बांसगांव की मुनमुन / भाग - 14 / दयानंद पाण्डेय

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

‘ये तो है!’ दीपक धीरे से बोला।

‘जानते हैं भइया इस पियक्कड़ का चेहरा शादी में जयमाल के बाद फिर पिटाई के बाद ही मैं ने यहां देखा। लगभग पंद्रह दिन वहां ससुराल में रही तो कभी भूल कर भी इस की शकल देखने को नहीं मिली। दो तीन दिन बाद हार कर इस की बहनों और भाइयों से मैं ने पता करना शुरू किया कि तुम्हारे भइया कहां सोते हैं? तो पता चला कभी बाग में सो जाते हैं, कभी टयूबवेल पर, कभी कहीं तो कभी कहीं। क्या तो गंजेड़ियों अफीमचियों और चरसियों की महफ़िल जुटती है जहां तहां। तो लत के चक्कर में इस को अपनी बीवी की तब सुधि ही नहीं थी। अब हुई है तो आ कर मार पीट करने के लिए।’

‘बताओ तमाम नातेदारी, रिश्तेदारी में इस परिवार को लोग रश्क से देखते हैं। भाइयों के गुणगान करते नहीं थकते।’

‘कुछ नहीं भइया चिराग़ तले अंधेरा वैसे ही तो नहीं कहा गया है।’

‘ये तो है।’

यह सब देख सुन कर दीपक का मन ख़राब हो गया। सोचा था कि बांसगांव वह एक रात रह कर जाएगा। मामा-मामी से ख़ूब बतियाएगा। पर यहां का माहौल देख कर वह तुरंत चलने को तैयार हो गया। मामी ने कहा, ‘अरे आज तो रुको। शाम तक मामा भी आ जाएंगे। बिना उन से मिले चले जाओगे?’

‘मामा से अभी कचहरी जा कर मिल लूंगा।’ दीपक ने बहाना बनाया, ‘शहर में कुछ ज़रूरी काम निपटाना है। इस लिए जाना तो पड़ेगा।’

‘अच्छा भइया थोड़ी देर तो रुक जाइए। अम्मा कह रही हैं तो मान जाइए।’

‘चलो ठीक है। थोड़ी देर रुक जाता हूं।’ कह कर वह रुक गया। वह देख रहा था कि घर की समृद्धि, दरिद्रता में तब्दील हो रही थी। विपन्नता देह और देह के कपड़े लत्तों, घर के सामान, भोजन आदि में ही नहीं बातचीत में भी बिखरी पड़ी थी। बात-बात में उस ने मुनमुन से रमेश, धीरज और तरुण के फ़ोन नंबर ले लिए और कहा कि, ‘देखो मैं बात करता हूं फिर बताता हूं। और हां, राहुल का फ़ोन आए तो मेरा नंबर उसे देना और कहना कि मुझ से बात करे। और हां, अपना भी नंबर दो और अपनी ससुराल का भी नंबर दो। ताकि पूछूं कि वह यह हरकत क्यों कर रहा है?’

मुनमुन ने सब के नंबर दे कर दीपक का नंबर ख़ुद ले लिया। और बताया कि, ‘धीरज भइया का फ़ोन मिल पाना बहुत मुश्किल होता है। अव्वल तो उठता नहीं। उठता भी है तो कोई कर्मचारी उठाता है और उन्हें बाथरूम या मीटिंग में भेज देता है। बात नहीं कराता है।’

‘चलो फिर भी देखता हूं।’

‘और हां, जो मेरी ससुराल फ़ोन करिएगा तो हाथ पैर जोड़ कर उन सब का दिमाग़ मत ख़राब कीजिएगा। जो भी बात करिएगा वह सख़्ती से करिएगा।’

‘नहीं-नहीं यह बात तो मैं सख़्ती से करूंगा ही कि वह यहां इस तरह शराब पी कर न आया करे। यह तो कहना ही पड़ेगा।’

‘चाहिए तो अभी कर लीजिए।’ मुनमुन उत्साहित होती हुई बोली।

‘नहीं अभी नहीं।’ दीपक बोला, ‘पहले थोड़ी प्लानिंग कर लूं। रमेश, धीरज वगै़रह से भी राय मशविरा कर लें। तब। जल्दबाज़ी में यह सब ठीक नहीं है।’

‘चलिए जैसा आप ठीक समझिए।’ मुनमुन बोली, ‘पर भइया लोग आप को मेरे मसले पर शायद ही कोई राय मशविरा दें।’

‘क्यों?’

‘अरे कोई राय मशविरा होता तो लोग ख़ुद आ कर कोई उपाय नहीं करते?’ वह बोली, ‘एक बार घनश्याम राय के कहने पर रमेश भइया ज़रूर आए पर समस्या का कोई हल निकाले बिना चले गए। फिर पलट कर फ़ोन पर भी आज तक नहीं पूछा कि तुम लोग जिंदा भी हो कि मर गए? मेरी तो छोड़िए अम्मा बाबू जी की भी कोई ख़ैर ख़बर नहीं लेता। घर का ख़र्च वर्च कैसे चल रहा है, दवाई वग़ैरह का ख़र्च से किसी भइया को काई मतलब नहीं रह गया है।’ कहती हुई मुनमुन बिलकुल फायरी हो गई। और उस की अम्मा यानी दीपक की मामी निःशब्द रोने लग गईं। दीपक भी चुप ही रहा।

माहौल ग़मगीन हो गया था। फिर थोड़ी देर में मुनमुन ने ही सन्नाटा तोड़ा और बोली, ‘जाने किस जनम की दुश्मनी थी जो बाबू जी और भइया लोगों ने मिलजुल कर मुझ से निकाली है। जीते जी मुझे नरक के हवाले कर दिया है। दूसरे, यह आए दिन की मारपीट, बेइज़्ज़ती। अब तो मेरे स्कूल पर भी जब तब आता है और गरिया कर चला जाता है। आगे मेरी जिंदगी का क्या होगा, यह कोई नहीं सोचता।’ मुनमुन किसी बढ़ियाई नदी की तरह बोलती जा रही थी।

‘इस मार-पीट की रिपोर्ट तुम पुलिस में क्यों नहीं करती?’

‘कैसे करूं?’ मुनमुन बोली, ‘इस में भी तो अपनी ही बेइज़्ज़ती है। अभी दो चार घरों के लोग जानते हैं। फिर पूरा बांसगांव, गांव और जवार जान जाएगा। किस-किस को सफ़ाई देती फिरूंगी? फिर अख़बार और समाज हमें बिलकुल ही जीने नहीं देंगे।’

‘ये तो है।’

‘और फिर संबंधों के झगड़े पुलिस तो निपटा नहीं सकती। छिंछालेदर होगी सो अलग।’ वह बोली, ‘बाबू जी के पास ऐसे मामले आते रहते हैं, मैं देखती रहती हूं।’

‘ये तो है!’ दीपक बोला, ‘काफ़ी समझदार हो गई हो।’

‘परिस्थितियां सब को समझदार बना देती हैं।’ मुनमुन बोली, ‘मेरे ऊपर गुज़र रही है। मैं नहीं समझूंगी तो भला कौन समझेगा?’

‘चलो तुम्हारा हौसला ऐसे में भी बना हुआ है तो अच्छी बात है।’ दीपक बोला, ‘यह बड़ी बात है।’

‘अब आप जो कहिए।’ मुनमुन बोली, ‘मेरे नाम तो नरक का पट्टा लिखवा ही दिया है बाबू जी और भइया लोगों ने मिल कर।’

‘ऐसे दिल छोटा मत करो।’ वह बोला, ‘कोई न कोई उपाय निकलेगा ही। बस ऊपर वाले पर भरोसा रखो।’

‘अच्छा यह सब बिना ऊपर वाले की मर्ज़ी से हो रहा है क्या कि उस पर भरोसा रखूं?’

दीपक फिर चुप हो गया। थोड़ी देर में शाम हो गई। मुनक्का राय कचहरी से आए तो घर पर दीपक को देख कर ख़ुश हो गए। ख़ूब ख़ुश। दीपक ने उन के पैर छुए तो ढेरों आशीर्वाद देते हुए उसे गले से लगा लिया। बोले, ‘तब हो दीपक बाबू और क्या हाल चाल हैं? घर दुआर कैसा है? बाल बच्चे सब ठीक तो हैं न? और मेरी दीदी कैसी हैं? और हमारे जीजा जी कैसे हैं?’

‘आप के आशीर्वाद से सभी ठीक हैं।’ दीपक बोला, ‘और आप कैसे हैं?’

‘हम तो दीपक बाबू बस जाही विधि राखे राम ताही विधि रहिए पर हैं।’ वह बैठे-बैठे छत निहारते हुए बोले, ‘बस राम जी ज़रा नज़र फेर लिए हैं आज कल हम से। और क्या कहें!’ मुनक्का राय हताश होते हुए बोले, ‘बाक़ी हालचाल मिल ही गया होगा अब तक!’ वह मुनमुन की ओर आंख से इशारा करते हुए बोले। दीपक ने उदास हो कर मुंह बिचकाते हुए स्वीकृति में सिर हिलाया।

‘बड़े-बड़े मुक़दमे निपटाए। जिरह और बहस की। दुनिया भर का झमेला देखा। सौतेली मां देखी जाने कितनी गरमी बरसात देखी। सब को फे़स किया। बहादुरी से फे़स किया। उस अभागे-नालायक़ गिरधारी भाई को फे़स किया। पर बाबू दीपक, जिंदगी के इस मोड़ पर यहां आ कर हम पटकनी खा गए। पटका गए। इस की कोई काट नहीं मिल रही।’ कहते हुए मुनक्का राय का गला रुंध गया, आंखें बह चलीं। आगे वह कुछ बोल नहीं पाए।

दीपक फिर चुप रहा। मामा के घर आए प्रलय की आंच अब वह और सघन रूप से महसूस कर रहा था। ऐसी विपत्ति में उस ने अभी तक पारिवारिक स्तर पर किसी को भी नहीं देखा था। इस समय मामा के घर में फैला सन्नाटा टूट नहीं रहा था। शाम गहराती जा रही थी, साथ ही डूबते सूरज की लाली भी। कि अचानक बिजली आ गई।

दीपक उठा खड़ा हुआ। बोला, ‘मामा जी आप से भी भेंट हो गई अब आज्ञा दीजिए।’

‘अरे दीपक बाबू आज रहिए। कल जाइएगा।’ मुनक्का राय उसे रोकते हुए बोले, ‘कुछ दुख-सुख बतियाएंगे।’

‘नहीं मामा जी कुछ ज़रूरी काम है शहर में। जाना ज़रूरी है।’

‘ज़रूरी काम है तो फिर कैसे रोक सकता हूं। जाइए।’ किंचित खिन्न होते हुए बोले मुनक्का राय।

दीपक ने मामा मामी के पैर छुए और मुनमुन ने दीपक के। चलते-चलते दीपक ने मुनमुन से फिर कहा, ‘घबराओ नहीं कोई रास्ता निकालते हैं।’

हालां कि दीपक चला था शहर के लिए पर शहर जाने के बजाय वापस अपने गांव आ गया। घर पहुंच कर दीपक ने अपने अम्मा बाबू जी को मामा-मामी और मुनमुन की व्यथा-कथा बताई। दीपक के अम्मा बाबू जी ने भी इस पर अफ़सोस जताया। पर अम्मा धीरे से बोलीं, ‘पर मुनमुन भी कम नहीं है।’

दीपक ने कोई प्रतिवाद नहीं किया। पर मामा-मामी और मुनमुन का दुख उसे परेशान करता रहा। बाद में उस ने छोटे भाई जितेंद्र से भी इस बारे में बात की। तो जितेंद्र ने भी माना कि, ‘मुनमुन की शादी ग़लत हो गई है।’

‘पर जब मुनमुन ने तुम से कहा कि एक बार शादी के पहले लड़का देख लो तो तुम्हें लड़का देख कर वस्तुस्थिति बता देनी चाहिए थी।’

‘क्या बताता?’

‘क्यों दिक्क़त क्या थी?’

‘दिक्क़त यह थी कि मैं बियहकटवा डिक्लेयर हो जाता।’

‘क्या बेवकू़फी की बात करते हो?’ दीपक बोला, ‘यह शादी होने से अच्छा था कि तुम भले बियहकटवा डिक्लेयर हो जाते यह शादी तो रद्द हो जाती।’

‘मैं ने मामा से बात की थी। मुनमुन के कहने पर कि एक बार मैं भी चलना चाहता हूं लड़का देखने। पर मामा बोले-सब ठीक है तिलक में चल कर लड़का देख लेना। फिर मैं ने धीरज भइया से बात की तो वह बोले रमेश भइया का पुराना मुवक्क़िल है। सब जाना पहचाना है। घबराने की बात नहीं है। तो मैं क्या करता?’ जितेंद्र बोला, ‘जब सारा घर तैयार था मैं अकेला क्या करता?’

‘तुम ने रमेश से बात की?’

‘नहीं। उन से बात करने की हिम्मत नहीं पड़ी मेरी।’

‘तो एक बार मुझ से ज़िक्र किया होता।’ दीपक बोला, ‘तुम क्या समझते हो यह सब जो हो रहा है मुनमुन के साथ इस में क्या हम लोगों की भी बेइज़्ज़ती नहीं हो रही? आख़िर ननिहाल है हम लोगों का। हम लोगों की देह में वहां का भी ख़ून है। उस दूध का क़र्ज़ है हम पर। यह बात तुम कैसे भूल गए? हमारी भी कुछ ज़िम्मेदारी बनती थी।’

‘हां, यह ग़लती तो हो गई भइया।’ जितेंद्र सिर झुका कर धीरे से बोला।

दीपक को उस रात खाना अच्छा नहीं लगा। दिल्ली लौट कर भी वह बहुत दिनों तक अनमना रहा। एक दिन उस ने पत्नी को मुनमुन की समस्या बताई और कहा कि, ‘तुम्हीं बताओ क्या रास्ता निकाला जाए?’

‘उन के घर में एक से एक जज, कलक्टर बैठे हैं। वह लोग नहीं समाधान निकाल पा रहे हैं तो अब आप निकालेंगे?’ वह बोली, ‘अपनी समस्याएं क्या कम हैं?’

‘वो तो ठीक है पर हम लोग भी कोशिश तो कर ही सकते हैं।’

‘चलिए सोचती हूं।’ कह कर दीपक की पत्नी सो गई।

पर दीपक नहीं सोया। उस ने रमेश को फ़ोन मिलाया। और बताया कि, ‘पिछले दिनों बांसगांव गया था। मुनमुन के बारे में जान कर दुख हुआ। तुम लोग आखि़र क्या सोच रहे हो?’

‘हम तो भइया कुछ सोच ही नहीं पा रहे हैं।’ रमेश बोला, ‘हम लोगों में आप सब से बड़े हैं आप ही कुछ सोचिए और कोई रास्ता निकालिए। आप जो और जैसे कहिएगा मैं तैयार हूं।’

‘पर तुम लोगों ने ऐसी बेवक़ूफी की शादी आंख मूंद कर कैसे कर दी?’

‘अब तो भइया ग़लती हो गई।’

‘तुम लोगों को पता है कि मुनमुन का हसबैंड पी पा कर जब-तब बांसगांव आ जाता है और मुनमुन तथा मामी की पिटाई कर, गाली गलौज करता है। जीना मुश्किल किए है वहां वह उन लोगों का?’

‘अरे यह क्या बता रहे हैं आप? यह तो नहीं पता था।’

‘अब सोचो कि तुम अब अपने घर की ख़बर से भी बेख़बर हो। वृद्ध मां बाप और जवान बहन कैसे रह रहे हैं, इस से तुम सभी भाइयों का कोई सरोकार ही नहीं रहा?’ दीपक बोला, ‘भई यह तो ठीक बात नहीं है।’

‘क्या बताऊं भइया।’ रमेश सकुचाते हुए बोला, ‘देखता हूं।’

‘कम से कम तुम घर में सब से बड़े हो, तुम्हें तो यह सब सोचना ही चाहिए।’ दीपक बोला, ‘चलो मुनमुन की समस्या बड़ी है दो चार दिन में तो नहीं सुलझती पर मामा-मामी के वेलफ़ेयर का इंतज़ाम तो तुम लोगों को करना ही चाहिए। समझो कि वह लोग साक्षात नरक जी रहे हैं। और तुम लोगों के जीते जी। यह बात कम से कम मुझे तो ठीक नहीं लगती।’

पर उधर से रमेश चुप ही रहा। दीपक ने ही उसे कोंचा, ‘चुप क्यों हो बोलते क्यों नहीं?’

‘जी भइया।’ रमेश धीरे से बोला।

‘नहीं मेरी बात अगर अच्छी नहीं लग रही तो फ़ोन रखता हूं।’

‘नहीं-नहीं ऐसी बात नहीं है।’

‘तो ठीक है। सोचना इन बातों पर। और हां, मुनमुन के बारे में भी।’

‘ठीक भइया। प्रणाम।’

‘ख़ुश रहो।’ कह कर दीपक ने फ़ोन रख दिया। वह रमेश की इस सर्द बातचीत से बहुत उदास हो गया। बाद के दिनों में उस ने धीरज और तरुण से भी यह बातें कीं। इन दोनों की बातचीत में भी वही ठंडापन पा कर दीपक समझ गया कि अब मुनमुन की समस्या का समाधान सचमुच बहुत कठिन है। अब उस ने एक दिन मुनमुन को फ़ोन किया और राहुल का फ़ोन नंबर मांगा।

‘क्या इन तीनों भइया से बात हो गई आप की?’

‘हां, हो गई।’ दीपक टालता हुआ बोला।

‘क्या बोले ये लोग?’ मुनमुन उत्सुक हुई।

‘वह बाद में बताएंगे पर पहले तुम राहुल का नंबर दो।’ दीपक खीझ कर बोला।

‘लीजिए लिखिए।’ कह कर उस ने राहुल का नंबर आई.एस.डी. कोड सहित लिखवा दिया। फिर दीपक ने राहुल का फ़ोन मिलाया। राहुल बोला, ‘भइया प्रणाम। अभी गाड़ी ड्राइव कर रहा हूं। थोड़ी देर में मैं ख़ुद आप से बात करता हूं।’ कह कर उस ने फ़ोन काट दिया। दीपक परेशान हो गया। बावजूद इन परेशानियों के वह मुनमुन समस्या का समाधान चाहता था। यह समस्या जैसे उस के दिल पर बोझ बन गई थी। वह जैसे एक घुटन में जी रहा था। उस की आंखों के सामने एक गहरी धुंध थी और इस धुंध में से ही उसे कोई रास्ता ढूंढना था। दिल्ली की व्यर्थ की भागदौड़ भरी ज़िंदगी और इस की आपाधापी से वह इन दिनों यों ही तनाव में रहता था। तिस पर मुनमुन उस के दिलो-दिमाग़ पर सांघातिक तनाव बन कर सवार थी। उसे लगता था जैसे उस के दिमाग़ की नसें फट जाएंगी। जब-तब तिल-तिल कर मरती मुनमुन उस के सामने आ कर खड़ी हो जाती और पूछती, ‘भइया कुछ सोचा आप ने मेरे लिए?’

और वह हर बार निरुत्तर हो जाता।

यह क्या था?

बचपन में मामी के खिलाए पकवानों का कर्ज़ था?

या ननिहाल के नेह और मां के दूध का दर्द था?

कि मुनमुन ही के साथ हुए अन्याय के प्रतिकार का जुनून था?