बनारस की ठगी / बना रहे बनारस / विश्वनाथ मुखर्जी

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इतिहास और धार्मिक ग्रन्थों के अध्ययन से पता चलता है कि ठग विद्या आधुनिक युग की नहीं है, बल्कि हमारी सभ्यता और संस्कृति की भाँति प्राचीन परम्परा की एक कड़ी है। जिस प्रकार हम धर्म और संस्कृति की रक्षा करते आ रहे हैं, ठीक उसी प्रकार इस कला की रक्षा करते आ रहे हैं।

प्राचीन काल में इस कला के बड़े-बड़े आचार्य हो चुके हैं। उन लोगों की महती कृपा के कारण इस काल का इतना विकास हुआ कि इसे ‘कला’ की संज्ञा देकर सम्मानित किया गया। यद्यपि इसकी गणना उपकलाओं में की गयी है, लेकिन इससे इसकी महत्ता में कोई कमी नहीं हुई। देव-दानव से लेकर राक्षस और मानव तक बराबर सुविधानुसार इस कला का उपयोग करते रहे। सम्भव है, प्राचीन काल में इस विद्या के कई केन्द्र रहे हों, जहाँ से प्रति वर्ष अनेक स्नातक डिग्रियाँ लेकर जन-समुदाय में इस कला का प्रदर्शन करते रहे। धीरे-धीरे कुछ लोगों के लिए यह कला जीविका का साधन बन गयी। इन लोगों को ही हम आधुनिक भाषा में ‘ठग’ कहते हैं।

प्राचीन आचार्य

इस विद्या के जन्मदाता कौन थे, इस विषय पर इतिहास ही नहीं, बल्कि धार्मिक ग्रन्थ भी मौन हैं। कुछ लोगों का कहना है कि इस कला के जन्मदाता स्वयं चतुर्भुज भगवान विष्णु थे, जिन्होंने देवी वृन्दा पर सर्वप्रथम इस कला का प्रदर्शन किया था। श्रीकृष्ण ने महाभारत में, इन्द्र ने कर्ण के साथ और हनुमान ने मेघनाद के साथ जो ठगी की है, उसे सभी जानते हैं।

इस कला के जन्मदाता भगवान विष्णु भले ही रहे हों, पर इस कला के प्रथम आचार्य शिव-पुत्र (कार्तिकेय) थे। काशी शिव की नगरी है और शिव के ज्येष्ठ पुत्र इस कला के सर्वप्रथम आचार्य हुए अर्थात ‘एक तो तितलौकी, दूसरे नीम चढ़ी’ वाली कहावत हुई। इससे यह अन्दाज लगाया जाता है कि इस कला का जन्म काशी में ही हुआ था। काशी के लिए यह गौरव का विषय है कि यहाँ के ठगों ने प्राचीन युग की इस कला को लुप्त होने से बचा रखा है।

भारत का प्रामाणिक इतिहास उपलब्ध न होने के कारण यह बताना मुश्किल है कि इस कला के अब तक कितने आचार्य हो चुके हैं? उन्हें इस कला की शिक्षा किस केन्द्र से प्राप्त हुई थी? इस कला के कितने केन्द्र भारत में थे? इस कला के कितने अंग थे? इस कला के स्नातकों को कौन-सी उपाधि दी जाती थी? सबसे बड़ी दु:ख की बात यह है कि इस कला के किसी आचार्य ने मठ, मन्दिर, स्तूप तो क्या भोजपत्र या ताम्रपत्र तक नहीं बनवाये। इससे यह विश्वास होता है कि उन दिनों इसे हीन कार्य माना जाता था। भविष्य में इतिहास के गड़े मुर्दे उखाडऩे वाले किसी विद्वान का ध्यान इस अछूते विषय की ओर अवश्य आकर्षित होगा।

‘‘शिव पुत्र के बाद कनकशक्ति, भास्कर नन्दी और मूलदेव आदि इस विद्या के आचार्य हुए हैं। संस्कृत साहित्य में मूलदेव अधिक प्रसिद्ध हैं। कादम्बरी, अवन्ति सुन्दरी कथा और कथा विलास आदि ग्रन्थों में इनकी चर्चा है। मूलदेव का दूसरा नाम ‘कर्णिसुत’ था। इनके ‘कर्णिसुत-सूत्र’ का उल्लेख मिलता है, पर यह ग्रन्थ या इसके उद्धरण तक प्राप्य नहीं हैं।’’

पौराणिक ठग

प्राचीन काल में इस विद्या की उत्पत्ति चाहे जहाँ हुई हो, पर आधुनिक युग में इस कला के सर्वश्रेष्ठ आचार्य काशी में हो चुके हैं, ऐसा माना जाता है।

कहा जाता है कि पौराणिक युग में एक ठग ने श्रीकृण पर हाथ की सफाई दिखाई थी। ठग थे—तत्कालीन काशीनरेश पौंड्रक। हजरत अपने को भगवान समझने लगे। बनारस के चार सौ बीस श्रेष्ठ कारीगरों ने जनाब को दो नकली हाथ बनाकर जोड़ दिये। देश देशान्तरों में भगवान रूपी चतुर्भुज काशीनरेश की धूम मच गयी। भगवान राधापति की ‘प्रेस्टीज’ पर गहरा धक्का लगा। पुराण चीख-चीख कर घोषित कर रहे हैं कि अपनी ‘प्रेस्टीज’ पर चूना लगानेवाले इस ठग काशीनरेश के लिए राधापति को खंगहस्त होना पड़ा था।

आज के विद्वान पुराणों की ऐतिहासिकता में सन्देह प्रकट करने लगे हैं, सो मारिए गोली। आज से सौ वर्ष पूर्व ईस्ट इंडिया कम्पनी का बनारसी ठगों से खूब पाला पड़ा था। आधुनिक युग की सबसे बड़ी ठगी ‘रेशमी रूमाल ठगी’ को माना जाता है (कहा जाता है मध्यप्रदेश में ‘रूमाल ठगों’ का एक गिरोह था। ये लोग रेशमी रूमाल की सहायता से ठगी करते थे। जब इन्हें यह मालूम हो जाता था कि अमुक यात्री या व्यक्ति के पास रकम है तब ये राह चलते यात्री के पीछे से रेशमी रूमाल का फन्दा फेंककर पीछे खींच लेते थे। रेशमी रूमाल में पैसा रखकर दो गाँठ बाँध दी जाती थीं। जब यह दोनों गाँठ आपस में मिलकर कस जाते थे तब श्वासनलिका दब जाती थी और इस प्रकार दम घुट जाने की वजह से यात्री का प्राणान्त हो जाता था।) यह ठगी मध्य भारत में होती थी। उस ठगी का संचालन और रेशमी रूमाल का निर्माण बनारस में ही होता था। शायद इसीलिए लार्ड विलियम वेंटिंक को इसे दबाने के लिए फौज भेजनी पड़ी थी।

इसमें सन्देह नहीं कि बनारस की ठगी भी अपने आप में ऐतिहासिक महत्त्व रखती है। धार्मिक नगरी होने के कारण लोग यहाँ धर्म के नाम पर पुण्य लूटने की गरज से और मठ-मन्दिर बनवाने के लिए अपने साथ काफी रकम लाते थे। उस रकम को यहाँ के ठग नकली तीर्थ-पुरोहित बनकर इस तरह उड़ाते थे जिसे देखकर प्राचीन युग के आचार्य को भी पसीना आ सकता था।

स्वर्ग में अपनी सीट रिजर्व कराने के कांक्षी को पूजा-अर्चना में उलझाकर बेचारे की गर्दन इस सफाई से उतार ली जाती थी कि क्या मजाल जो आँख भी झपक सके। एक जमाना था जब नकली तीर्थ-पुरोहित दर्शन कराने के लिए अपने अड्डे पर ले जाते थे। अचानक रास्ते में ‘जय बाँसदेव’ कहते ही पीछे से यजमानों के ऊपर ‘बाँसदेव’ गिर पड़ते थे। कुछ लोग काशी करवट को इस कांड के लिए अधिक जिम्मेदार ठहराते हैं। ‘बनारस गजेटियर’ के अनेक पृष्ठ इस रक्त-रंजित ठगी के वर्णनों से भरे पड़े हैं।

बनारसी ठग

बनारस में कौन ठग है और कौन रईस, यह बात ज़रा मुश्किल से समझ में आती है। ‘ठग ही जाने ठग की भाषा’ कहावत के अनुसार जहाँ भाषा में इतना अन्तर है तब उनकी वेश-भूषा और हथकंडों में कितना अन्तर होगा, यह समझने की बात है। सच पूछिए तो बनारसी ठगों की कोई खास पहचान नहीं है। वह आपके पास सरकारी अधिकारी बनकर आ सकता है और आपका साला बनकर भी। ‘का जाने केहि भेष में नारायण मिल जाएँ’ कहावत की भाँति कब किस वेष में आपको वह ठग सकता है, यह आप नहीं भाँप सकते।

गले में सिकड़ी, आँखों पर चश्मा, पैरों में नागरा जूता, कान में इत्र का फाहा, तन पर तंजेब का कुर्ता, सर पर दोपल्लिया टोपी पहने और हाथ में चाँदी की मूठ की छड़ी लिये बाजार में टहलनेवाला व्यक्ति शहर का नामी रईस हो सकता है और नम्बरी ठग भी। वह व्यक्ति आवारा या शोहदा भी हो सकता है और एक पक्का जासूस भी। इसलिए बनारस में कौन व्यक्ति क्या है, जब तक अच्छी तरह जान न लिया जाए, उसके बारे में राय देना उचित नहीं।

ठगों के माई-बाप नहीं होते। वक्त जरूरत पर वे अपने बाप को भी ठग लेते हैं। कहा जाता है कि एक बार एक सुनार परिवार में उन्हीं के घर की लड़की ससुराल से कुछ सोना लेकर अपने बाप के घर जेवर बनवाने के लिए आयी। बेटा आग में तपाकर जेवर बनाने लगा तभी बाप जान ‘राम-राम’ कह उठे। बेटे को इशारा समझते देर नहीं लगी। उसने कहा, ‘‘क्या राम-राम बकते हो। सोने की लंका मिट्टी में मिल गयी है।’’

बाप ने सोचा था कि बेटा कहीं बहन के प्रति रियायत न बरते। इधर बेटा बाप से भी होशियार निकला। बाप के इशारा करने के पहले ही उसने बहन के जेवर से सोना कपटकर राख में मिला दिया था। यह है ठगों की भाषा का नमूना।

आज तो हालत यह है कि बेटा बाप को ठगता है तो बाप बेटे को। पति पत्नी को ठग समझता है तो पत्नी पति को। अधिक दूर क्यों रेल, बस और रिक्शे पर सवार होते समय लोग अपने सहयात्री को इस प्रकार घूरते हैं मानो किसी ‘चाइयाँ’ या गिरहकट के पास बैठ रहे हों। सिर्फ यही नहीं, बल्कि तुरन्त अपनी अगल-बगल की जेबों को उठाकर सामने की ओर कर लेते हैं ताकि उनका सहयात्री उसका नाजायजज फायदा न उठा ले।

ठगों के हथकंडे

अगर आप यह सोचते हों कि खास बनारस के व्यक्ति ठगों के चंगुल में नहीं फँसते तो आपका यह खयाल गलत है। यह ठीक है कि बनारसी लोग ठगों के अनेक हथकंडों से परिचित हो गये हैं। इधर ठगों का दल भी प्रगतिशील हो गया है। वे नित्य नये हथकंडों का आविष्कार करते रहते हैं।

एक जमाना था, जब नकली मृत बच्चा बनाकर औरतें आने-जानेवाले मुसाफिरों को ठगा करती थीं। परेदशी यात्री बनकर ‘हमारा सब सामान चोरी चला गया’ कहकर लोग लोटा बेचते हुए दिखाई देते थे। कुछ बाबा दो-एक चमत्कार दिखाकर लोगों को ठगा करते थे। कुछ लोग दूसरों की कमजोरी का और औरतों के प्रेमपत्रों को कब्जे में कर ठगने का कौशल रचते हैं। नयी कम्पनी, नयी फर्म और नयी संस्था बनाकर लोगों को ठगना साधारण बात हो गयी है।

सिर्फ पुरुष ठग ही इस कार्य में लिप्त नहीं रहते। पुरुषों से कहीं अधिक महिलाएँ इस दिशा में अधिक सक्रिय भाग लेती हैं। एक बार एक दुकानदार के यहाँ चालीस रुपया का कपड़ा लेकर अपने सोते हुए बच्चे को उसके यहाँ रख महिला ठग अपना सौ रुपये का नोट भुनाने के लिए आगे बढ़ गयी। जब काफी देर तक नहीं लौटी तब दुकानदार ने सोचा कि आखिर लड़का रो क्यों नहीं रहा है? कपड़ा हटाकर जब देखा तब वहाँ लड़के के स्थान पर रबड़ का पुतला था। उस समय तक हजरत चालीस रुपये का कपड़ा खो चुके थे।

एक बार एक ठग एक प्रसिद्ध सर्राफ के यहाँ एक हजार रुपये का जेवर लेकर सौ-सौ के दस नोट देकर चला गया। उसके जाने के थोड़ी देर बाद उसका सहयोगी आया और उसने भी एक हजार रुपये का जेवर लिया। इसके बाद उसने कहा—‘‘कैश मेमो काट दीजिए।’’

दुकानदार ने कैश मेमो काट दिया। हजरत बिना रुपया दिये जाने लगे तब दुकानदार ने कहा, ‘‘साहब रुपया दीजिए।’’ उसने कहा, ‘‘रुपया मैं आपको दे चुका हूँ। आपने अपने बक्स में रखा है, देख लीजिए।’’

आँख के सामने इस तरह ठगी करते देख सर्राफ ने उसे पुलिस के हवाले कर दिया। पुलिस के सामने ठग ने बयान दिया कि मैंने सौ-सौ के दस नोट इन्हें दिये हैं। सभी नोटों पर मेरे हस्ताक्षर हैं। यकीन न हो तो तलाशी लेकर देख लिया जाए। इसके पूर्व जो ठग सौ-सौ के दस नोट दे गया था, उन पर दूसरे ठग के हस्ताक्षर प्रमाणित हो गये। इस प्रकार वह बच गया। बनारस में इस ढंग की भी ठगी होती है।

बाँझ औरतों को बच्चा होने की दवा देनेवाले, अबारे पति को वश में करने के लिए पूजा-पाठ करनेवाले, मुकदमे जितानेवाले और कीमिया (नकली सोना) बनानेवालों की कमी यहाँ नहीं है।

बनारसी ठगी का अनूठापन सिद्ध करनेवाले कुछ ‘चित्र’ प्रस्तुत किये जा रहे हैं। विश्वास है, इससे आपको आनन्द आ जाएगा।

नेपाल के राजपरिवार से सम्बद्ध एक राणा साहब परिवार सहित काशी दर्शन के निमित्त पधारे थे। गंगास्नान करनेवाली औरतों को कलात्मक ढंग से गायब करके उनके शरीर पर के आभूषणों पर हाथ साफ़ कर देने की घटनाएँ पर्याप्त सुख्याति प्राप्त कर चुकी थीं। होता यह था कि गंगा के अन्दर, घाट से दूर खूँटे गाड़ दिये गये थे। घाट से डुबकी लगाकर औरतों को घसीटकर उन्हीं खूँटों में बाँध दिया जाता था। घटना-स्थल से काफी दूर होने के कारण किसी माई के लाल को रहस्य का भास भी नहीं होता था। आभूषण तो जाते ही थे, लाश तक का कोई पता नहीं चलता था।

उक्त राणा साहब अपने को जरा होशियार समझते थे। उन्होंने सोचा, ऐसी घटनाएँ औरतों के शरीर के आभूषणों के कारण ही घटित होती हैं। सो उन्होंने परिवार की औरतों से स्नान के पूर्व शरीर के आभूषणों को उतार देने को कहा। सारे आभूषणों को एक मजबूत टोकरी के नीचे दबा, उसके ऊपर हाथ में नंगी खुखरी लेकर हजरत जम गये। मन में ठगों को एक बढ़िया-सी गाली देकर निश्चिन्त हो गये। बनारसी ठगों की नजर आभूषणों पर पहले ही पड़ चुकी थी और इसका मतलब था, जैसे भी हो, उन पर अधिकार जमाना। औरतों का शरीर निराभूषण था, सो वे व्यर्थ थीं। आकर्षण का केन्द्र राणा साहब ही थे।

थोड़ी ही देर बाद राणा साहब ने देखा, साठ-सत्तर वर्ष का एक वृद्ध स्नानोपरान्त भीगे ही वस्त्रों में सीढ़ी पर चढ़ रहा है। भीड़-भाड़ बहुत थी। अचानक उस वृद्ध की गीली धोती से एक गिन्नी झन्न-से राणा साहब के पास ही गिरी। परन्तु वृद्ध राम-राम कहता हुआ आगे ही बढ़ता गया। राणा साहब ने चौंककर देखा, दस कदम बाद फिर एक गिन्नी, दस कदम बाद एक और—ऐसे ही हर दस कदम बाद बीसों गिन्नियाँ पड़ी थीं, पर लगता था उनकी ओर वृद्ध का ध्यान ही न गया हो। गिन्नियों की चमक ने राणा को विचलित-सा कर दिया। धीरे से उठे और उन गिन्नियों को समेट ले आये। वृद्ध अदृश्य हो चुका था। गिन्नियों को जेब के हवाले कर वे फिर टोकरी पर जा बैठे। खेल समाप्त हो चुका था। औरतें जब स्नान करके वापस आयीं तब टोकरी के नीचे आभूषणों के स्थान पर बड़ा-सा ‘जीरो’ रखा था।

अपना एक स्मरणीय अनुभव है। मेरे एक मित्र को हृषिकेश वाला पंचांग चाहिए था। मैंने उसे देखकर दुकानदार से बाँध देने को कहा। तभी पास की एक दुकान में चार-पाँच गृहस्थ स्नान और देव-दर्शन के पश्चात मस्तक पर चन्दन का तिलक लगाये गोस्वामी तुलसीदास की रामायण खरीदने आये।

दुकानदार ने सर से पैर तक घूरने के बाद ग्राहक को भाँप लिया। फिर रामायण पर छपे पन्द्रह रुपया मूल्य पर उँगली रखते हुए गम्भीर स्वर में कहा, ‘‘दाम त देखते, हउवा गृहस्थ, भगत आदमी हउवा, बोहनी क बखत हव, तोसे मोल-चाल न करब, तोरे बदे तेरह रुपया में दे देब। देख, कोई के बताये जिन, नाही त हमरे लिए मुश्किल हो जाई।’’ (अर्थात दाम तो देख ही रहे हो, गृहस्थ आदमी हो, भगत हो, इधर बोहनी का समय है, तुमसे मुनाफा नहीं लूँगा। तेरह रुपया में दे दूँगा, लेकिन किसी को बताना नहीं, वरना मेरे लिए मुश्किल हो जाएगी।)

गृहस्थ बेचारे चमत्कृत हो उठे। सोचा—बनारस में रामायण के विक्रेता भी बड़े भारी भक्त हैं। बेचारा तेरह रुपया देकर रामायण लेकर चला गया, जब कि उसकी कीमत चार रुपया थी। इधर मैं यह तमाशा देख रहा था, उधर मेरे दुकानदार ने मेरी लापरवाही का भी फायदा उठा लिया। एक हफ्ते बाद मेरे मित्र ने मुझे लिखा कि मैंने तुम्हें हृषिकेश वाला पंचांग भेजने को कहा था न कि रद्दी की कतरनों का बंडल।

मैं अपनी मूर्खता पर चमत्कृत हो उठा। कर ही क्या सकता था। स्वर्गीय प्रेमचन्दजी ने भी इसी तरह एक दुकानदार को छह बढ़िया सन्तरा बाँध देने के लिए कहा, जब वे घर ले आये तब सब के सब सन्तरे सड़े निकले।

आजकल ठगी के एक नये हथकंडे का आविष्कार हुआ है। दो आदमी पहले से एक नयी साइकिल लिये टहलते रहते हैं। जहाँ कोई नयी साइकिल खड़ी देखते हैं, वहाँ एक आदमी साइकिल लेकर जाता है और ठीक दूसरी साइकिल के बगल में अपनी साइकिल रख दुकान के भीतर चला जाता है। पहलेवाला व्यक्ति, जिसकी साइकिल बाहर रहती है, उसे सिर्फ यही खयाल रहता है कि मेरी साइकिल अपनी जगह पर है तो। दूर से अपनी साइकिल की कोई पहचान नहीं कर पाता। इसी बीच जो व्यक्ति (ठग) भीतर जाता है, बाहर आकर पहलेवाले व्यक्ति की साइकिल लेकर गायब हो जाता है और जब पहला व्यक्ति बाहर आकर उस साइकिल पर हाथ रखता है तब ठग का दूसरा दोस्त, जो उसी जगह सारी कार्यवाहियों पर नजर रखता है, आकर बाधा देता है। इस प्रकार पहलेवाले व्यक्ति की आँखों के आगे अँधेरा छा जाता है।

अब तो बनारस के लोग काफी होशियार हो गये हैं। नकली साले-रिश्तेदारों पर भी विश्वास नहीं करते। ठगों की सीमा केवल इन्हीं बातों पर स्थिर नहीं है। कुछ ठग पत्रकार बनकर भी ठगते हैं। वे आपकी रचना आपके नाम से छापकर आपके नाम का वाउचर बनाकर रुपया हजम कर लेंगे। आपने सोचा—चलो अच्छा हुआ कम-से-कम मेरी रचना तो छप गयी। उधर सम्पादकजी ने आप पर एहसान-का-एहसान किया और पुरस्कार मुनाफे में ले लिया। पत्रकार बनकर कहीं भी किसी जगह रोब जमाकर ठगा जा सकता है, बशर्ते भेद न खुल जाए।

आप विश्वास करें या न करें, कुछ पेशेवर ठग कचहरी के अहाते में ‘जमानत’ देने के लिए घूमते-फिरते रहते हैं। ऐसे लोग अक्सर यह पता लगाते रहते हैं कि किसके मकान का टैक्स काफी दिनों से दिया नहीं गया है। हजरत उनका टैक्स चुका कर रसीद ले लेते हैं और उसी रसीद की बदौलत जमानत के इच्छुक देहातियों से काफी रकम मूड़कर जमानत दे देते हैं। इसके बाद अगर वह आदमी मुकदमा जीत जाता है तो कोई बात नहीं, वरना अदालत से उस मकान-मालिक के नाम कुर्की आ जाती है। उस समय बेचारा मकान-मालिक यह समझ नहीं पाता कि यह कुर्की क्यों आयी? मैंने कब किसकी जमानत दी है?

ऐसे हैं बनारसी ठगी के हथकंडे।