बहरी अलंग का त्याग-सुख / बुद्धिनाथ मिश्र

Gadya Kosh से
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कभी दार्जीलिंग चाय की तरह ही देहरादून चाय का भी रुतबा था। उस चाय बगान का मुख्यालय ‘मिडफोर्ड हाउस’ मेरी कालोनी के पीछे ही है, जिसमें बचे-खुचे चाय बगान के मैनेजर का आवासीय परिसर है। यह परिसर दिल्ली में संसद सदस्यों को मिलनेवाली कोठी से भी थोड़ा बड़ा है। चाय बगान तो देहरादून में अब खत्म हो गये हैं। उन चायबगानों में सरकारी दफ़्तर खुल गये हैं। जो बचे थे, उनमें से आधे पर प्रशासन, पुलिस और सेना के शीर्ष अधिकारियों ने मिल-बाँटकर वसन्त विहार कालोनी बसा ली । अब उस बगान का थोड़ा-सा हिस्सा बचा है, जिसमें चाय की खेती बिना किसी खाद-पानी के होती है और इससे जो थोड़ी-बहुत चाय की पत्तियाँ निकल आती हैं, उन्हें जैविक यानी ऑर्गेनिक चाय के नाम पर दाम बढ़ाकर बेचा जाता है।

इसे कहते हैं लाचारी का नाम महात्मा गांधी। सुनते हैं कि इस बगान को भी कुछ माननीयों ने कागजी तौर पर हथिया लिया है। बच गयी है बस एक पुरानी कोठी, मिडफ़ोर्ड हाउस, जिसकी जंग लगी टिनही छत इसके बुजुर्ग होने का प्रमाण देती है और अपने बचपन की ढेर सारी कहानियाँ आते-जातों को सुनाना चाहती है, मगर न कोई उसे सुनना चाहता है, न उसकी बातों पर यकीन करता है। इसके पुराने नौकर-चाकरों ने महँगाई के जमाने में घरखर्च के वास्ते अतिरिक्त आमदनी जुटाने के लिए गाय-भैंस पाल ली है, जिससे मुहल्ले के लोगों को शुद्ध दूध उचित दर पर मिल जाता है। शर्त यही है कि आप खुद दूध लेने आइए।

शुरू-शुरू में तो मैने इस आने-जाने के झंझट से अपने को मुक्त रखने के लिए फ़टफ़टिया पर दूध बेचनेवाले एक सरदार को ठीक किया। उसका बाइक सचमुच फ़टफ़टिया था। शायद उसने खुद या उसके शरारती बच्चों ने बाइक का साइलेंसर निकाल दिया था। इसलिए सरदार के मुहल्ले में घुसते ही सभी लोग बर्तन लेकर अपने-अपने दरवाजे पर खड़े हो जाते हैं। अपनी फटफटिया की बदौलत सरदार को किसी के दरवाजे पर खड़े होकर इन्तजार नहीं करना पड़ता । मैने कुछ दिन उसी से दूध लिया। शुरू-शुरू में उसने शत-प्रतिशत शुद्ध दूध दिया। फिर शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा की कला की तरह उसके दूध का शुक्ल पक्ष घटता गया और उसी मात्रा में कृष्ण पक्ष बढ़ता गया। फिर स्थिति पचहत्तर और पचीस तक पहुँच गयी, जिसमें दूध अल्पसंख्यक हो गया था । तब बच्चों की राय पर मैने सामने की दूकान से पैकेट का दूध लेना शुरू किया। मगर एक दिन मालूम हुआ कि सरकारी छापे में उस ब्रांड के पैकेट के दूध में सिंथेटिक पाया गया। कोलकाता में रहते हुए मैने सिन्थेटिक साड़ी का नाम तो सुना था, मगर सिन्थेटिक दूध भी होता है, यह पहली बार देहरादून में ही जाना। मेरे कोलकाता से देहरादून आने तक देश ने इतनी वैज्ञानिक तरक्की कर ली, यह सोचकर सुख मिला और आशा बँधी कि यदि हमारे देश की बेईमानी इसी तरह बेरोकटोक प्रगति करती रही, तो दो-चार पीढ़ियों के बाद हमारी सन्तानें सिद्ध कर देंगी कि वे विषपायी शिव के वंशज हैं। घर में काफ़ी हाय-तोबा मचने के बाद पैकेट का दूध भी बन्द कर दिया गया। अन्ततः मुझे भी दूध लेने सुबह-सुबह कोठी की ओर रुख करना पड़ा।

उस कोठी के सामने बहुत बड़ा आम का बगीचा है, जो बरसों से उपेक्षित पड़ा हुआ है। इसलिए उसमें इतनी बड़ी-बड़ी झाड़ियाँ उग आयी हैं कि शरारती से शरारती बच्चा भी टिकोरा चुनने आमबाड़ी मे नहीं घुसता है। फिर भी उसकी एक सार्थकता यह है कि जो पक्षी मानव समाज के अतिक्रमण से संतप्त होकर शहर से बाहर भागते हैं और बाहर भी कोई रहने का ठीक ठिकाना नहीं पाते हैं, वे इस आम के बगीचे की झाड़ियों में घर बसा लेते हैं। इसलिए दुर्लभ प्रजाति की पक्षियों की चहचहाहट से आसपास का वातावरण गूँजता रहता है। कोठी और आमबाड़ी के बीच का जो रास्ता वसन्त विहार को चकराता रोड से मिलाता है, वह अब मन्दिर मार्ग कहलाता है। यह इसलिए कि इस मार्ग पर एक बहुत सुन्दर दुर्गा जी का मन्दिर स्थानीय आस्तिक नागरिकों ने बना दिया है, जो सुबह से शाम तक गुलजार रहता है। आजकल चैत्र नवरात्र के कारण यह मन्दिर ब्राह्म मुहूर्त से मध्यरात्रि तक भक्तों की आवाजाही से जाग्रत रहता है। इन दिनो आमकी मंजरियों की गंध और गुग्गुल की गंध में गलाकाट प्रतिस्पर्धा है। कोई किसी से कम नहीं। फ़र्क बस इतना है कि गुग्गुल की गंध सिर्फ़ मन्दिर के आसपास फैलती है, जबकि मंजरी की गंध पूरे अग-जग को बौरा रही है।

मेरे घर के पास एक खाली प्लाट था, जिसपर मकान बन रहा है। देहरादून में जितने मकान बनते हैं, उनके मजदूर निश्चित रूप से बिहारी होते हैं। वे पूर्वी उत्तर प्रदेश के भी होते हैं, तब भी लोग उन्हें बिहारी ही मानते हैं। जबसे मकान बनना शुरू हुआ, एक बूढ़ा मजदूर, जिसका नाम मंगरू है, कनात लगाकर चौबीसो घंटे यहीं रहता है। किसीने बताया कि वह बनारस के पास के किसी गाँव का है और बरसों से देहरादून के एक ठीकेदार के यहाँ काम करता है। वह ठीकेदार जहाँ भी नया मकान बनाने का काम शुरू करता है, अपने विश्वासपात्र मंगरू को केयरटेकर के रूप में तैनात कर देता है। जब लोग सुबह की चाय पी रहे होते हैं, तबतक मंगरू की रसोई बनकर तैयार हो जाती है। तीन ईंटों को जोड़कर उसने स्थायी चूल्हा बना लिया है। अलमुनियम के बर्तन में वह आधा किलो के करीब चावल का भात तैयार करता है, और एक सब्जी, जिसमें ठोस पदार्थ कम होते हैं, तरल ज्यादा। चावल वह स्थानीय तौर पर पंजीकृत गरीबों को बीपीएल के तहत मिले सस्ते राशन से खरीदता है। चूँकि वह पंजीकृत गरीब नहीं है, इसलिए उसे अपना राशन पंजीकृत गरीबों से चौगुने मूल्य पर खरीदना पड़ता है। उन्हे जो चावल दो रुपये में मिलता है, उसे वे मंगरू को आठ रुपये में बेचते हैं। मंगरू को बाजार में कोई भी चावल इसके दुगुने दाम पर भी नहीं मिलता है, इसलिए वह खुश है कि सरकार उसे भले ही गरीब न मानती हो, मगर उसका गुजर-बसर चल जाता है। मंगरू का हौसला है कि इस प्रकार दो-दो पैसा बचाकर वह गाँव भेज सकेगा, जिससे उसकी बेटी की शादी के समय दहेज में बाइक लेने की भावी दामाद की मांग पूरी हो सके।

चूंकि मंगरू के आहाते में शौचादि की फिलहाल कोई व्यवस्था नहीं थी, इसलिए सुबह-सुबह उठने के बाद लगभग एक मील की दूरी तयकर आमवाड़ी की झाड़ियों में घुसकर शंकामुक्त होना उसकी दिनचर्या बन गयी। उसने कहीं सड़क पर पड़ी पानी की बोतल को बधने के रूप में इस्तेमाल के लिए रख छोड़ा है। मुहल्ले के जो लोग सुबह जागने के आदी हैं, वे प्रतिदिन सूर्योदय से पहले अपनी गंगाजली लेकर तीर्थयात्रा पर निकले मंगरू के दर्शन अवश्य करते हैं। वह दृश्य अद्भुत होता है, जब त्याग-सुख पाने के लिए उत्कंठित मंगरू जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाते हुए आमबाड़ी की ओर निकलता है और आमबाड़ी की दूरी एक मील की जगह उसे सौ योजन की लगने लगती है। बायें हाथ से कमर के पास अपनी फटही मैली-कुचैली धोती को कसकर पकड़े और दायें हाथ से पानी की एकलीटरी बोतल थामे वह जिस गति से चलता है, उसके सामने सुल्तानगंज से देवघर नॉनस्टॉप दौड़नेवाले डाक काँवरिये भी मात हैं। मैं अक्सर साहित्यिक कार्यक्रमों में बाहर ही रहता हूँ, इसलिए मुझे मंगरू कितना पहचानता है, कह नहीं सकता।

मगर जब पहले दिन मैं भी घर में दूध लाने का उपयुक्त बर्तन न मिल पाने के कारण, सॉफ़्ट ड्रिंक की एक खाली बोतल लेकर सुबह छह बजे कोठी की ओर चला, तो रास्ते में मंगरू से मुठभेड़ हो गयी। उसकी दीर्घशंका निर्मूल हो चुकी थी, इसलिए वह मन्थर गति से लौट रहा था। मैं दूध लाने के लिए बोतल हाथ में लटकाये कोठी की ओर तेजी से बढ रहा था।

उसने मुझे रोका और टोका-- बाबू, बहुत अच्छा करते हैं। सुबह-सुबह बहरी अलंग जाने से स्वास्थ्य ठीक रहता है। मैं बनारस का पला-बढ़ा हूँ, इसलिए जानता हूं कि बहरी अलंग का क्या माने होता है। जो नहीं जानते, उन्हें बता दूँ कि आज से पचास-साठ साल पहले तक बनारस के श्रीमन्त लोग शाम के निबटान के लिए नगर के बाहर अमराइयों में जाते थे। चूँकि वे श्रीसम्पन्न थे, इसलिए ताँगे पर निकलते थे। अमराई में घंटों भंग-ठंढाई छनती थी, तब जाकर वे शंकाकुल होते थे और तब वे निबट-नहाकर घर लौटते थे। मैने ताड़ लिया कि मंगरू मुझे अपनी बिरादरी में शामिल कर बहुत खुश है। मैं उसके खुशी के नशे को उखाड़ना नहीं चाहता था। सो, मैंने अभिधा में बोलने की मूर्खता नहीं की। मेरे संवाद की भाषा ‘भारत भारती’ की अभिधात्मक से बदलकर ‘कामायनी’ की तरह व्यंजनात्मक हो गयी। मैने कहा-- चलो एक से दो हो गये।

उसने फुसफुसाकर कहा--ये शहरू लोग क्या जानें कि घर में दिशा-मैदान जाने से कितना नुकसान होता है। कभी पेट साफ नहीं रह सकता। साबुन की बट्टी खा-खाकर पेट साफ करते हैं। आप कोठी में रहकर भी गाँव के रिवाज को नहीं भूले हैं, यह बड़ी बात है।

मैने भी उसका दिल न तोड़ने की ठान ली थी। कहा--मेरे बच्चे मना करते हैं दिशा-मैदान के लिए बाहर जाने से। मगर क्या करूँ, बाथरूम में घंटों बैठा रहता हूँ, चुहिया भी नहीं निकलती। सारे अखबार बाथरूम में ही चाट जाता हूँ। मगर जिस काम के लिए जाता हूँ, वही नहीं होता। इसलिए अब लोकलाज छोड़कर बहरी अलंग जाने लगा हूँ।

मेरी बात सुनकर मंगरू सिर से पाँव तक रोमांचित हो उठा। उसके अन्दर का हीनताबोध तिरोहित हो चुका था। अब वह वैदगिरी पर उतर आया था। वह बाहर दिशा-मैदान करने की ग्रामीण परम्परा की खूबियाँ गिनाने लगा। मुझे देर हो रही थी, इसलिए अपनी बात समेटते हुए मैने उससे छुट्टी ली। इसके बाद यदा-कदा दूध लाने जाते समय मुझे मंगरू मिल जाता था। जब मैने दूध लाने के लिए बाकायदा स्टील का बर्तन ले जाने लगा, तब उसने फिर टोका--बाबू, सबके लिए बोतल सुविधाजनक नहीं होता। कहीं लुढ़क गया तो बड़ी परेशानी होती है। मैने उसकी हाँ मे हाँ मिलायी--ठीक कहते हो, मंगरू। इसी लुढ़कने के डर से मैने यह बर्तन खरीद लिया। चाहता तो लोटा था, मगर वह पूरे पल्टन बाजार में मिला ही नहीं।

मंगरू को सन्तोष हुआ कि उसका गोत्र चल रहा है। उसने स्वीकार किया-- चाहता तो मैं भी हूँ कि जब कभी बनारस जाऊँ, एक लोटा खरीदकर ले आऊँ। आजकल अल्मुनिया का भी लोटा मिल जाता है, सस्ते में। आजकल पेंदीवाला लोटा मिलता नहीं है। पहले पीतल का आता था। सबेरे -सबेरे बाबूजी पोखरे की बालू से रगड़कर ऐसा चमका देते थे कि उसकी चमक के सामने सोना भी फेल। एक दिन सबेरे-सबेरे जब मैं बिस्तरा छोडकर उठा ही था कि मंगरू ने दरवाजा खटखटाया। मैने अकचका कर पूछा--क्या हुआ मंगरू?

उसने अपनी समस्या बतायी--क्या बताऊँ बाबू। रात में लगता है, कोई कुत्ता मेरा बोतल लेकर भाग गया।

मुझे भी शरारत सूझी-- कोई बात नहीं। वह भी बहरी अलंग गया होगा बोतल लेकर। मंगरू--क्या मजाक करते हैं बाबू। मैं तो आपसे आपका बधना माँगने आया था, मगर संकोच हो रहा है कि कैसे मांगूँ! अब घबराने की मेरी बारी थी। एक पल के लिए मैं सन्न रह गया कि अब क्या करूँ! मगर तुरंत मैंने आपदा प्रबंधन में दक्ष अपनी बुद्धि का प्रयोग किया और उसे आश्वस्त किया-- मंगरू, हमारे खानदान में बधना किसी को नहीं दिया जाता है, क्योंकि वह हमारा राजदार माना जाता है। तुम कहो तो एक दूसरा बोतल ला दूँ। मंगरू को अपने काम से काम था। वह बोतल लिया और चलता बना। मैने भी राहत की साँस ली।

लेकिन एक दिन उसने मुझे कोठी के भीतर जाते देख लिया। उसने अनुमान लगा भी लिया कि मैं रोज बहरी अलंग के बहाने कहाँ जाता हूँ। उसके बाद कभी उसने रास्ते में टोका नहीं। केवल आते-जाते मुझे घूरता रहा।

एक दिन सुबह-सुबह फिर वह मिला। बोला--बाबू, आप सचमुच बनारसी रईस हैं।

--मैं कुछ नहीं समझा नहीं, मंगरू!

--आजकल आप बहरी अलंग दूध लेकर जाते हैं। --तुम्हें कैसे मालूम?

--जहाँसे आप निबटकर आते हैं, वहाँ जमीन पर गिरा दूध पीने के लिए मुहल्ले की बिल्लियाँ मारामारी करती हैं!

उस दिन मंगरू ‘कामायनी’ की भाषा बोल रहा था। मुझे काटो तो खून नहीं, क्योंकि मैं उसे मूर्ख बनाते-बनाते खुद बन गया था।