बांसगांव की मुनमुन / भाग - 4 / दयानंद पाण्डेय

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रमेश गोला पहुंचा तो वाया बांसगांव वहां के वकीलों में यह ख़बर पहुंच चुकी थी। छोटी जगहों के यही सुख हैं कि ज़रा सी अच्छी ख़बर मिलते ही एक-एक आदमी जान जाता है। उस के देखने का नज़रिया बदल जाता है। अब रमेश गोला में वकील साहब से जज साहब बन चला था। ऐसा जज जिसे कोई भी छू कर देख सकता था। नहीं तो छोटी क्या बड़ी जगहों पर भी आम लोग जजों की परछाई भी नहीं देख पाते। उधर रमेश की पत्नी के स्कूल में भी उस की इज़्ज़त बढ़ गई थी। उस का भी प्रमोशन हो गया था। वह अब मस्टराइन या वकीलाइन से जजाइन बन गई थी। लोग खुद ही कहते, 'हां भई जजाइन तो अब यहां कुछ ही दिनों की मेहमान हैं।'

लेकिन दिल्ली थी कि दूर होती जा रही थी। ट्रेनिंग में बुलावे का इंतज़ार लंबा होता जा रहा था। माली हालत निरंतर बिगड़ती जा रही थी। जज होने का उल्लास पैसे के अभाव में टूटता जा रहा था। ख़ैर, कुछ महीने बाद ट्रेनिंग का लेटर आ गया। ट्रेनिंग के बाद पोस्टिंग भी हो गई। रमेश गया गोला परिवार और सामान लेने। गाढ़े समय में सब को मदद के लिए धन्यवाद दिया। पत्नी के स्कूल वाले चाहते थे कि वह उस के स्कूल भी आ जाए। वह गया भी। एक छोटा मोटा अभिनंदन समारोह हो गया। उस ने अपने संबोधन में अपनी सफलता के लिए इस स्कूल का योगदान रेखांकित किया। कहा कि, 'मेरी प्रैक्टिस तो कुछ ख़ास चलती नहीं थी। बाद के दिनों में तो मैं ने कचहरी जाना तक बंद कर दिया था। तो इस स्कूल में मेरी पत्नी की नौकरी से ही हमारी गृहस्थी, हमारी रोटी दाल चली। इस स्कूल के कारण ही हम सीना तान कर जी पाए। और यहां तक पहुंच पाए। इस स्कूल को मैं ज़िंदगी भर नहीं भूलूंगा। आप लोग जब भी, जैसे भी याद करेंगे, बुलाएंगे मैं हमेशा-हमेशा आप के पास आऊंगा, आप के साथ रहूंगा।' बोलते समय उस ने मंच पर बैठी पत्नी की ओर कनखियों से देखा, उस की आंख डबडबा आई थी। शायद मारे ख़ुशी के। स्कूल से चलते समय पत्नी ने प्रिंसिपल को इस्तीफ़ा सौंप दिया था।

उसे उम्मीद थी कि गोला और बांसगांव कचहरी के वकील भी बार एसोसिएशन की तरफ से शायद उस को स्वागत के लिए बुलाएं। पर किसी ने नोटिस भी नहीं ली। बुलाना तो दूर की बात थी। सामान कुछ ख़ास था नहीं। पर एक पिकअप वैन में भर कर जब वह पत्नी के साथ चला तो बोला, 'चलो यहां से आबोदाना उठ गया। देखो अब ज़िंदगी कहां-कहां ले जाती है।' पत्नी मुसकुरा कर रह गई।

'मैं नहीं जानता था कि आदमी का अपमान भी उसे तरक्क़ी के रास्ते पर ले जा सकता है। अब यह भी जान गया।' रमेश बोला, 'बताओ ये हमारे घर वाले, ये समाज, रिश्तेदार, पट्टीदार और ख़ास कर धीरज ने हमें अगर इतना अपमानित नहीं किया होता तो क्या हम आज जज साहब कहे जाते?' उस ने पत्नी को बांहों में भरते हुए कहा, 'और तुम्हारा प्यार, तुम्हारा समर्पण और तुम्हारा संघर्ष जो मेरे साथ नहीं होता तब भी नहीं। बल्कि मैं तो मर गया होता।' वह ज़रा रुका और बोला, 'एक बार तो मैं ने तय किया था कि जो अब की सेलेक्ट नहीं हुआ तो सपरिवार जीवन समाप्त कर लूंगा। यह अपराध तुम्हें आज बता रहा हूं।'

'अब तो ऐसा मत बोलिए।' कहते हुए पत्नी ने रमेश के मुंह पर हाथ रख दिया।

बाहुबली ठाकुरों के इस गांव बांसगांव, जो तहसील भी थी, में अब मुनक्का राय की धाक जम गई थी। बीच में जो लोग उन से कतराने लगे थे वह भी अब उन्हें प्रणाम करने लगे थे। कचहरी में ओमई भी अब बुझा-बुझा रहने लगा। मुनक्का राय को पहले देखते ही सीना तान कर चलने लगता था, अब सिर झुका लेता था और 'चाचा जी प्रणाम!' कह कर पैर भी छूता था।

पर गिरधारी राय?

उनकी हेकड़ी अभी भी बरक़रार थी। इतना सब होने पर भी वह मुनक्का राय को नीचा दिखाने का कोई मौक़ा नहीं चूकते थे। सिल्क का कुर्ता-जाकेट और टोपी लगाए अब वह नेता नाम से जाने जाने लगे थे। जाने क्यों क्या घर, क्या बाहर लोग उन्हें नेता जी नहीं, सिर्फ़ नेता ही कहते। और नेता को इस पर कोई विशेष ऐतराज़ भी नहीं था। बहुत बार लोग उन्हें नेता बाबा, नेता भइया या नेता चाचा कह कर संबोधित करते। और वह खैनी मलते, फटकते, फूंकते, खाते, थूकते मगन रहते। जब-तब तेज़ आवाज़ में हवा ख़ारिज करते घूमते रहते। कई बार तो वह जैसे कपड़े का थान फाड़ने जैसी आवाज़ लगातार करते। दिन गुज़रते जा रहे थे और बांसगांव की सांस में दोनों चचेरे भाइयों की पट्टीदारी राणा प्रताप बनी चेतक पर चढ़ी हुई थी। यह इबारत कोई भी साफ़ पढ़ सकता था।

पढ़ाई खत्म ही की थी राहुल ने कि उस की शादी का भी समय आ गया। विनीता ने शादी तय करवाई थी। लड़की थी तो इसी ज़िले की मूल पर थाईलैंड में थी। उस के माता पिता दो पीढ़ियों से वहीं थे। सो वह वहीं पैदा हुई और वहीं की नागरिक थी। राहुल को फ़ायदा यह था कि थाईलैंड की इस लड़की से शादी करने पर उसे वहां की नागरिकता मिल जाती और नौकरी भी आसानी से मिल जाती। बाक़ी भाइयों की तरह कंपटीशन वग़ैरह के मूड में वह नहीं था। वह फटाफट सब कुछ हासिल कर लेना चाहता था। रमेश और धीरज दोनों ने उसे समझाया और कहा कि, 'वैसे शादी करना चाहते हो तो कोई हर्ज नहीं। पर अगर इस लालच में कर रहे हो कि थाईलैंड की नागरिकता मिल जाएगी और वहां नौकरी पा जाओगे तो ऐसा मत करो।' पर राहुल को विनीता ने इस क़दर कनविंस कर लिया था कि वह किसी की सुनने को तैयार नहीं हुआ। मुनक्का राय ने भी संकेतों में ही सही कहा कि, 'टैलेंटेड हो, कैरियर अच्छा है। भाइयों की तरह कम्पटीशन में बैठो। कहीं न कहीं सेलेक्ट भी हो जाओगे।' उन्हों ने जोड़ा भी कि, 'अगर रमेश बुढ़ौती में भी सफलता प्राप्त कर सकता है तो तुम तो अभी गबरू जवान हो। अपनी एम.एस.सी. गारत मत करो इस तरह!'

लेकिन राहुल पर विनीता का जादू चल गया था।

अंततः लड़की वाले थाईलैंड से आए और राहुल को ब्याह ले गए। जी हां, जैसे लड़के वाले लड़की ब्याह कर ले जाते हैं वैसे ही राहुल की ससुराल वाले राहुल को ब्याह कर ले गए। बस ब्याह के बाद कोई दो महीने इंडिया में रहने का प्रोग्राम दुल्हन का पहले ही से बन कर आया था। कोर्ट मैरिज और वीज़ा आदि की फार्मेलिटीज़ के लिए। पासपोर्ट राहुल ने पहले ही से बनवा रखा था।

ख़ैर, इस शादी में मुनक्का राय को बाक़ी लड़कों की अपेक्षा दहेज आदि भी पर्याप्त रूप से मिला। आखि़र लड़का ए.डी.जी., ए.डी.एम. और बैंक मैनेजर का भाई था। लड़की वालों के पास थाईलैंड की कमाई थी और उसे दिखाने का शौक़ भी। धूमधाम से शादी हुई। बारात बांसगांव से शहर को गई। बारात में द्वारपूजा के बाद जज साहब, और उन के चाचा की खोज हुई। दोनों ग़ायब। दो तीन घंटे तक दोनों की यहां वहां खोज हुई। कहीं पता नहीं। बारात में गुपचुप सन्नाटा पसर गया। नौबत अब पुलिस में रिपोर्ट करने की आ गई। पर एक वकील साहब ने राय दी कि 'जल्दबाज़ी नहीं की जानी चाहिए। थोड़ी देर और इंतज़ार कर लिया जाए। रिपोर्ट तो बाद में भी लिखवाई जा सकती है।' बारात में सन्नाटा बढ़ता जा रहा था। सारी बारात की ख़ुशी मातम में बदल रही थी। द्वारपूजा के बाद रस्में रुक गई थीं। लोग कह रहे थे कि बांसगांव से तो दोनों ही चले थे। फिर तय हुआ कि बांसगांव घर पर फ़ोन कर के पूछ लिया जाए। लेकिन मुनक्का राय ने यह कह कर फ़ोन करने से रोक दिया कि, 'घर में सिर्फ़ औरतें हैं। और रो पीट कर पूरा बांसगांव इकट्ठा कर लेंगी। बदनामी भी होगी और भद्द भी पिटेगी।'

खाना-पीना हो चुका था। घराती बार-बार आ कर बारात में आगे की रस्मों के लिए ज़ोर डाल रहे थे। अगली रस्म त्याग-पात की थी जिसे पंडित जी लोग कन्या निरीक्षण कहते थे। इस रस्म को दुल्हे का बड़ा भाई संपन्न करवाता है। पर यहां बड़के भइया यानी जज साहब ही ग़ायब थे। सो जनवासे में मुर्दनी छाई पड़ी थी। एक आदमी ने तजवीज़ की कि ए.डी.एम. साहब या बैंक मैनेजर साहब से ही यह रस्म पूरी करवा ली जाए। पर ए.डी.एम. साहब यानी धीरज धीरे से बोला, 'जज साहब को आ जाने दीजिए।'

जज साहब आए अपने चाचा जी के साथ रात के कोई बारह बजे। सब की जान में जान आई। पता चला कि चाचा जी ने एक कुर्ता सिलने के लिए उर्दू बाज़ार में ख़ास दर्जी मटका टेलर्स को दिया था। ख़ास इसी बारात के लिए। दुकान पर पहुंचे तो पता चला कि जो दर्जी उस कुर्ते को सिल रहा था, उस दिन आया नहीं था। और कुर्ता चूंकि हाथ से सिलना था सो वह घर पर लेता गया था। और घर उस का शहर के पास ही एक गांव में था। चाचा जी अब उस के गांव गए। जज साहब की कार साथ में थी ही। दर्जी के गांव गए तो कुर्ते में कुछ काम बाक़ी था। काम करवाया। कुर्ता पहना और चले। रास्ते में जाम मिल गया। जाम से निकले तो गाड़ी ख़राब हो गई। फिर रिक्शा लिया और बारात में पहुंचे। मुनक्का राय यह सब सुन कर बहुत नाराज़ हुए। पर मौक़े की नज़ाकत देख कर बहुत बोले नहीं। उधर दुल्हा राहुल भी जज साहब पर कुपित हुआ। उन की वजह से उस की शादी में खरमंडल हो गया। यह बात वह आगे के दिनों में भी कभी नहीं भूला।

ख़ैर, शादी हुई। औपचारिकताएं पूरी हुईं। कोर्ट मैरिज और वीज़ा हुआ। राहुल को ले कर उस की दुल्हन थाईलैंड उड़ गई। अब बांसगांव में रह गए मुनक्का राय, उन की पत्नी और बेटी मुनमुन राय।

यह भी एक अजब संयोग था कि जैसे मुनक्का राय का परिवार बांसगांव में धीरे-धीरे जनसंख्या में कम हुआ, ठीक वैसे ही बांसगांव तहसील का भी क्षरण हो रहा था। आस पास के क़स्बे बढ़ रहे थे, विस्तार के पंख लगाए। पर बांसगांव ठिठुर रहा था, सिकुड़ रहा था। देश की जनसंख्या बढ़ रही थी, पर बांसगांव की न सिर्फ़ जनसंख्या बल्कि तहसील का रक़बा भी घट रहा था। 1885 में बनी इस तहसील में पहले लगभग बाइस सौ कुछ गांव थे। 1987 में दो नई तहसीलें गोला और खजनी बन जाने से अब बांसगांव में सिर्फ़ चार सौ पचीस गांव ही रह गए। कहां तो तमाम तहसीलें ज़िला बन रही थीं, कहां बांसगांव अपने तहसील होने के अस्तित्व पर ही हांफ रहा था।

1904 में बनी तहसील की बिल्डिंग भी ख़स्ताहाल हो चली थी। लेकिन बांसगांव के बाबू साहब लोगों की दबंगई और गुंडई अभी भी अपनी शान और रफ़्तार पर थी। और यह शान और रफ़्तार इतनी थी कि बांसगांव बसने के बजाय उजड़ रहा था। कोई व्यवसायी यहां फूलता फलता नहीं दिखता था। कोई उद्योग या रोज़गार था नहीं। ले दे कर एक कचहरी, एस.डी.एम. का दफ़्तर और कोतवाली थी। पोस्ट आफ़िस, ब्लाक का दफ़्तर और प्राथमिक चिकित्सालय था। एक लड़कों का और दूसरा लड़कियों का इंटर कालेज और एक प्राइवेट डिग्री कालेज था। पर इन सब के भरोसे कहीं आबादी बसती है? सड़कों में एक-एक फ़ीट के गडढ़े। दूसरे, बाबू साहब लोगों की दबंगई। उन की रंगदारी। चाय पी लें, पान खा लें। पैसा न दें। ग़लती से दुकानदार पैसा मांग ले तो उस को लातों-जूतों धुन दें। बाबू साहब लोग यहां पहले दर्जे के नागरिक थे। बाक़ी लोग दूसरे-तीसरे दर्जे के नागरिक। तिस पर कब गोली-बंदूक़ चल जाए कोई नहीं जानता था।

शहर की यूनिवर्सिटी में उन दिनों एक यह वाक़या अकसर घटता था। अव्वल तो बाबू साहब लोग पढ़ाई में यूनिवर्सिटी तक पहुंचते कम थे। पहुंचते भी थे तो पूरी दबंगई के साथ। बग़ल के ज़िले में भी दो गांव कईन और पैना बाबू साहब लोगों के ही थे। यूनिवर्सिटी में दबंगई चलती और अगला बताता कि हमारा घर कईन है तो लोग चुप लगा जाते। लेकिन अगर कोई दूसरा दबंग आ जाता और उस से कहता कि, 'तुम्हारा घर कईन है न? हमारा घर पैना है।' तो कईन वाला चुप हो जाता। और जो तीसरा आ कर बताता कि, 'हमारा घर बांसगांव है!' तो पैना वाला भी चुप हो जाता। तो यह थी बांसगांव की तासीर!

वैसे भी आस पास के गांवों में एक बात बड़ी मशहूर थी कि अगर सुबह-सबेरे कोई बांसगांव का नाम ले ले तो उसे दिन भर पानी नसीब नहीं होता। खाना तो दूर की बात। बांसगांव मतलब विपत्ति। बल्कि विपत्ति का पिटारा। मुनक्का राय के गांव में तो एक बुज़ुर्ग बड़े ठसके से कहते कि, 'मैं ने बांसगांव नहीं देखा है। आज तक नहीं गया।' कोई लड़का पूछ लेता तो गुस्सा हो जाते। कहते, 'कोई चोर चकार हूं क्या जो बांसगांव जाऊं?' मुख़्तसर में बांसगांव क्या था पूरा तालिबान था।

और ऐसे बांसगांव में मुनमुन जवान हो गई थी। अब हम कइसे चलीं डगरिया लोगवा नज़र लड़ावे ला गाना जो वह बचपन में सुन चुकी थी, उस की जवानी में साकार हो रहा था। उस की शेख़ी भरी शोख़ी बांसगांव में एक नई सनसनी परोस रही थी। कोई रोक छेंक नहीं थी। सहेलियां टोकतीं तो वह कहती- ख़ुदा जब हुस्न देता है, नज़ाकत आ ही जाती है।

मुनक्का राय और उन के अफ़सर बेटे उस के इस हुस्न और नज़ाकत से बेख़बर थे। राहुल की शादी के बाद भाइयों में जाने बारात में कुर्ते वाली घटना से या किस से मनमुटाव के बीज पड़ गए थे। या उन की व्यस्तता और शहरों की दूरी उन्हें दूर कर रही थी, समझना कठिन था। पर यह फ़र्क़ मुनक्का राय साफ़ महसूस कर रहे थे। अब न जज साहब, न ए.डी.एम. साहब, न बैंक मैनेजर साहब के फ़ोन आने कम हो गए थे बल्कि घर कैसे चल रहा है इस की सुधि भी कोई नहीं ले रहा था। अलबत्ता थाईलैंड से राहुल का फ़ोन हफ़्ते में एक दो बार ज़रूर आ जाता। बाद के दिनों में जब अम्मा ने घर ख़र्च और बीमारी, दवा की दिक्क़तें बताईं तो राहुल रेगुलर तो नहीं पर जब तब पैसे भी भेज देता। हवाला के ज़रिए। लेकिन जैसे बांसगांव की स्थिति बिगड़ रही थी, वैसे ही मुनक्का राय के घर की आर्थिक स्थिति भी बदतर होती जा रही थी। और ऐसे में जब फ़ोन का बिल चार हज़ार रुपए से अधिक का आ गया तो मुनक्का राय का माथा ठनका।

वह टेलीफ़ोन आफ़िस जा कर भिड़ गए और बताया कि, 'फ़ोन आता ज़्यादा है, किया कम जाता है।' पर एस.डी.ओ. कुछ सुनने को तैयार नहीं था। उस का कहना था, 'कम्प्यूटराइज़ बिल है इस में कुछ नहीं किया जा सकता। आगे से काल पर कंट्रोल कीजिए।' इस पर मुनक्का राय बोले, 'पर इस बिल को कहां से जमा करूं?'

'अरे आप के बेटे इतने बड़े-बड़े ओहदों पर हैं दिक्क़त क्या है?'

'अब क्या दिक्क़त हम बताएं आप को? और क्या समझेंगे आप?' मुनक्का राय तिलमिलाए।

'समझा नहीं।' एस.डी.ओ. बोला।

'अरे, अब किस बेटे के आगे हाथ फैलाऊं कि वह टेलीफ़ोन का बिल जमा करवा दे?'

'ओह!' एस.डी.ओ. समझ गया मुनक्का राय की मुश्किल। बोला, 'लाइए इस को दो पार्ट में कर देता हूं। दो बार में जमा कर दीजिएगा। पर फ़ोन पर या तो डायनमिक लाक ले लीजिए या बाज़ार वाला ताला लगा लीजिए। नहीं यह दिक्क़त हर बार आएगी।'

'क्यों आएगी?'

'क्यों कि फ़ोन तो हो रहा है। चाहे घर वाले कर रहे हों या बाहर वाले।'

'ठीक है।'

घर आ कर उन्हों ने समस्या बताई तो मुनमुन भड़क गई। बोली, 'मैं कहीं फ़ोन सोन नहीं करती।'

'मैं करता नहीं, तुम्हारी अम्मा करती नहीं, तुम करती नहीं तो कौन करता है? क्या भूत करता है?'

'अब हमें क्या मालूम?' मुनमुन फिर भड़क गई।

मुनक्का राय बेटी के इस भड़कने से व्यथित हो गए। डायनमिक लाक के कोड वग़ैरह उन को समझ में नहीं आए सो बाज़ार से ताला ला कर फ़ोन में लगा दिया। अगली बार बिल डेढ़ हजार रुपए का आया। मुनक्का राय ने फिर घर में झांय-झांय की और धमकी दी कि, 'अगर अगली बार भी बिल बढ़ा हुआ आया तो फ़ोन कटवा दूंगा।' पर टेलीफ़ोन का बिल चंद्रमा की तरह घटता-बढ़ता रहा लेकिन एवरेज बिल पर नहीं आया। दिक्क़त यह थी कि फ़ोन कटवाना भी व्यावहारिक नहीं था। बच्चों से संपर्क का यही एक सेतु था। ख़ास कर थाईलैंड में राहुल से संपर्क का। पर मुनमुन थी कि मान नहीं रही थी। इधर मुनक्का राय ने नोट किया कि राहुल के एक पुराने दोस्त का उन के घर आना जाना कुछ ज़्यादा ही बढ़ गया था। उन्हों ने पत्नी से पूछा भी कि, 'यह इतना हमारे घर क्यों आता जाता है।'

'राहुल का दोस्त है। हालचाल लेने आ जाता है।' पत्नी ने बताया।

'पर राहुल के रहने पर भी इतना नहीं आता था, अब क्यों आता है?' उन्हों ने पूछा कि, 'हमारे घर के हालचाल से इस को क्या मतलब?'

'आप तो बिना वजह शक करते हैं।'

'शक नहीं कर रहा। लेकिन घर में एक जवान बेटी है। फ़िक्र तो करनी ही पड़ती है।'

इधर मुनक्का राय की फ़िक्र, उधर बांसगांव की सड़कों पर मुनमुन राय का ज़िक्र। दोनों ही का ग्राफ़ बढ़ता जा रहा था। होने को विनीता और रीता भी इसी बांसगांव में जवान हुई थीं। पर मुनक्का राय को कभी उन की फ़िक्र नहीं करनी पड़ी। भाइयों का निरंतर बांसगांव आना-जाना और जब-तब बांसगांव में ही रह जाना एक बड़ा फ़ैक्टर था। उन दोनों बहनों को इस तरह बहकते-चहकते नहीं देखा बांसगांव ने। उन का ज़िक्र बांसगाव की सड़कों ने नहीं सुना। अंकुश में थी उन की जवानी और जवानी की धड़कन। लेकिन मुनमुन राय?

एक तो जज, अफ़सर और बैंक मैनेजर की बहन होने का ग़ुरूर। दूसरे, बूढ़े माता-पिता का ढीला अंकुश। तीसरे, जवानी का जादू। जिस में किसी दूसरे की रोक-टोक सिर्फ़ और सिर्फ़ ज़हर लगती है। मुनमुन को भी लगती थी। अब वह बी.ए. फ़ाइनल में पढ़ती थी और बांसगांव की सरहद लांघते ही राहुल के उस दोस्त की बाइक पर देखी जाती। कभी किसी मक्के के खेत में, कभी गन्ने या अरहर के खेत में उस के साथ बैठी बतियाती दिख जाती। और जब अकेले भी होती तो गाती चलती, 'सइयां जी दिलवा मांगे लैं अंगोछा बिछाई के।' वह गाती जाती, 'हम दिल दे चुके सनम!' अब वह मेक-अप भी ख़ूब करने लगी थी। बांसगांव में जब उस को कोई नया आदमी देखता और किसी से पूछता कि, 'कवन है ई भइया!' तो दूसरा जवाब देता, 'अरे अफ़सर और जज की बहन है।' फिर जोड़ता, 'मत देखो उधर नहीं, सब आंख निकाल लेंगे।'

पर बात जब ज़्यादा बढ़ी तो मुनक्का राय ने एक दिन घर में उस की जम कर क्लास ली। मुनमुन जवाब में कुछ कहने के बजाय सीधे उन के गले में दोनों हाथ डाल कर झूल गई। बिलकुल किसी नन्हीं गुड़िया की तरह। और बोली, 'लोगों की बातों में क्यों जाते हैं बाबू जी। क्या हम पर आप को विश्वास नहीं है।' वह बोली, 'किसी के साथ बाइक पर बैठ जाने या कहीं बैठ कर बात करने भर से क्या कोई लड़की आवारा हो जाती है? सोसाइटी बदल रही है बाबू जी, आप भी बदलिए। ये सड़े गले दक़ियानूसी ख़याल दिमाग़ से निकाल कर बाहर फेंक दीजिए। और हम पर विश्वास कीजिए।'

मुनक्का राय मान गए। रीझ गए बेटी के इस आधुनिक ख़याल पर। मिट गए उस के इस भोलेपन पर। पिता के वात्सल्य प्रेम का चश्मा उन की आंखों पर चढ़ गया। उन्हों ने अभी तक जैसे सभी बच्चों पर विश्वास किया था, आंख मूंद कर, मुनमुन पर भी कर लिया। उन्हीं दिनों वह अपने गांव गए। घर तो गिर कर घूर बन गया था। लेकिन खेती जो बटाई पर थी, उसी का हिसाब किताब करने। वहीं पता चला कि गांव के प्राइमरी स्कूल में शिक्षा मित्र की भर्ती होनी है। और कि गिरधारी राय अपनी एक बहू को शिक्षा मित्र प्रस्तावित करवा रहे हैं। मुनक्का राय के कान खड़े हो गए। उन्हों ने वहीं तय कर लिया कि गिरधारी को पटकनी देनी है। और चाहे जो हो जाए उन की बहू को शिक्षा मित्र नहीं बनने देना है। मुनक्का राय की आर्थिक स्थिति अभी बिगड़ रही थी, पर गिरधारी राय की आर्थिक स्थिति चरमरा गई थी। मुनक्का राय के पास बेटों की एक परदेदारी भी थी और वक्त बेवक्त बेटे काम भी आ सकते थे। आते ही थे। पर गिरधारी राय के सारे बेटे निकम्मे हो चुके थे, एक ओमई को छोड़ कर। और ओमई के यहां भी कोई पैसा बरस नहीं रहा था। वह भी जैसे तैसे गाड़ी खींच रहा था।

बहरहाल, मुनक्का राय ने निचले स्तर पर ग्राम प्रधान वग़ैरह के बजाय शहर जा कर सीधे बेसिक शिक्षा अधिकारी से मिलने की सोची। हालां कि इन दिनों हो यह गया था कि आदमी ज़िलाधिकारी से तो फिर भी मिल सकता था पर बेसिक शिक्षा अधिकारी तो गूलर का फूल था, ईद का चांद था। उस से मिलना भगवान से मिलना था। ख़ैर, बड़ी कोशिशों के बाद बेसिक शिक्षा अधिकारी मुनक्का राय को मिल गया। उन्हों ने अपने जज और ए.डी.एम. बेटे का हवाला दिया और बेटी मुनमुन को शिक्षा मित्र बनाने का प्रस्ताव रखा। बेसिक शिक्षा अधिकारी मुनक्का राय के पी.सी.एस. बेटे धीरज को जानता था। किसी ज़िले में कभी दोनों एक साथ थे। उस ने मुनक्का राय को पूरा आदर दिया और कहा कि, 'ऐसे भाइयों की बहन को शिक्षा मित्र बनना शोभा नहीं देगा।'

'पर हमारे सभी बच्चे स्वाभिमानी हैं। संघर्ष कर के ही आगे बढ़े हैं यह भी जगह पा जाएगी तो आगे बढ़ेगी। और फिर कोई यह शिक्षा मित्र की नौकरी ही तो अंतिम नहीं है। वह कंपटीशंस में बैठेगी, मेहनत करेगी और ज़रूर कहीं न कहीं हो जाएगी।' मुनक्का राय ने बेसिक शिक्षा अधिकारी को झांसा दिया। और वह मान गया। पर इधर मुनमुन तैयार नहीं थी। उस ने भी यही तर्क दिया कि जज और अफ़सर की बहन हो कर इतनी छोटी नौकरी। शिक्षा मित्र की नौकरी? मुनक्का राय ने समझाया कि अपने पैरों पर खड़ी होओगी और कि कोई काम छोटा या बड़ा नहीं होता। अंततः मुनमुन भी मान गई।

मुनक्का राय ने अप्लीकेशन तैयार करवाया, सर्टिफ़िकेटों की फ़ोटो कापी नत्थी की और दे आए बेसिक शिक्षा अधिकारी को। मुनमुन राय अब अपने गांव के स्कूल की शिक्षा मित्र हो गई। गिरधारी राय ने जब यह सुना तो अकबका गए। एक नज़दीकी से बोले भी कि, 'ई मुनक्का ने हम को पटकनी दी है। नहीं उस को क्या ज़रूरत थी अपनी बेटी को शिक्षा मित्र बनवाने की।' खैनी बगल में कोना देख कर थूकते हुए उन्हों ने जैसे जोड़ा, 'ज़रूरत तो हम को थी।' मुनमुन राय शिक्षा मित्र भले ही हो गई थी पर गिरधारी राय को उम्मीद थी कि वह यह नौकरी ज़्यादा दिन नहीं चला पाएगी। दो कारणों से। एक तो बांसगांव से गांव आते-जाते उस का पाउडर छूट जाएगा। फिर भी नहीं मानी तो शादी के बाद तो छोड़ेगी ही। वैसे उन्हों ने इसी बहाने मुनक्का के घर में भेद डालने की एक चाल भी चली। धीरज को गांव के एक आदमी से फ़ोन करवा कर यह ख़बर परोसवाई यह पूछते हुए कि, 'क्या तुम लोगों की कमाई कम पड़ रही थी जो फूल सी बहन को शिक्षा मित्र बनवा दिया?'

धीरज यह ख़बर सुनते ही भड़क गया। पलट कर बांसगांव फ़ोन किया। बाबू जी नहीं मिले, न ही मुनमुन। अम्मा मिलीं। अम्मा से ही उस ने अपना विरोध दर्ज किया। पर अम्मा ने एक सवाल कर उस की बोलती बंद कर दी। अम्मा बोलीं, 'बाबू तुम्हारे बाबू जी की प्रैक्टिस अब कितनी चलती है, तुम अब भले न जानो, पूरा बांसगांव जानता है। तुम जब मास्टर थे तो घर ख़र्च चलाते थे। अब अफ़सर होने के बाद घर का ख़र्च कैसे चल रहा है तुमने पूछा कभी?'