बहारें ठिठकी खड़ी हैं - विल्लार्स, जिनेवा, वेवे में / संतोष श्रीवास्तव

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आगे रास्ता बेहद ख़तरनाक था। दोनों ओर गहरी-गहरी घाटियाँ और ऊँचाई से गिरते दूधिया झरने थे। बर्फीले पहाड़ों पर बादलों की लुकाछिपी ने ख़तरनाक रास्ते को रोमांचक बना दिया था। पूरा रास्ता धुंध भरा था। अब रास्ते में भी बादल आ गये थे और हम बादलों को चीर कर आगे बढ़ रहे थे। धुंध इतनी गहरी... सामने से आती बसों, कारों की हैडलाइट जलती हुई लालटेन जैसी दिख रही थी। कैसे एरिक कोच ड्राइव कर रहा होगा। पर वह अभ्यस्त था। थोड़ी देर बाद रास्ते की धुंध साफ़ हो गई और तब मैंने देखा, घाटी में बहुत तेज़ बहाव वाली नदी को। जैसे यमुनोत्री में यमुना बहती है। ओला गाँव आते ही फिर धुंध शुरू। धुंध और बादलों की इस आँखमिचौली में कब स्विट्ज़रलैंड की सीमा शुरू हुई, कब विल्लार्स आया पता ही नहीं चला।

जब हम होटल 'यूरोटेल' विक्टोरिया पहुँचे तो हलकी बारिश शुरू हो चुकी थी। कोच बिल्कुल होटल के दरवाजे पर एरिक ने खड़ी की ताकि हम भीगे नहीं। हमारासामान भी ट्रॉली मेंलदना शुरू हो चुका था। होटल बेहद शानदार और अपेक्षाकृत गर्म था। कमरे में पहुँचकर थोड़ी देर आराम किया फिर गर्म पानी के टब में ख़ुद को सुकून दे तरोताज़ा हो मैं होटल के भव्य डाईनिंग रूम में डिनर के लिए आ गई। मैं ही देर से पहुँची, बाक़ी सभी पहले ही पहुँच चुके थे। डाइनिंग रूम भी गर्म था। भारतीयों के अलावा कई चेहरे जापानी चीनी और नीग्रो के भी थे। सभी भारतीय भोजन का मज़ा लेने के लिए डिनर का इंतज़ार करते स्टार्टर यानी सूप और गोभी पालक के पकौड़े खा रहे थे। मेरी नज़र सामने काँच की खिड़की के पार गई। जहाँ भारतीय रसोइए भोजन तैयार कर रहे थे। भारतीयों ने पूरे विश्व के पर्यटक स्थलों पर अपने हुनर का करिश्मा दिखाया है। आज कोई भी देश ऐसा नहीं है जहाँ भारतीय भोजन न मिले और यह केवल भारतीय पर्यटकों के लिए ही नहीं है। बल्कि विदेशी भी भारतीय भोजन चाव से खाते हैं। जब मैंने मक्खन चुपड़ी गेहूँ के आटे की रोटियाँ, मिर्चों का अचार, गोभी मटर पनीर, शाही पनीर और मेवों वाली खीर परोसी तो मुझे अपना देश याद आ गया और मैं देशप्रेम से लबरेज़ मोहब्बत पगे निवाले खाने में जुट गई।

थके होने की वज़ह से बिस्तर पर पहुँचते ही मैं सो गई। सुबह उठकर देखा, कमरे में कुछ अतिरिक्त सुविधाएँ भी थीं। चाय बनाने की बिजली की केटली, टी बैग, शुगर सैशे, दूध, कप सॉसर, बिस्किट सब ट्रे में रखे थे। लिफाफे और लैटर पैड, पेन भी यानी यहाँ आराम से लिखा जा सकता है। खिड़की का परदा हटाते ही खिड़की से लगे चीड़ के दरख़्त की डालियों पर पीले रंग की नन्हीं-नन्हीं चिड़ियों को फुदकते देख मन खुश हो गया। चिड़ियाँइतनी छोटी और नाज़ुक थी कि हथेली में तीन-चार समा जाए।

तेरह सौ मीटर की ऊँचाई पर बसा विल्लार्स बेहद खूबसूरत टूरिस्ट रिसॉर्ट है। यहाँ सूरज भगवान की ऐसी कृपा है कि रात दस बजे तक चमकता है और सुबह पाँच बजे उजाला हो जाता है।

आज हमें जिनेवा जाना है जो फ्रांस के बॉर्डर पर है और संयुक्त राष्ट्र के कुछ महत्त्वपूर्ण कार्यालयों के कारण अक्सर खबरों में रहता है। यह जिनीवा झील के तट पर बसा होने के कारण जिनीवा कहलाता है। हमारे दल के कुछ सदस्य होटल में ही रुक गये हैं। नाश्ते के बाद हम कोच में आ बैठे। मौसम बदली भरा सुहावना था। जिनीवा यूनाइटेड नेशन का हेड क्वार्टर तो है ही, यहाँ भाषा भी स्विस नहीं बल्कि फ्रेंच बोली जाती है। आज का दिन कई मिले जुले कारणों से ऐतिहासिक दिन होगा। देवदार, चीड़, ओक और पापुलर की बाँहों में लेटी लम्बी सड़क से गुज़रते हुए रंग बिरंगे कैनवास पर जैसे किसी चित्रकार ने उभारे हों तमाम छोटे-छोटे गाँव ऑलॉन, सिटी आयरलैंड, शिलाँ सिटी, वेवे... हर गाँव वैली में बसा। परियों-सी यहाँ की औरतें और परीलोक से घर। शांत समृद्ध... जहाँ घर नहीं है वहाँ हैं अंगूर के खेत, वाइन की फैक्ट्री, सेब के बगीचे जिसमें हरे और पीले रंग के रसीले सेब होते हैं। गेहूँ, टमाटर, पालक के खेत... चरागाहों में चरती स्वस्थ गायें और वादियों में गूँजती उनके गले में पड़ी घंटियाँ। मुझे लगता है पूरे विश्व में भैंस का दूध सिर्फ़ भारत में ही पिया जाता है और कहीं भी दूध तो छोड़िए भैंस के दर्शन तक नहीं हुए। जिनीवा झील लम्बाई में शहर को घेरकर बहती है। छोटी-छोटी पर्वतीय सुरंगे, सड़कोंको क्रॉस करते पुल और लाल, गुलाबी, पीले फूलों का कुदरती अंबार। मन किया इस खूबसूरती को आँचल में समेट लूँ और जहाँ-जहाँ जाऊँ अबीर गुलाल साउड़ाती जाऊँ। लोसानसिटीआई जो केटरिंगकॉलेज के लिए मशहूर है। विदेशों से विद्यार्थी आते हैं यहाँ ट्रेनिंग के लिए।

जिनीवा सिटी में प्रवेश करते ही सामने चौराहे के बिल्कुल बीचोंबीच एक विशाल ब्रोकन चेयर है। जिसके चार पैरों में से एक टूटा हुआ है। लकड़ी की बनी यह कुर्सी इस बात का प्रतीक है कि विश्व में हर बीसवें मिनट एक आदमी हैंडीकैप हो जाता है और चाँद को खंगालता विज्ञान कुछ नहीं कर पाता।

जिनीवा झील के साथ एक और झील है लेमन नाम की। इस शहर को 1865 में ब्रुंसविक नामक अमीरज़ादे ने अपने ख़र्च से विकसित किया था। उसका मॉन्यूमेंट देख रही हूँ... छूकर... ऐसे होते हैं अरबपति! अद्भुत शहर है जिनीवा। मॉन्ट ब्लॉक पुल से गुज़रते हुए एक तरफ़ रहोन नदी और दूसरी तरफ़ जिनीवा झील... नदी और झील को इतने नज़दीक से दूसरी बार देख रही हूँ। यहीं है जिनीवा का जेट यू फव्वारा जो झील के बीचोंबीच 145 मीटर ऊँचाई तक पानी को उछाल रहा है। झील के तट सागर तट की याद दिला रहे हैं। उन पर लगे चीड़ के दरख़्त हवा में झूल रहे थे। पेड़ों की आड़ में प्रेमी युगल अपने में लीन थे। सड़क तक की ढलान पर जिनीवा में फूलों की बहुतायत की प्रतीक फूलों से बनी विशाल घड़ी गोलाकार बनी है और उस पर रखे विशाल काँटे घूमते हुए बिल्कुल सही समय बता रहे थे।

वेवे में चार्ली चैपलिन की समाधि के नज़दीक में ठिठकी से खड़ी रही। हँसी का बादशाह अब मौन था। जीवन में भी वह मूक अभिनय ही करता रहा। उसने अपने जीवन के कुछ वर्ष यहीं गुज़ारे। यहीं उसकी मृत्यु हुई। जहाँ उसका घर था अब वहाँ म्यूज़ियम है। समाधि पर काले संगमरमर से बनी चार्ली चैपलिन की आदमकद मूर्ति अपने चिरपरिचित अंदाज़ में खड़ी थी।

देख रही हूँ बीस हज़ार की आबादी वाले खूबसूरत शहर माँथलू को। पार्क, मूर्तियाँ, फव्वारे चौड़ी सड़कें, फूलों से बना मोर ज्यों चित्रकार की कूची से बना चित्र है जो उसने कुदरत के कैनवास पर ज्यों का त्यों उकेर दिया है। तीन पहाड़ों पर बसे लौसेन शहर की शान ही निराली है। हाइवे से गुज़र रही कोच... पुलनुमा हाइवे... नीचे जिनीवा झील। स्विट्ज़रलैंड का प्रसिद्ध शीलॉन शातों कासल देखने के लिए मैं बस से उतरकर पुल पर तेज़ी से चल पड़ती हूँ। तेरहवीं सदी में बना क़िला जिनीवा झील की जुटिंग चट्टान पर निर्मित है। फ्रांसीसी ड्यूक पीटर ऑफ सिवॉय द्वारा निर्मित यह कासल अब म्यूज़ियम में परिवर्तित है जो उस काल की कहानी कहता है। बड़े-बड़े हॉल, डाइनिंग हॉल, किचन, उसमें रखे बड़े-बड़े पीतल, तांबे के बर्तन, बड़ा-सा लोहे का ट्रंक, धुआँ खाई दीवारें, औजार घर, दीवारोंसे लटकते अजीबोगरीब हथियार, सोने का कमरा, बड़ापलंग, मसहरीवाला... ड्यूक लेटकर नहीं सोता था। वह पूरे युद्ध लिबास से लैस तकिये से टिका झपकी लेता था। दुश्मन के अचानक हमले का मुँहतोड़ जवाब देने। फाँसी घर देखकर मेरी रूह काँप गई। कभी-कभी कैदी पूरी तरह मर भी नहीं पाता था और सिपाही अधमरे कैदी को तख्ते से उतारकर झील में फेंक देते थे। उसे बाँधने वाली हथकड़ी, बेड़ियाँ अब भी मौजूद हैं। हर कमरे का झरोखा झील की ओर खुलता। ठंडी हवा पथरीले वीरान कमरों को डरावना बनाती प्रवेश कर रही थी। देर तक मन विचलित रहा।

सुबह बेहद ठंडी धुंध भरी थी। स्विट्ज़रलैंड से विदा लेते हुए मन से एक पुकार-सी उठी... क्या इस जन्म में दुबारा यहाँ आने मिलेगा?