फांक ली, जबान को इधर-उधर चलाकर उसे होठों में सेट किया और उड़ती-सी एक निगाह अपनी पत्नी और बच्चे के साथ डिब्बे में घुस आए उस गावदी पर डाली जिसके संदूक पर अब तक दो व्यक्ति बैठ चुके थे और जो अगर ऊपर तक कपड़ों से भरा न होता तो कब का चरमरा कर बैठ चुका होता, और तब उसकी पत्नी द्वारा बच्चे को चुप कराने और बच्चे द्वारा गला फाड़कर दो कर देने के बीच छिड़े वात्सल्यपूर्ण संघर्ष को देखने लगा।

इस बीच गलमुच्छड़ द्वारा खैनी बनाने के दौरान उसमें फटकी लगाने और मुंह में भरने के बाद हाथ हवा में झाड़ने के कारण उसके सूक्ष्म कणों ने डिब्बे के वायुमंडल में फैलकर यात्रियों की नासिकाओं में प्रवेश पा लिया था और कुछ कमजोर सहनशक्ति वाले लोग इससे प्रभावित होकर ताबड़तोड़ छींकने लगे थे। अब यह तो डाक्टरी शोध का विषय हो सकता है कि छींक की गिनती संक्रामक रोग में आती है या नहीं, बहरहाल, या तो यात्रियों की छींक संक्रामक थी या फिर खैनी के कण अब भी हवा में तैर रहे थे और निशाना साधकर लोगों की नासिकाओं में घुस रहे थे क्योंकि एक के बाद एक ठहाकेदार छींकें डिब्बे में गूंजने लगीं और कुछ देर में ही ऐसा लगने लगा जैसे छींकों का कोई कंपटीशन शुरू हो गया हो। फ्रायड ने लिखा है कि मासूस बच्चों के स्वभाव में जिज्ञासा सबसे शक्तिशाली भाव होता है इसलिए वह हर प्रकार के नए अनुभव को बहुत ही ध्यान से देखते हैं। जो भी हो, छींक के इस अचानक शुरू हुए कंपटीशन से चौंक कर बच्चा सहसा चुप हो गया और छींकते-छींकते लोगों के लाल हो आए मुंहों को देखने लगा। लेकिन जैसे ही यह प्रतियोगिता रुकी, बच्चे ने फिर रोना शुरू कर दिया। अब उसे चुप कराने के दो ही तरीके हो सकते थे। एक यह कि उसकी जिज्ञासा जगाने वाला ऐसा ही कोई और कंपटीशन शुरू किया जाए या फिर उसे दूध पिलाया जाए, क्योंकि बच्चा वास्तव में भूखा था, लेकिन दूध पीने के लिए मां का स्तन तब तक मुंह में लेने के लिए तैयार नहीं था, जब तक मां की गोद का पूरा सुख और आराम, जिसका वह आदी था और जो ट्रेन के इस भीड़ भरे डिब्बे में खड़े-खड़े उसकी मां उसे नहीं दे सकती थी, उसे न मिल जाए। बच्चे और उसकी जवान मां की ओर ताकते हुए गलमुच्छड़ को मां और बेटे की तकलीफ भांपने में देर नहीं लगी और शायद उन पर रहम खाकर या फिर किसी और कारण, अपने उसूलों के खिलाफ, उसने थोड़ा सरककर बर्थ पर अपने हाथ से थपकी देते हुए उस औरत से वहां बैठ जाने का आंखों से इशारा किया। बोल वह इसलिए नहीं सकता था, क्योंकि उसके मुंह में खैनी भरी थी और इतनी देर में ही उसने उसमें इतना रस पैदा कर लिया था कि उसे थूके बिना बोलना संभव नहीं था। औरत उसके इशारे को समझ गई, लेकिन अभी थोड़ी देर पहले गेट के निकट भीड़ के बीच हुए अपने अनुभव को याद करती हुई अपने स्थान पर खड़ी इस बात का अनुमान लगा रही थी कि कहीं यह जलते तवे से सीधे दहकती आग में जा पड़ने वाली स्थिति तो नहीं होगी।

पत्नियों की अपेक्षा पति प्रायः मूर्ख होते हैं (यह बात मैं भारतीय पतियों को दृष्टि में रखकर कर रहा हूं, अतः यदि कोई विदेशी पाठक इस कहानी को पढ़े तो कृप्या मेरी इस बात का बुरा न माने) जिसके कारण समाज में बसे-बसाए घर उजड़ने से लेकर आत्महत्या और हत्या तक की घटनाएं आम हैं। इस कथन को चरितार्थ करते हुए औरत के गावदी पति ने बिना आगा-पीछा सोचे अपनी पत्नी से बिगड़ते हुए कहा, ‘मुंसीजी कहत हैं तो काहे नाई बईठ के मुन्ना का दूध पियाए देत है?’

औरत ने कातर दृष्टि से अपने पति की ओर देखा। तब एक पतिव्रता भारतीय नारी की तरह अपने पति की आज्ञा का पालन करते हुए गलमुच्छड़ की बगल में कोई छह इंच का फासला रखते हुए (इससे अधिक फासला रखना संभव नहीं था, क्योंकि खिड़की की ओर की तमाम जगह खाली छोड़े गलमुच्छड़ पैसेज की ओर खिसककर बैठा था) बेंच पर बैठ गई और अपने दोनों पांव ऊपर करके लहंगा संभालते हुए पालथी मारकर आराम से होने के बाद, बच्चे को गोद में लिटाकर स्तन उसके मुंह में दे दिया। बच्चे की मां की उष्मा भरी गोद का सुख, जिसका वह आदी था, मिला तो वह आराम से स्तन को मुंह में लेकर, अपना एक हाथ दूसरे स्तन पर रखकर ताकि अगर जरूरत पड़े तो उसका दूध भी पी सके, चुपचाप दूध पीने लगा। औरत या लड़की (भाषा के संस्कारवश बीस-बाईस वर्ष की गंवार देहाती स्त्री को ‘महिला’ तो कहा नहीं जा सकता) ने अपनी ओढ़नी से बच्चे को पूरी तरह ढक लिया, लेकिन इसके बावूजद, या तो ओढ़नी इतनी पारभासी नहीं थी या फिर बच्चे और बच्चे की मां दोनों का ही शरीर इतना गोरा था कि हैदराबाद सालार जंग म्यूजियम में रखी घूंघट वाली सुंदरी की पत्थर की मूर्ति की तरह ओढ़नी के पीछे बच्चे की हरकतें और उसके मुंह में पड़ा उसकी मां का अधखुला स्तन साफ दिखाई दे रहा था, जिसे सामने खड़े यात्री कुछ इस भाव से देख रहे थे जैसे वह यह देखना तो न चाहते हों, लेकिन करें क्या, आंख तो बेचारे बंद नहीं कर सकते। इसी के साथ बीच-बीच में एक दृष्टि गलमुच्छड़ पर भी डाल कर वह इस बात का अनुमान लगाने का भी प्रयत्न कर रहे थे कि कहीं स्वस्थ बच्चे की यह स्वस्थ मां भेड़ियों के गोल से निकलकर शेर की मांद में तो नहीं जा पड़ी है, क्योंकि अभी कुल साढ़े बारह बजे थे, यानी कम से कम चार-पांच घंटे रात बाकी थी और डिब्बे में लगे बिजली के मरियल बल्बों की रोशनी धीमी होने पर इस तरह बेजान हो जाती थी कि गाड़ी का डिब्बा डिब्बा न लगकर कोयले की खदान के अंदर जमीन से दो-चार सौ फीट नीचे की किसी सुरंग जैसा लगने लगता था और जो लोग भारतीय रेल के दूसरे दर्जे के बिना आरक्षण वाले डिब्बे में रात में सफर कर चुके हैं, वह भलीभांति जानते हैं कि रेल, रात, भीड़, औरत, नींद और सबसे बढ़कर एक-दूसरे के बीच पूर्ण अपरिचय के आपस में मिलने से कभी-कभी ऐसी सेक्सी सिचुएशन उत्पन्न हो जाती है, जिसे ‘चोली के पीछे क्या है’ जैसे गाने को धड़ल्ले से पास करने वाला भारतीय फिल्मों का सेंसर बोर्ड भी पास करने में घबराएगा। खैर, औरत इस तरह की सारी शंकाओं से मुक्त अपने बच्चे को दूध पिलाते हुए मातृत्व सुख प्राप्त करने में तल्लीन थी और उसका पति, जिसे बुरी तरह बीड़ी की तलब लगी हुई थी, अपने स्थान पर खड़ा चारों ओर दृष्टि दौड़ाकर देख रहा था कि अगर आसपास कोई और बीड़ी-सिगरेट जलाए तो वह भी अपनी बीड़ी जलाकर कम से कम आठ-दस क्यूबिक इंच धुआं अपने फेफड़ों में उतार ले।

बच्चे का पेट जल्दी ही भर गया, क्योंकि एक स्तन का दूध पीते ही उसने दूसरे स्तन से खेलना बंद कर अपना हाथ वहां से हटा लिया और सहसा एक झटके से अपनी मां की चुनरी उलटकर, अपना मुंह बाहर निकाल कर बड़ी-बड़ी आंखों से डिब्बे में भरी भीड़ का अवलोकन करने लगा। चार-छह क्षण इधर-उधर देखने के बाद गलमुच्छड़ को अपनी बाल-सुलभ जिज्ञासा का केंद्र बनाते हुए उसने अपनी दृष्टि उसके ऊपर जमा दी और तब किलकारी मारकर जोर से हंसने के बाद (इस बीच अपने ब्लाऊज के बटन बंद करने के पश्चात उसकी मां ने गोद से उठाकर उसे अपने हाथों में ले लिया था) उसकी दाढ़ी नोचने का पक्का इरादा बनाकर उस पर झपटा। गलमुच्छड़, जो बच्चे की पहुंच से थोड़ा दूर था, उसकी यह हरकत देखकर मुस्कराया और खिड़की की तरफ बढ़कर खैनी की पीक बाहर थूक कर, जिसकी कुछ छींटें अवश्य ही डिब्बे के पीछे वाले खाने में खिड़की के पास बैठे लोगों के ऊपर पड़ी होंगी, वापस अपने स्थान पर आकर बच्चे से बोला, ‘क्यों बेटा, पेट भर गया तो अब हरामीपन पर उतारू हो गए?’

बच्चे ने उसकी इस बात का जवाब अपने दोनों हाथों को फैलाकर नए उत्साह से उसकी ओर लपक कर दिया और अगर उसकी कमर पर उसकी मां के हाथों की पकड़ जरा भी ढीली होती तो यह निश्चित था कि बच्चा गलमुच्छड़ की दाढ़ी पकड़कर झूल गया होता।

बच्चे की यह हरकत उसके बाप को खासी बुरी लगी, लेकिन बजाय बच्चे को डांटने के उसने अपना गुस्सा बच्चे की मां पर उतारा, ‘पकर के ठीक ते काहे नाई बइठत है ऊका।’ बच्चे की मां पर बच्चे के बाप की इस फटकार का कोई प्रभाव पड़ता, इससे पूर्व गलमुच्छड़ ने अचानक बच्चे पर उमड़ आए प्यार (नकली या असली, यह कहना मुश्किल था, लेकिन अधिकांश देखने वालों की निगाह में पूरी तौर से नकली) के कारण या फिर किसी और वजह से अपने दोनों हाथ बच्चे की ओर बढ़ाए ही थे कि बच्चा अपनी मां की गोद से छिटककर गलमुच्छड़ के हाथों में आ गया और इसी के साथ उसने अपने नन्हें, लेकिन स्वस्थ हाथ से गलमुच्छड़ के गाल पर एक भरपूर तमाचा जड़ दिया।

बच्चे की इस हरकत से उसके मां-बाप सहसा सन्नाटे में आ गए, लेकिन आसपास खड़े सारे यात्रियों के हृदय में आनंद का अद्भुत संचार हुआ और वे उत्सुकता से इस बात की प्रतिक्षा करने लगे कि बच्चे के हाथ से झापड़ खाने के बाद गलमुच्छड़ अब करता क्या है। दो-एक किंचित कमजोर हृदय वाले लोग यह सोचकर डरे भी कि कहीं गलमुच्छड़ बच्चे को चलती ट्रेन की खिड़की से बाहर न फेंक दे, लेकिन फिर बच्चे के स्वास्थ्य को देखते हुए इस नतीजे पर पहुंचकर कि खिड़की की सलाखों के बीस से उसका निकल पाना आसान नहीं होगा, कुछ आश्वस्त हुए।

इधर गलमुच्छड़ ने बच्चे को अपने दोनों हाथों से मजबूती से पकड़कर उसे अपनी आंखों के ठीक सामने हवा में लटका लिया और अपनी पलकों को फैलाकर अपनी आंखों को जितना भी बड़ा कर सकता था, उतना बड़ा करते हुए उससे बोला, ‘साले, पुलिस के ऊपर हाथ चलता है और वह भी ड्यूटी पर! जानता है, इसका क्या नतीजा होगा? दफा 323 के तहत सात साल से कम की सजा न होगी। जेल में चक्की पीसते-पीसते हाथ में ढट्ठे पड़ जाएंगे।’

बच्चे पर इसका क्या असर हुआ, यह कह पाना मुश्किल है, लेकिन बच्चे का बाप गलमुच्छड़ की यह मुद्रा देखकर डरा कि कहीं ऐसा न हो कि बच्चा तो नासमझ है, इसलिए उसके एवज में सजा बाप को काटनी पड़े। अतः उसने बच्चे की मां को जोर से डपटा, ‘देख का रही है? मुंसीजी से लइके लगा दुई हाथ ई के।’

‘लाओ हमका दइ देव अइसी।’ बच्चे की मां ने गलमुच्छड़ से कहा तो गलमुच्छड़ ने बच्चे को हाथ में लिए-लिए ही बच्चे की मां की ओर मुड़कर देखा, जिसमें उसे एक क्षण भी नहीं लगा होगा, लेकिन इस क्षणांश के लिए ही अपनी ओर से गलमुच्छड़़ का ध्यान हटते देख, बच्चे ने उसका पूरा फायदा उठाते हुए एक और झापड़ गलमुच्छड़ के दिया जो निशाना चूक जाने के कारण उसके गाल पर पड़ने के बजाय उसकी कनपटी पर पड़ा, जिससे उसकी पुलिस वाली टोपी फर्श पर आ गिरी।

अब तो इस दृश्य को देखकर पैसेज में खड़े यात्रियों के होठों पर बाकायदा संतोष की मुस्कान खेलने लगी। दो-एक को तो अपनी हंसी रोकने के लिए मुंह में रूमाल ठूंसना पड़ा या फिर नकली खांसी खांसनी पड़ी।

गलमुच्छड़ ने अपनी आंखें, जो थोड़ी देर फैली रहने के बाद अपनी ओरिजनल साइज में आ गई थीं, पुनः फैलाईं बल्कि इस बार अपनी पलकों की मांसपेशियों पर अतिरिक्त बल लगा कर उन्हें कुछ ज्यादा ही फैलाया तथा बच्चे को अपनी बगल में, जिधर उसकी मां बैठी थी, उसके दूसरी ओर बैठाते हुए बोला, ‘तेरी साले यह हिम्मत! अब तो तेरा इन्काउंटर करना पड़ेगा।’ और वह कमर में बंधी पुलिसिया पेटी से अपनी बंदूक खोलने लगा।

बच्चे के मां-बाप के साथ, इस बार, पैसेज में खड़े यात्री भी गलमुच्छड़ की यह मुद्रा देखकर घबरा गए। आखिर इन पुलिसवालों का क्या भरोसा, बच्चा हो या बूढ़ा, इन सालों की आंख में शील और हृदय में रहम या दया नाम की चीज तो होती नहीं, कौन ठीक बच्चे को गोली मार ही दे। कह देगा बच्चा बगल में बैठा बंदूक से खेल रहा था, वही जाने कैसे उसका घोड़ा दब गया और गोली बच्चे के सीने में जा लगी। अतः बच्चे का बाप अपने दोनों हाथ जोड़े हुए अपनी शक्ल जितनी भी दयनीय बना सकता था, उतनी दयनीय बनाते हुए गलमुच्छड़ की ओर बढ़ा। गलमुच्छड़ ने, जो पेटी से बंदूक को अलग करने में लगा था, बच्चे के बाप पर एक वक्र दृष्टि डाली और बोला, ‘चुपचाप अपनी जगह खड़ा रह। मैं इस साले से निपट लूंगा। पिद्दी न पिद्दी का शोरवा, साला मेरी इज्जत पर हाथ डालेगा। टोपी उछालेगा मेरी। तेरी तो साले...।’

‘अबै बच्चा आय। का समझै...।’ बच्चे के बाप ने मिमियाते हुए कहा और गलमुच्छड़ की टोपी फर्श से उठाकर अपनी धोती में रगड़कर उसकी धूल झाड़ने के पश्चात अपनी दोनों हथेलियों में उसे इस तरह रखकर उसकी ओर बढ़ाया, जिस तरह द्वारचार के समय बढ़िया कीमती ट्रे में रखा हुआ बढ़िया शाल या सूट का कपड़ा दोनों पक्षों के बीच पूर्व निश्चित रकम के साथ, लड़की का बाप लड़के के बाप (बाप न हुआ तो ताऊ या चाचा) की ओर बढ़ाता है।

गलमुच्छड़ ने बच्चे के गावदी बाप की हथेलियों पर रखी उत्तर प्रदेश प्रशासन के मछलियों के जोड़े वाले मोनोग्राम वाली, जिसे उसने आज ही घर से चलने से पहले ब्रासो से रगड़कर चमकाया था, टोपी पर तिरस्कार भरी एक ऐसी दृष्टि डाली, जिसका एक ही अर्थ हो सकता था कि इज्जत तो मेरी मिट्टी में मिल ही गई, अब इसका क्या मैं अचार डालूंगा, तब टोपी को बिना हाथ से छुए बच्चे के बाप से बोला, ‘रख दे यहीं। पहले इस साले से निपट लूं।’ इतना कहकर उसने बंदूक को, जिसे वह अब तक पेटी से खोल चुका था, एक अजीब भाव से देखा, गोया सोच रहा हो कि बंदूक की बोहनी इस बच्चे के कत्ल से करना कहां तक उचित होगा और तब कुछ सोचकर उसे सीट से टिकाकर रखते हुए बच्चे से बोला, ‘तेरे ऊपर एक गोली भी क्यों बरबाद की जाए? तुझे तो मैं वैसे ही गला दबाकर मार डालूंगा।’ इसी के साथ वह अपने दोनों हाथ की उंगलियों को मरोड़कर, हाथ के पंजों को अर्धवृत्ताकार फैलाकर होठों को सिकोड़कर, दांत किटकिटाते हुए बच्चे की ओर बढ़ा। बच्चा, जो अब तक अप्रत्याशित रूप से खामोश था, गलमुच्छड़ की इस प्रकार बिगड़ी हुई मुखाकृति देखकर मुस्कराया, तब सहसा झपटकर अपने ऊपर झुक आए गलमुच्छड़ की दाढ़ी अपने दोनों हाथों से दबोच ली।

‘अबे छोड़, छोड़, छोड़।’ गलमुच्छड़ जोर से चिल्लाया और बच्चे के हाथ से अपनी दाढ़ी छुड़ाने का प्रयत्न करने लगा।

अब तो वहां खड़े सारे यात्री, (बच्चे के मां-बाप को छोड़कर) जो यह दृश्य देख रहे थे, बेसाख्यता हंसने लगे। हां, इस बात पर जरूर लोगों का अलग-अलग मत था, जिसे उन्होंने एक-दूसरे से व्यक्त नहीं किया कि बच्चा वास्तव में कृष्ण का अवतार है या फिर गलमुच्छड़ केवल बच्चे से खेल रहा है, उसे मारने का उसका कोई इरादा नहीं है। जो भी हो, गलमुच्छड़ जब अपनी दाढ़ी किसी तरह बच्चे के हाथ से छुड़ाने में सफल हुआ तो बच्चे के हाथ में उसकी दाढ़ी के चार-छह बाल दूर से ही झलक रहे थे जो इस बात का प्रमाण थे कि गलमुच्छड़ की दाढ़ी पर बच्चे की पकड़ खासी मजबूत थी और निश्चय ही उसके द्वारा उसे पकड़ने और गलमुच्छड़ द्वारा उसकी पकड़ से मुक्ति पाने की पूरी प्रक्रिया के दौरान गलमुच्छड़ को खासा कष्ट हुआ होगा।

‘हमका दइ देव अब ईका।’ इस बार बच्चे की मां ने गलमुच्छड़ से विनती की।

‘तुमको दे दें इसको?’ गलमुच्छड़ ने बच्चे की मां को घूरा, ‘ई साला हमारी यह दुर्दशा कर रहा है और हम इसको बिना सजा दिए तुमको दे दें! बैठ वहीं अपनी जगह।’ कहकर वह फिर बच्चे की ओर मुड़ा, ‘चल साले यही सही, उसने कहा, ‘तुझको जो करना हो, पहले कर ले। मौत तो तेरी आज मेरे हाथों लिखी ही हुई है। लेकिन चला ले तू जितने दांव-पेंच आते हों तुझे। और यह भी सुन ले, मैं क्या करूंगा तेरे साथ अब। यह गाड़ी देख रहा है न, जिसमें बैठा है तू? इसी चलती गाड़ी से तुझे बाहर नहीं फेंका तो यह समझना, अपने बाप से नहीं पैदा हूं मैं? हरामी की औलाद हूं।’ (कहना उसे सिर्फ ‘हरामी’ चाहिए था, लेकिन कहा उसने ‘हरामी की औलाद’ जिसका अर्थ यह निकलता था कि वह तो जो है सो है ही, उसका बाप भी अपने बाप से पैदा नहीं था।)

जो भी हो, उसकी इस बात से यात्रियों के मन में फिर शंका हुई कि अब जब वह कसम खा चुका है और वह भी ऐसी कसम, जिसका ताल्लुक उसकी मां के चरित्र से तो है ही, उसकी दादी तक का चरित्र संदेह के घेरे में आ जाता है तो वह अपने कौल को निभाने के लिए कुछ न कुछ तो करेगा ही और अगर चलती ट्रेन से नीचे न भी फेंका तो यह तो कर ही सकता है कि अगले स्टेशन पर या जहां भी गाड़ी रुके, वहां इस बच्चे को लेकर उतर जाए और गाड़ी दोबारा चलने पर उसे प्लेटफार्म पर या कहीं भी इधर-उधर छोड़कर वापस आ जाए।

यही डर संभवतः बच्चे की मां के हृदय में भी जागा। अतः उसने अपने भय को अपनी आंखों से ही व्यक्त करते हुए अपने बौड़म पति की ओर देखा, जो स्वयं काफी डरा हुआ था, और गलमुच्छड़ द्वारा डपट दिए जाने के बाद, उसकी टोपी बगल में रखकर अपने स्थान पर खड़ा, अपनी तलब और अधिक न रोक पाने के कारण या फिर हाई पिच पर पहुंच गए अपने टेंशन को कम करने के उद्देश्य से, बीड़ी जलाकर धकाधक कश मारने में जुटा था। इस बीच बच्चा अपने स्थान पर खामोश बैठा गलमुच्छड़ की ओर न देखकर सामने वाली बेंच पर बैठे उसके दूसरे साथी को निहार रहा था जो किताब के बीच अपनी उंगली फंसाए समुद्र के नीचे बने विलेन के शीशे के महल (जो बुलेटप्रूफ शीशे का बना था और इसीलिए हीरो यानी विश्वविख्यात जासूस अल्फ्रेड दलाल द्वारा विलेन पर गोली चलाए जाने पर निशाना चूक जाने के कारण गोली दीवार में लगने के बावजूद उसमें सूराख नहीं हुआ था) के बारे में सोच रहा था कि भला ऐसा महल समुद्र के नीचे नींव खोदकर बनाया होगा या फिर उसे जमीन पर बनाकर बड़े-बड़े क्रेनों की सहायता से समुद्र के तल में उतार दिया गया होगा, क्योंकि पुस्तक के लेखक ने इस बारे में कोई जानकारी नहीं दी थी।

बच्चे द्वारा गलमुच्छड़ के साथी को इस तरह घूरने के साथ ही पैसेज में खड़े यात्रियों का ध्यान भी उधर गया और उनमें कुछ, जो अब तक बच्चे को कृष्ण नहीं तो बलराम का अवतार तो मान ही चुके थे, मन ही मन यह सोचने लगे कि गलमुच्छड़ और बच्चे के बीच छिड़े इस युद्ध में जिसे उनके अनुसार अभी अपनी तार्किक परिणति पर पहुंचना बाकी था, गलमुच्छड़ के साथी की क्या भूमिका हो सकती है। शायद बच्चा यदि उसमें सोचने की इतनी क्षमता होती है (मनोवैज्ञानिकों के अनुसार तो नहीं होती, लेकिन इस देश में, जहां बाल कृष्ण ने बड़े-बड़े पराक्रमी राक्षसों को साधारण से साधारण भेष बदलकर आने पर भी दूर से ही उन्हें पहचान कर क्षणांश में ही पछाड़ दिया हो, कुछ भी संभव है) तो वह भी यही सोच रहा था और यह तय नहीं कर पा रहा था कि पहले गलमुच्छड़ की पूरी दुर्दशा वह कर ले, तब उसके साथी से निपटे या साथ ही साथ एक-दो हाथ उसके भी लगाता चले। तभी गलमुच्छड़ के साथी ने गलमुच्छड़ से कहा, ‘टोपी पहन लो अपनी। इज्जत तो मिट्टी में मिल ही गई तुम्हारी।’

बात इतनी मासूमियत से कही गई थी कि वह व्यंग्य में कही गई है अथवा ललकार-स्वरूप, गलमुच्छड़ के स्वाभिमान को जगाकर उसके अंदर अतिरिक्त शक्ति का संचार कराने के उद्देश्य से, ठीक से नहीं कहा जा सकता था। जो भी हो, गलमुच्छड़ ने सीट पर रखी अपनी लाल पैच वाली खाकी टोपी उठाई और थोड़ा बांकपन से, जैसा कि पुलिस की टोपियों में या फिर छंटे शातिर खद्दरदारी बदमाशों की टोपियों में देखने को मिलता है, अपने सिर पर लगा ही रहा था कि बच्चा एक हाथ से सीट की दीवार का सहारा लेकर खड़ा हुआ और दूसरा हाथ इतनी जोर से गलमुच्छड़ के सिर पर मारा कि टोपी दोबारा जमीन पर आ गिरी। और लोग तो हंसे ही, इस बार बच्चा भी अपनी इस कामयाबी पर जोरों से खिलखिलाकर हंसा, जिससे गलमुच्छड़ ने पहली बार उसके मुंह के ऊपर के चार और नीचे के दो नन्हे, सफेद, चमकदार दांत देखे। साथ ही यह भी देखा कि ऊपर के किनारे वाले दो दांत कुछ ज्यादा ही नुकीले हैं।

‘अच्छा तो साले, दांत भी निकाल लिए हैं’ गलमुच्छड़ ने कहा, ‘यह साला जरूर राक्षस का अवतार है। इसके किनारे वाले दांत बता रहे हैं। इतने लंबे दांत आदमी के बच्चे के हो ही नहीं सकते। खोल मुंह खोल, देखें। तेरी तो साले...।’ और गलमुच्छड़ एक हाथ से बच्चे का सिर पकड़ कर दूसरे हाथ से उसका मुंह खोलने लगा, जो उसने एक बार दांत दिखाने के बाद दोबारा बंद कर लिया था। लगभग आधा-पौन मिनट तक गलमुच्छड़ और बच्चे के बीच मुंह खुलवाने वाला यह संघर्ष चला होगा कि सहसा बच्चे ने अपने दोनों हाथों से गलमुच्छड़ की कलाई पकड़कर उसकी तर्जनी कसकर अपने दांतों के बीच दबा ली।

‘अबे, अबे, अबे मार डालेगा क्या...?’ गलमुच्छड़ जोर से चिल्लाया।

बच्चे ने घबराकर उसकी उंगली छोड़ दी, लेकिन इस बीच वह अपने दांतों से उंगली की जितनी भी दुर्गति कर सकता था, कर चुका था और गलमुच्छड़ अपनी तर्जनी दूसरे हाथ की मुट्ठी में लिए उसे अपनी जांघों के बीच दबाकर ‘सी’ ‘सी’ करने लगा। गलमुच्छड़ की इस ‘सी’ ‘सी’ का बच्चे ने, जो अभी भी बर्थ की टेक का सहारा लिए गलमुच्छड़ की ओर मुंह किए खड़ा था और जिसकी लंगोटी इस सारे प्रकरण में कुछ इधर-उधर हो गई थीं, कुछ गलत अर्थ निकाला और बाकायदा धार बनाकर मूतने लगा। गलमुच्छड़ की वर्दी को भेदती हुई बालामृत की गरम-गरम धार उसके शरीर तक पहुंची तो उसने चौंक कर उधर देखा।

‘अबे, अबे...सरकारी वर्दी पर...तेरी तो...।’ उसने कहा और जांघों के बीच हाथ की मुट्ठी में बंद अपनी जख्मी तर्जनी को छोड़कर तुरंत उठकर खड़ा हो गया ताकि बच्चे के इस नए आक्रमण से, जो कुछ-कुछ आज के जमाने में पुलिस द्वारा भीड़ को भगाने के लिए उस पर छोड़ी जाने वाली पानी की तेज धार से मेल खाता था, बच सके और खिड़की के निकट आकर, जहां हवा का झोंका कुछ तेज था, अपनी वर्दी के भीगे हुए हिस्से को चुटकी से पकड़कर तन से अलग करते हुए सुखाने लगा।

इस बीच गाड़ी, जो बच्चे, उसके गावदी बाप और जवान मां के इस डिब्बे में चढ़ने के बाद तीन-चार स्टेशनों पर सवारी लेने और उतारने के बाद अलगे स्टेशन की ओर बढ़ रही थी, सहसा फिर धीमी पढ़ने लगी और खिड़की के पार वृक्षों के बीच कहीं-कहीं, कुछ रोशनी-सी दिखाई देने लगी।

‘अपन टेसन आएगा जानौ।’ बच्चे की मां ने कहा।

बच्चे के बाप ने थोड़ा टस-मस होकर खिड़की के पार झांका। तब अपने संदूक पर आसन जमाए व्यक्तियों से बोला, ‘ए भइया उठौ तनिक, संदूक उठावै देव।’

संदूक पर बैठे दोनों व्यक्ति बच्चे के हाथों गलमुच्छड़ की यह दुर्दशा देखकर हंसने में इतना व्यस्त थे कि उसकी बात को सहसा समझ नहीं सके।

‘अरे उठौ भइया, तुमही ते कहि रहे हन।’ उसने दोबारा उन लोगों को कोंचा तो वे उठकर खड़े हो गए।

बच्चे की मां भी सीट से उठकर अपना लंहगा झाड़ने लगी। तब बच्चे की ओर मुड़कर बोली, ‘आ अइसी...। मुंसीजी तुइका मारिन नाई, यहै का कम है।’

गलमुच्छड़ ने गुस्से से बच्चे की मां की ओर घूरा, ‘मारिन नाई का मतलब? छोड़ दूंगा क्या मैं इसको ऐसे? इस साले की आज मैं बोटी-बोटी काट डालूंगा। तू बैठ वहीं अपनी जगह।’

‘हमार टेसन आएगा है।’ बच्चे की मां ने गलमुच्छड़ की ओर दयनीय दृष्टि से देखते हुए कहा।

‘टेसन आएगा? आएं। इतनी जल्दी टेसन कैसे आ गया? चल, अच्छा नीचे निपटता हूं तुझसे बेटा।’ उसने बच्चे को गोद में उठाते हुए कहा, ‘चलती ट्रेन के नीचे न डाला तुझको तो हरामी की औलाद कहना।’

पैसेज में काफी भीड़ थी। इसके बावजूद बच्चे का बाप संदूक ऊपर उठाए डिब्बे के गेट तक पहुंच गया था और पीछे मुड़कर अपनी पत्नी की प्रतीक्षा कर रहा था। तभी उसकी पत्नी और उसके पीछे बच्चे को गोद में लिए गलमुच्छड़ भी गेट पर पहुंच गया। गाड़ी अब बिल्कुल रेंग रही थी। तभी सहसा प्लेटफार्म दिखाई देने लगा। स्टेशन के अंदर तथा बाहर प्लेटफार्म पर लगभग अंधेरा था।

‘इस वक्त रात में तुम लोग जाओगे कहां?’ गलमुच्छड़ ने बच्चे को गोद में लिए हुए उसकी मां से पूछा। इस पूरे प्रकरण में यह पहला वाक्य था, जो गलमुच्छड़ सहज ढंग से बोला था।

‘जाबै कहां! हिऐं टेसन पर रहिबे।’ बच्चे की मां ने उतर दिया।

‘इस अंधेरी रात में यहां टेसन पर कहां रहोगी?’

‘टेसन पर काहे रहिबे, अपने घर मां रहिबे। हिऐं तो खलासी हैं ई के बप्पा। टेसन के पाछे सरकारी क्वाटर बना है रेलवई का।’

अच्छा बेटा, तभी मैं कहूं इतने शेर क्यों हो रहे हो। अपने घर पहुंच गए हो। अपने घर में तो कुत्ता भी शेर होता है।’ गलमुच्छड़ ने बच्चे से कहा।

गाड़ी सहसा एक झटके के साथ रुक गई और बच्चे का बाप संदूक लेकर नीचे उतर गया। उसके पीछे औरत भी नीचे उतर गई और अपने दोनों हाथ गेट पर खड़े गलमुच्छड़ की ओर बढ़ाते हुए बोली, ‘मुंसीजी, अब ई का दइ देव हमका। जऊन खता भै तऊन माफ करो।’

‘जा साले तेरी तकदीर अच्छी थी, जो तू बच गया आज, नहीं तो मौत ही लिखी थी तेरी मेरे हाथों।’ गलमुच्छड़ ने बच्चे से कहा।

बच्चा उसकी इस बात पर हंसा और एक बार फिर उसने गलमुच्छड़ की दाढ़ी अपनी मुट्ठी में भर ली।

‘अबे, अबे, साले, चलते-चलते हरामीपन?’ गलमुच्छड़ ने कहा और उसके हाथ से अपनी दाढ़ी छुड़ाते हुए जोर से उसका मुंह चूम लिया। तब, ‘जा बेटा, तू भी क्या याद करेगा।’ कहते हुए उसे उसकी मां की ओर बढ़ा दिया।

‘नमस्ते मुंसीजी।’ बच्चे की मां ने गलमुच्छड़ से कहा और बच्चे को गोद में लिए हुए संदूक सिर पर रखे प्लेटफार्म पर आगे बढ़ गए अपने पति के पीछे चल दी।

डिब्बे के गेट पर खड़ा गलमुच्छड़ उन्हें जाते देखता रहा। अंधेरे में उनके सिल्हूट थोड़ी दूर तक दिखाई देते रहे। तब प्लेटफार्म पर लगे लोहे के जंगले के बीच सीखचों को तोड़कर बनाए गए रास्ते से बाहर जाकर दोनों अंधेरे में खो गए।


गलमुच्छड़ अपनी सीट पर लौट कर आया तो उसके साथी ने, जो अब तक अपनी बर्थ पर लेट चुका था, उससे पूछा, ‘पहुंचा आए?’

‘हां।’ गलमुच्छड़ ने कहा।

‘घर में पोता खिलाने से जी नहीं भरता?’ उसके साथी ने प्रश्न किया।

‘घर में रहने भी देती है सरकार साली।’ उसने कहा और जहां बच्चे ने पेशाब की थी, वहां हाथ रखकर देखने लगा कि अब तक सीट पूरी तरह सूख गई है या नहीं?