बांबी / सुशील कुमार फुल्ल

Gadya Kosh से
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वह साँप की कुंडली में फँस गया था और साँप था कि अपनी पकड़ को और मजबूत करता जा रहा था। उसकी नस-नस में विष प्रवाहित होने लगा था। उसे आश्चर्य भी हुआ कि वह अब तक जीवित कैसे है। साँप का डसा तो पानी भी नही माँगता धीरे-धीरे उसके शरीर में विष फैलने लगा तथा आँखें बंद होने लगी।

उसका पहला दिन था शायद। उसके माथे से आत्म-विश्वास चू रहा था। आते ही वह पुस्तकालय में जम गया था और लगभग तीन बजे तक बहुत-सी पुस्तकें उलट-पलट चुका था। थोड़े नोट्स भी लिखे थे। आगामी अनुसंधान के लिए उसकी रूपरेखा मन-ही-मन स्पष्ट होने लगी थी। तभी किसी ने आकर झकझोरा था। उसने मुड़कर पीछे देखा और पूछा ‘‘क्या बात है?’’

‘‘आपको साब ने बुलाया है।’’ ‘अभी थोड़ी देर में आता हूँ। जरा नोट्स पूरे कर लूँ।’ ‘जी, अभी बुलाया है। बहुत जरूरी काम है।’’ उसे कोफ्त हुई, परंतु उठ खड़ा हुआ और बिना किसी संकोच के साहब के सामने जा खड़ा हुआ। अभी प्रगति विवरण देने की सोच ही रहा था कि गुरू ने कहा-‘कहाँ मर गए थे तुम? मैं सुबह से तुम्हारा इंतजार कर रहा हूँ।’

‘जी, मैं पुस्तकालय में था।’ ‘किताबों से मुझे काफी उपयोगी सामग्री मिली है।’ ‘हाँ-हाँ, मिली होगी, लेकिन पी.एच.डी. उपयोगी सामग्री से ही तो पूरी नहीं हो जाती और भी बहुत कुछ करना पड़ता है।’ ‘जी’-उसके शरीर पर अनेक बिच्छू रेंगने लगे थे। शायद आचार्य-प्रवर अनुसंधान के लिए उसे कोई सेंध देना चाहते हैं, उसने सोचा। ‘अच्छा, जाओ अब। रमेश से मिल लो, वह तुम्हें समझा देगा।’

वह किसी जंगल में भटक गया था, हकबकाया-सा। दफ्तर का बाबू रमेश उसे क्या समझाएगा। शायद कुछ रिसर्च जर्नल उसे पकड़ाने होंगे। वह फुर्ती से दफ्तर में गया। रमेश कुछ टाइप कर रहा था। उसने बिना बोले बुद्धिप्रसाद को बैठने का संकेत किया। इर्द-गिर्द बाबू मंडरा रहे थे। उसे कुछ घुटन-सी महसूस हुई........जैसे बहुत-सा धुआँ उसके अंदर घुस गया हो।

बीस-पच्चीस मिनट के बाद रमेश ने कहा, डॉक्टर साहिब......’ ‘अरे, मैं डॉक्टर कहाँ से हो गया। मेरा तो आज पहला दिन ही है.....अभी तो लंबा सफर तय करना है।’ बुद्धिप्रसाद ने कहा। वैसे मन-ही-मन गुदगुदी-सी हुई ‘आह....कितना प्यारा शब्द है ‘डॉक्टर।’

‘चलो जो भी हो.........यह सूची ले जाओ........फिर घड़ी देखते हुए कहा, ‘अभी चार बजे हैं। गैस एजेंसी पाँच बजे तक खुली रहती है। यह रही कापी.....’ फिर एक और कापी निकाल कर कहा, ‘यह मेरी। वैसे तो मैं खुद ही अपना सिलेंडर ले लेता हँ, परंतु आजकल टाइप का काम ही कुछ ज्यादा है। इसलिए.....और आपको प्रोफेसर साहिब के लिए तो जाना ही.....मेरा भी ले लेना।’

‘लेकिन.....’ ‘हाँ-हाँ, लेकिन क्या?’ ‘मैं यहाँ नया हूँ। न मुझे गैस एजेंसी का पता है, न ही प्रोफेसर साहिब के घर का।’ वह तिलमिला उठा था। ‘अरे, आप अभी तक उनके घर भी नही गए। बाकी शोधार्थी तो पहले गुरू पत्नी से मिल कर आते हैं। चलो कोई बात नहीं....आपके साथ हनुमान को भेज देते हैं। वह तीन साल से यही काम करता रहा है।’ और रमेश ने दूसरे छात्र को बुलवा भेजा। उसका थीसिस टाइप हो रहा था। वह फिर भी दौड़ा आया। बोला, ‘रमेश जी, बस हम अभी गए और अभी आए, लेकिन मेरा थीसिस जल्दी करवा दो।’

हनुमान प्रसाद उछलता जा रहा था ओर बुद्धिप्रसाद जमीन में धँसता हुआ। शिमला का विशाल आकार उसके सामने फैल गया था। छात्रावास से जल्दी-जल्दी तैयार होकर वह विभाग में पहुँच गया। अब तक उसे पता चल गया था कि पुस्तकालय में जाने से पहले यह आवश्यक था कि वह अपने एडवाइजर से निर्देश ले ले।

‘ओह। आइए, आइए।’ प्रोफेसर धर्मभरोसे ने कहा। बुद्धिप्रसाद तो गद्गद हो गया। उसे लगा आज कुछ सूत्र हाथ लगेंगे। ‘तुम बहुत अच्छा काम कर रहे हो। मैं जल्दी से जल्दी तुम्हारी पी.एच.डी. करवा देना चाहता हूँ।’ फिर चपरासी को बुलाकर चाय लाने के लिए कहा। चाय की चुस्कियाँ लेते हुए उन्होंने कहा, ‘यह बीच में सम्मेलन आ फँसा। अध्यक्ष होने पर बीसियों जिम्मेदारियाँ आ जाती हैं। मुझे इलाहाबाद में एक शोध-पत्र प्रस्तुत करना है। विषय है-‘धार्मिक साहित्य में उन्माद-तत्त्व।’

‘सर, बधाई हो।’ ‘ऐसे कार्यक्रम तो चलते ही रहते हैं। मैं तो जाना ही नहीं चाहता था, परंतु बार-बार फोन आ रहे हैं। सो, तुम ऐसा करो-मेरे लिए एक बीस पृष्ठ का संदर्भ शोध-निबंध तैयार कर दो।’ फिर डायरी से तारीख देखते हुए बोले, ‘सोलह को है सम्मेलन। आज है छह। दो दिन पहले ही जाना पड़ेगा। सो अगर दस तक तैयार कर दो तो ठीक रहेगा।’

‘सर, मेरा विषय तो है-‘समकालीन हिंदी कहानी का शिल्प-विधान । मैं धार्मिक साहित्य में उन्माद-तत्व पर क्या लिख सकता हूँ? तुम बड़े भोले हो। यह तुम्हारी ट्रेनिंग है। मेरे लिए दो-बार शोध-निबंध लिखोगे तो तुम्हारा आत्मविश्वास बढ़ेगा। जानते हो मैं ‘न’ सुनने का अभ्यस्त नहीं हूँ। जाओ, अभी से पुस्तकालय में बैठ जाओे और इस दस तारीख को मुझसे मिलना.....ख़ाली हाथ नहीं.....अंतिम रूप से तैयार निबंध के साथ।’ प्रोफेसर धर्मभरोसे और कागज देखने लगे थे।

बुद्धिप्रसाद को साँप ने अपनी कुंडली में जकड़ लिया था और वह निरंतर छटपटा रहा था। अचानक मध्य प्रदेश से डॉ. राधेश्याम आ गए थे। उनकी बहुत दिनों से इच्छा थी कि किसी मौखिक परीक्षा के बहाने पहाड़ की सैर की जाए और इसमें कोई कठिनाई भी नहीं थी। उन्होंने इच्छा भी जाहिर की थी। प्रोफेसर धर्मभरोसे ने विश्वविद्यालय से तुरंत एक थीसिस भिजवा दिया था तथा अलग से लिख दिया था कि वह जब आना चाहें आ जाएं। संतोषजनक रिपोर्ट कुलसचिव को भेज दे तथा थीसिस साथ ही लेते आएँ।

बुद्धिप्रसाद को बुलाकर धर्मभरोसे ने कहा, ‘कल हुनमान की मौखिक परीक्षा है। ससुरा चार साल से यहीं मंडरा रहा है। डॉ॰ राधेश्याम जी इसकी परीक्षा के लिए आए हैं। परीक्षा तो आधे घंटे में करवा दूंगा। तुम इनकी देखभाल करोगे तथा आसपास के सभी पर्यटक स्थलों परघुमा लाओगे। इससे हमारे प्रदेश के पर्यटन की बढ़ावा मिलेगा।’

‘जी।’ फिर उन्होंने कहा, ‘श्यामजी, यह बड़ा मेधावी छात्र है। इसका थीसिस भी आपके पास ही भिजवाएँगे।’ ‘जरूर, जरूर’, कहकर डॉ॰राधेश्याम ने कहा, ‘बेटा, मैं यूनिवर्सिटी विश्राम गृह में ठहरा हूं...रूम नंबर 203 में । तुम्हें कोई दिक्कत तो नहीं है न।’ ‘जी, नहीं। मैं नजदीक ही छात्रावास में ठहरा हूँ।’

‘वह दिन-रात उनके आगे-पीछे घूमता रहा। उसने कई बार साहित्य की बात भी छेड़नी चाही और बताया भी कि वह ‘समकालीन हिंदी कहानी का शिल्प-विधान’ विषय पर अनुसंधान कर रहा है, परंतु मेहमान को तो माल रोड की रंगीनियाँ मोहित किए हुए थीं। उन्होंने इतना ही कहा, ‘रिसर्च तो चलती रहती है, परंतु क्षण पकड़ना अधिक महत्वपूर्ण है।’

बुद्धिप्रसाद तो अनुसंधानमय हो चुका था। बार-बार कुरेद रहा था। मेहमान प्रोफेसर ने कहा, ‘तुमने विषय बड़ा पिसा-पिटा चुना है।’ ‘सर, इस पर अभी ढंग का काम नहीं हुआ है।’ ‘अरे, बुद्धिप्रसाद! शुरू में सब यही कहते है, परंतु तुम नहीं जानते.....शायद अभी.....कि रिसर्च क्या है।’ फिर कहा, ‘कल कुफरी चलेंगे।’ ‘जी।’ यह तो भला हो हनुमान का जो ऐन मौके पर आ गया। बुद्धिप्रसाद की जेब में कोई पैसा नहीं निकला। मेहमान प्रोफेसर का विश्राम-गृह का बिल 344 रूपए बना। हनुमान ने तुरंत पेमेंट कर दी।

वे दोनों मेहमान प्रोफेसर को गाड़ी में बिठा आए।

लौटते हुए हनुमान ने कहा, ‘देखों बुद्धिप्रसाद! रिसर्च करना और बात है, डिग्री लेना और। वैसे तो तुम समझदार हो गए हो, फिर भी इन छोटी-मोटी बातों पर खफा न हुआ करो। प्रोफेसर आई.एस.एस. तो होते नहीं, जो इनके आगे-पीछे गाड़ियों दौड़ती रहें। इनकी गाड़ियाँ तो शोध-छात्र ही होते हैं....जिनमें पैट्रोल भरने की जरूरत नहीं हैं।’

बुद्धिप्रसाद की आँखों से आँसू टपक आए। घर में उसकी अकेली माँ.....स्कूल अध्यापिका को पैसे मिलता ही कितना है है। हॉस्टल का खर्च....और फिर भी बहुत-से खर्च....उसे लग रहा था कि पी-एच.डी. के उन्माद में उसने सांपों की बांबी में हाथ डाल दिया था। लगभग तीन वर्ष होने को आए थे। थीसिस का कोई रूप नहीं बन रहा था। दिन-रात लगाकर उसने सामग्री तो एकत्रित कर ली थी तथा स्वंय क्रमवार शोध-लेखन शुरू भी कर दिया था, परंतु जब भी वह विचार-विमर्श के लिए अपने निर्देशक के पास जाता तो वह किसी-न-किसी बहाने से टाल देते। उसने एक बार तो कहा भी, ‘सर, मैंने कुछ अध्याय लिख भी लिए है।’ ‘तुम्हारे लिखने से क्या होता है। जब तक मैं एक-एक शब्द न देख लूँ-मैं थीसिस प्रस्तुति की अनुमति नहीं देता। कोई स्तर भी तो रखना होता है। अब उसे समझ आने लगा था कि उस दिन वह व्यर्थ में ही अड़ गया था। जब तीन साल इतना कुछ किया......तो उनके कपड़े भी धो आता तो कौन-सा पहाड़ टूट पड़ता, परंतु उसका मन ही नहीं माना था। उसकी अपनी माँ ने कभी उसे कपड़े धोने के लिए नहीं कहा....और फिर उसकी इच्छा हुई कि वह अपने बाल नोंच डाले। उसने गलत आदमी का चयन कर लिया था। कहीं उसके मन में रहा था विभागाध्यक्ष के साथ अनुसंधान एक तो स्तरीय होगा, दूसरे उसे नौकरी जल्दी मिल जाएगी...कभी वह सोचता कि अपनी एकत्रित सामग्री को नष्ट-भ्रष्ट करके अपनी माँ के पास लौट जाए....लेकिन जीवन के तीन साल.....वह साँप की बाँबी में उतरने से डर रहा था।

बहुत दिनों तक वह अपने निर्देशक से नहीं मिला। एक दिन प्रोफेसर धर्मभरोसे ने स्वयं बुलाया और बड़ी आत्मीयता से कहा, ‘देखो, बुद्धि! इतना हतोत्साहित नहीं होते। तुम्हे डिग्री चाहिए मैं दिलवाऊँगा, लेकिन इतनी उछल-कूद मचाने से कुछ नहीं होता। तुम्हें डिग्री चाहिए में दिलवाऊँगा, बहुत से लोग बिना डिग्री भी जा चुके हैं।’

‘सर! लेकिन मैंने बहुत मेहनत की है। अब थीसिस की अंतिम रूप तो आपके परामर्श से ही देना होगा।’ ‘अब हुई न बात। मैं तुम्हारी थीसिस दस दिन में पूरी करवा दूँगा।’ तभी उन्होंने अलमारी से एक थीसिस निकाली, जिसका विषय था-‘समकालीन हिंदी का बदलता शिल्प-विधान।। और कहा, यह प्रबंध मेरे पास परीक्षण के लिए आया है।’

‘सर!’ ‘तुम में धैर्य नाम की चीज नहीं है। सुनो....मेरी पुस्तक ‘साहित्यिक निबंध’ प्रेस में जानेवाली है। ये दस निबंध तुम्हें लिखने हैं.....इन्हें जितनी जल्दी हो लिख डालो....और फिर यह शोध-प्रबंध में तुम्हें दे दूँगा और संकेत-भर ही तो चाहिए।’ बुद्धिप्रसाद कहना चाहता था कि मैंने खुद काम किया है। बहुत सामग्री मेरे पास है। मौलिक रिसर्च तो निजी होती है। और क्या फिर यह अन्याय नहीं होगा? फिर उसे ध्यान आया हनुमान प्रसाद का....उसने भी तो अपना थीसिस दस-पंद्रह दिन में ही पूरा कर लिया था.....अब उस पर रिसर्च का भेद खुलने लगा था, लेकिन वह मन-ही-मन काँप उठा। जो निष्ठा और स्वप्न वह लेकर यहाँ आया था.....वह तपते रेत में पानी की तरह लुप्त हो रहा था। अचानक उसके मुँह से निकल गया....‘हूँ’।

‘हूँ क्या, हाँ कहो। और जाओ लिख डालो दस निबंध। पुस्तकें मैं देता हूँ।’’ फिर अपनी झोक में कह गए, ‘वे जमाने लद गए जब हमने रिसर्च की थी। पाँच-पाँच साल निर्देशक नज़दीक नहीं फटकने देते थे...व्यर्थ में बार-बार लिखवाते थे, काटते थे, पीटते थे...अपना भी समय नष्ट करते थे और हमारा भी...बुद्धिप्रसाद थीसिस क्या है? बस....कतर-ब्योंत.....यह रहस्य अपने तक ही रखना। जाओे शाबाश....लिख लाओ निबंध। देखो.....ये मत सोचना में व्यर्थ में यह काम करा रहा हूँ। अनुक्रमणिका भी तुम्हीं तैयार करोगे। और उसके लिए आभार में तुम्हारा नामोल्लेख भी रहेगा।’ फिर खी-खी करते हुए उन्होंने कहा, ‘मैंने आज तक किसी से बेगार नहीं करवाई।’

बुद्धिप्रसाद से साँप ही साँप लिपट गए। एक और रहस्योद्घाटन हुआ.......अनुक्रमणिका भी उसे तैयार करनी होगी। उसके लिए नामोल्लेख भी होगा....वाह! क्या पुरस्कार है।

निबंध लिखने में तीन मास और निकल गए। समय तो लगना ही था । विभागाध्यक्ष के नाम से छपने वाले निबंध स्तरीय होने चाहिए....इसलिए उसने बड़े श्रम से उन्हें लिखो। और उसे लगने लगा कि उसकी डिग्री भी पूरी हो चली है.....टूट जाने पर भी वह डिग्री के लिए लालायित था। उसके चेहरे पर एक संतोष था। वह फाइल उठाए हुए विभागाध्यक्ष के कमरे में घुसा। जाते ही उसने कहा, ‘सर....ये रहे निबंध।’

‘अच्छा, अच्छा। रख दो यहाँ फाइल।’ फिर कहा, ‘मैं जरा व्यस्त हूँ, आप थोड़ी देर बाद आइए।’ बुद्धिप्रसाद का चेहरा बुझ गया। उसे लगा हिमाच्छादित पर्वत नगर भभक उठा था, लेकिन क्या करता। दोपहर बाद वह फिर विभागाध्यक्ष के सामने था। अब उनका मूड ठीक था। बोले, ‘तुम बहुत मेधावी हो। मुझे तुम पर गर्व है। ऐसा विद्यार्थी तो भाग्य से हो मिलता है।’ उन्होंने रमेश को बुलवाया और कहा, ‘देखो.....वह थीसिस जो ग्वालियर से आया था, जरा लाना तो।’ ‘सर, वो तो आपने मूल्यांकन के बाद भिजवा दिया है।’

‘नहीं, ऐसा कैसे हो सकता है। मूल्यांकन कोई इतना जल्दी हो जाता है। अभी छः महीने भी नहीं हुए थीसिस के आने को....पढ़ना होता है।’ ‘सर, मैं फिर देख लेता हूँ।’ रमेश चला गया था। थोड़ी देर बाद आया....‘सर....वही थीसिस ने जो ‘समकालीन हिंदी कहानी....पर था।’ ‘हाँ, हाँ, वही।’ ‘वह तो चला गया सर! यह रही आपकी रिपोर्ट।’

फिर ढीले पड़ते हुए अध्यक्ष ने कहा, ‘अच्छा चलो कोई बात नहीं। रिसर्च तो अपनी ही ठीक होती है। बुद्धिप्रसाद, घबराना नहीं। जो भी काम किया है, उसे जल्दी-जल्दी लिखकर टाइप करवाना शुरू कर दो।'


बुद्धिप्रसाद निढ़ाल हो गया था। उसे उसकी पी-एच.डी. कभी होगी ही नहीं। वह तो साँप की बाँबी में उत्तर गया था। साँप की जकड़न उस पर और तेज होती जा रही थी और उसकी शिराओं में विष फैलने लगा था।