बड़े से बड़े खतरा / अब क्या हो? / सहजानन्द सरस्वती

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किसान-मजदूरों के लिए ये सभी खतरे तो हुई और ये ठोस हैं, जबर्दस्त हैं। मगर इन सबों से भी बढ़ कर दो खतरे हैं। राजनीतिक उथल-पुथल और खास कर दो महायुध्दों के चलते जनता में राजनीतिक चेतना आई है जरूर और काफी आई है। इससे इन्कार नहीं किया जा सकता है। मगर उसमें एक बड़ी कमी है, खामी है। उसे कोई निश्चित आकार नहीं मिला है। वह यों ही गोलमाल है, Vague है। फलत: उसे किसी भी रंग में रँगा जा सकता है, किसी ओरमोड़ा जा सकता है। जैसे गीली मिट्टी को घड़े, खपड़े-बर्तन, मूर्ति या किसी भी रूप में बदल सकते हैं। यह बड़ी खतरनाक चीज है। वे अपनी राजनीति को ठीक-ठीक समझ नहीं सकते। मुल्क की राजनीति का विश्लेषण, उसकी उधेड़्बुन भी नहीं करे सकते। फलत: आसानी से धोखे में पड़ सकते हैं। जोई गर्म लेक्चर झाड़े और आँसू बहा दे या जेल गया हो, उसी पर जनसाधारण लट्टू हो सकते हैं, उसी के मुरीद और चेले मूँड़े जा सकते हैं। नतीजा यह होगा कि आज तक जो लोग किसान सेवकों का बाना पहने हुए थे उन्हें भी दक्षिणपंथी लोग रुपए-पैसे, नौकरी-चाकरी, रोजगार-व्यापार आदि के जरिए खरीद कर भारी बला पैदा कर सकते हैं, बला पैदा करेंगे। जनता की आदत होती है बिना विचारे ही विश्वास कर लेना Unthinking trustfulness। लेनिन बार-बार ऐसा कहा करता था। खास कर राजनीतिक मामलों में तो इस नादानी के करते बड़ा खतरा पैदा हो जाएगा। आजादी की लड़ाई के सिलसिले में पुराने नेताओं पर विश्वास होना स्वाभाविक ठहरा क्योंकि वर्ग-चेतनामूलक राजनीतिक ज्ञान के अभाव का नतीजा दूसरा हो नहीं सकता। इसी के साथ पुराने किसान सेवक भी जब खरीद ही लिए गए तो फिर किसानों का खुदा ही हाफिज। ये उन पर विश्वास करेंगे और इस तरह अपना गला कटाएँगे। यह हुआ एक खतरा।

दूसरा बड़ा खतरा यह है कि मुल्क में जितने भी प्रगतिशील विचार करनेवाले या वामपंथी हैं सबों की अपनी-अपनी डफली, अपना-अपना गीत है। कम से कम जितनी पार्टियों में ये लोग बँटे हैं उतने रास्ते तो इनके हुई। आपस में इनका काम करना वैसा ही है, जैसा बाघ और बकरी का। एक-दूसरे से बातें करने में भी इन्हें नफरत है। दक्षिणपंथी नेताओं की सबसे बड़ी होशियारी यही रही कि उनने वामपंथियों में 'तीन कनौजिया तेरह चूल्हा' कर दिया और एक-दूसरे को हजार कोस दूर रखा। हमारी पार्टी सही, हमारी पालिसी दुरुस्त और हमारी पोलिटिकल थीसिस खरी है, इसी धुन में हरेक पार्टीवाला मस्त है। उस पर इसका नशा सवार है। वह दक्षिणपंथियों से मिलने और बातें करने में जरा भी नहीं हिचकता। मगर क्या मजाल कि एक पार्टी का लीडर दूसरी पार्टी के लीडर से बातें कर। कांग्रेस नेता सबों को कान पकड़ के एके बाद दीगरे नचाते हैं, नचाने की हिम्मत रखते हैं। उन्हें विश्वास है कि इन पार्टियों को जो भी चाहें खरीद सकते हैं। अब तक ऐसा होने नहीं दिया कि कोई पार्टी या सभी पार्टियाँ मिल कर भी उनका सफलता से सामना करे सकें। ऐसी हालत में उनके वर्तमान रवैये की असलियत जनता के सामने कौन रख सकता है? यदि आज वामपक्षीय एकता हो तभी उनका ठीक-ठीक जवाब मिल सकता है। जो लोग यहाँ तक कहने की हिम्मत करने लगे हैं कि किसान राज्य तो अब कायम हो गया। उनके भी होश दुरुस्त तभी हो सकते हैं जब सभी प्रगतिशील या समाजवादी विचारवाले एक हो कर काम करें। मगर आज इसी चीज का अभाव है और यही दूसरा बड़ा खतरा है।