बजट से जुड़ीं मानवीय फिल्मी कहानियां / जयप्रकाश चौकसे

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बजट से जुड़ीं मानवीय फिल्मी कहानियां
प्रकाशन तिथि :03 मार्च 2015


फिल्में मनोरंजक बन पाएं या बन पाएं, कुछ फिल्मों के जन्म की कहानी अत्यंत रोचक होती है। लंबे समय तक उत्तरप्रदेश और बिहार के चुनावों का सघन दौरा करने वाले पत्रकार सुभाष कपूर ने फिल्म बनाने का निश्चय किया तो इत्तफाक से मुलाकात हुई अमेरिका में बसे अशोक पांडे से, जिन्होंने लंंबे संघर्ष के बाद व्यापार जमाया था। अपनी कमसिन वय में देखे फिल्म बनाने के सपने को वे पूरा करना चाहते थे। वे दो करोड़ लगाना चाहते थे कि इसी दरमियान अमेरिका की आर्थिक मंदी ने उनके व्यवसाय की कमर तोड़ दी और मजबूरन उन्हें उत्तरप्रदेश के इटावा में अपनी पुश्तैनी खेती बेचनी पड़ी। इस घटना ने सुभाष कपूर को 'फंस गए रे ओबामा' की कहानी दी परंतु अब अशोक फिल्म में मात्र एक करोड़ ही लगाना चाहते थे। पटकथा पूरी करने के बाद कलाकारों के साथ अनुबंध के समय अशोक के ही एक गुजराती मित्र ने शेष एक करोड़ इस शर्त पर लगाने चाहे कि फिल्म की पृष्ठभूमि गुजरात हो, पात्र भी गुजराती हों परंतु उस स्टेज पर सुभाष कपूर के लिए अपनी उत्तरप्रदेश की पृष्ठभूमि वाली पटकथा बदलना संभव नहीं था।

बहरहाल, शेष एक करोड़ का इंतजाम किसी तरह हुआ और 'फंस गए रे ओबामा' सफलता से प्रदर्शित हुई। धन से अधिक नाम कमाया फिल्म ने। इस फिल्म को कुंदन शाह की 'जाने भी दो यारो' की श्रेणी की फिल्म माना जा सकता है। यह सेल्युलाइड पर श्रीलाल शुक्ल की 'राग दरबारी' की तरह है। दरअसल, आर्थिक मंदी जैसी थीम पर यह हास्य फिल्म बलराज साहनी अभिनीत 'गर्म कोट' की तरह महान है। सच तो यह है कि देश की अर्थनीतियों से कई सामाजिक विसंगतियों वाली फिल्में जन्म लेती हैं। बजट-आंकड़ों के ग्राफ की तरह आम आदमी के मन में भावना ऊपर-नीचे होती है। बजट के समय आम आदमियों को अस्पताल में लिटाकर उनका कार्डियोग्राम लिया जाए तो अर्थशास्त्र के लिए नई पाठ्यपुस्तक बन जाए!

अमेरिका में मंदी के दौर में तबाह लोगों के जीवन पर फिल्में बनी हैं और उन बीमार उद्योग के स्वार्थी लोगों ने बैंक के कर्ज डुबाकर मंदी के दौर की रचना की और इन लोगों पर भी फिल्में बन चुकी हैं। वर्षों पूर्व एक सनसनीखेज फिल्म थी, 'इंडीसेंट प्रपोजल' अभद्र प्रस्ताव। कथा का नायक आर्थिक मंदी के दौर में नौकरी खो चुका है। परंतु किफायत में रहने की कला भूल चुके पति-पत्नी अब हताश हैं। अमेरिकी जीवन शैली की नकल में भारतीय मध्यवर्ग भी किफायत को खारिज कर चुका है। बहरहाल, पति-पत्नी अंतिम पूंजी लॉस वेगास के जुआघर में हार जाते हैं और अब अात्महत्या के सिवा कोई रास्ता नहीं। एक सनकी रईस अभद्र प्रस्ताव रखता है कि पत्नी उसके साथ शनिवार-इतवार गुजारे तो वह पति को ढेर सा धन दे सकता है। पूरी रात पति-पत्नी दुविधा में गुजारते हैं और अंत में निर्णय लेते हैं कि अभद्र प्रस्ताव किया जाए। पत्नी रईस के घर जा रही है और पति का इरादा बदलता है परंतु रईस का हेलिकॉप्टर उड़ जाता है। पत्नी के लौटने के बाद रिश्ते में तनाव जाता है। अब धन मिल गया, बैंक का कर्ज चुक गया परंतु पूरा जीवन संशयग्रस्त है। आर्थिक मंदी ने प्रेम को डस लिया था। रईस आकर कह भी दे तो क्या पति को विश्वास होगा? ऐसी ही मनोदशा बदलापुर में है। बंद कमरे में कुछ भी अभद्र नहीं घटा था परंतु पति को विश्वास कहा?

राजेंद्र यादव की एक प्रेम तिकोन कहानी में तीसरा तिकोन गरीबी है। अपनी कमसिन वय में मेरी एक कहानी में नायिका रेडियो उद्‌घोषिका है, नायक टेलीफोन एक्सचेंज में काम करता है। दोनों अपने परिवार के एकमात्र कमाने वाले हैं। नायक ने फोन पर रतन खत्री के मटके के अंक में घुसपैठ की और प्रारंभिक जीत के बाद शादी का फैसला लिया परंतु ऐन विवाह के दिन भारी रकम की हार से बचने के लिए मुंबई से आया अंक बदल दिया परंतु सटोरिये उसे विवाह मंडप से उठा ले गए। दरअसल, अमीर आदमी मनोरंजन के लिए जुआं खेलता है परंतु जरूरत पूरी करने के लिए खेलने वाले हारते हैं। देश का बजट महज घोषणाएं नहीं हैं। उससे जुड़ी है आम आदमी की भावनाएं, उसके परिवार का जीवन।