बच्चों को समझिए तो / डॉ. हेमंत कुमार / राजी खुशी

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मुखपृष्ठ  » पत्रिकाओं की सूची  » पत्रिका: राजी खुशी  » अंक: दिसम्बर 2011  

हर बच्चा अपने आप में अनोखा होता है। उसके अंदर सृजन की,कुछ बनाने,कुछ नया करने की असीम संभावनाएं छिपी होती हैं।किसी में गाने,किसी में अभिनय तो किसी में लेखन या चित्र बनाने की। कोई खेलने में तो कोई पढऩे में आगे। किसी बच्चे का मन चीजों को तोड़ फोड़ कर उन्हें नया आकार देने में लगता है। बस जरूरत होती है उनके अंदर छिपी इस प्रतिभा को उभारने की। अक्सर हम यानी बड़े लोग यहीं पर गलती कर जाते हैं। हम उन्हें ठीक तरह से समझ नहीं पाते। और लादने लगते हैं उनके ऊपर अपने विचारों,अपनी सोचों,अपने अधूरे सपनों की पोटली।

भाई सीधी सी बात है जिस तरह हमारे हाथों की पांचों उंगलियाँ बराबर नहीं होती, उसी तरह हर बच्चे की सीखने,करने या पढने की क्षमता बराबर नहीं हो सकती। यदि किसी बच्चे को गणित का कोई सवाल देर से समझ में आता है तो कोई उसे चुटकी बजाते हल कर देता है।इसका ये मतलब नहीं होता की देर में समझने वाला बच्चा फिसड्डी हो गया। ऐसे स्लो लर्नर या धीमे सीखने वाले बच्चों पर थोड़ा अलग से ध्यान दे कर उन्हें दूसरे बच्चों के बराबर लाया जा सकता है।

अभी कुछ ही दिनों पहले की घटना है। मैं अपने एक मित्र के साथ उनके एक बड़े अधिकारी के घर गया। अधिकारी महोदय ये जान कर कि मैं बच्चों के लिए टीवी कार्यक्रम बनाता हूं, मुझसे कहने लगे कि मैं उनकी छोटी बेटी का कार्यक्रम अपने यहां करवा दूं। मैंने कहा ठीक है करवा दूंगा। उन्होंने तुंरत बच्ची को बुलाया,और उससे कहा की बेटा वो अंकल को कजरारे कजरारे... वाला गाना गा कर सुनाओ। उनकी बेटी रही होगी 6-7 साल की। पहली बार मेरे सामने आई थी,शर्मा ने लगी। उसने कहा पापा अभी नहीं गाऊंगी.. और घर के भीतर भाग गई।

अधिकारी महोदय ने उसे फिऱ बुलाया। बच्ची शर्म के मारे नहीं आई। अधिकारी महोदय घर के भीतर गए और बच्ची को पकड़ कर ले आए। उससे डांट कर बोले सुनाओ गाना। बच्ची थोड़ा डर गई। मैंने उनसे कहा..भाई रहने दीजिए..फिऱ कभी सुना देगी गाना। मैं इसका कार्यक्रम अपने यहां करवा दूंगा। लेकिन अधिकारी महोदय कहां मानने वाले थे। कहने लगे देखिए ये गाना कैसे सुनाएगी। इसी बीच उनका बेटा चाय रख गया। अधिकारी महोदय ने स्केल उठा ली और अपनी छोटी सी बच्ची का हाथ पकड़ कर अपनी तरफ खींचा। लड़की डर कर चीखने लगी। मैं अधिकारी की मंशा भांप चुका था। मैंने फ़ौरन उनका हाथ कस कर पकड़ लिया। (ये भूल कर कि वो मेरे मित्र के बास हैं) मैंने उनसे बस इतना कहा कि सर अब मुझसे ज्यादा बर्दाश्त नहीं हो रहा है, मैं घर जा रहा हूँ। और मैं तुंरत वहां से चला आया।

आप लोगों को यकीन नहीं होगा कि मैं उस रात भर सो नहीं सका और बराबर यही सोचता रहा कि क्या किसी अभिभावक की जिम्मेदारी सिफऱ् बच्चे पैदा कर देना और उन्हें किसी तरह मार पीट कर परीक्षाएं पास करवा देना ही है? क्या हम उस बच्चे से भी कभी ये जानने की कोशिश करते हैं कि वह क्या चाहता है? उसकी अपनी इच्छा क्या है? जब वह खेलना चाहता है तो हम उसे डांट मार कर पढऩे बैठा देते हैं। जब वह कहानी पढऩा चाहता है तो हम उससे जबरन गणित के सवाल हल करवाते हैं। वह अगर जमीन पर बैठ कर पढऩा चाहता है तो हम उसे डांट कर कहेंगे कुर्सी पर बैठो। जब उसका मन पढने का होगा तो हम उसे हुक्म देंगे कि जाओ मैदान में और बच्चों के साथ खेलो। यहां सीधा सा प्रश्न ये उठता है कि क्या बच्चे की अपनी कोई इच्छा,भावना,सोच नहीं है?

हम जब भी बच्चों को कोई आदेश या हुक्म देते हैं तो उससे पहले बस एक सिफऱ् एक क्षण के लिए हमें ऑंखें बंद करके अपना बचपन याद कर लेना चाहिए। क्या हम बचपन में वो हरकतें नहीं करते थे जो आज हमारा बेटा या कक्षा का छात्र कर रहा है। मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि इस प्रश्न का जवाब हां में ही मिलेगा। यानी कि हम भी बचपन में चाहते थे कि हम अपने काम अपने मन से करें। उसमें बड़ों की ज्यादा दखलंदाजी न हो। फिऱ क्यों हम थोपते हैं अपने विचार बच्चों पर?

बच्चों की आजादी की वकालत करने का मेरा मतलब ये कदापि नहीं है कि आप उन्हें स्वतंत्र, उन्मुक्त छोड़ दें। मेरा कहना ये है कि पहले आप उनकी इच्छा अनिच्छा को, उनके मनोभावों को तो समझिए। जब तक हम बच्चों के मनोभावों को,उसके विचारों को,नहीं समझेंगे, उसकी रुचि को नहीं जानेंगे, हम एक अच्छे अभिभावक,अच्छे शिक्षक नहीं बन पाएंगे। न ही हम बच्चे को आगे बढ़ा पाएंगे,न ही उसके विकास में योगदान कर सकेंगे। हाँ अपने आदेशों,अपने विचारों को लगातार उसके ऊपर थोप कर उसके कोमल, रचनात्मक, क्रियाशील, संवेदनशील मन और उसके अंदर छिपी असीम ऊर्जा,शक्ति को कुंठित जरूर करते रहेंगे।

डॉ. हेमंत कुमार

(लेखक वतर्मान में शैक्षिक दूरदर्शन केंद्र, लखनऊ में प्रोडक्शन पद पर कार्यरत हैं)