बनारस : एक दिग्दर्शन / बना रहे बनारस / विश्वनाथ मुखर्जी

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सिर्फ काशी नगरी ही तीन लोक से न्यारी नहीं है, बल्कि यहाँ के लोग, उनका रहन-सहन, उनके आचार-विचार, यहाँ तक कि यहाँ की सरकारी-गैर सरकारी संस्थाएँ भी अपने ढंग की निराली हैं। उदाहरण के लिए बनारस नगरपालिका को ही ले लीजिए। इस नगरी का निरालापन कोई मुफ्त में न देख जाए, इस गरज से वह प्रत्येक यात्री पीछे एक आना प्रवेश-कर लेती है। जहाँ तक प्रवेश-कर का सवाल है, हमें एतराज नहीं है। लेकिन पालिका ‘निकासी-कर’ भी लेती है। कहने का मतलब यह कि अगर कोई बाहरी आदमी बनारस आये और आकर वापस चला जाए तो उसे दो आने की चपत पड़ जाती है। शायद आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि घर के लोग अर्थात खास बनारस के बाशिन्दे भी इस कर से मुक्त नहीं हैं। चूँकि यह कर रेलवे के माध्यम से लिया जाता है, इसलिए हम-आप नहीं जान पाते। काशी जैसी नगरी के लिए क्या यह नियम निरालेपन का द्योतक नहीं है?

सफाई-पसन्द शहर

इस ‘कर’ की बाबत कहा जाता है कि यह इसलिए लिया जाता है कि तीर्थस्थान होने की वजह से यहाँ गन्दगी काफी होती है। लिहाज़ा सफाई खर्च (बनाम जुर्माना) ‘तीर्थयात्री’ कर के रूप में लिया जाता है। बनारस कितना साफ-सुथरा शहर है, इसका नमूना गली-सड़कें तो पेश करती ही हैं, अखबारों के ‘सम्पादक के नाम पत्र’ वाले कालम भी ‘प्रशंसा-शब्दों’ से रंगे रहते हैं। माननीय पंडित नेहरू तथा स्वच्छ काशी आन्दोलन के जन्मदाता आचार्य विनोबा भावे इस बात के कन्फर्म्ड गवाह हैं।

ख़ुदा आबाद रखे देश के मन्त्रियों को जो गाहे-बगाहे कनछेदन, मूँड़न, शादी और उद्घाटन के सिलसिले में बनारस चले आते हैं जिससे कुछ सफाई हो जाती है; नालियों में पानी और चूने का छिड़काव हो जाता है।

निराली भूमि

अगर आप कभी काशी नहीं आये हैं तो आपको लिखकर सारी बातें समझाई नहीं जा सकतीं। अगर आये हैं और इसका निरालापन नहीं देखा है तो यह आपके लिए दुर्भाग्य की बात है। शायद आप यह सवाल करें कि आखिर बनारस में इतना क्या निरालापन है जिसके लिए ढिंढोरा पीटा जा रहा है, तो अर्ज है :

विज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है कि पृथ्वी शून्य में स्थित है और वह सूर्य के चारों तरफ चक्कर काटती है। लेकिन इस तथ्य को भारतवासी नहीं मानते। उनका ‘विज्ञान’ यह कहता है कि पृथ्वी ‘शेषनाग के फन’ पर स्थित है और स्वयं सूर्य उसके चारों ओर चक्कर काटता है। हमने कभी पश्चिम, उत्तर या दक्षिण से सूरज उगते नहीं देखा। यह सब विज्ञान की बातें चंडूखाने की गप्प हैं। एक बेपेंदी का लोटा जब बिना सहारे के इधर-उधर लुढ़कता है तब पृथ्वी जैसी भारी गोलाकार वस्तु (बकौल पश्चिमी विज्ञान) बिना किसी लाग (सहारे) के कैसे स्थिर रह सकती है? बताइए, है कोई वैज्ञानिक-खगोलवेत्ता जो उत्तर देने का साहस करे!

बनारसवालों का दृढ़ विश्वास है - पृथ्वी शेषनाग के फन पर स्थित है पर उनका बनारस भगवान शंकर के त्रिशूल पर है। शेषनाग से उसका कोई मतलब नहीं। इसीलिए काशी को तीन लोक से न्यारी कहा गया है। यहाँ गंगा उत्तरवाहिनी है, यहाँ कभी भूकम्प नहीं आता। कभी-कभी शंकर भगवान जब आराम करने के लिए त्रिशूल पर पीठ टेक देते हैं तब यहाँ की जमीन कुछ हिल भर जाती है। अधिक दूर क्यों, काशी शंकर के त्रिशूल पर है या नहीं, इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यहाँ की भूमि की बनावट है।

अब आप एक त्रिशूल की कल्पना करें जिसमें तीन फल होते हैं। बीचवाला फल सबसे ऊँचा और दोनों ओर ढलुआ होता है। बाकी दोनों फल ऊपरी दिशा में मुड़े होते हैं। बीचवाला फल वर्तमान चौक-ज्ञानवापी है। प्राचीन काल में काशी का महाश्मशान यहीं था। वर्तमान विश्वनाथ मन्दिर के निकट से गंगा बहती थी। शंकर का सबसे प्रिय स्थान श्मशान होने की वजह से उसे शीर्ष स्थान दिया गया है। आज भी आधी रात के बाद शंकर के ‘गण’ इस स्थान के प्रसिद्ध बाजार कचौड़ी गली में मिठाई खरीदने आते हैं।

चौक के दोनों ओर भयंकर ढाल है। यह ढाल कितना भयंकर है इसका अन्दाजा रिक्शे की सवारी में अनुभव हो जाता है। दक्षिण का ढाल जंगमबाड़ी में और उत्तर का ढाल मैदागिन में जाकर समाप्त होता है। फिर दूसरी चढ़ाईवाला ढाल मछोदरी से राजघाट और उधर जंगमबाड़ी से भदैनी तक है। इसके बाद दोनों तरफ उतराई है। काशी के इस भूगोल को पढ़ने के पश्चात अब आपको भी मानना पड़ेगा कि काशी शंकर के त्रिशूल पर अवश्य स्थित है। इसमें सन्देह करने की गुंजाइश नहीं।

काशी का निरालापन

यदि आप आज भी बनारस की खूबियों से अपरिचित हैं तो आइए आज आपका परिचय उससे करा दूँ। मुमकिन है आपने इन दृश्यों को देखा हो पर इस गरज से न देखा हो कि यह सब भी बनारस की खूबियों में है। सुबहे-बनारस की काफी दाद दी जाती है, इसलिए जब कभी आप बनारस तशरीफ ले आवें तो इसका ध्यान रहे कि सुबह हो; शाम या रात नहीं।

स्टेशन से बाहर आते ही आपको दर्जनों जलपान-गृह दिखाई देंगे। इन दुकानों में बनी सामग्री की सोंधी महक से आपका दिल-दिमाग तर हो जाएगा। यहाँ से आप शहर की ओर ठीक नाक की सीध में चलें। दाहिने-बायें देखने की जरूरत नहीं है।

स्टेशन से एक फर्लांग आगे काशी विद्यापीठ है। यह वह संस्था है जहाँ के छात्र या तो नेता बनते हैं अथवा शासक। काशी विद्यापीठ अथवा नेता जन्मदाता पीठ। इसी के पीछे काशी का प्रसिद्ध कब्रगाह फ़ातमान है जहाँ इतिहास के प्रसिद्ध और अप्रसिद्ध व्यक्ति चिर निद्रा में सोये हुए हैं। पास ही भारत में अपने ढंग का अकेला मन्दिर ‘भारतमाता का मन्दिर’ है। इसके निर्माता हैं - स्व. दानवीर बाबू शिवप्रसाद गुप्त। मन्दिर की बगल में भगवानदास स्वाध्यायपीठ है। पुस्तकालय के ठीक सामने चन्दुवा की प्रसिद्ध सट्टी है। कुछ दूर आगे शरणार्थी बस्ती, बर्मियों का एक बौद्ध मन्दिर तथा बनारस में खेल-कूद के लिए बनाया गया स्टेडियम है।

कुछ दूर आगे ईसाइयों का गिरजाघर है। प्राचीन काल में यहाँ डाकू रहते थे जो राह चलते व्यक्तियों को कत्ल करके कुएँ में छोड़ देते थे। काशी का प्रसिद्ध ‘मौत का कुआँ’ यहीं था। यहीं से दो रास्ते पूर्व और पश्चिम दिशा की ओर गये हैं। पश्चिमवाला रास्ता वार-वनिता की नगरी की ओर तथा पूर्ववाला शहर की ओर गया है। पूर्ववाले रास्ते में बनारस का प्रसिद्ध ‘आशिक-माशूक की कब्रगाह’ है। बनारसी प्रेमियों को यहीं से प्रेरणा और स्फूर्ति प्राप्त होती है। यह वह ऐतिहासिक स्थान है, जिसके दर्शन के बिना प्रेम ‘अनकन्फर्म्ड’ रहता है। इस स्थान पर कैथ के अनेक वृक्ष हैं। किंवदन्ती है, प्रत्येक वृक्ष से दो कैथ प्रतिपदा के दिन नियमित नीचे गिरते हैं।

थोड़ी दूर पर औरंगजेब के शासन काल में निर्मित सराय, पान का दरीबा है। औरंगाबाद दर्शनीय मुहल्ला है। कहा जाता है - ‘काशी बसकर क्या किया, जब घर औरंगाबाद।’

मुहल्ला सिगरा के आगे भारत-विख्यात विद्वान महामहोपाध्याय पं. गोपीनाथ कविराज का मकान है। ठीक इसके पीछे का स्थान ‘छोटी गैबी’ कहलाता है, जहाँ गुरुलोग रात बारह बजे तक नहाते-निपटते हैं। पास ही रथयात्रा की प्रसिद्ध चौमुहानी है। यहाँ वर्ष में तीन दिन जन-समारोह होता है। काशी की लोक-कला के दर्शन सोरहिया तथा रथयात्रा के मेले में ही होते हैं। लक्सा की अधिकांश रामलीला यहीं होती है।

पास ही विश्वविख्यात थिसोसोफिकल सोसायटी है। यहाँ बनारस के बालक और बालिकाएँ शिक्षा प्राप्त करते हैं। सोसायटी के दक्षिण भाग में वैद्यनाथ और बटुकभैरव का मन्दिर है। इसी मन्दिर के समीप सेंट्रल हिन्दू कॉलेज, बड़ी गैबी आदि प्रसिद्ध स्थान हैं।

कॉलेज से कुछ दूर आगे खोजवाँ बाजार है, जो नवाबों के खोजाओं के रहने के कारण मुहल्ला बन गया। आजकल अनाज की मंडी है। पास ही शहर को आलोकित तथा जलदान करनेवाला ‘बिजली घर’ और ‘पानीकल’ हैं।

थोड़ा ही आगे बढ़ने पर अन्तर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त अतिथिशाला दिखाई देगी। यहाँ संसार के ख्यातिप्राप्त राजनीतिज्ञ लोग आकर मेहमानबाजी करते हैं। बनारसवालों को अपनी इस कोठी पर नाज है जो संसार के महान पुरुषों को अपने यहाँ ठहराकर भारतीय संस्कृति का परिचय देती है। यह भवन है - महाराजकुमार विजयानगरम् यानि ‘ईजा नगर’ की कोठी।

यहाँ से कुछ दूर पर दुर्गाकुंड है, जहाँ राम की सेनाएँ ही नहीं बल्कि पास ही सेनापति महोदय का भी भवन है। दुर्गाकुंड का मन्दिर रानी भवानी और वानर-सेनापति संकटमोचन का मन्दिर गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा स्थापित हुए हैं। संकटमोचन के मन्दिर में नित्य सुन्दरकांड और हनुमान चालीसा के पाठ करनेवाले भक्तों की भीड़ लगी रहती है। खासकर इम्तहान के समय विद्यार्थियों की भीड़ बढ़ जाती है। यूनिवर्सिटी के छात्रों का विश्वास है, ‘संकटमोचन बाबा’ बिना पढ़े-लिखे ही परीक्षा की वैतरणी पार करा जाते हैं। छात्र-छात्राएँ परस्पर प्रेम के स्थायित्व की शपथ भी यहीं लेते हैं। यहाँ का दलवेसन बहुत गुणकारी, प्रभावशाली होता है।

यह है - लंका; रावणवाली नहीं - काशी की अपनी निजी। आगे भारत प्रसिद्ध शिक्षा-संस्था विश्वविद्यालय है। पास ही नगवा घाट है - जहाँ बाबू शिवप्रसाद गुप्त की कोठी है। यहीं एक बार स्वामी करपात्री जी ने यज्ञ करवाया था।

यह है, पुष्कर तीर्थ। इसके आगे अस्सी और कुरुक्षेत्र तालाब है। सूर्य ग्रहण के दिन तालाब में धर्मपरायण व्यक्ति स्नान के नाम पर कीच स्नान करते हैं। आगे भदैनी है और बगल में तुलसीघाट, जहाँ तुलसीदास की खड़ाऊँ और उनके द्वारा स्थापित हनुमान जी का मन्दिर दर्शनीय है। बनारस का यह मुहल्ला साहित्यिकों का भी एक गढ़ है। सोलहवीं शताब्दी में यह स्थान काशी का बाहरी अंचल माना जाता था।

यह है हरिश्चन्द्र घाट। कुछ लोग इसे काशी का प्राचीन श्मशान मानते हैं, पर यह बात गलत है। पहले यहाँ डोमों की बस्ती थी। डोम लोग महाश्मशान में अपने परिवार की लाश नहीं जला पाते थे। यह लोग अपने को राजा हरिश्चन्द्र के वंशज मानते थे इसीलिए यह प्रचारित होता रहा कि यही काशी का प्राचीन श्मशान है जहाँ राजा हरिश्चन्द्र श्मशान के रक्षक बने रहे।

हरिश्चन्द्र घाट के आगे काशी की सबसे खड़ी सीढ़ीवाला घाट केदारघाट है। यहाँ का घंटा सभी मन्दिर के घंटों से तेज आवाज में गूँजता है। यहाँ से कुछ दूर पर तिलभांडेश्वर महादेव का मन्दिर है। कहा जाता है कि ये महादेव जी साल में तिल बराबर वजन में बढ़ते हैं। पता नहीं, इसके पूर्व इन्हें कभी तौला गया था या नहीं, वरना ये कितने प्राचीन हैं, इसका पता पुरातत्त्व वाले बता देते।

यह है मदनपुरा। सम्भवतः प्राचीनकाल में यहीं मदन का दहन हुआ था। बनारसी साड़ियों के विश्वविख्यात कलाकार इसी मुहल्ले में रहते हैं।

अब हम गोदौलिया आ गये। प्राचीन काल में यहाँ गोदावरी नदी बहती थी। गोदावरी तीर्थस्थान के ऊपर आजकल मारवाड़ी अस्पताल स्थापित है। यहीं से एक रास्ता दशाश्वमेध घाट की ओर गया है। आगे बड़ा बाजार है, बड़े-बड़े होटल और शर्बतों की दुकानें हैं। यहाँ काशी की ठंढई सादी और विजया सहित मिलती है। शाम के समय अधिकांश बुद्धिजीवियों का अड्डा यहाँ जमता है, जहाँ साहित्य-चर्चा से लेकर परचर्चा तक होती है। यहीं से उपन्यास लिखने के फार्मूले, कहानी लिखने के प्लाट, कविता लिखने की प्रेरणा और आलोचना लिखने का मसाला मिलता है। न जाने कितने लोगों का यहाँ मूड बनता और बिगड़ता है। साहित्य में इन होटलों की देन महत्त्वपूर्ण है।

यह रहा गिरजाघर, जहाँ ईसाई धर्म का प्रचार खुलेआम होता है। सुननेवालों से अधिक भाषण देनेवाले दिखाई देते हैं। पास ही बनारस की सबसे बड़ी ‘सोमरस की मंडी’ यानि ताड़ीखाना है। कुछ दूर आगे ‘नयी सड़क’ मुहल्ला है। बनारस में अब तक जितने दंगे हुए हैं सभी का सूत्रपात इसी मुहल्ले से हुआ है। बगल में शेख सलीम का फाटक है जिसके बारे में इतिहासकार और पुरातत्त्वविदों में मतभेद है। एक का कहना है कि अकबर-पुत्र सलीम जब काशी आया था तब उसने इसे बनवाया था। दूसरे का कहना है कि शेख सलीम चिश्ती के नाम पर अकबर ने यहाँ फाटक लगवाया था। बात चाहे जो हो पर यह स्थान है ऐतिहासिक; इसे सभी मानते हैं। यहाँ भामाशाह का सुरमा मिलता है। पाँच पैसे में सारे जीवन का रहस्य बताया जाता है।

यहाँ अधिकतर काबुल के सेठ रहते हैं जो बिना जमानत लिये, बिना रेहन रखे, सिर्फ शक्ल देखकर एक आने सूद पर मुक्तहस्त कर्ज देकर जनता जनार्दन की सेवा करते हैं। पास ही एक बड़ा मैदान है जिसे ‘विक्टोरिया पार्क’ अथवा ‘बेनिया बाग’ कहते हैं। नाम तो इसका बाग है पर इसके एक भाग में अस्पताल, दूसरे में चेतसिंह की मूर्ति और बचा-खुचा भाग नेताओं के प्रवचन तथा नुमाइश के लिए रिजर्व रखा गया है।

बेनिया बाग के आगे चेतगंज है। कहा जाता है कि यह मुहल्ला राजा चेतसिंह के नाम पर बसाया गया है। वारेन हेस्टिंग्स तथा चेतसिंह के सैनिकों में यहीं युद्ध हुआ था। इस मुहल्ले की नककटैया की ख्याति सम्पूर्ण भारत में है।

कुछ दूर आगे लाल कोठी में नगरपालिका और हथुआ कोठी में भूतपूर्व अन्नदाता वर्तमान सीमेन्ट-लोहादाता रहते हैं।

यह है लहुरावीर की चौमुहानी। किसी जमाने में यहाँ भूत रहते थे, अब आदम की औलाद रहने लगी है। इन स्थानों का काशी में अपना निजी महत्त्व है। काशी में प्रत्येक वीर के नाम पर एक-एक मुहल्ला बस गया है। जैसे ड्योढ़ियावीर, भोजूवीर और लहुरावीर आदि।

इस चौमुहानी के उत्तरवाली सड़क कचहरी, पश्चिमवाली स्टेशन, दक्षिणवाली गिरजाघर और पूरबवाली राजघाट की ओर गयी है। राजघाट की ओर जानेवाली सड़क की ओर आगे बढ़ने पर घोड़ा अस्पताल (पशु चिकित्सालय), कबीर मठ और शिवप्रसाद गुप्त औषधालय भी दिखाई देंगे।

अस्पताल के सामने बनारस का सबसे बड़ा किराना बाजार है, जहाँ जाते ही छींक की बीमारी शुरू हो जाती है। अस्पताल के बगल में राधास्वामी का मन्दिर है जहाँ वारेन हेस्टिंग्स आकर टिका था। पास ही ‘आज’ अखबार का दफ्तर, लोहे-लकड़ी की मंडी लोहटिया और नखास है।

नखास के पास बड़े गणेश जी का मन्दिर है। यहाँ गणेश चौथ के दिन मेला लगता है। इस मुहल्ले के पास ही हरिश्चन्द्र कॉलेज और दाराशुकोह के नाम पर बसा हुआ मुहल्ला दारानगर है।

यह है, मैदागिन। काशी के प्रमुख चौमुहानियों में अन्यतम। प्राचीन काल में इस स्थान को मन्दाकिनी तीर्थ कहा जाता था। अब उसकी जगह कम्पनी बाग और टाउनहाल बन गया है। इस टाउनहाल में पहले अँधेरी कचहरी थी। अब यहाँ कचहरी है, पर वह अपना प्रभाव छोड़ गयी है। फलस्वरूप टाउनहाल बकचों का मुरब्बा बन गया है। जिस प्रकार आज तक लँगड़ी भिन्न का रहस्य (छोटे, मँझले और बड़े कोष्ठ का रहस्य) नहीं समझ सका, ठीक उसी प्रकार टाउनहाल क्या है, समझ नहीं सका। मुमकिन है, आप भी न समझ सकें।

इस स्थान से कुछ आगे भारत प्रसिद्ध संस्था ‘काशी नागरी प्रचारणी सभा’ है। बाबा विश्वनाथ के कोतवाल का भवन और कोतवाली थाना का घनिष्ठ सम्बन्ध यहीं है। बनारस की सबसे बड़ी अनाज की मंडी विश्वेश्वरगंज भी यहीं है।

इस मुहल्ले के बारे में कुछ लोगों का मत है कि प्राचीन काल में काशी का प्रमुख बाजार था। यहीं पर विश्वनाथ जी का मन्दिर था जिसे मुसलमानों ने तोड़ दिया। सम्भवतः इसीलिए इस मुहल्ले का नाम विश्वेश्वरगंज है। प्राचीन ग्रन्थों के अध्ययन से मालूम होता है कि तुगलक काल के पूर्व शिवलिंग का नाम देवदेव स्वामी और अविमुक्तेश्वर था। विश्वनाथ नाम 12वीं शताब्दी के बाद प्रचलित हुआ है। पास ही भीतरी महाल में गोपाल जी का मन्दिर और बिन्दुमाधव का धरोहरा है। यहीं एक मकान में छिपकर गोस्वामी तुलसीदास वाल्मीकि रामायण को मौलिक रूप दे रहे थे।

विश्वेश्वरगंज से एक सड़क अलईपुर मुहल्ले की ओर गयी है। यहाँ एक मुहल्ला आदमपुरा है, पता नहीं बाबा आदम से इसका कोई सम्बन्ध है या नहीं।

कुछ दूर आगे मछोदरी पार्क है जहाँ राजा बलदेवदास द्वारा निर्मित अस्पताल और घंटाघर है। राजा साहब दान देने में जितना सक्रिय रहे, उतना ही सक्रिय घंटा टँगवाने में रहे। बनारस में उन्होंने कई जगह घंटा टँगवाया है। घंटा टँगवाने का क्या महत्त्व है, इसका कोई उल्लेख यद्यपि काशी खंड में नहीं है पर सुना गया है कि आपने लन्दन में भी घंटाघर बनवाया है। ज्ञातव्य रहे कि बनारस में घड़ीघर को, जहाँ घंटे की आवाज से समय की सूचना मिलती है, घंटाघर कहते हैं। मछोदरी बाग प्राचीनकाल में मत्स्योदरी तीर्थ कहलाता था।

आगे राजघाट है। यह स्थान शहर का अन्तिम भाग है। इस भूभाग का बनारस के इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्राचीनकाल में यह अनेक राजाओं की आवास भूमि रही। वे सब गंगा की गोद में चले गये। अब यहाँ केवल खँडहर रह गये हैं जिसे सरकार खुदवाकर कुछ पुरातत्त्वविदों की कचूमर निकालना चाहती है। इससे कुछ लोगों का चंडूखाने की दून हाँकने का मौका मिलेगा।

अब हमें पुनः शहर की ओर मुड़ना है और शहर का प्रमुख भाग देखना है। इसलिए अब पुनः हम मैदागिन के पास आते हैं और यहीं से दक्षिण की ओर बढ़ते हैं।

मैदागिन से कुछ दूर आगे बढ़ने पर कर्णघंटा नामक स्थान है। कहा जाता है, यहाँ का मन्दिर गांगेय के पुत्र यशकर्ण ने बनवाया था। इतिहासकारों की बहुत-सी अटकल पच्चूवाली बातें इसलिए स्वीकार करनी पड़ती हैं कि यह सब घटनाएँ जब हुईं तब हम बनारस में नहीं थे। यहाँ से कुछ दूर आगे बाबा विश्वनाथ के थर्ड डिप्टी सुपरिंटेंडेंट ऑफ पुलिस आसभैरव रहते हैं। काशी के प्रमुख उद्योग धन्धों की सामग्रियाँ इस इलाके में मिलती हैं। मसलन लकड़ी के विभिन्न सामान, पीतल के बर्तन, जरी और सोने-चाँदी के जेवरात इत्यादि। इसी क्षेत्र में एक जगह कन्नौज, जौनपुर-गाजीपुर का इलाका बस गया है। दूसरी ओर बनारस का प्रमुख-व्यवसाय बनारसी साड़ियों का रोजगार होता है। पुस्तक व्यवसायी, समाचार-पत्र विक्रेता, मंगलामुखियों की हाट और फलवालों की दुकानें इसी क्षेत्र में हैं।

यह चौक का फौव्वारा है। पहले यहाँ फौव्वारा लगा था, अब वहाँ बनारस स्टेट बैंक है। बनारस का सबसे जानदार इलाका यही है। यहाँ अजीब बातें, अजीब शक्लें और अजीब दृश्य देखने को मिलते हैं।

कविराज कालीपदी दे का आश्चर्य मलहम जो 101 बीमारियों में फ़ायदा पहुँचाता है - आवाज लगाते हुए बगल में टीन का डब्बा लिये बंगाली बाबू टहलते हैं। आँखों पर चश्मा पहने और हाथ में सिर्फ एक चश्मा लिये - ‘एक चश्मा’ की आवाज देते हुए बड़े मियाँ कुछ लोगों की आँखें पढ़ते नजर आते हैं।

जल-जीरे का पानी, आम का पना बेचनेवालों की गाड़ी, गँडेरी मेरी अव्वल पैसा लेना डब्बल, दिया सलइया पैसे में, सुइया चार मुनाफे में आदि सामान बिकता है।।

कुछ दुकानदार यहाँ हर माल छह-छह पैसे में बेचते हैं क्योंकि कम्पनी का माल वे लुटा रहे हैं। अब आपको गरज हो तो खरीदिए। गंजी भी छह पैसे में, फाउंटेन पेन भी छह पैसे में मिलती है।

एक ओर से एक बन्द कनस्तर लिये ‘गरेम है जी’ की आवाज आती है। जब तक आप उनसे सामान न खरीदें तब तक आप यह नहीं समझ पाइएगा कि क्या गरम है - वातावरण, मौसम, वे स्वयं या बन्द कनस्तर का सामान। आज से तीन वर्ष पूर्व सड़क पर ‘केसरिया तर हव राजा’ की आवाज लगाता हुआ एक आदमी झूमता हुआ नजर आता था। उसकी गैरमौजूदगी आज के बच्चों को खलती है। नरम-गरम, नरम-गरम की आवाज लगाता हुआ एक आदमी बड़ी तेजी से लाल साइनबोर्ड पहने आपकी बगल से गुजर जाएगा।

यह है परमानेंट हरे-राम हरे-राम की फैक्टरी जहाँ लाउडस्पीकर से शाम के समय भक्ति प्रदर्शन होता है। सामने ही बीवी रोजा की मसजिद के बारे में कहा जाता है कि पहले यहाँ विश्वनाथ मन्दिर था जिसे कुतुबद्दीन ऐबक ने तोड़ा था। नीचे ज्ञानवापी की प्रसिद्ध मसजिद है जिसका औरंगजेब ने निर्माण कराया था।

यह है सत्यनारायण मन्दिर जहाँ श्रावण में भगवान झूला झूलते हैं। उनका शृंगार देखने काबिल होता है। आगे बाँस फाटक है।

बनारस के मुहल्लों का नाम देखकर अनुमान किया जाता है कि प्राचीन काल में यह नगर अरब देशों की भाँति बन्द नगरी थी जिसके चारों तरफ फाटक थे। मसलन हाथी फाटक, बाँस फाटक, शेख सलीम का फाटक, रंगीलदास का फाटक और फाटक सुखलाल साहु आदि आठ फाटक थे।

अब हम गोदौलिया पर आ गये। इस प्रकार सारा शहर घर बैठे देख लिया। क्या जरूरत कि आप बनारस आएँ और दो आना प्रवेश कर दें। हाँ, यदि गंगा-स्नान, विश्वनाथ-दर्शन अथवा शहर देखने का काफी शौक है तो हमें एतराज नहीं। अगर और निरालापन देखना हो तो यहाँ के धनुषाकार घाट, धरोहर का एक खम्भा, यहाँ की गलियाँ और यहाँ के मेले देखें। बस, सारा बनारस आपकी नजरों से गुजर जाएगा।