बर्बरता के भीतर, बर्बरता के विरुद्ध / राकेश बिहारी

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कुछेक लोगों या लोगों के समूह के निजी स्वार्थों की टकराहटों से उत्पन्न राजनैतिक महात्वाकांक्षाओं और पैंतरेबाजियों ने हमेशा से मनुष्य के बुद्धि-विवेक, उसकी तर्कशीलता और संवेदनाशीलता का अतिक्रमण कर लोगों के भीतर की धार्मिक आस्था को सांप्रदायिक कट्टरता और उन्माद में बदलने की कोशिश की है। विभाजन की त्रासदी से लेकर अयोध्या और गुजरात तक की अनेकानेक घटनाएँ और उसके बाद की भयावह परिस्थितियाँ किसी दुःस्वप्न की तरह इस बात की पुष्टि करते दिखते हैं। सत्ता और व्यवस्था का एक बड़ा वर्ग यह लगातार प्रचारित करता रहा है कि विगत बीस वर्षों में हमने एक राष्ट्र के रूप में नानाविध तरक्कियाँ हासिल की है। लेकिन यह भी एक संयोग ही है कि नव उदारवादी आर्थिक व्यवस्था की शुरुआत और राम मंदिर निर्माण के नाम पर हुआ 'अयोध्या कांड' लगभग एक ही समय की परिघटनाएँ हैं। प्रगति, विकास और सौमनस्यता के तमाम सरकारी दावों के बीच बीस वर्षों के इस काल खंड में आर्थिक गैरबराबरी और सांप्रदायिक कट्टरता ने नए उभार प्राप्त किए हैं। यह अकारण ही नहीं है कि जिस देश और समाज में कभी मूर्ति पूजा के विरोध में हुए आंदोलनों को प्रगतिशील गतिविधियों के रूप में देखा गया उसी देश और समाज में आज किसी मंदिर विशेष के निर्माण की हठधर्मिता को अस्मिता और राष्‍ट्रीयता से जोड़ने का कुत्सित प्रयास किया जा रहा है। लेकिन प्रश्न यह है कि धर्मांधता से उत्पन्न ये परिस्थितियाँ कहीं बाहर से टपक पड़ी हैं या हमारे ही भीतर से उत्पन्न हुई है? यह महज एक राजनैतिक या धार्मिक समस्या है या फिर इसके आर्थिक व सामाजिक कारण और परिणतियाँ भी हैं? वैसे तो आजादी प्राप्ति से पहले और उसके बाद का हिंदी साहित्य इन प्रश्नों से लगातार रूबरू होता रहा है और इस क्रम में कई कालजयी कृतियाँ भी लिखी गई है। लेकिन उल्लेखनीय है कि जिन बीस वर्षो में ये प्रश्न एक बार फिर से चिंता का सबब बने हैं उन्हीं बीस वर्षों में कथाकारों की एक नई पीढ़ी हमारे सामने उभर कर आई है। प्रस्तुत लेख में उसी पीढ़ी की कुछ चर्चित और उल्लेखनीय कहानियों के बहाने इन सवालों की पड़ताल की जाएगी।

पिछले कुछ वर्षों में सांप्रदायिकता को केंद्र में रख कर लिखी गई कहानियाँ में जो दो कहानियाँ चर्चा के खास केंद्र में रही हैं वे हैं तद्‍भव में प्रकाशित नीलाक्षी सिंह की 'परिंदे का इंतजार सा कुछ' और पहल में प्रकाशित वंदना राग की 'यूटोपिया'। इसी कड़ी में मैं तद्‍भव में ही प्रकाशित एक और कहानी, मो. आरिफ की 'चोर सिपाही' को भी जोड़ कर देखना चाहता हूँ जो अपेक्षाकृत कम चर्चा में आई है। गौरतलब है कि ये तीनों कहानियाँ जो अपने-अपने तरह से सांप्रदायिकता की समस्या को हमारे सामने रखती है, के केंद्र में दंगा या दंगे की पृष्ठभूमि जैसी स्थितियाँ और प्रेम है। यह भी उल्लेखनीय है कि पहली दो कहानी की पृष्ठभूमि में जहाँ अयोध्या और राम मंदिर - बाबरी मस्जिद विध्वंस की घटनाओं के बाद की भयावहताएँ हैं वहीं 'चोर सिपाही' गुजरात की पृष्ठभूमि पर है। गौर किया जाना चाहिए कि इन तीनों कहानियों में किसी न किसी रूप में आए प्रेम प्रसंगों, यथा - 'शिरीष' और 'नसर' (परिंदे का इंतजार सा कुछ), 'अच्युतानंद गोसाईं' और 'नज्जो' (यूटोपिया) तथा 'पराग मेहता' और 'गुलनाज' (चोर सिपाही), में लड़का हिंदू और लड़की मुस्लिम है। इन तीनों कहानियों में लड़के का हिंदू और लड़की का मुसलमान होना महज एक संयोग है या बहुसंख्यक मानसिकता से उत्पन्न या उसके प्रभाव में सायास या अनायास की गई फार्मूलेबाजी? यदि यह फार्मूलेबाजी नहीं है तो क्या यह मान लिया जाए कि हिंदू लड़कियाँ मुस्लिम लड़कों से प्रेम नहीं करतीं? अपने आस पास रह रहे इस तरह के कई खुशहाल जोड़ों को देख कर मेरा मन मेरे ही इस प्रस्तावित निष्कर्ष को नकार देता है। हाँ, इस क्रम में वे तमाम हिंदी फिल्में मेरे जेहन में एकबारगी जरूर कौंध जाती हैं जिसमें अनिवार्य रूप से लड़की मुस्लिम और लड़का हिंदू होता है। मतलब यह कि इस मामले में ये तीनों कहानियाँ कहीं न कहीं अंतरसांप्रदयिक प्रेम को ले कर कुछ नया कहने के बजाय एक बनी बनाई और सुविधाजनक लीक पर ही बढ़ती हैं।

'परिंदे का इंतजार सा कुछ' जो मूलतः सांप्रदायिक दंगे की पृष्ठभूमि में घटित होने वाली एक प्रेम कहानी है, आद्योपांत तमाम विद्रूपताओं - भयावहताओं के बीच प्रेम की स्वाभाविक और उद्दात्त स्थापना को रेखांकित करती है। लेकिन बदले हुए माहौल में प्रेम की यह स्थापना आसान भी नहीं है। मंदिर-मस्जिद के झगड़ों की साजिश और उस साजिश के शिकार बेगुनाह लोगों के बीच भी कहे-अनकहे एक अदृश्य दीवार तो जैसे खड़ा हो जाने को लगातार सुगबुगाती ही रहती है...' भगवान के जमीन पर वह मस्जिद हमने नहीं बनाई थी न इन लोगों का कोई हाथ उस मस्जिद को तोड़ने में था। फिर भी हम दोनों खेमे के लोग कतराकर गुनाहगारों की तरह खड़े थे। एक दीवार थी, जो हमेशा से थी। जिसे बीच-बीच के ये वाकए और पुख्ता बना रहे थे। वही दीवार हमें एक दूसरे से नजरें नहीं मिलाने दे रही थी। इमारत ही गिरानी थी तो गिराने के लिए यह दीवार ही क्या बुरी थी!' पूरी कहानी पर हावी एक अतिरिक्त रूमानियत के बावजूद यह संतोषजनक और आश्वस्तिदायक है कि 'परिंदे का इंतजार सा कुछ' में कुछ किशोर लड़के-लड़कियों का ग्रुप 'नासमझ' न सिर्फ इस कहानी में लगातार इस अदृश्य दीवार को गिराने की कोशिश करता है बल्कि इसमें सफल भी होता है। लेकिन इसके विपरीत 'यूटोपिया' में ऐसा नहीं होता। यह कहानी रोमानियत से बाहर निकल कर इस सत्य को स्थापित करना चाहती है कि सांप्रदायिक अस्मिता के नाम पर होनेवाली लड़ाइयों ने एक ऐसी स्थित उत्पन्न कर दी है, जहाँ प्रेम और मनुष्यता जैसी कोमल भावनओं के लिए कोई जगह नहीं बची। इन्हीं स्थापनों की कोशिश के कारण यह कहानी, प्रेम और दंगा की घटनाओं की समानता के बावजूद, कई अर्थों में 'परिंदगी के इंतजार सा कुछ' का प्रतिलोम रचती है। इस कहानी का एक सांप्रदायिक और लंपट पात्र अच्युतानंद गोसाईं जो कि मन ही मन नज्जो से हमेशा से प्यार करता रहा है, पर सांप्रदायिकाता का ऐसा जुनून चढ़ता है कि एक दिन वह उसी नज्जो का बलात्कार कर देता है, एक ऐसा बलात्कार जो उसमें किसी तरह का अपराधबोध या पश्चाताप भरने के बजाय उसके भीतर शौर्य और विजय का बर्बर भाव भर देता है। 'यूटोपिया' का यह चरमोत्कर्ष हमें भीतर तक एक अविश्वसनीय भयावहता से भर देता है। क्या सचमुच यह समय इतना क्रूर और कठिन हो गया है कि प्रेम और सद्‍भावना जैसी बातें सिर्फ और सिर्फ किताबी हो गई हैं? क्या सचमुच घृणा का भाव ही समाज की गाड़ी की ड्राइविंग सीट पर बैठा है? क्या प्रेम करने वाला कोई व्यक्ति भी इतना क्रूर हो सकता है? समय-समय पर होने वाली सांप्रदायिक दुर्घटनओं के बावजूद मेरा मन एकबारगी इन प्रश्नों के उतर में हाँ नहीं कहना चाहता। तमाम क्रूर घटनाओं के बीच भी प्यार और सद्‍भाव की वह डोर हमारे हाथ से नहीं छूट रही जिसने हमें और हमारे समाज को एक सूत्र में बांध कर रखा है। एक रचनाकार तात्कालिक दुर्घटनाओं के दवाब में इतने बड़े सच को कैसे भूल सकता है? लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू भी है। तो क्या समाज में व्याप्त कटुता के यथार्थ की अनदेखी कर दी जाए? हमारे समय की कठोर त्रासदियों पर कहानियाँ नहीं लिखी जाने चाहिए? जवाब इन प्रश्नों का भी 'ना' में नहीं दिया जा सकता। लेकिन यह कहानी अच्युतानंद गोसाईं के भीतर के मनुष्य को जिस तरह पशु में बदलते दिखाती है वह असहज और अस्वाभाविक है। यह सच है कि अच्युतानंद गोसाईं, एक लंपट और फिरकापरस्त व्यक्ति है। लेकिन यह भी तो सच है कि उसके भीतर एक मनुष्य भी है जो कहानी में लगातार नज्जो के प्रति अपने प्रेम के बहाने अपनी उपस्थित दर्ज कराता चलता है... 'अच्युतानंद गोसाईं के दिमागी कोहरे पर लपटें आवेग से उछलने लगी थी। उसमें कई दृश्य यूँ ही घुलमिल जाते थे। वह दृश्यों को अलग कर उन्हें उनके अलग वजूदों के साथ स्पर्श करना चाहता था और श्री राममोहन से पूछना चाहता था, 'भाई साहब, इन बार-बार वीडियो में दर्शाए दृश्यों का खाली प्लाट के बगल में रहनेवाली लड़की से क्या ताल्लुक'...। 'कच्चे पेड़ के लाल फूलों को देख कर वह रोमांचित हो उठा। उसने उठकर पेड़ के कई फूलों के गुच्छे तोड़ डाले और वापस लौट उस खाली जगह को उन फूलों से भर दिया, जिस खाली जगह से वह इतने दिनोम तक जुड़ा हुआ था और जो उसके अंदर के खालीपन का अंतहीन सबब बनी हुई थीं। फूलों को सामने रख वह पैर जोड़ धूल में बैठ गया और अनजाने रस से भीगते हुए उसने अपनी आँखें बंद कर लीं, इस नाउम्मीद खयाल से कि अब उसमें कुछ पुराना लौटता हुआ दिखाई पड़ेगा' उल्लेखनीय है कि अच्युतानंद के भीतर का यह खालीपन नज्जो के न मिल पाने से ही उत्पन्न हुआ है। जाहिर है, गाहे-बगाहे प्रेम के बहाने अपने भीतर के मनुष्य से लगातार टकराते रहने वाले व्यक्ति का उस लड़की के साथ बलात्कार करना जिसे वह प्रेम करता था और उसके बाद शौर्य के भाव से भर जाना एक अस्वाभाविक और क्रूरतम स्थिति की कल्पना है। अपने ही पात्र के भीतर के मनुष्य को बिना पहचाने या कि उसकी मनुष्यता को नजरंदाज करते हुए इस परिणति पर पहुँचना इस कहानी के अंत पर प्रश्नचिह्न खड़े करता है। लगता है लेखिका अपने पूर्वनिर्धारित निष्कर्षों से इतनी मोहाविष्ट हैं कि उसे अपने ही पात्र की मनःस्थिति का ध्यान नहीं रहता। शायद यही कारण है कि अच्युतानंद के चरित्र और उसकी मनःस्थितियों के ग्राफ और इस कहानी का अंत परस्पर विरोधी हैं। इस कहानी के अच्युतानंद को तो ऐसा नहीं करना चाहिए था या यूँ कहें कि यदि इस कहानी का यही अंत तय था तो अच्युतानंद को ही कुछ और होना था। बावजूद इस फाँक के, यह कहानी जिस तरह समाज में बढ़ रही प्रतिक्रियावादी ताकतों के कृत्यों से पर्दा उठाती है वह उल्लेखनीय है और त्रासद भी।

इन दो कहानियों के मुकाबले मो. आरिफ की कहानी 'चोर सिपाही' कहीं ज्यादा संतुलित और स्वाभाविक है। सलीम नामक एक किशोर की डायरी के बहाने यह कहानी जितनी सहजता से दंगों की विडंबना के यथार्थ को पुनर्सृजित करती है वह रेखांकित किया जाना चाहिए। इस कहानी में न तो 'परिंदे के इंतजार सा कुछ' जैसी रुमानियत है और न ही 'यूटोपिया' की सी अस्वाभाविकता। बल्कि इसके उलट प्रेम और घृणा के द्वंद्व के बीच तमाम पाठकीय कयासों और आशंकाओं को झुठलाते हुए यह कहानी प्यार और विश्वास की अहमियत ही नहीं समाज में उसकी मौजूदा उपस्थिति को भी रेखांकित करती है।

गौर किया जाना चाहिए कि सांप्रदायिकता को ले कर लिखी गई इस दौर की अधिकांश कहानियाँ एक खास तरह की फार्मूलेबाजी का शिकार हैं... दंगा, बलात्कार और हिंदू लड़का तथा मुस्लिम लड़के के प्रेम के फ्रेम में मढ़ दी गई सांप्रदायिकता। ये कहानियाँ भय और आतंक के खबरिया फार्मूले की तलाश में इस तरह व्यस्त हैं कि हमारी दैनंदिनी और हमारे व्यवहारों में पैठ चुकी सांप्रदायिकता इनके हाथों से फिसल जाती है। सुपरिचित लेखकों की इन बहुचर्चित-बहुप्रायोजित कहानियों के बीच मैं परिकथा के नवलेखन अंक में प्रकाशित बिल्कुल नए लेखकों की तीन कहानियों की तरफ इशारा करना चाहता हूँ। ये कहानियाँ हैं - राकेश दुबे की 'नया मकान', जिनेश साह की 'चमक धूप की' तथा मजकूर आलम की 'बस यहाँ तक'।

'नया मकान' के केंद्रीय पात्र राहत अली उर्फ अली सर किराए का मकान खोजने के क्रम में बार-बार उदास, निराश और हताश होते हैं। मनपसंद इलाके में मकान न मिलने का कारण है उनका मुसलमान होना। किसी जमाने में काला जल के अमर शिल्पी शानी को न चाहते हुए भी मस्जिद के पास बजबजाती गली में रहना पड़ा था और इस कहानी में राहत अली न चाहते हुए भी रसूलपुर के नए मकान में शिफ्ट होने को विवश हैं। उसी रसूलपुर में जहाँ का सांप्रदायिक माहौल ठीक नहीं हैं। अली सर को डर है कि कहीं उस मुहल्ले में जाने के बाद लोग उन्हें भी सांप्रदायिक न समझने लगें। लेकिन अपनी पत्नी की बात का वे कोई जवाब नहीं दे पाते जब वह उनसे पूछती है, 'आपको तो बस कुछ समझ में ही नहीं आता है। आठ दिन से दौड़ रहे हैं, ढूँढ़ पाए मकान? कहाँ चला गया था आपका सांप्रदायिक सौहार्द? किसी ने दिया सहारा?' अली सर की चुप्पी और उनकी पत्नी के तीखे सवाल के बीच जैसे कड़वाहट का एक लंबा फासला पसरा हुआ है और हम सब मजबूर हैं चुप रहने को। कल को कोई कथाकार अगर इस राहत अली को रसूलपुर के अपने नए घर में तमंचा छुपा कर रखते देख ले तो आश्चर्य नहीं होगा।

'चमक धूप की' के गोपाल साहा की समस्या दूसरी है। वे वर्षों की संचित पूँजी से निर्मित अपनी शानदार कोठी को वैश्विक मंदी और डाँवाडोल शेयर बाजार के कारण नहीं बेच पा रहे हैं। लेकिन जैसे ही कहानी में यह पता चलता है कि मकान न बिक पाने का असली कारण साहा साहब के पड़ोसी का मुसलमान होना है तो जैसे 'नया मकान' के अली सर और साहा साहब दोनों के चेहरे एक ही तरह की सलवटें लिए उपस्थित हो जाते हैं। साहा साहब की तकलीफ इसलिए भी घनी है कि उनके पड़ोसी असीम भाई सिर्फ मुसलमान ही नहीं उनके अजीज दोस्त भी हैं। दोस्ती से ज्यादा भाईबंदी, वह भी सहोदर से बढ़ के... और कहानी के अंत में अपने बेटे के प्रोमोशन की खबर सुनने के बाद जब असीम भाई साहा को यह कहते हैं कि, 'दादा आप अपने उस लालवानी दलाल को कहिएगा कि हमारा घर भी बेचना है। वरना सिराज जरूर तरक्की नहीं लेगा। वैसे आपका भी तो चलाचली का डेरा है। हम जुदा तो होने ही वाले हैं। तो वह प्रोमोशन ले कर आगे क्यों न बढ़े?' साहा साहब की उँगलियाँ लालवानी का नंबर डायल करने को थिरक उठती हैं कि अब उनसे कोई यह नहीं पूछेगा कि पड़ोस में कौन रहता है। यहाँ तक आते-आते कहानी बहुकोणीय संवेदना से संपृक्त हो जाती है। कहानी के इस मोड़ पर जा कर हमारे मन में एक और प्रश्न उठता है कि असीम भाई के भी मकान बेचने के पीछे सिर्फ अपने बेटे की तरक्की की बात है या फिर उन्हें भी साहा साहब के मकान न बिक पाने का कारण पता चल गया है...? कहानीकार ने इस दूसरे सत्य से पर्दा न हटा कर कलात्मक समझदारी का परिचय दिया है। अनकहे का यह सौंदर्य सामाजिक दरार के बीच भी भावनात्मक लगाव और समरसता के बृहत्तर मूल्यों की तरफ इशारा करता है। अलग करने की साजिश के विरुद्ध स्वयमेव अलग हो कर भी साथ रह जाने की इस युक्ति के बीच साहा साहब की ग्लानि मिश्रित परेशानी कि, 'काश यह मुमकिन होता कि वे भी यहीं रह जाते और असीम भाई भी कहीं नहीं जाते' जैसे पाठकों को भीतर तक कचोट जाती है।

मजकूर आलम की कहानी 'बस यहाँ तक' संप्रदायवाद की समस्या को एक दूसरे धरातल पर उठाती है जिसमें यह दिखाया गया है कि कैसे एक खास धर्म के लोगों को हमेशा शक और संदेह की दृष्टि से देखा जाता है। पहचान के संकट से जूझते समय में 'पहचान लिए जाने' के भय और उससे उपजे एक यंत्रणादायक असुरक्षाबोध को जिस बारीकी से यह कहानी उद्घाटित करती है वह प्रशंसनीय है। प्रस्तुत कहानी का केंद्रीय पात्र 'मैं' ब्ल्यू लाइन बस में आईटीओ से देवली मोड़ तक की यात्रा कर रहा है। एक कहानी बस के माहौल में घटित होती है और दूसरी 'मैं' के अंतर्मन में। किसी पब्लिक स्पेस में चाहे वह बस हो या ट्रेन, महानगरीय कॉफी हाउस हो या कस्बाई चाय-पान की गुमटी... सामाजिक-राजनीतिक विश्लेषण सर्वथा अलग, गैर किताबी और अनौपचारिक प्रारूप में कैसे किसी व्यक्ति के भीतर ही भीतर चिंता और चिंतन का द्वंद्वात्मक संसार रचती है इसे यह कहानी बखूबी समझती है। कहने का मतलब यह कि ये तीनों कहानियाँ जिस तरह बिना एक बूँद खून गिराए या किसी का बलात्कार करवाए या बिना प्रेम का फार्मूला गढ़े जिस कुशलता से सांप्रदायिकता की जड़ों तक हमें पहुचाती हैं वही इन कहानियों को अपने समय की दूसरी कहानियों से अलग और विशिष्ट बनाता है।

सांप्रदायिकता और उससे उत्पन्न स्थितियों को ले कर पिछले दिनों कई अन्य कहानियाँ भी लिखी गई हैं जिनमें प्रियदर्शन की 'खोटा सिक्का' (कथादेश), कविता की 'फिर आएँगे कबूतर' (कथाक्रम), विमल चंद्र पांडेय की 'सोमनाथ का टाइम-टेबल' (प्रगतिशील वसुधा), मनोज कुमार पांडेय की 'खाल' (नया ज्ञानोदय) आदि भी महत्वपूर्ण हैं, जो अलग-अलग धरातल और कोणों से इस समस्या को उठाती हैं। लेकिन इन और यहाँ विस्तार से उद्धृत की गई उपर्युक्त कहानियों में एक बात आसानी से रेखांकित की जा सकती है कि ये कहानियाँ दंगा, प्रेम, सामाजिक आचार-व्यवहार, स्त्रियों की स्थिति आदि से संबंधित सांप्रदायिकता की गाँठों को तो खोलती है, लेकिन दंगे के आर्थिक पक्ष पर ये कहानियाँ लगभग न के बराबर इशारा करती हैं। उल्लेखनीय है कि सांप्रदायिकता का समाज और राजनीति के समानांतर अर्थशास्त्र से भी गहरा रिश्ता है। साथ ही यह भी गौर किया जाना चाहिए कि ये कहानियाँ अल्पसंख्यक समाज में व्याप्त कट्टरता और उसकी सांप्रदायिक परिणतियों पर भी बहुत कुछ नहीं कहती या बिना कहे बच निकलने को ही सुविधाजनक मानती हैं।