बनारस की संस्थाएँ / बना रहे बनारस / विश्वनाथ मुखर्जी

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बनारस में कुल कितनी संस्थाएँ हैं, इसका हिसाब लगाना आसान नहीं है। रजिस्टर्ड संस्थाओं की सूची तो सरकारी दफ्तर से प्राप्त हो सकती है, पर अनरजिस्टर्ड की सूची केवल समाचार पत्रों में प्रकाशित उत्सव-आयोजनों के समाचारों से ही ज्ञात हो सकती है।

संस्था की परिभाषा

संस्था का अर्थ क्या है और संस्था बनायी क्यों जाती है? मुमकिन है आप यह बात न जानते हों। जिनकी कहीं सुनवाई नहीं होती अथवा अपनी बातें नये ढंग से पेश करना चाहते हैं किंवा अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं, रोजी-रोजगार या जलपान की व्यवस्था करना चाहते हैं, नेतागिरी की ख्वाहिश रखते हैं—ऐसे लोगों की जमात को संस्था कहते हैं। संस्थापक उसे कहते हैं जिसके दिमाग में भाँग के नशे में या चाय की चुस्की लेते समय यह विचार उत्पन्न हो जाए कि एक ऐसी संस्था की आवश्यकता है और वह कुछ मित्रों पर अपनी यह राय जाहिर कर दे। सदस्यों से कुछ अधिक चन्दा देनेवाला सभापति होता है। ऐसी संस्थाओं में दो प्रकार के सदस्य होते हैं—एक विशिष्ट, दूसरे साधारण। विशिष्ट सदस्यों में सभापति (यदि फालतू व्यक्ति नहीं हैं तो कोरम पूरा करने के लिए उपसभापति भी रख लिए जाते हैं) संस्थापक, मन्त्री, उपमन्त्री और कोषाध्यक्ष के अलावा कुछ इनके साथी, दोस्त होते हैं जो कि चन्दे की रकम का ‘सदुपयोग’ करते हैं। संस्थाएँ चन्दे की रकम से चलती हैं, इसके अलावा गाढ़े वक़्त जनता से भी मदद ली जाती है। आखिर उन्हीं की ‘भलाई के लिए’ तो ये नेता, ये पदाधिकारी तन-मन से लगे हुए हैं वरना इन्हें क्या गरज पड़ी है? चन्दे की रकम अधिकतर सभापतिजी की माला और रिक्शा किराया में, विशिष्ट सदस्यों के जलपान में और मन्त्री तथा कोषाध्यक्ष के घर गृहस्थी के काम आती है। अविश्वास का प्रस्ताव लानेवाले, चाँव-चाँव करनेवाले भी विशिष्ट सदस्य होते हैं। साधारण सदस्यों की इज्जत केवल चुनाव के समय होती है।

बनारसी संस्थाएँ

अन्य शहरों की संस्थाओं का अध्ययन इस लेखक ने नहीं किया है, पर बनारसी संस्थाओं के बारे में वह कुछ जानता है। बनारस में एक ऐसी संस्था है जिसमें सभापति, संस्थापक, मन्त्री, कोषाध्यक्ष और सदस्य एक ही व्यक्ति है। कुछ संस्थाएँ ऐसी हैं जिनके साइनबोर्ड दिवालों पर लटकते हैं, पर कभी कोई कार्रवाई नहीं होती। काशी के कुछ साहित्यिक किसी-न-किसी संस्था के संस्थापक, सभापति, मन्त्री अथवा कोषाध्यक्ष अवश्य होते हैं। उनकी जेब में चन्दे की बही, कार्ड, निमन्त्रण-पत्र और लेटरपैड अवश्य रहता है। कहने का मतलब यह है कि उनकी कमीज में जितनी जेबें हैं, उससे अधिक उनके पास संस्थाएँ हैं। जो जितना व्यस्त है, वह उतना ही बड़ा है। इस तरह की संस्थाओं के जन्मदाता बनारस के होटल और लस्सी-चाय की दुकानें हैं, क्योंकि विशिष्ट व्यक्तियों के रहते हुए भी कोई इन्हें अपने घर मीटिंग करने नहीं देता। यही वजह है कि बजड़े पर कवि सम्मेलन या गोष्ठी का आयोजन होता रहता है। किसी संस्था का वार्षिकोत्सव करना है तो झट उनके मन्त्री से लेकर कोषाध्यक्ष तक चन्दे की रसीद लेकर होटलों में चक्कर लगाना शुरू कर देते हैं। यदि आप जरा-सी दिलचस्पी लेते हैं तो आपको ये लोग मूँड़ने से बाज नहीं आएँगे। आपकी कृति की तुलना प्रेमचन्द, गोर्की से, आपकी उदारता की धन्ना सेठ से और प्रतिभा की तुलना के बारे में पूछिए मत। बस जो कुछ हैं, आप ही हैं। किन्तु जब चन्दे की रसीद कट गयी तब आपकी गणना मूर्खों में की जाती है। पूरा चन्दा देने पर भी जलसे में आपको एक बीड़ा पान या एक कप चाय के लिए भी नहीं पूछा जाएगा। अगर प्रबन्धक शरीफ आदमी है तो हाथ जोड़ देगा और कुछ अपरिचितों से परिचय करा देगा—बस। बहुत अधिक शरीफ हुआ तो चाय-जलपान को पूछ लेगा।

साहित्यिकों की तरह प्रत्येक शिक्षक और प्रत्येक राजनीतिक नेता किसी-न-किसी संस्था का संस्थापक है। कुछ लोग तो एक से अधिक संस्था के संस्थापक हैं। सरकार से सहायता लेने के लिए भरसक प्रयत्न होते हैं, बैठकों में भले ही ‘बाप-पूत बराती’ ‘माई-धिया गौनहारिन’ की कहावत चरितार्थ हो अर्थात सभापति, मन्त्री और कोषाध्यक्ष के अलावा अन्य कोई उपस्थित न रहे, लेकिन दूसरे दिन समाचार पत्रों में इन तीनों व्यक्तियों का भाषण लिखकर जरूर छपने के लिए जाता है।

सबसे बड़ी खूबी यह है कि इन संस्थाओं का वार्षिकोत्सव काफी धूमधाम से मनाया जाता है और उसके लिए कहीं-न-कहीं स्थान प्राप्त हो जाता है। लेकिन मीटिंग तो किसी भी रेस्तराँ, होटल में चाय की चुस्कियाँ लेते समय ही होती हैं। ये ऐसी संस्थाएँ हैं जिन्हें आप ‘चलती फिरती संस्थाएँ’ की संज्ञा दे सकते हैं।

कुछ प्रतिष्ठित संस्थाएँ भी काशी में हैं, किन्तु आप यदि उनमें पहुँचे तो कार्यवाही शुरू होने के पहले वहाँ की समस्या पर बहस करने के बजाय आलू-परवल का भाव, बेकारी की चर्चा, वेतन की मुसीबत और दफ्तर की परेशानियों की चर्चा चल पड़ती है। सभापति के आने पर (बनारस में मन्त्रियों तथा माननीय श्री श्रीप्रकाशजी के अलावा कोई भी समय से नहीं पहुँचता) जब कार्यवाही शुरू होती है तब अजीब ‘कौवारोर’ मचता है। गनीमत समझिए कि सभापति जी कुछ ‘सम्हाल’ लेते हैं।

कुछ ऐसी संस्थाएँ हैं जहाँ के सभापति को खाने-पीने का डौल लग जाता है, वहाँ के सभापति मेम्बरों के वोट अपनी जेब से रकम खर्च कर खरीदते हैं। यह मानी हुई बात है कि अगर आपका सदस्यता शुल्क कोई चुका देता है तो आप उसका ही गुण गाएँगे। बनारस में ऐसे सभापति और ऐसे सदस्यों की कमी नहीं है। फलस्वरूप अच्छी संस्थाएँ भी राजनीति का अखाड़ा बन जाती हैं। संस्था के नाम पर चन्दा माँग कर कुछ लोग घर खर्च चलाते हैं। जिनका सरकारी अधिकारियों पर प्रभाव है, उनका क्या पूछना!

एक ऐसी संस्था है जिसकी एक बैठक में कुल 13 आदमी उपस्थित थे, फलस्वरूप कोरम पूरा न होने के कारण बैठक स्थगित कर दी गयी। लेकिन चुनाव के समय खदेरू-बखेड़ू सभी आये थे। चाय-जलपान का भी टोटा पड़ गया। कुछ लोग जब यह जान लेते हैं कि आज जलपान का ‘दिव्य’ प्रबन्ध है, तब सबसे पहले पहुँच जाते हैं, वरना साधारण सदस्य को कौन कहे मन्त्री-सभापति और कोषाध्यक्ष तक लापता रहते हैं।

बनारस में कुछ ‘मौसमी’ संस्थाएँ हैं जो जाड़े में होटलों के किसी कमरे में और गर्मी के दिनों में बजड़े पर गोष्ठियाँ करती हैं। भाँग छानी, गलेबाजी की और चाय-जलपान के पश्चात घर लौटे। बनारस की अनेक साहित्यिक संस्थाएँ इसी तरह की हैं। इनमें गम्भीर विचार-विमर्श नहीं होते—केवल तफरीह के लिए आयोजन होता है।

यही वजह है कि लोग चन्दा माँगनेवालों से घबराते हैं। उनका हाल ठीक उस व्यक्ति जैसा हो जाता है जो दिल्ली का लड्डू खाय तो पछताय, न खाये तो भी पछताय। अगर वे चन्दा नहीं देते तो बुरा और दे दिया तो बेकार हुआ। संस्थाओं की यह हालत जनता से छिपी नहीं है, इसलिए साहित्यिक आयोजन में वह दिलचस्पी नहीं लेती। लेकिन तफरीहवाले आयोजनों में टूट पड़ती है। अगर नाटक आदि का प्रोग्राम हुआ तो हर मेम्बर को कम-से-कम तीन पास चाहिए। एक उसके लिए, एक बीवी के लिए और एक फालतू। बच्चों के लिए फ्री कंसेशन रहता है। यद्यपि निमन्त्रण पत्र में —बच्चों को साथ लाना मना है—छपा रहता है। ‘खानदान के चिराग को’ साथ न रखें तो कहाँ छोड़ जाएँ। इसके अलावा पिता में जो गुण मौजूद है, वह उनकी सन्तानों में भी उत्पन्न हो—यह दृष्टिकोण तर्क में प्रस्तुत किया जाता है।

अगर आप खुशहाल जिंदगी व्यतीत करना चाहते हैं तो भूलकर किसी भी संस्था का मेम्बर मत बनिए, यह एक नेक सलाह है।