बनारस के अहीर / बना रहे बनारस / विश्वनाथ मुखर्जी

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जनसंख्या की दृष्टि से काशी में ब्राह्मणों के बाद अहीरों की संख्या अन्य जातियों से अधिक है। शायद ही ऐसा कोई मुहल्ला होगा जहाँ अहीर न रहते हों। इसका मुख्य कारण यह है कि प्रत्येक बनारसी निखालिस दूध का प्रेमी होता है। घर पर ‘पहुँचउवा’ अथवा बाजार में बिकनेवाले दूध पर उसे विश्वास नहीं है। भले ही वह खालिस क्यों न हो। खालिस दूध प्राप्त करने के लिए लोग तरह-तरह के प्रयोग करते हैं। रईस और अफसर अथवा जिनका रोब अहीरों पर गालिब होता है, वे अपने दरवाजे के सामने खड़े होकर दूध दुहवाते हैं। ऐसे लोग एक गाय या एक भैंस का पूरा दूध क्रय कर लेते हैं। मध्यम श्रेणीवालों को जरा रियाज करना पड़ता है अर्थात तड़के या शाम के समय जब अहीर थका-माँदा नींद में सोया रहता है तब अनेक बनारसी लोटा-बाल्टी लेकर उसके डाक बँगले पर हमला कर बैठते हैं। कहने का मतलब ग्राहकों की भीड़ से अहीरों की नींद खुलती है। इधर ग्राहकों का विश्वास है, जब वह सोया रहे तभी दूध लेने पहुँचना चाहिए वरना घपला कर बैठेगा।

दूध दुहने के पहले खाली बाल्टी देखना, ग्वाले की प्रत्येक अदा को तजबीजना, पहले से किसी और बाल्टी में दूध दुहकर रखा है कि नहीं, यह देखना और दूध लेते समय फेना हटाकर दूध लेना-यह सब ग्राहकों के अपने ‘ट्रिक’ हैं। इतना करने पर भी लोग इन्हें अविश्वास की दृष्टि से देखते हैं। यही एक ऐसा रोजगारी है जो जनता के अविश्वास का सेहरा पहने सड़कों पर झूमता हुआ चलता है। अपने इस अपमान से नाराज नहीं होता। शायद सहनशीलता का गुण उसे भगवान शंकर से प्राप्त हुआ है।

अब ऐसी हालत में यदि ग्वाले का मकान घर से दूर हुआ तो खालिस दूध मिलना दूर रहा -वहाँ तक जाने में लोग परेशानी अनुभव करते हैं। समय से दफ्तर या दुकान नहीं जा सकेंगे। इसीलिए प्रत्येक बनारसी चाहता है कि दफ्तर, दुकान, बाजार और नदी तट भले ही दूर हो, पर ग्वाले का मकान पास हो ताकि उसके यहाँ हमला करने में सहूलियत हो। ग्वाले का घर पास में रहने से तीन फायदे हैं। पहला यह कि खालिस दूध मिल जाता है, दूसरे ‘खतम हो गयल’ सुनना नहीं पड़ता, तीसरे सुबह का टहलना भी हो जाता है। अब उनकी बात ही अलग है जो सुबह-शाम ग्वाले के यहाँ हाजिरी बजाना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं। ऐसे लोगों के यहाँ ‘घर पहुँचउवा’ दूध देने की व्यवस्था है।

इतना ‘रियाज’ करने पर भी बनारसी लोग कभी-कभी यह अनुभव करते हैं कि आज ‘पनिहर’ दूध मिला है। आज भी कुछ ऐसे बनारसी हैं जो दूध का कटोरा मुँह में लगाते ही बता देते हैं कि इसमें कितने प्रतिशत दूध है और कितना पानी। एक तो दूध से मक्खन-मलाई निकालकर सारा तत्व खींच लेते हैं, फिर उसमें भी पानी मिलाकर देंगे। सुना है, इस दूध में भी जब कुछ विटामिन रह जाता है तब मशीन के जरिये उसे भी निकाल लेते हैं ताकि जनता का स्वास्थ्य खराब न हो जाए।

बनारस के निवासियों को असली दूध प्राप्त हो, इस उद्देश्य से प्रेरित होकर एक बार बनारस नगरपालिका ने रबड़ी-मलाई पर कंट्रोल लगा दिया था ताकि यह सामान न बनने पर लोगों को विटामिन युक्त असली दूध प्राप्त होगा। यद्यपि उस समय कुछ भाई लोगों ने जो रात को मलाई-रबड़ी से रोटी खाते हैं, आपत्ति की थी। लेकिन इधर असली दूध पीते ही लोगों में अपच की शिकायत इतनी गहरी हुई कि इस कानून को बदल देना पड़ा।

खालिस दूध प्राप्त करने के लिए बनारसी लोग अपना ‘तिकड़म’ करते रहते हैं, पर उनकी ‘तिकड़म’ काम नहीं देती। पता नहीं, नटवर श्याम के ये जाति बिरादर कब घपला कर बैठते हैं! यदि स्कॉटलैंड यार्ड वाले इस बात की खोज करें तो इस रहस्य पर कुछ प्रकाश डाल सकते हैं। यद्यपि आज का जमाना ही घपलेबाजी का है। सोना-चाँदी में, घी में, साहित्य में, राजनीति में यहाँ तक कि अच्छी लड़की दिखाकर काली-कलूटी लड़की को कन्यादान में देकर ससुर लोग घपला कर बैठते हैं - फिर दूध में घपलेबाजी करना कोई भारी जुर्म नहीं, जबकि आप सामने खड़े होकर दूध दुहवाते हैं - सिर्फ इसीलिए न कि आपका उन पर विश्वास नहीं!

इधर ग्वालबन्धु मस्त रहते हैं। कोई कितना ही अविश्वास क्यों न करे - वे साफ काम करना पसन्द करते हैं। वे आपके सामने दूध दुहने को तैयार हैं, आपके दरवाजे पर गाय ले जाकर दूध दुह सकते हैं। आपके घर पहुँचाते भी हैं। वे हर तरह से ग्राहक को खुश रखना चाहते हैं, पर ग्राहक न जाने क्यों उनका विश्वास नहीं करते जब कि खोपड़ी पर सवार होकर दूध दुहवाएँगे। लोग यह नहीं सोचते कि सबको दूध देना पड़ता है, अगर किसी को न दें तो उनका मुँह फूल जाता है, बकाया पैसा पानी में चला जाता है। अगर सबको खुश न रखे तो गणतन्त्र की परम्परा ही बिगड़ जाए। ग्राहकों को तो शिकायत करने की आदत ही पड़ गयी है। हजार खालिस दो, पर विश्वास नहीं करते। महीने भर दूध पिलाओ और पैसा देते समय नानी मर जाती है। आज तनख्वाह नहीं मिला - लो आज कुछ रुपये ले जाओ - अगले महीने में इकट्ठे दे देंगे - आदि बहाना सुनाते हैं। वे यह नहीं समझते कि आजादी सिर्फ उन्हें नहीं मिली है - हैवानों को भी मिली है। एक तो गायें पहले की तरह दूध नहीं देतीं, दूसरे नाप-तौलकर दूध देती हैं। जब मन में आया ‘पनिहर’ दूध देंगी। कुछ तो अपने बच्चे के लिए चुरा लेती हैं। कुछ मनहूस ग्राहकों को देखकर बिदक जाती हैं और जल्दी ‘पेन्हाती’ नहीं। भले ही उनके आगे भूसा भरकर नकली बछवा क्यों न रख दिया जाए।

काशी के राजपूत

वीरता और स्वातन्त्र्य-प्रेम के लिए राजपूत जाति का नाम बड़े आदर से लिया जाता है। इनकी प्रशस्ति में इतिहास के अनेक पृष्ठ रँग दिये गये हैं। लेकिन आश्चर्य का विषय है कि अहीरों के बारे में खास र्चा नहीं की गयी है जबकि योद्धा के रूप में यह जाति राजपूतों से किसी भी हालत में कम नहीं है। अन्य शहरों की बात तो मैं नहीं जानता पर काशी में यही एक ऐसी जाति है जिसमें युयुत्सा की भावना भरी रहती है।

काशी में जब कभी विदेशी हमले हुए अथवा दंगा-फसाद के दिनों इस जाति के लोग लाठी लेकर मैदान में हमेशा आगे आये हैं। इन लोगों ने इस बात की कभी परवाह नहीं की कि मुकाबले के दुश्मनों के पास बन्दूक और राइफलें हैं। इनका तो बस एक ही मूल मन्त्र रहता है या तो हराकर लौटेंगे वरना सही-सलामत घर वापस नहीं आएँगे। इनके प्रिय हथियारों में गँड़ासा, तेजा बिछुआ, बल्लम और सेंगरी (तेल से पकी मिर्जापुरी बाँस की लाठी जिसकी हर गाँठ पर लोहे की कील और निचला भाग लोहे के मोटे आवरण से जड़ा रहता है) हैं। सिर्फ इन्हीं हथियारों की बदौलत एक बार नहीं, अनेक बार बनारस की शान और जनता की रक्षा हुई है। सेंगरी चलाने में सिद्धहस्त अहीर जितना अपनी शक्ति पर अभिमान नहीं करता, उससे अधिक इस हथियार पर करता है। अगर यह अस्त्र उसके पास रहे तो दस-बीस शत्रु उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकते। प्रसंगवश यहाँ प्रथम विश्वयुद्ध की एक घटना का उल्लेख कर देना अप्रासंगिक न होगा।

सन 1914 की लड़ाई में काशी में कुछ अहीर लड़ाई में रंगरूट बनकर गये हुए थे। कहा जाता है जब जर्मनों की फौज तेजी से आगे बढ़ रही थी - समय पर मदद न पाने के कारण अँग्रेज हतोत्साहित हो गये थे। उस समय देशी पलटन को आगे कर वे पीछे की ओर घसक गये। मैदान में केवल देशी पलटनों की फौज रह गयी। जब तक उनके पास कारतूस और बम आदि रहे, लड़ते रहे। अचानक जब कारतूस समाप्त हो गये तब उन्हें अपने चारों तरफ जर्मन सैनिक ही सैनिक नजर आने लगे। वे धीरे-धीरे आगे बढकर उन्हें घेरने लगे। तभी एक बनारसी अहीर को न जाने क्या सूझा कि उसने बन्दूक को उल्टी कर एक जर्मन के मलपट पर दे मारा - वह वहीं ढेर हो गया। लड़ाई की इस नवीन विद्या का आविष्कार होते ही सबने तेजी से उसे अपना लिया। शिक्षित जर्मन सैनिक इस प्रकार के युद्ध से अभ्यस्त नहीं थे अथवा इस विद्या से अपरिचित थे। पहले तो कुछ देर हक्का-बक्का हो गये फिर गोलियों की बौछार शुरू हुई। तब तक देशी पलटन भी आ गयी। इस प्रकार जीत उन्हीं की हुई। यह है सेंगरी की सिफत, बशर्ते उसे चलाने में ‘डी.लिट.’ की उपाधि उस्ताद से प्राप्त हो गयी हो।

काशी की जनता और चाहे जो करे, पर इस जाति को वह बहुत प्यार करती है, लड़ाई करती है, झगड़ा करती है, फिर भी इनसे कभी कोई मनमुटाव नहीं रखता। ठीक इसी प्रकार नम्रता की मूर्ति बनी यह जाति आम जनता से पेश आती है। इस जाति को सम्मानित करने के लिए ही काशी की जनता इन्हें ‘सरदार’ कहकर पुकारती है। यहाँ का प्रत्येक अहीर इस उपाधि से विभूषित है। वे इस उपाधि को रायबहादुर, रायसाहब, भारतरत्न और पद्म-विभूषण से कहीं अधिक सम्मानित समझते हैं।

काशी का अहीर गाय-भैंस पालता है। दूध, दही, मक्खन, मलाई और रबड़ी बेचता है। दूध में वह पानी नहीं मिलाता। कहा जाता है इसके लिए कोई श्राप है। हाँ, पानी में दूध अवश्य मिलाकर बेचता है। इस कार्य को वह अनैतिक नहीं मानता। जिन अहीरों के पास गाय-भैंस नहीं है, वे बाजार से दूध लाकर कमीशन पर बेचते हैं अथवा पेशराजी करते हैं। काशी में अहीरों का एक बड़ा वर्ग कलाकार है। भवन निर्माण में कारीगर समझे जाते हैं।

बनारसी गुरुओं की भाँति बनारस के सरदार भी अधिक वस्त्र पहनना पसन्द नहीं करते। घुटनों तक धोती और कन्धे पर वह एक लाल गमछा डाल लेता है। जाड़े के दिनों कुर्ता या कमीज बदन पर डाल लेता है। लाल लँगोट या ‘बिश्टी’ यह अवश्य पहनता है। विवाह आदि के अवसर पर वृन्दावनी (छापे का) दुपट्टा और सिर पर मुरेठा बाँधता है। गले में सोने का जन्तर या सिकड़ी पहनने का शौकीन होता है। गठा हुआ शरीर, भरी हुई मुश्कें, अखाड़े की मिट्टी से रँगा हुआ सर, खुरदुरी मोटी अँगुलियाँ, चौड़े पंजे का पैर और बड़ी-बड़ी मूँछें रखता है। सर पर चोटी के नाम पर इने-गिने बाल रहते हैं।

वह ईश्वर का बड़ा भक्त है। सत्यनारायण कथा वह अकसर सुनता है। विवाह आदि कार्य में सफलता प्राप्त करने पर कथा जरूर सुनता है। बाबा विश्वनाथ को वह पानी चढ़ाता है। ‘भइँसासुर’ बाबा, ताड़बाबा और मुड़ीकटवा बाबा को गाँजे की चिलम चढ़ाता है। बहरी अलंग जाने का उसे शौक है। मौज-मस्ती लेने में वह बड़े-बड़े रईसों को भी मात दे देता है।

बीमार पडने पर इलाज बहुत कम कराता है। इलाज के लिए पहले नजर उतरवा देगा, भैरवानाथ पर झाड़-फूँक करवा देगा, गंडा-ताबीज का प्रयोग करेगा। हैजा, प्लेग, चेचक आदि के प्रकोप के समय मुहल्ला ‘गोंठता’ है, उतारा करता है, धार देता है, होम-पूजा, कभी-कभी मनौती मान लेने पर दुर्गाजी पर खसी बलिदान देना साधारण बात है।

आल्हा ऊदल की कथा और रामायण उसे बहुत प्रिय है। कजली-विरहे का वह जबर्दस्त शौकीन होता है। काशी में ऐसे अनेक अहीर हैं जो निरक्षर भट्टाचार्य हैं, पर तीन सौ से चार सौ पद वाले बिरहा उन्हें कंठस्थ हैं। सिर्फ यही नहीं, वे स्वयं बनाते भी हैं जिसमें छायावाद, रहस्यवाद, प्रयोगवाद, प्रगतिवाद के भाव रहते हैं। जब कभी दो बिरहेबाजों की आपस में ठन जाती है तब जन समारोह के साथ दंगल किया जाता है। उस समय सुननेवाले रात भर खड़े होकर सुनते रहते हैं। भावों की चमत्कारी के अलावा ज्ञान की गहनता और स्मरण-शक्ति की परीक्षा हो जाती है। सवाल-जवाब भी होते हैं। यही एक ऐसा जन समारोह है जिसमें लाउड स्पीकर की जरूरत नहीं होती। इस गीत में संगत के लिए न तबले की जरूरत होती है, न मृदंग की। सारंगी या सितार की आवश्यकता नहीं होती। ध्रुपद-दादर-विलम्बित के राग नहीं देखे जाते। शायद इसीलिए आजकल चुनाव आदि के मौके पर इस गीत का अधिक प्रचार होने लगा है। कुछ प्रगतिशील कवियों का झुकाव इस ओर हो गया है।

एक हाथ से एक कान ढाँककर आसमान की ओर मुँह किये जब विरहा गायक टीप अलापता है तब सडक के दूसरी ओर तक उसकी आवाज गूँज उठती है। इधर इस गीत के साथ ‘करताल’ का प्रयोग होने लगा है। विरहा गाने के लिए न कोई मौसम है न समय। उसके लिए मूड बनाने की आवश्यकता नहीं होती। जब जहाँ जी में आया, गाया जाता है। कहा जाता है कि विरहा गायक तोतली जबान के दोष को दूर कर देता है। पक्के गानेवालों को टीप अलापने की प्रेरणा विरहा गायकों से मिली है।

काशी का अहीर बड़ा विनम्र होता है। बाबू, भइया और गुरु जी सम्बोधनों के साथ दूसरों से बातचीत करता है। लेकिन जब वह ऐंठ जाता है तब किसी को कुछ नहीं समझता। अकडकर चलना उसकी खास आदत है। उसके चलने-फिरने, दूध दुहने और बातचीत करने में एक अदा होती है जिसे बिना देखे या अध्ययन किये समझाया नहीं जा सकता।

विवाह आदि के अवसर पर भले ही बारात के साथ पुलिस बैंड, रामनगर स्टेट बैंड रहे, पर दुल्हा की पालकी के पास बारह सींगा, डफली और घंटेवाला बाजा जरूर बजता रहेगा। इसी बाजे का अध्ययन कर बनारसी समझ जाते हैं कि सरदार की बारात है। उसकी बारात में रिश्तेदारों के अलावा टाट (जाति) के लोग रहते हैं। सबको कच्चा भोजन कराते हैं। पैसेवाले अहीर जब दाल-भात खिलाने के बाद पूड़ी और लड्डू खिलाते हैं तब उसकी बड़ी चर्चा होती है—‘पूड़ी आउर लड़ुआ चलउले रहल।’

भरतनाट्यम्, कथकली, साँवताली और मणिपुरी नृत्य से अलग ढंग से उसका नृत्य होता है। उसके नृत्य में औरतों की आवश्यकता नहीं होती। कोई भी पुरुष अपने ऊपर दुपट्टा डालकर औरतों का भाव प्रदर्शन कर लेता है। डफली के साथ दो पुरुष खुशियाली के मौके पर बड़े विचित्र ढंग में नृत्य करते हैं।

बउलिया पर नहाना, गैबी पर भाँग छानना, गंगा किनारे साफा लगाना, रामकुंडा और सगरा के तालाब पर मवेशियों को नहलाना, उस पार निपटना और संकटमोचन का दर्शन करना उसका निशि-दिन का काम है। शारीरिक विकास के लिए वह मलाई-रबड़ी चाभता है, दंड-बैठक करता है, गदा-जोड़ी फेरता है, लाठी चलाना सीखता है और नाल उठाता है।

जिस वक्त वह मवेशियों को लेकर सडक पर से गुज़रता है, उस समय लगता है जैसे काशी का राजा या रईस वह स्वयं है। समूची सड़क पर मवेशियों को फैलाये कन्धे पर लाठी रख झूमता हुआ चलता है। उसे इस बात की फिक्र नहीं रहती कि ट्रैफिक जाम हो रहा है, आगे किसी को चोट लग जाएगी या कोई खतरा हो जाएगा। यद्यपि अहीर हमारे सामाजिक जीवन का एक आवश्यक अंग है, पर सर-दर्द भी कम नहीं। शहर के किसी भी अंचल में जब आप प्रवेश करिए और आप की नाक में दुर्गन्ध आए तब समझ लीजिए कि इस गली में किसी सरदार का डाक बँगला है।