बढ़ता हुआ पानी / सुशील कुमार फुल्ल

Gadya Kosh से
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गड़-गड़ गरड़। बारिश जोर से होने लगी है।उस पार, दूलो के होंठ फड़फड़ाए। हाँ, उसे उस पार अपने गाँव में पहुँचना है। ऊबड़-खाबड़ घाटी में नदी के ऊँचे नीचे कगार, बीच में सरसराती नदी, दूलो अंधकार में आँखें फाड़-फाड़कर इधर-उधर देख रहा था। उसे लगा मानो अँधियारे ने उसकी आँखों को चुँधिया दिया हो। शायद पानी उतर जाए, उसने सोचा। भरर! भरर!

मैं अब उस पार नहीं पहुँच सकता - वह सोचने लगा, उस पार प्रतीक्षा करती छोटी-छोटी आँखें अंधकार में उसके सामने तैर गईं। दर्द पाँव से सर तक सरसरा गया। दूलो ने अँगड़ाई ली। `मुझे उस पार पहुँचना ही है’ - विश्वस्त स्वर में उसने अपने आप से कहा। उस पार पहाड़ी पर छोटा-सा गाँव है। सात-आठ घर खीलों की तरह जहाँ-तहाँ बिखरे हैं। खाने-पीने का सामान वहां रहने वाले सभी लोग निर्धन हैं। बकरियाँ तथा भेडें पालते हैं। किसी-किसी घर में गाएँ भी बंधी हैं। राशन लेने उन्हें अपने गांव से पांच मील दूर शहर में जाना पड़ता है। प्रातः जब दूलो अपने गांव से चला था तो आसमान स्वच्छ था। पानी का कोई टुकड़ा कहीं दिखाई नहीं देता रहा था। मैं जल्दी लौट आऊंगा, सोचा था उसने शहर में अनाज मिल रहा था। अनाज कई दिनों के बाद डिपो में आया था। लोग मानो पिल पड़े थे।

डिपो का अनाज सस्ता था - खुले बाजार में वही अनाज दोगुने भाव पर लेने की क्षमता दूलो में न थी।

चावल! चावल नहीं मिलेंगे। कहीं अकाल पड़ गया है - वहीं भेजे जा रहे हैं।उसे समझ नहीं आ रहा था, अकाल क्या होता है। हां, इतना अवश्य पता था कि अकाल पड़ने पर लोग मरने लगते हैं। कुछ उबले हुए चावल ले आता तो अच्छा ही था - सोचा दूलो ने। उसकी जबान ललिया गई।

थोड़े बहुत जो भी चावल बचे थे, आज सुबह पकाकर उसने अपने तीनों बच्चों को खिल दिए थे। उसका भी मन चाहता था थोड़ा-सा खा ले, लेकिन ममता ने रोक दिया। बच्चों को जन्म दिया है तो उनकी भूख शांत करना भी उसका परम कर्तव्य है। कई दिनों से पड़ोसियों से मांग-मांगकर खा-खिला रहा था परंतु अब और नहीं मांग सकता था। मांगता भी तभी न, जब किसी के पास होते। सारे गांव में अनाज की किल्लत थी। कई दिनों से अनाज डिपो पर नहीं आया था। दूलो ने पानी पीकर भूखे पेट पर हाथ फेर लिया था।

दूलो पानी में भीग रहा था।थोड़ी-थोड़ी देर बाद कपड़ों को झिंझोड़कर पानी झाड़ देता। उसने ऊँचे पहाड़ों की ओर देखा। सब-के-सब चुंधिया गए थे।

मितरा ! मितरा ! आवाज गूँजी और फिर बारिश में खो गई।

कोई साथी होता तो अच्छा था -सोचा दूलो ने। रात्रि अगाध गति से बढ़ती जा रही थी -। रात्रि का बढ़ना दूलो के लिए पानी के चढ़ने का पर्याय था।

उसका अंग-अंग टूट रहा था। पास से भीगा हुआ एक भयभीत सियार निकल गया।

बच्चे बिलबिलाते होंगे, सोचकर वह कांप उठा। इस साल वह घर की छत भी ठीक नहीं कर पाया। अंधेरी में स्लेट उड़ गए थे। उसमें इनता भी सामर्थ्य नहीं रहा था कि वह उन्हें डाल सकता। सुराखों से पानी झर-झर कर उसके बच्चों पर पड़ता होगा। वे मां-बच्चे ठिठुरे हुए उसकी तरफ देख रहे होंगे। उसे याद आई उन दिनों की जब उसका विवाह हुआ था। कितने चाव से वह उसे ब्याह कर लाया था।

नदी! उस दिन भी चढ़ी हुई थी लेकिन!तब जोश था - साथी थे! घंटों की प्रतीक्षा भी ऐसे ही समाप्त हो गई थी। पांच वर्ष। तीन बच्चों ने जन्म लिया। दूलो कितना खुश था। अपनी भेड़ें चराकर जब घर लौटता तो पत्नी उसकी बाट जोह रही होती।समय को पंख लग गए थे।

गड़ गड़ गरड़।

दूलो कांप गया। उस दिन भी ऐसे ही बारिश हो रही थी। दूलो शहर गया हुआ था। पत्नी बाहर गई थी - भेंड़ें लेकर। एक दिन बीता! दो दिन बीते! वह लौटी नहीं।

दूलो पगला गया। नहीं लौटी बड़बड़ाता रहता। फिर धीरे-धीरे बच्चों की परवरिश में खो गया। वही बच्चों की मां था, वही पिता! काश! वही साथ होती! कसमसाकर रह गया दूलो।मैं....मैं मर क्यों नहीं जाता! अचानक वह बोला फिर इधर-उधर देखकर वह एक पत्थर के सहारे बैठ गया।सारा दिन यों ही व्यतीत हो गया, सोचने लगा दूलो। दुकानदार भी अजीब है। कितनी-कितनी देर लगा देते हैं। अभी ठहरो! दुकानदार ने आदेश भरे स्वर में कहा था। दूलो ठहर गया। उसके लिए समय की गति ठहर गई थी। दुकानदार के आगे लंबी पंक्ति लगी है। जान-पहचान वाले लोग आते हैं। राशन कार्ड आगे बढ़ाते हैं। उत्तर मिलता है - अभी लो सा’ब।

दूलो देखता है ये सब। मन में कशमकश-सी होती है शायद अफसर होंगे। अफसर ही होंगे जो सबसे पीछे आते हैं पहले चले जाते हैं। इसके आगे वह सोच नहीं पाता। पास ही बच्चे लालीपाप चूस रहे हैं। दूलो को अच्छा लगा। सोचा, अपने बच्चों को भी कभी शहर लाऊँगा तो वे कितने खुश होंगे। कभी यह मांगेंगे कभी वह।

भूख!दूलो ने भूखे पेट पर हाथ फेरा।गुड़ खाने को मन हुआ।दुकान तक पहुंचा। ललचाई नजरों से गुड़ को देखा मक्खियां मिनमिना रही थीं। भाव पूछते ही हाथ थम गया, बोल नहीं पाया, शरम के मारे लौट आया। इतना महंगा गुड़ वह नहीं खा सकता था। जबसे चीनी नहीं आ रही, दुकानदारों ने गुड़ का भाव दुगना कर दिया। नल से पानी बह रहा है। दूलो पानी लेकर मुंह पर छींटे मार लेता है। मूंछों को सहलाता है। अरे वो गए। कोई एक बोला। ऐक्टर है, ऐक्टर! दूसरा बोला नदी किनारे शूटिंग होगी। कैसे मजे से घूमते-फिरते हैं और यहां छह-छह घंटे पंक्ति में खड़े होकर राशन लेना पड़ता है, कोई जला-भुना गुनगनाया।

शूटिंग क्या होती है - सोचा दूलो ने। नदी किनारे शूटिंग होगी। खूनी नदी के किनारे। शूटिंग जहां प्रतिवर्ष कोई न कोई ग्रामीण नदी में बह जाता है। मन में आया कह दे - क्यों मरने की सोच रहे हों क्या पता शूटिंग क्या होती है? कुछ भी हो, मुझे इससे क्या? इस भय से कि कहीं यह कोई अच्छी बात न होती हो, वह चुप ही रहा।

नदी का पाट बड़ा चौड़ा है। पुल नहीं बन पाया, शायद बन जाए। चुनाव के समय तो यही शोर था - याद आया उसे।शोर!शायद बन ही जाए।शूटिंग!दुकान के आगे पंक्ति सिकुड़ती जा रही थी।रिक्रूटिंग होगी? प्रश्नवाचक रूप में एक व्यक्ति ने पूछा जो दुकान से निकाला था।नहीं शूटिंग।

दूलो को कुछ समझ नहीं आया। रिक्रूटिंग शब्द उसने सुन रखा था क्योंकि एक दिन उनके गांव का एक फौजी ग्रामीणों को भारत-पाक लड़ाई के विषय में बता रहा था। इस शब्द का भी उसने प्रयोग किया था। दूलो को अचम्भा हुआ कि अभी तक उसे वह शब्द याद था। काश! मैं फौज में होता। खाने को तो पेट भर मिल जाता, सोचा दूलो ने। परन्तु पढ़ा-लिखा होना भी आवश्यक है।

बारिश बढ़ती जा रही थी।पंक्ति सरकती गई।दूलो संतुष्ट होता जा रहा था। पंक्ति के सभी व्यक्ति राशन ले चुके थे तो दूलो ने अपना राशन कार्ड आगे बढ़ा दिया था। तुम बैठ नहीं सकते? दूलो चुप, सहम गया। दुकानदार अन्नदाता है। नाराज हो गया, तो ऐसे ही लौटना पड़ेगा।अनाज मिलने लगा।

टन-टल टेलीफोन बज उठा। टेलीफोन बज चुका, दुकानदार ने सुना। तभी ऊँची आवाज में ग्राहकों से बोला, अभी-अभी संदेश मिला है, सिंगल अनाज जोन बन गए हैं। पंजाब में अनाज नहीं आ पाएगा इसलिए अनाज आधा मिलेगा। क्या पता फिर कब अनाज आए!

लोगों में खुसर-फुसर हुई, फिर शांत हो गए।दूलो अनाज तुलवा रहा था। एक कोने में खड़े दो-तीन व्यक्ति धीमी आवाज में कह रहे थे - हिमाचल में सरकार और है। पंजाब में और है, दूसरा बोला। जनता पिस जाएगी - उदास-सा एक अन्य व्यक्ति बोला। दूलो की समझ में कुछ नहीं आया। सरकार क्या होती है? यहां कौन-सी है, उसे क्या पता। उसे तो इतना पता था कि आधे अनाज से उसके परिवार का आधा महीना भी नहीं निकलेगा और खाने को मिलता भी क्या है। केवल अनाज ही तो है। चावल भी अब तो नहीं मिलते। इस बार उसके अपने खेतों में भी कुछ नहीं हुआ था। शायद कुछ दिन बाद अनाज मिल जाए। लेकिन बारिश शुरू हो गई। कौन आएगा फिर? सोचा उसने। आना तो पड़ेगा ही।बारिश भी आने दे।नदी-नाले भी गभा जाते हैं। ओह! दूलो सिहर उठा। नदी का पानी गहराता जा रहा था। अंधेरा धुप्प। पानी के गिरते तार बिजली के प्रकाश में चमक उठते थे।कोई साथी होता, तो कितना अच्छा था। वह बोला।अभी तो दम-खम है, सोचने लगा। शायद सुबह तक पानी उत्तर जाए।

गड़ गड़ गरड़, बिजली कौंधी। पास से सरसराता कोई जानवर निकल गया।सांप-वांप होगा। वह हिला-डुला नहीं। बरसात में सांप तो बीसियों घूमते-फिरते हैं। उसने इधर-उधर देखा। कुछ दिखाई नहीं दिया।दूर तीन मील पीछे शहर की बत्तियां चुंधिया रही थीं। वापस लौट चलूं, सोचा दूलो ने। लेकिन ऊबड़-खाबड़ रास्ते हैं। वह कंपकपा गया। कपड़े चिपचिपा गए थे। अपना फटा-पुराना छाता अनाज पर ठीक तरह से रख दिया। बिजली की कौंध में उत्तर दिशा के पर्वत ऐसे लगे मानो बर्फ न रहने के कारण झुलस गए हों।

अनाज! वह बुदबुदाया। बच्चे! वह चीख पड़ा। किसी को अब भूखा नहीं मरने दिया जाएगा। गांव-गांव में स्कूल खोल दिए जाएंगे। सड़कों के जाल बिछा दिए जाएंगे - उसे याद आया चुनाव के समय दिया एक नेता का भाषण।पिछड़े इलाकों का कायाकल्प हो जाएगा। हो जाएगा, बोला दूलो।

काश! कोई मेरे पास होता, वह कराह उठा ।तीसरे पहर कुछ बारिश रुकी। दूलो थका-टूटा था। ऊँघने लगा। अचानक गांव में हलचल मच गई। लोग इधर-उधर भागने लगे। कुछ भाग सकने में असमर्थ थे। जहां-तहां ढेर हो गए। एक दूसरे को नोचने लगे। जंगली जानवर भी अधमरे से गांव में आ घुसे। दूलो भागा। एक और जानवर पीछे-पीछे। दूलो पसीना-पसीना हो गया। उभरे हुए पर्वत के साथ सटकर खड़ा हो गया। अब वह और अधिक चल नहीं सकता था। कम-से-कम वह किसी की भूख शांत करने में तो सहायक होगा। तभी पर्वत का एक भाग टूटकर उस पर गिर पड़ा।

दूलो डरकर जाग उठा। शरीर भारी-भारी लग रहा था। उसे लगा मानो वह हिल-डुल नहीं सकेगा लेकिन एकदम उसका हाथ अनाज की गठरी पर पहुंच गया। गठरी वहीं थी। उसे कुछ तसल्ली हुई।

उस पार! उस पार ! वह बोला और अंधकार को चीरती उसकी नजर उस पार पर्वत पर बसे गांव पर टिक गई। पानी अब भी बढ़ता जा रहा था।