बांसगांव की मुनमुन / भाग - 9 / दयानंद पाण्डेय

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अम्मा मान गई थीं। फिर धीरज ने सोचा कि क्यों न शादी के दिन फ़ोर्स की भी व्यवस्था कर ले। एस.डी.एम. से कह कर सादे कपड़ों में पुलिस लगवाने की व्यवस्था करवा दी और एस.एस.पी. से कह कर घुड़सवार पुलिस भी स्वागत के लिए दरवाज़े पर तैनात करवाने की व्यवस्था कर ली। फिर उस घड़ी को कोसा जब बाबू जी ने बांसगांव में रहने का तय किया। अपने को भी कोसा कि क्यों यह घर बांसगांव जैसी लीचड़ जगह में बनवाया जहां की गुंडई की चर्चा पहले पहुंचती है, आदमी बाद में पहुंचता है। इस से अच्छा रहा होता कि उसने यह घर गांव में बनवाया होता। ख़ैर, अब तो जो होना था, हो गया था, आगे की सुधि लेनी थी। फ़िलहाल तो घर में रौनक़ थी। लगता ही नहीं था कि यह वही घर है जिस में मुनक्का राय, मुनमुन और उस की अम्मा संघर्ष भरे दिन गुज़ारते रहे हैं। एक-एक पैसे जोड़ते और तिल-तिल मरते रहे हैं। कभी दवाई के लिए तो कभी रोजमर्रा की चीज़ों के लिए।

अभी तो घर गुलज़ार था और चकाचक पुताई और सजावट से सराबोर चहकते और महकते लोगों से भरा यह घर यक़ीन दिला रहा था कि हां, इस घर में जज और अफ़सरों का बसेरा है। चिकने-चुपड़े बच्चे भी इस बात की तसदीक़ कर रहे थे। गिरधारी राय तक इस घर की ख़ुशी में खनकती सजावट और चहक की रिपोर्ट भी मुसलसल पहुंच रही थी। कुछ पट्टीदार और रिश्तेदार कबूतर बने हुए थे। पर गिरधारी राय पल-पल बेचैन थे। घर की ख़ुशियों और उस की खनक से नहीं बल्कि जो बबूल वह फ़ोन पर घनश्याम राय और उस के बेटे को परोसवा चुके थे, उस से आम की फसल कैसे मिल रही थी, इस से! उन्हें तो उम्मीद थी कि अब तक तो कोहराम मच जाएगा। पर यहां तो सब गुड-गुड न्यूज़ की बौछार थी। एक रिश्तेदार महिला जो प्रौढ़ा से वृद्धावस्था में जा रही थीं, शादी की तैयारियों, इंतज़ामात, ज़ेवरात वग़ैरह के ब्यौरे परोस रही थीं और गिरधारी राय के दिमाग़ में मक्खी भिनभिना रही थी। जब बहुत हो गया तो वह बुदबुदाए, ‘चार दिन की चांदनी फिर अंधेरी रात है!’

‘शुभ-शुभ बोलो भइया। अइसा काहें बोल रहे हो!’ रिश्तेदार महिला बोली।

‘अरे नहीं हम दूसरी बात पर बोल रहे हैं।’ कह कर गिरधारी राय ने बात काट दी।

खै़र, तय समय पर बारात आई। पर द्वारपूजा के ठीक पहले ख़ूब ज़ोरदार बारिश शुरू हो गई। सारी व्यवस्था थोड़ी देर के लिए छिन्न भिन्न हो गई। गिरधारी राय की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था। किसी ने मुनक्का राय से कहा कि, ‘बारिश तो बंद ही नहीं हो रही? क्या होगा?’

‘कुछ नहीं हमारे बेटे सब हैं न! सब संभाल लेंगे!’

‘ये बारिश भी संभाल लेंगे?’ पूछने वाला बिदका।

‘अरे नहीं, वह तो भगवान संभालेंगे। मैं तो व्यवस्था की बात कर रहा था।’

‘अच्छा-अच्छा!’

मुनक्का राय मुदित थे। मुदित थे; व्यवस्था पर, ताम झाम पर, बेटों की सक्रियता पर।

ख़ैर बारिश बंद हुई द्वारपूजा की तैयारियां शुरू र्हुइं। ज़मीन गीली हो गई थी। सो चार तख़त बिछा कर उसी पर द्वारपूजा के लिए तैयारी की गई। द्वारपूजा पर दामाद के पांव पूजते हुए मुनक्का की आंखें भर आईं। भर आईं यह सोच कर कि अब मुनमुन भी कुछ दिनों बाद चली जाएगी और वह अकेले रह जाएंगे, मुनमुन की अम्मा के साथ। छत से पड़ रही द्वारचार की अक्षतों के बीच जो औरतें फंेक रही थीं मुनक्का की ख़ुशी का भी कोई ठिकाना नहीं था। तिस पर बैंड बाजे पर बज रही छपरहिया धुन ने उन्हें इस बुढ़ौती में भी मस्त कर दिया। इतना कि द्वारपूजा के बाद तख़त पर से छटक कर कूदे और अपने पीछे बज रहे बैंड के बीच घुस कर नचनिया का नाच देखने लगे। उन के किसी रिश्तेदार ने बुदबुदा कर पूछा भी आंख मटका कर कि, ‘का हो मुनक्का बाबू?’

‘अरे बड़ा सुंदर नाच रहा है?’ वह बुदबुदाए और शरमा गए। शरमा कर वहां से छिटक गए।

बारातियों का जलपान वगै़रह संपन्न हो गया था और बाराती उस इंटर कालेज में लौट चुके थे जहां वह ठहराए गए थे। विवाह की बाक़ी तैयारियां और खाने पीने की व्यवस्था चल रही थी। दरवाजे़ पर रमेश कुछ लोगों के साथ बैठा था। लोग रमेश यानी जज साहब के पास आते और प्रणाम कह कर या चरण स्पर्श कर के आते जाते रहे। तभी मुनक्का राय के एक सहयोगी वकील दो लोगों के साथ आ गए। कुर्सियां कम थीं। अचानक एक ख़ाली कुर्सी पर वह बैठ गए और बड़ी बेफ़िक्री से बोले, ‘हे रमेश ज़रा जाओ उधर से दो तीन ठो कुर्सी उठा लाओ।’ वहां उपस्थित लोग भौंचकिया कर उन वकील साहब को देखने लगे। पर जिस बेफ़िक्री से वकील साहब ने रमेश से कुर्सी लाने को कहा था, उसी फुर्ती से रमेश उठ कर कुर्सी लेने चला गया। कुर्सी ला कर वह रख ही रहा था कि एक दूसरे वकील ने उन वकील साहब से बड़ी संजीदगी से कहा, ‘आप को पता है वकील साहब आप ने एक न्यायाधीश से कुर्सी मंगवाई है।’

‘अरे, क्या बोल रहे हैं आप?’ शर्मिंदा होते हुए वह बोले, ‘बेटा माफ़ करना मुझे याद नहीं था।’

‘अरे कोई बात नहीं चाचा जी!’ रमेश पूरी विनम्रता से बोला, ‘आप कहिए तो दो चार और कुर्सियां ला दूं?’

‘अरे नहीं, बेटा बस!’ वकील साहब हाथ जोड़ कर बोले।

‘अब यह हाथ जोड़ कर मुझे शर्मिंदा तो मत करिए।’ रमेश ने ख़ुद हाथ जोड़ कर कहा।

ऐसे ही कुछ न कुछ चलता-घटता रहा। फिर भसुर द्वारा त्याग-पात यानी कन्या निरीक्षण हुआ; जयमाल हुआ, खाना पीना हुआ। सब ने खाने की और इंतज़ाम की डट कर तारीफ़ की। क्या घराती, क्या बाराती सब ने। ज़्यादातर बाराती चले गए। घराती, पड़ोसी चले गए। रिमझिम बारिश के बीच विवाह की रस्में शुरू हुईं तब तक आधी रात हो चुकी थी। कहीं कुछ अप्रिय नहीं घटा। सब ने चैन की सांस ली। लावा परिछाई हुई, पांव पुजाई हुई, कन्यादान हुआ। सुबह हो गई पर बारिश की रिमझिम नहीं थमी। बीच रिमझिम ही नाश्ते के बाद कोहबर में दुल्हा-दुल्हन ने पासा खेला। माथ ढंकाई हुई और मड़वा अस्थिल की रस्में हुईं। दुल्हा दुल्हन की सखियों और घर की महिलाओं से मिला। बची खुची बारात जब विदा हुई तब भी रिमझिम थमी नहीं थी। दुल्हन विदा नहीं हुई। क्यों कि घनश्याम राय के यहां विवाह में दुल्हन की विदाई विवाह में सहती नहीं थी। गौना तय हुआ था बरस भर के भीतर।

ख़ैर, शादी ठीक निपट गई, यह सोच कर सब ने संतोष किया। पूरी शादी में रिश्तेदारों और परिवारीजनों ने यह भी नोट किया कि रमेश को बड़े भाई के नाते का सम्मान भी मिल गया था। बाक़ी बहनों की शादियों में नौकरों से भी गई बीती हैसियत हो गई थी उस की, अब की नहीं। रमेश भी सिर झुकाए नहीं, सिर उठाए घूम रहा था। मुनक्का राय भी हर्ष में थे।

और जैसा कि सभी शादियों में होता है कि बारात की विदाई के बाद जो जहां जगह पाता है, सो जाता है और जो रिश्तेदार रात में सो चुका होता है, वह विदाई की तैयारी में होता है। यहां भी वही मंज़र था। पर यहां थोड़ा फ़र्क़ भी था। दोपहर होते-होते रमेश, धीरज और तरुण भी सपरिवार बांसगांव से विदाई की तैयारी में थे। अम्मा ने टोकते हुए रोका भी कि, ‘अभी कई रस्में बाक़ी हैं। फूलसेरऊवा बाद जाते तो अच्छा था। पर इस सब के लिए किसी के पास समय नहीं था। सब की अपनी-अपनी व्यस्तताएं थीं। फिर हुआ यह कि घर में रिश्तेदार रह गए, घर वाले चले गए। मुनक्का राय का सारा हर्ष विषाद में बदल गया। बीच रिमझिम में ही तीन बेटे सपरिवार चले गए। सब के पास अपनी-अपनी गाड़ियां थीं। स्टार्ट हो गईं। बारी-बारी। अब रह गया था राहुल और उस का परिवार। विनीता और रीता दोनों बहनें, उन के पति और बच्चे। छिटपुट और रिश्तेदार। राहुल को अभी सारे बचे खुचे हिसाब किताब करने थे। सब की विदाई करनी थी। सब से छोटा होने के बावजूद उसे बड़ों की ज़िम्मेदारी निभानी पड़ रही थी। ख़र्च-वर्च की तो वह ख़ैर थाईलैंड से ही प्लानिंग कर के आया था। पर यह ज़िम्मेदारी भी निभानी पड़ेगी, उस ने सोचा नहीं था। बड़े भाइयों पर वह किंचित क्रोधित भी हुआ। वह अम्मा से कह भी रहा था कि, ‘मत कुछ करते लोग बस घर में बने रहते तो अच्छा लगता।’

‘हां, बेटा बारात जाते ही घर सूना हो गया। मुझे भी अच्छा नहीं लग रहा।’ अम्मा ने कहा।

दो दिन बाद राहुल भी चलने को तैयार हो गया तो अम्मा ने टोका कि, ‘तुम को तो बेटे अगले हफ़्ते जहाज़ पकड़नी थी?’

‘हां, है तो अगले हफ़्ते का ही जहाज़ पर दिल्ली में कुछ ज़रूरी काम हैं।’ वह बोला, ‘फिर सारे काम-धाम भी निपट गए हैं। कुछ बाक़ी तो रहा नहीं अब?’

‘हां, वो तो है पर दो चार दिन और रह जाते तो अच्छा लगता।’

‘नहीं अम्मा अब जाने दो!’

‘तो फिर अब कब आओगे?’ अम्मा बोलीं, ‘इस के गौने में तो आओगे न?’

‘कहां अम्मा?’ राहुल बोला, ‘इतनी जल्दी फिर छुट्टी और इतना ख़र्चा आने-जाने का। कहां आ पाऊंगा?’

‘हां, ख़र्चा तो तुम्हारा बहुत हो गया।’

अम्मा बोलीं, ‘पर जब मौक़ा मिले जल्दी आना।’

‘ठीक अम्मा।’ कह कर उस ने बाबू जी के भी पांव छुए। मुनक्का राय की आंखों में आंसू आ गए। वह फफक कर रो पड़े और राहुल से लिपट गए। रोते-रोते ही बोले, ‘बुढ़ापे में तुम ने मेरी लाठी बन कर मेरी लाज बचा ली। और क्या कहूं? तुमने बहुत किया।’

‘कुछ नहीं बाबू जी यह तो मेरा धर्म था।’ कह कर राहुल चलने लगा तो मुनमुन उस से लिपट कर फफक पड़ी।

‘अरे अभी तो तुम्हारी विदाई हो नहीं रही, तुम क्यों रो रही हो अभी से।’ राहुल ने हंसते हुए पूछा। पर वह चुपचाप आंसू बहाती रही। कृतज्ञता के आंसू। फिर राहुल ही उस का चेहरा हाथों में ले कर बोला, ‘अब घर की लाज तुम्हारे हाथों में है। अब कुछ ऐसा वैसा सुनने को न मिले तो अच्छा है।’

मुनमुन ने स्वीकृति में सिर हिला दिया। राहुल के जाने के बाद बाक़ी रिश्तेदार भी दो तीन दिन में चले गए। रह गए फिर वही तीन मुनक्का राय, मुनमुन और उस की अम्मा। फिर वही कचहरी, वह स्कूल, वही बीमारी, वही दवाई और वही रोज़मर्रा का संघर्ष।

मुनक्का राय एक दिन मुनमुन की अम्मा से बोले, ‘कैसा तो सांय-सांय कर रहा है घर!’

‘हां, उधर कुछ दिन के लिए कैसा तो गुलज़ार हो गया था घर। सब लोग इकट्ठे थे तो रौनक़ बढ़ गई थी।’ मुनमुन की अम्मा बोलीं।

‘लगता है जैसे यह घर, घर नहीं कोई गेस्ट हाऊस हो गया था। कि मुसाफ़िर आए। खाए-पिए, रहे और चले गए।’ घर की छत को निहारते हुए वह बोले, ‘जैसे किसी पेड़ पर पतझड़ बरपा हो गया हो।’

पर मुनमुन की अम्मा चुप हो गईं। मुनक्का राय के दुख को अपने दुख में मिला कर बड़ा नहीं करना चाहती थीं वह।

इधर मुनमुन ने भी शादी के बाद विवेक की ख़बर नहीं ली, न ही विवेक ने मुनमुन की। रास्तों में भी कहीं मुनमुन को विवेक नहीं मिला। दिखता भी भला कैसे? वह तो ज़मानत के बाद घर में घायल पड़ा दवाइयां खा रहा था। वह सोच नहीं पा रहा था कि उस का कसूर क्या था? जो पुलिस ने उसे फ़र्ज़ी तौर पर आर्म्स एक्ट मंे गिरफ़्तार कर के पिटाई कर जेल भेज दिया। बाइक चलाना, पान खाना, थोड़ी बहुत सिटियाबाजी बस यही तीन शौक़ थे उस के। कट्टा वग़ैरह का शौक़ कभी नहीं रहा उस को। यह बात उस के घर वाले भी जानते थे। पर पुलिस ने उस के पास कट्टा दिखा कर गिरफ़्तार कर लिया। वह भी बांसगांव की नहीं, गगहा की पुलिस ने। यह सब उस के और उस के परिवार की समझ से परे था।

ख़ैर, विवाह के बाद मुनमुन ने संयमित जीवन जीना शुरू कर दिया। उस की शेख़ी भरी शोख़ी जाने कहां बिला गई थी। उस की चाल भी बदल गई थी। अब वह पहले की तरह चपलता, चंचलता और मादकता जैसे भूल गई थी। मांग में ख़ूब चटक सिंदूर लगाए जब वह धीर गंभीर चाल में चलती तो लोग ताज्ज़ुब करते और कहते कि, ‘अरे क्या ये वही मुनमुन है? वही मनुमुन बहिनी?’

हां, अब मुनमुन बदल गई थी। यह वह पहले वाली मुनमुन नहीं थी। बांसगांव की सड़क भी यह दर्ज कर रही थी, उस के गांव का प्राइमरी स्कूल भी और लोग भी। आंख उठा कर लप-लप देखने वाली मुनमुन की आंखें अब नीची हो कर अपनी राह भर देखतीं। वह ख़ुद भी कभी अपने बारे में सोचती कि क्या विवाह एक लड़की को इतना बदल देता है? चुटकी भर सिंदूर का वज़न क्या इतना भारी होता है कि एक चंचल शोख़ लड़की गंभीर औरत में बदल जाती है? हैरत होती थी उसे अपने आप पर। कि उस की बाडी लैंगवेज इतनी बदल कैसे गई?

पर बदल तो गई थी।

लेकिन गिरधारी राय नहीं बदले थे। वह मुनमुन को बदनाम करना चाहते थे। ठीक वैसे ही जैसे कोई सड़क के किनारे-किनारे चल रहा हो और उस के पीछे से कोई मोटरसाइकिल, कोई कार, कोई जीप, कोई बस तेज़ रफ़्तार आए और सड़क किनारे के कींचड़ का छींटा अनायास उस पर मारती चली जाए। वैसे। पर मुनमुन में अचानक आए बदलाव ने उन की इस शकुनी बुद्धि पर लगाम लगा दी थी। फिर भी उन की बूढ़ी आंखें कीचड़ का छींटा कहां से मारा जाए, इस पर शोध करती रहीं।

गिरधारी राय की फ़ितरत थी कि वह अपनी इच्छाएं पूरी करने के लिए हमेशा दूसरों का, दूसरों के औज़ारों का इस्तेमाल करते। जैसे कि अगर किसी को मारना हो तो वह चाहते थे कि बंदूक़ भी किसी और की हो, कंधा भी किसी और का और ट्रिगर भी कोई और ही दबाए। बस निशाना भर उन का हो। और आदमी मार दिया जाता था। बांसगांव में लंठों और मूर्खों की ऐसी जमात बहुतायत में थी। जो गिरधारी राय या गिरधारी राय जैसों के हाथों इस्तेमाल होने के लिए ही जैसे पैदा हुई थी। ठाकुर बहुल बांसगांव में गिरधारी राय ख़ुराफ़ाती जीनियस यूं ही नहीं कहे जाते थे। खैनी बनाते, खाते, थूकते गांधी टोपी लगाते-उतारते बैठे-बैठे, बैठने की दिशा बदल कर ज़ोर से हवा ख़ारिज करते गिरधारी राय बड़ों-बड़ों को निपटा देते। हालां कि उन के पिता रामबली राय जब जीवित थे तो उन के लिए कहते थे ख़ाली दिमाग़ शैतान का घर! पर गिरधारी राय कहते कि, ‘इलाहाबाद यूनिवर्सिटी का पढ़ा हूं। और कोई कोदो दे कर नहीं पढ़ा हूं।’

एक बार एक पूर्व विधायक गिरधारी राय से उलझ गए। दबंग भी थे और ठाकुर भी। हमेशा गोली बंदूक़ लिए चार लोगों से घिरे रहते थे। देशी शराब की कई भट्टियां थीं, ईंट के भट्टे थे, कट्टे भी वह बनवाते थे अपने शोहदों के लिए। ठेका पट्टा भी करते थे। और सब कुछ खुले आम। कोई परदेदारी नहीं। उलटे स्थानीय प्रशासन भी उन से डरता था। क्यों कि तब के ठाकुर मुख्यमंत्री से उन के बिरादराना संबंध थे। बड़े संकट में पड़ गए थे गिरधारी राय। फिर भी उन विधायक महोदय को उन्हों ने अपनी ताक़त भर हिदायत दी और कहा कि, ‘हम से मत उलझिए बाबू साहब! नहीं जब सरे बाज़ार आप की पगड़ी उछलेगी तो पछताइएगा!’

‘जो उखाड़ना हो उखाड़ लेना गिरधारी राय!’ उन पूर्व विधायक ने अपनी मूछें ऐंठते हुए कहा था।

गिरधारी राय तब चुप हो गए थे। पर यह घाव वह किसी घायल नागिन की तरह सीने में दफ़न किए बैठे रहे। कुछ दिन बाद एक नया एस.डी.एम. आया। वह न तो प्रमोटी था, न पी.सी.एस.। बल्कि आई.ए.एस. था। बिहार का रहने वाला था। उस की पहली पोस्टिंग थी। ख़ूब लंबा चौड़ा। ईमानदारी और बहादुरी का भरपूर जज़्बा था। बस गिरधारी राय ने उसे कैच कर लिया। फ़ोन पर उस एस.डी.एम. को पूर्व विधायक बाबू साहब के ग्रास रूट लेबिल की पूरी कुंडली सौंप दी। और उसे चढ़ाते हुए कहा, ‘अभी तक के तो सारे एस.डी.एम. सब कुछ जानते हुए भी इस बाहुबली के सामने सरेंडर किए रहे हैं। लेकिन सुना है कि आप नौजवान हैं, बहादुर हैं और ईमानदार भी। सो आप से ही उम्मीद है!’

‘आप चिंता मत कीजिए!’ कह कर एस.डी.एम. ने फ़ोन काट दिया।

और सचमुच दो तीन दिन बाद से ही एस.डी.एम. ने उस पूर्व विधायक के देशी शराब की भट्टियों, कट्टों की फैक्ट्रियों, ईंट भट्टों पर छापेमारी शुरू कर दी। हफ़्ते भर में ही पूर्व विधायक के ग्रास रूट लेबिल के सारे कारोबार छिन्न भिन्न हो गए। एक रात उस पूर्व विधायक ने एस.डी.एम. को फ़ोन कर पहले तो चेतावनी दी फिर मां बहन की गालियों से नवाज़ा। और कहा कि, ‘नौकरी करनी हो तो सुधर जाओ वरना कटवा कर फेंकवा दूंगा।’ और उधर से एस.डी.एम. कुछ कहता उस के पहले ही फ़ोन काट दिया। एक दिन वह पूर्व विधायक महोदय अपने पूरे दल-बल के साथ बांसगांव बाज़ार से गुज़र रहे थे। उसी बीच एस.डी.एम. भी सी.ओ. पुलिस और एस.ओ. बांसगांव सहित बाज़ार से गुज़रा। एक साथ इतने हथियार बंद लोगों को देख कर एस.डी.एम. भड़का और सी.ओ. से पूछा, ‘यह कौन जा रहा है, किस का कारवां है?’ सी.ओ. ने फुसफुसा कर उस पूर्व विधायक का नाम लिया। तो एस.डी.एम. और भड़क गया। सी.ओ. से बोला, ‘इसे फ़ौरन अरेस्ट करवाइए!’ सी.ओ. प्रमोटी भी था और अधेड़ भी। अचकचाते हुए बोला, ‘सर, इस तरह बाज़ार में?’ उस ने जोड़ा, ‘ठीक नहीं रहेगा।’

‘यहीं ठीक रहेगा।’ कह कर एस.डी.एम. ने अपनी जीप पूर्व विधायक के सामने ले जा कर रुकवा दी। और ड्राइवर से पूछा, ‘इन में से वह कौन है?’ ड्राइवर ने धीरे से इंगित कर दिया। एस.डी.एम. जीप से उतर कर सीधे उस बाहुबली पूर्व विधायक के पास चला गया। पीछे-पीछे पूरी फोर्स मय सी.ओ. और एस.ओ. के।

‘आप ही पूर्व विधायक मिस्टर चंद हैं?’

‘हूं तो, तुम कौन?’

‘मैं यहां का एस.डी.एम. हूं।’

‘ओह तो तुम्हारा दिमाग इतना ख़राब क्यों है?’

‘वह तो बाद में बताऊंगा।’ एस.डी.एम. बोला, ‘पहले आप बताइए आप उस रात भद्दी-भद्दी गालियां क्यों दे रहे थे?’

‘कहो कि गालियों से ही तुम्हें माफ़ कर दिया। नहीं मन तो हो रहा था कि तुम्हारा सिर कलम करवा दूं।’ कह कर पूर्व विधायक ने फिर से एस.डी.एम. पर मां बहन सहित गालियों की पूरी कारतूस ख़ाली कर दी।

एस.डी.एम. ने फिर से सी.ओ. की तरफ़ घूर कर देखा। पर सी.ओ. ने इशारों-इशारों में संकेत दिया कि यहां से निकल लिया जाए। पर एस.डी.एम. बुदबुदाया, ‘तुम सब कायर हो।’ और ख़ुद पूर्व विधायक पर झपट पड़ा। तड़ातड़ तीन चार थप्पड़ जड़े और गरेबान पकड़ कर नीचे ज़मीन पर ढकेल दिया। ज़मीन पर गिरते ही एस.डी.एम. ने तीन चार लात भी रसीद कर दिए। और बोला, ‘बहुत बड़े गुंडे हो, बहुत बड़ी ताक़त समझते हो अपने आप को?’

वह बोला, ‘आइंदा से गालियां देने की हिम्मत मत करना और सारे नाजायज़ धंधे बंद कर लो वरना बंद कर दूंगा। और ऐसी-ऐसी धाराएं लगाऊंगा कि हाईकोर्ट से भी जमानत नहीं पाओगे!’

‘तुम्हारी नौकरी खा जाऊंगा!’ बाहुबली पूर्व विधायक ज़मीन पर लेटे-लेटे गुर्राया, ‘तुम को मालूम नहीं है कि तुम ने किस पर हाथ उठाया है।’