बटन बटन का फ़र्क / मनोहर चमोली 'मनु'

Gadya Kosh से
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क्या जमाना आ गया है। जिसे देखो बटन खुले रख कर छुट्टा घूम रहा है। अव्वल अब न तो कुर्ते में बटन रह गए हैं। बटन वाली पेन्ट पहनने का समय भी नहीं बचा है। वे स्वेटर भी चली गई हैं, जिन पर कभी बटन दिखाई पड़ते थे।

कुर्ताधरी भी बटन की जगह चेन् का प्रयोग कर रहे हैं। वो चेन् भी खुली सी लटकती रहती है। बटन खुलापन को बंद करने का संकेत थे। अगर कमीज का दूसरे नंबर का बटन खुला पाया गया तो क्या शिक्षक और क्या आम जन। सभी टोक दिया करते थे। इशारा से ही समझ लिया जाता था कि बटन खुला हुआ है। पर ये बात बीते जमाने की है। अब कपड़े ही कम पहनने का रिवाज़ है। क्या लड़की और क्या लड़का। बटन खोलते समय दिक्कत होती होगी।

हम आधुनिक समाज के बंदे हैं। हमें हर चीज़ में सरलता चाहिए। चेन झट से खुल जाती है। खिसक जाती है। कोई आरोप भी नहीं लगा सकता। कह सकते हैं कि चेन थी। खुल गई। इस खुलेपन से क्या-क्या खुल गया। इस पर न हमारी नज़र है। न हमें परवाह है। बुरी नजर वाले तेरा मुंह काला। अगर कुछ खुल भी जाता है तो क्या। नज़र ही तो है। सकारात्मक हो, तो खुलना खलेगा ही नहीं। खोलना तो दूर की बात है।

बड़े-बूढ़ों को कहते सुना था कि ‘बटन तहज़ीब और तमीज़ का पर्याय होते हैं।’ बटन थे कि एक बार लगा लो, और निश्चिंत हो जाओ। अब तो चेन है, कि कब खिसक गई या कब खुल गई। पता चलता है क्या? पिफर आगे सुना कि ‘अरे चेन भी तो पुरानी हो गई। देख नहीं रहे। अब तो ऐसे कपड़े पहनो, जिसमें चेन का भी झंझट नहीं रहा। अब क्या पारंपरिक वस्त्र, क्या बाहर के वस्त्र और क्या भीतर के वस्त्र। कोई अंतर है क्या? नहीं रहा न। अब तो सिले-सिलाये व खुले-खुलाए का चलन है। दर्जी भी चेन खराब हो जाने पर दूसरी चेन लगाना नहीं चाहता।

वैसे तो ‘बटन’ अंग्रेजी शब्द है। जिसका अर्थ संभवतः गोलाकार चीज से है, जिसे किसी छेद के अंदर से टांगा जाता है। अपने इस देश की बात करें तो हमारे इस देश में सिले-सिलाए कपड़े पहने ही नहीं जाते थे। धेती जैसे परिधन थे। पता नहीं ये पेन्ट और शर्ट कब और कहाँ से आ गई। अब तो दुनिया एक गांव है। अब देशी-विदेशी कहना भी पाप है। अति आधुनिक तो बटन को कष्टदायक बताते हैं। एक राजनीतिक विश्लेषक से जब बात की तो वो झल्लाते हुए कहने लगे-‘‘जहाँ बटन आया, उसने तो सोचने-समझने की शक्ति ही क्षीण कर दी। अब देखो न। अत्याधुनिक वोटिंग मशीन में बटन आ गया न। पत्रा क्या गए अब मतपत्र भी गए। कहां रह गए मतपत्र? बटन दबाओ और गई तुम्हारे मत की मतशक्ति। बटन दबाते समय मतदाता एक क्षण के लिए भी नहीं सोचता। बटन दबाते ही मतदाता की महत्ता खत्म। क्यों?’’

इस पर आपकी क्या राय है? बटन-काज का संबंध् भी देखते बनता है। बटन का महत्व तभी है, जब काज है। काज नहीं तो बटन बंद कहां से होगा।

समाज में चाहे जितना खुलापन आ जाए। बटन रहे न रहे। मगर काज सांकेतिक रूप से हमेशा रहेगा। काज। यानि बटन को बांधे रखना। घर में, स्कूल में, कार्यालय में, खुले मैदान में आज भी कुछ ऐसा है, जो हमे जानवर नहीं होने देता। परिवार में, पड़ोस में, दोस्तों में, बिरादरी में, समाज में, देश में ही नहीं समूची ध्रती में कुछ ऐसा है जो बटन का ही पर्याय है, जो हमें बांधे रखता है। जिस दिन ये ‘ऐसा कुछ’ काज से बाहर हो गया, तो समझो मनुष्य की मानवता और नैतिकता ही खिसकी समझो।

ये ओर बात है कि मानव रूप में कई लोग हैं, जिनका ये ‘ऐसा कुछ’ खिसक गया है। वे मानव रूप में पशु ही हैं। अब देखना यह है कि मानवता हम मनुष्यों को मानव बनाये रखती है या धीरे-धीरे पशुओं की जमात में शामिल तो नहीं कर रही? अरे! मैं तो भूल ही गया। ज़रा मैं खुद को भी तो देखूँ। मैं किस परिधि में आता हूँ! अरे! आप क्यों मुस्करा रहे हैं? मेरे बहाने ही सही, आप भी तो टटोलिए। बस! खा गए न गच्चा। कपड़े नहीं अंतर्मन टटोलिए अंतर्मन।