बदल गई चाहत / अनीता चमोली 'अनु'

Gadya Kosh से
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अलका बारिश को कोस रही थी। बूंदे लगातार एक लय से ज़मीन पर गिर रही थीं। बारिश की मद्धम संगीतमय ध्वनि भी उसे शोर की भाँति महसूस हो रही थी। शाम भी धीरे-धीरे रात की आगोश में समा रही थी। अलका के क़दमों में वो उत्साह नहीं था, जो जाते समय था। कोख में लड़की पल रही है। यह सुनकर अमित ख़ुश नहीं होगा। अलका यह जानती थी। घर से क्लीनिक जाते हुए वह उत्साह से भरी हुई थी। रिपोर्ट देखकर डॉक्टर ने अलका की मनोदशा को भाँप लिया था। तभी कहा भी था-”मेरी दो संतान हैं। दोनों बेटियाँ। बेटियाँ ही हैं, जो दुख-दर्द समझती हैं।” मगर अलका तो शून्य में चली गई थी जैसे। वह तेज़ बारिश में ही घर की ओर चल पड़ी।

कल की ही तो बात है। अमित ने माँ से कहा था-”आने वाले का नाम ‘अंश’ ही रखेंगे। क्यों माँ?” माँ ने भी कहा था-”मुझे भी यही नाम सूझ रहा था।” माँ-बेटे की बातें अलका रसोई से सुन रही थी। अचानक तेज़ हवा के साथ आई बूंदों ने अलका के बदन को हल्क़ा-सा भिगो दिया। अलका ने अपने हाथ अनायास ही गर्भ की ऊपरी देह पर रख दिए। मानो बूंदों से उसकी कोख में पल रही नन्ही-सी जान भीगने वाली हो। अचानक उसे ख़्याल आया कि वह जिस जान की सोते-जागते, चलते-फिरते बेहद ध्यान रख रही है, वो तो लड़की है। अलका ने पलक झपकते ही हाथ हटा दिये।

वह अब बारिश में भीगने लगी। वह बुदबुदाई-”शायद इस बारिश से ही मेरे भीतर पल रही.......जो भी है.......उसकी साँस थम जाए। एक-दो दिन में ही इसे गिराना होगा। अमित तो कल के लिए ही तैयार हो जाएँगे। यही ठीक होगा। वैसे भी न तो अमित और न ही सासु माँ को ख़ुशी होगी.........।” वह इतना ही सोच पाई थी कि किसी सख्त हाथ ने उसका कांधा पकड़ लिया।

एक अजनबी बूढ़ी औरत ने अलका से कहा-”कहाँ ध्यान है तुम्हारा। पेट से हो और भीग रही हो? चलो इस छप्पर के नीचे आ जाओ।”

अलका जैसे किसी सपने के टूटने से जुड़ गई थी। ख़ुद को संभालते हुए बोली-”वो ताई, मुझे बारिश में भीगना अच्छा लगता है न, इसलिए।”

बूढ़ी ने हँसते हुए कहा-”धत्। पगली! इस ताई ने भी दो बच्चे जने हैं। मैं जानती हूँ। बात ये नहीं है। बात कुछ और है। पर जो भी हो। पहला है न?”

अलका सिमट-सी गई। झेंपते हुए बोली-”हाँ ताई।” अलका ने कनखियों से देखा। बुढ़िया ने छप्पर में उसे खींचते हुए सिर पर रखी फलों की टोकरी भी नीचे रख दी थी। अलका ने अनुमान लगाया कि बुढ़िया की उम्र पचास से कम नहीं थी। सिर के बाल चांदी से चमक रहे थे। हथेलियों की नसें आड़े-तिरछे रूप में उभरी हुई थी। गाल भीतर की ओर पिचके हुए थे। माथे पर लक़ीरे चिंता की नहीं पक चुकी उम्र की थीं।

अलका ने विषय ही बदल दिया। पूछा-”ताई। बच्चे कहाँ हैं?”

बुढ़िया के सिर पर रखा आँचल भीग चुका था। माथे से नीचे आता पानी भौंहों से लुढ़कता हुआ पलकों से टपक रहा था। तभी बुढ़िया की आँखों से भी पानी टपकने लगा। अलका ने आसानी से बारिश के पानी और आँखों के पानी में अंतर देख लिया था। वह चुप ही रही। दोनों मौन रहे। ये ओर बात थी कि लगातार बारिश में भी अच्छी ख़ासी ध्वनि थी। फिर बुढ़िया अलका से ऐसे बात करने लगी जैसे उसे बरसों से जानती है। कहने लगी-”माँ बच्चों के लिए कितना कुछ करती है। ये तुम भी जान जाओगी। मगर बच्चे.....।” उसकी आवाज़ भर्रा गई। सिसकियाँ बारिश की टप-टपाहट में दब गई।

अलका को कुछ भी कहना ठीक नहीं लगा। बुढ़िया ने सिसकते हुए कहा-”माँ तो माँ ही होती है। वह कुछ और नहीं हो सकती। पहला बेटा हुआ तो सोचा बस एक लक्ष्मी और आ जाए, तो मेरा परलोक सुधर जाएगा। मगर दूसरी संतान भी बेटा ही हुई। खैर मेरे पति ने कमर तोड़ मेहनत की। हम दोनों ने मिलकर अपने बेटों के लिए क्या नहीं किया। अपना पेट काट-काट कर हमने बच्चों की जरूरतों पूरी की। पढ़ाया-लिखाया। बड़ा बेटा अमेरिका गया तो लौटा ही नहीं। सुना है कि उसने वहीं शादी कर ली। अब तो बाल-बच्चे वाला हो गया है।”

“और दूसरा?” अलका ने जानबूझकर बीच में टोकते हुए पूछा।

बुढ़िया भीगे हुए आंचल से आँसू पोछते हुए बोली-”वो भी अपनी दुनिया में मस्त है। किसी मल्टीनेशनल कंपनी में है। उसका एक पैर दिल्ली में रहता है तो दूसरा कहीं ओर। कंपनी की ही किसी लड़की से शादी भी कर ली। अपने पिता की मौत पर आया था। आया क्या था, वहाँ चिता ठंडी हुई नहीं और वो चला गया। क्या-क्या अरमान देखे थे। कहने को दो-दो बहुएँ हैं। मगर इस बूढ़ी सास ने बहूओं को मुँह दिखाई तक नहीं दी है। बेटी होती तो मेरी सुध लेतीं। गाहे-बगाहे मेरे पास आतीं। बेटे मेरे होते तो मेरे पास नहीं आते क्या? चलती हूँ बेटी। ये बारिश तो थमने से रही। ये फल नहीं बिके तो रात का खाना कैसे खाऊँगी। पर तुम बारिश थमने पर ही निकलना।” यह कहकर बुढ़िया ने फलों की टोकरी उठाई और भीगती हुई निकल गई।

अलका आसमान को निहार रही थी। बारिश की बूंदें अब उसे अच्छी लगने लगी थीं। वह बुदबुदाई-”मैं बेटी को जन्म दूँगी। आख़िर मैं भी तो किसी की बेटी हूँ। मेरी सास भी तो किसी की बेटी थी। अमित का अस्तित्व भी तो बेटी से ही बना है। फिर बेटे की ही चाहत क्यों।”

सरला ने फिर से अपने गर्भ को टटोला। मगर इस बार उसकी हथेलियों में स्नेह, ममता और दुलार का अहसास था। उसका चेहरा आत्मविश्वास से भर उठा था।