बाजार जो सपने बेचता है / राकेश बिहारी

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'माँ मुझको बाजार ले चलो / बहुत कहा इक बार ले चलो / दिन भी है इतवार ले चलो... '

बाजार की चर्चा चलते ही लगभग तीन दशक पूर्व तीसरी या चौथी जमात में पढ़ी एक कविता की ये पंक्तियाँ जरूर याद हो आती हैं। आगे की पंक्तियाँ शब्दशः याद नहीं लेकिन भाव यह था कि लाख कहने के बावजूद जब बच्चे को माँ बाजार नहीं ले जाती, बच्चा हार कर कहता है कि ठीक है तुम ही जाओ लेकिन सब्जियाँ वही लाना जो मुझे पसंद हैं। उक्त बाल कविता के कथ्य और उसमें व्याप्त मनोविज्ञान पर गौर करें तो बाजार के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण बात सामने आती है कि बाजार चयन का केंद्र है। बाजार के साग-सब्जी भर खरीदने-बेचने की जगह होने की अवधारणा तो गए जमाने की बात हो गई लेकिन उसके चयन-केंद्र होने की धारणा आज भी बनी हुई है। आज बाजार का स्वरूप इतना बदल चुका है कि वहाँ तक चल कर जाने या किसी खास दिन का इंतजार करने की जरूरत नहीं रह गई। खास कर भूमंडलीकरण के पश्चात तो यह घर-घर में दाखिल हो चुका है। चयन के सभी विकल्प कहीं न कहीं हमें मनुष्य से उप्भोक्ता बनाने की जुगत में लगे हैं। ऐसे में चयन के अनगिनत विकल्पों के बीच अपने मन का कुछ भी न चुन पाने की विवशता आज हमें बाजार के सर्वथा नए रूप से परिचित करा रहा है। बदलते व्यावसायिक आचार-व्यवहारों के बीच बाजार का यह नया चेहरा अपनी सुंदरता और भयावहता दोनों ही रूपों में अभूतपूर्व है। बाजार का यह नवीनतम चेहरा जहाँ रोजगार और व्यापार की नई अर्गलाएँ खोल रहा है वहीं हमारी मुश्किलें भी बढ़ रही हैं। नतीजतन बेहतर भविष्य और दुनिया का सपना सिरजने की बजाय आज हम सपनों की खरीद-फरोख्त में लग गए हैं। पिछले दशक की कुछ चुनिंदा कहानियों के माध्यम से हम यहाँ बाजार और व्यवासाय के इसी पल-पल बदलते चेहरे की शिनाख्त करने की कोशिश करेंगे।

'एक सफेद दाढ़ी वाला बूढ़ा जादूगर था। वह अपने सामने पड़नेवालों के मन को जिस्म से अलग कर देता और उनके मन को अपनी तलहथी पर धर लेता। तब उस मन पर सिर्फ तलहथी का वश रह जाता। मन उछल कर उधर ही गिरता, जिधर तलहथी उसे उछालकर गिराना चाहती थी। इस मायावी बूढ़े जादूगर का संसारी नाम था - बाजार।' हंस में प्रकाशित चर्चित युवा कथाकार नीलाक्षी सिंह की सर्वाधिक चर्चित कहानियों में से एक 'टेकबे त टेक न त गो' की ये पंक्तियाँ बाजार के बुनियादी चरित्र को समझने का बहुत ही सहज लेकिन जरूरी सूत्र हमें थमाती है। बाजार जो अपनी आरंभिक अवस्था में हमारे सामने चयन के कई-कई विकल्पों के दरवाजे खोलता है, हमारे मन में उत्सुकता और कौतूहल के बीज बोता है, धीरे-धीरे हमारी आदतें बिगाड़ने के बाद हमारे मन पर कब्जा जमा हमें ग्राहक से उपभोक्ता और फिर उपभोक्ता से गुलाम में बदल देता है। एक अदृश्य सम्मोहन और बेनाम नशे की जद में हमारे शरीर से हमारे मन को अलग कर अपनी तलहथी पर धर लेने की बाजार की इसी चतुराई के पीछे बाजारवाद की कुंजी छुपी है।

उल्लेखनीय है कि नीलाक्षी सिंह बाजार की जो परिभाषा यहाँ पेश करती हैं, यह कहानी बाजार के उस चरित्र का कोई हौवा खड़ा नहीं करती। बल्कि उसी बाजार के भीतर डूब कर कुछ ऐसे उपकरण और सूत्र खोज लाती है जो एक स्त्री की अस्मिता और जलेबी, कचरी को पीजा और बर्गर से बचाने के बहाने बाजार के एक सर्वथा अलग रूप को हमारे सामने ला खड़ा करती है। यहाँ बाजार पहचान का संकट ले कर नहीं बल्कि पहचान के संकट से जूझ कर उबरने का नया तरीका ले कर आता है। पिछले दस पंद्रह वर्ष की कहानियों पर चरित्रों के खो देने का या यूँ कहें कि कोई मजबूत और यादगार चरित्र नहीं रच पाने का आरोप लगता रहा है। चरित्रों के लुप्त होने की यह बात कहानियों से ज्यादा हमारे समय और समाज पर लागू होती है। ऐसे समय में जब तथाकथित सभ्य और आभिजात्य समाज की स्त्रियाँ मिसेज शर्मा, मिसेज वर्मा आदि-आदि के नाम से जानी जाती हों, चिल्लागंज चौमुहानी जो ठीक से एक कस्बा भी नहीं है की दुलारी का परिचय देते हुए कहानीकार का यह कहना कि 'दुलारी पहले दुलारी थी, छक्कन प्रसाद की पत्नी बाद में', स्याह अँधेरे के बीच रोशनी के एक ऐसे कतरे की तरफ इशारा करना है जिसके आलोक में हम अपने समय के नए चरित्रों की शिनाख्त कर सकते हैं। तभी तो दुलारी उन पत्नियों में से नहीं है जो दूसरे लोक में जाते पतियों के पीछे-पीछे उनका अनुसरण करती चली जाती है। वह तो भूमंडलीकरण के बाद की एक ऐसी स्वतंत्रचेता स्त्री है जो अपने पति के पीछे-पीछे उसके फास्ट फूड सेंटर में जाने के बजाय जिलेबी-कचरी की अपनी पुरानी दुकान को जिंदा रखने के संघर्ष में जुट जाती है और ऐसा हो भी क्यों नहीं, कचरी और जिलेबी उसकी दुकान में बिकनेवाली चीज न हो कर उसके अपने होने की शर्त जो हैं। व्यक्ति को उपभोक्ता में तब्दील कर देने वाले बाजार की छाती पर खड़ी हो कर दुकान में बिकने वाली चीज को एक स्त्री के होने और जीने की संघर्ष यात्रा का प्रतीक बना देने वाली यह कहानी भूमंडलीकरण के बाद पल-बढ़ रहे समाज और बाजार के व्यवहारों के नए प्रस्थान बिंदु तलाशती है।

दुलारी और छक्कन प्रसाद के अतिरिक्त इस कहानी में दो और महत्वपूर्ण पात्र हैं। एक मुसमातिन और दूसरा दुलारी और छक्कन प्रसाद का बेटा मिंटू। उल्लेखनीय है कि 'सफेद दाढ़ी वाला बूढ़ा जादूगर' जिसे नीलाक्षी सिंह बाजार कहती है, के इर्द गिर्द ही इन चारों पात्रों का विस्तार होता है जिसके बहाने हम बाजार के चरित्र का चतुष्कोणीय प्रभाव भी देख सकते हैं। इस बूढ़े जादूगर के पास जाते ही सबसे पहला बदलाव छक्कन प्रसाद के जीवन में आता है। उसके भीतर एक महत्वाकांक्षा सिर उठाती है। वह अपनी जरूरतों और इच्छाओं को एक अपरिमित विस्तार देना चाहता है। एक मामूली हलवाई का बेटा छक्कन प्रसाद ताउम्र सिर्फ छक्कन प्रसाद ही बन कर नहीं जीना चाहता। नतीजतन उसने पहले जिलेबी कचरी की दुकान छोड़ कर समोसे, लालजामुन और कचौड़ियों की दुकान खोल ली। लेकिन यह बूढ़ा जादूगर जल्दी ही उसकी इस महत्वाकांक्षा को कभी न खत्म होनेवाले लोभ में परिणत कर देता है और एक दिन यही छक्कन प्रसाद जोश से शुरू किए समोसे गुलाबजामुन की दुकान को भी अलविदा कहते हुए फास्ट फूड सेंटर खोल लेता है। दुलारी छक्कन की अनुगामिनी भर नहीं रह कर कचरी और जलेबी को बचाने के बहाने खुद के अस्तित्व की लड़ाई लड़ती है। छक्कन प्रसाद की नई दुकान दुलारी और मुसमातिन दोनों के लिए चुनौती है। दुलारी को जहाँ अपनी आत्मा बचानी थी वहीं मुसमातिन को अपना जीवन बचाना था। जीवन बचाने की लड़ाई को जारी रखने के लिए मुसमातिन चौमुहानी से कुछ दूर हटकर अपनी दुकान एक दूसरे हाट में जमाने लगती है जिसे बाजार की भाषा में हम नए ग्राहक वर्ग की तलाश कह सकते हैं। इधर अकेली दुलारी अपनी आत्मा की लड़ाई को जैसे-तैसे आगे बढ़ा रही है। उसे कचरी-जिलेबी के साथ खुद को भी बचाना है लेकिन उसके औजार पुराने हैं ऐसे में उसका बेटा मिंटू एक नया सवाल ले कर खड़ा होता है - 'माँ, क्या तुम बाजार में इस तरह टिक पाओगी?' ध्यान देने योग्य है कि बाजार में टिकने का यह प्रश्न उठाने वाला मिंटू अगली पीढ़ी का लड़का है जो सिर्फ सवाल ही नहीं उछालता अपनी माँ के हाथों में लड़ाई जारी रखने का एक नया उपकरण भी थमाता है - 'चार जलेबियों की खरीद पर दो कचरी और एक कप चाय मुफ्त'। बाजार का एक एक नया मोहिनी मंत्र जो कस्बे के अन्य लोगों के साथ 'छक्कन प्रसाद एंड सन्स, फास्ट फूड सेंटर' के मालिक छक्कन प्रसाद को भी अपने वश में करना जानता है। कहानी के इसी उत्कर्ष बिंदु पर 'माइंड बिहाइंड द सीन' मिंटू उस्ताद का अपनी सीटियों पर 'टेक बे त टेक न त गो' की धुन निकालना भी अपने भीतर एक गहरी अर्थवता छुपाए हुए है। इस धुन को क्या क्या कहा जाए एक स्त्री के अस्मिता संघर्ष में जीत जाने का उत्सव या बाजार के और फैल जाने की सफलता से उत्पन्न ठसक। दोनों स्थितियाँ विपरीतधर्मी हैं। एक का नायक जहाँ बाजार की पीठ पर सवार है वहीं दूसरा उसकी तलहथी पर बैठा है। भूमंडलीकृत बाजार आज हमारे सामने पीठ और तलहथी में से किसी एक को चुनने की चुनौती पेश कर रहा है।

भूमंडलीकरण के बाद आर्थिक क्षेत्र में हुए परिवर्तनों ने जहाँ व्यवसाय और रोजगार के नए अवसर पैदा किए है वहीं नए व्यावसायिक मूल्यों का सृजन भी किया है। कमीशन एजेंट को किसी जमाने में भले ही दलाल या दल्ला जैसे अपमानजनक शब्दों से संबोधित किया जाता रहा हो लेकिन नए व्यावसायिक माहौल में यह एक सम्मानजनक पेशा है। बल्कि सच तो यह है कि खुली अर्थव्यवस्था में पारिश्रमिक और प्रतिफल का एक बड़ा हिस्सा कमीशन के रूप में ही दिया-लिया जाता है। सच है कि इस उन्मुक्त व्यवस्था ने कुछ लोगों के जीवन में खुशियों की कुछ नई तहरीरें भी लिखी हैं लेकिन समाज का एक बड़ा हिस्सा इसके व्यामोह में फँस कर जिंदगी की उलझनों को सुलझाने के चक्कर में और उलझ कर रह गया है। वागर्थ में प्रकाशित पंकज मित्र की उल्लेखनीय कहानी 'बे ला का भू' का मुख्य पात्र बेचू लाल गुप्ता इसी तबके का प्रतिनिधि चरित्र है जिसकी जिंदगी उन्मुक्त बाजार की उमगती-इठलाती चाल से इतनी बुरी तरह प्रभावित है कि अपनी साख खो कर अपने आस-पास के लोगों से मुँह चुराता हुआ वह जीते जी भूत बन गया है। बेचू लाल जो हाड़तोड़ परिश्रम के बदौलत शनैः-शनैः तरक्की की सीढ़ियाँ चढ़ रहा था ओ.पी. सर द्वारा दिखाए तथाकथित बड़े सपनों के मायाजाल में ऐसा फँसता है कि क्या पड़ोसी क्या रिश्तेदार एक दिन वह खुद से भी दूर जा बैठता है, इतनी दूर जहाँ लोगों की पकड़ में आ जाने का भय उसे जीवित ही भूत बनने को मजबूर कर देता है। यह नई व्यवस्था पहले रिश्ते नाते दारों की बलि माँगती है फिर खुद की। तभी तो एक दिन उत्साह में ओ.पी. सर को भइया कह जाने पर ओ.पी. बेचू से कहता है - 'दिस इज बिजनेस। यहाँ भैया, चाचा ये सब नहीं चलता है। गीता पढ़ी है तुमने। कोई किसी का नहीं है। सब अपना काम करने आए हैं। सो कॉल मी ओनली ओ.पी. ऑर ओ.पी. सर, अंडरस्टैंड।'

हर प्रगति के मूल में कोई न कोई सपना होता है। जिसकी आँखों ने सपने नहीं देखे वह भला तरक्की की सीढ़ियाँ क्या चढ़ेगा। लेकिन सपना देखना-दिखाना एक व्यवसाय बन जाय तो...? कहने की जरूरत नहीं कि सपनों का व्यावसायीकरण मूलतः सपना देखने की सहज-स्वाभाविक मानवीय वृत्ति के बहाने भोले-भाले लोगों को भावनात्मक रूप से ब्लैकमेल कर उनकी जिंदगी में एक नया अँधेरा भर देने की साजिश है। भूमंडलीकरण के बाद के व्यावसायिक परिदृश्य में सपनों के व्यापार का एक ऐसा सिलसिला चल पड़ा है जिसने क्या शहर, क्या महानगर यहाँ तक कि छोटे-छोटे गाँव-कस्बों के लोगों तक की आँखों में स्वप्न और यूटोपिया के नाम पर येन केन प्रकारेण रातों रात करोड़पति बन जाने की एक अंतहीन महत्वाकांक्षा के बीज रोप दिए हैं। एक ऐसी अंधी और स्वार्थी महत्वाकांक्षा जो सिर्फ पैसे बनाना जानती है और जिसके लिए हर व्यक्ति एक 'प्रॉफिट सेंटर' तथा हर रिश्तेदार एक 'पोटैंशियल कस्टमर' होता है। सपनों की खरीद-फरोख्त का यह धंधा दर असल पूँजी और उसके निर्माण का एक ऐसा खेल है जिसकी गिरफ्त में बेचू लाल जैसे बेरोजगार और निरीह लोग आसानी से आ फँसते हैं। बेचू लाल से बी.एल. गुप्ता और फिर बी.एल. गुप्ता से 'बे ला का भू' यानी बेचू लाल का भूत बन जाने की इस कहानी के बहाने पंकज मित्र ने सपनों के कारोबार की एक ऐसी दुनिया से हमारा परिचय कराया है जिसके मूल में ठगी और धोखा के सिवा कुछ नहीं है। कहानी के एक छोर पर बेचू लाल है तो दूसरे छोर पर ओ.पी. और दोनों के बीच महतो चा, शकीला बुआ और नारायण चा जैसे अनेकानेक लोग। ओ.पी. की नजर इन्हीं चाचाओं-बुआओं की मेहनत की कमाई पर है। बेचू लाल तो एक माध्यम भर है जिसकी उँगली पकड़ कर वह उन्हें लूट लेना चाहता है। लूट लेना क्या चाहता है एक दिन लूट ही लेता है। सपने दिखा कर लूट लेने वाले ओ.पी. का क्या, वह आज 'मोर एंड मोर इंवेस्टमेंट्स एंड मार्केटिंग' का ध्वजवाहक है तो कल 'ड्रीमवे' का। उसके लिए कपड़े की तरह नौकरी बदल लेना बहुत ही आसान है लेकिन बी.एल. जो भीतर से अब भी बेचू ही है कहाँ जाए। उसकी गति तो साँप छछुंदर की सी है... वह कंपनी छोड़कर भी महतो चा, शकीला बुआ और नारायण चा को छोड़ नहीं सकता। बेचू ओ.पी. की तरह कंपनी बदल कर सुखी नहीं रह सकता ना ही 'मोर एंड मोर इंवेस्टमेंट' के बड़े अधिकारियों वर्मा जी, खोसला साहब और पोद्दर जी की तरह अपना मोबाइल नंबर बदल कर अपना अस्तित्व बदल सकता है। ऐसे में भूत बन जाने के अलावा उसके पास क्या रास्ता है। लेकिन भूत बनने का बेचू का यह निर्णय महज पलायन नहीं है, वह तो खुद को मार कर भी लोगों का पैसा चुका देना चाहता है। वह तो भूत बन कर भी भूत नहीं बन सका और अपने भूत योनि के बरस दर बरस बीतने की गिनती कर रहा है ताकि लोग उसे सचमुच का मृत मान लें। भूत बने बेचू की यह योजना आप भी देखिए - 'गिनो। गिनो ये सब लाइन। तीन साल कंप्लीट। सात साल पूरा कि बी.एल. मरा। बी.एल. मरेगा, इन्श्योरेन्स मिलेगा। सबका पाई-पाई चुका देगा बी.एल.। महतो चा, शकीला बुआ, नारायण चा सबका... कहिएगा मत किसी से, किसी को भी कि हम जिंदा हैं। चुका देंगे, सबका चुका देंगे तभी छुटकारा होगा भूत योनि से।' नई कर्ज-व्यवस्था का शिकार बेचू एक ऐसे वर्ग का प्रतिनिधि है जो यह नहीं समझाता कि सपनों की इस भूलभुलैया से निकलना और इस भूत योनि से छुटकारा पाना इतना आसान नहीं। यह तो एक ऐसा दलदल है जिससे निकलने के क्रम में आदमी और फँसता ही जाता है।

यूँ तो कर्ज लेना-देना व्यापर और वाणिज्य की शुरुआती विशेषताओं में से एक है। लेकिन उदारीकरण के बाद कर्ज-व्यवसाय को जैसे अनगिनत पंख लग गए हैं। मध्यमवर्गीय महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए बैंकों के बीच उधार बाँटने के लिए जैसे होड़ सी लगी है। कर्ज लेने से ज्यादा बाँटने और बेचने की चीज हो गई है। आप सपने देखिए और आपके सपनों के पीछे देश और दुनिया के तमाम सरकारी और निजी बैंक अकल्पनीय सुविधाओं के चमचमाते रैपर में लपेट कर अपने लोन स्कीम के नए-नए प्रोडक्ट्स ले कर आपकी सेवा में हाजिर मिलेंगे। लेकिन बिना वसूली के कर्ज एक अपूर्ण उत्पाद है। नए जमाने ने जहाँ नए-नए तरह के कर्जों को हमारे सामने पेश किया है वहीं उनकी उगाही के लिए नई-नई तकनीकें भी विकसित की है। परिणामस्वरूप 'रिकवरी मैनेजमेंट' यानी वसूली प्रबंधन आज एक नए व्यवसायिक अनुशासन के रूप में हमारे समक्ष मौजूद है। पहल 88 में प्रकाशित चंदन पांडेय की कहानी 'मित्र की उदासी' इसी नए व्यवसाय की बारीकियों और उससे उत्पन्न नई विडंबनाओं को उजागर करती है। यूँ तो एम.एफ.एस.एल. यानी माता फाइनेंसियल सेक्योरिटीज लिमिटेड के रूप में व्यावसायिक स्तर पर चंदन पांडेय की यह कहानी 'बे ला का भू' के 'मोर एंड मोर इन्वेस्टमेंट' का प्रतिपक्ष रचती है लेकिन नए समय के दो अलग-अलग व्यव्सायों का चरित्र उजागर करती ये कहानियाँ कहीं न कहीं एक जैसे व्यावसायिक सत्यों को ही अनावृत करती दिखती हैं। मसलन रिश्ते-नातों को भूलना व्यावसायिक सफलता की पहली शर्त है, चाहे वह कोई भी व्यवसाय क्यों न हो उसकी सफलता का राज बिचौलियों की नाभि में ही छिपा होता है, भावना और संवेदना जैसे शब्द अपनी प्रकृति से ही व्यवसाय या यूँ कहें कि सफलता विरोधी हैं आदि-आदि। मतलब यह कि दो तरह की दिखती ये कहानियाँ कहीं न कहीं एक दूसरे का विस्तार या पूरक भी हैं।

इन कहानियों से गुजरते हुए इस बात को भी साफ-साफ रेखांकित किया जा सकता है कि अपने उत्पादों को बेचने के लिए नए जमाने के व्यवसायी किस तरह दर्शन को एक 'सेल्स टेकनीक' की तरह उपयोग में लाते हैं। उल्लेखनीय है कि 'बे ला का भू' में बेचू लाल को उसकी दुविधाओं से उबारने के लिए ओ.पी. जहाँ गीता के निष्काम कर्म और निरपेक्ष संबंध के सूत्रों की दुहाई देता है वहीं 'मित्र की उदासी' में रिकवरी एजेंट बना सलोने सिंह अयोध्या प्रसाद के प्रश्न 'कहाँ से लाएँ पैसा' के जवाब में बेहद आत्मीय ढंग से ठंडी और डरावनी सलाह देते हुए कहता है - 'अयोध्या बाबू, ये जीवन क्षणभंगुर है। योगिनी का जीवन जियो। जो आज है, कल नहीं रहेगा। फिर क्यों ये घर रखे हो? सादा जीवन, उच्च विचार। किराए का कमरा लो और मस्त रहो। तुम क्या ले कर आए थे, जो तुमने खो दिया। स्त्री नरक का मार्ग है - परित्याग करो, खर्च कम हो जाएगा। ईश्वर में विश्वास करो' घर का सपना दिखा कर कर्ज देने के बाद ब्याज का भय दिखा कर घर त्याग देने का यह दार्शनिक सलाह दरअसल एक खतरनाक धमकी है और सलोने के रूप में खड़ा यह रिकवरी एजेंट बैकों के चिकने काउंटर पर लोन बाँटते खूबसूरत 'सेल्स रिप्रजेंटेटिव्स' का प्रतिलोम। सच पूछिए तो 'सेल्स रिप्रजेंटेटिव्स' और 'रिकवरी एजेंट्स' के बीच का फासला ही भूमंडलीकरण के बाद के बैंकिंग व्यवसाय की प्रस्तावना है जिसमें आधुनिक व्यवसाय की रपटीली चमक और महाजनों-साहूकारों के रक्त पिपासु व्यवहारों की क्रूर धमक दोनों ही शामिल हैं।

'बे ला का भू' के बेचू लाल और 'मित्र की उदासी' के सलोने की दुविधाँ अलग-अलग तरह की होकर भी इन अर्थों में एक सी है कि दोनों ही परिस्थितियों की जटिलताओं का प्रतिपक्ष रचना चाहते हैं। बेचू लाल जहाँ खुद को मृत घोषित करा कर भी अपने इन्श्यूरेन्स के पैसों से लोगों का बकाया चुकाना चाहता है वहीं सलोने अपने पुराने मित्र और अब बॉस नीलकंठ से बिना अनुमति लिए ही शंभुनाथ जो कि बैंक का कर्जदार है, के कुनबे की बदहाली को देख कर उनके लिए सदाशय होना चाहता है भले ही इसके लिए उसे खुद को ही क्यों न दाँव पर लगाना पड़े। ये कहानियाँ यह भी बताती हैं कि कैसे एक बेहतर दुनिया सिरजने का सपना आज सब्जबाग दिखाने के धंधे में बदल चुका है जो अंततः हमारे भीतर की नमी को सोख कर मनुष्योचित मूल्यों का अतिक्रमण कर रहा है। यों तो पंकज मित्र और चंदन पांडेय दोनों की चिंताएँ एक सी हैं लेकिन 'बेला का भू' अपने सहज और पठनीय कथा विन्यास के कारण पाठक के भीतर आसानी से उतर जाता है जबकि 'मित्र की उदासी' अपने विन्यास में अपेक्षाकृत जटिल और पाठ में उबाऊ है। यहाँ तक कि कहानी के कई अनुषांगिक प्रसंग न सिर्फ गैरजरूरी हैं बल्कि वे कहानी की आत्मा तक पहुँचने में पाठकों को बाधित भी करते हैं। पठनीयता कहानी का पहला गुण होना चाहिए। बिना इसके बड़े से बड़े विषय पर लिखी कहानियाँ पाठक के भीतर प्रवेश नहीं करती हैं।

'अकार 25' मे प्रकाशित गीत चतुर्वेदी की कहानी 'पिंक स्लिप डैडी' निजीकरण और उदारीकरण के बाद की बदली व्यावसायिक परिस्थितियों को केंद्र में रख कर लिखी गई कहानियों में एक सर्वथा अलग रंग भरती है। यह कहानी इन अर्थों में अन्य कहानियों से भिन्न है कि ऊपर उल्लिखित कहानियाँ जहाँ बाजारवाद के प्रभावों को व्यावसायिक संगठनों के बाहर की दुनिया के माध्यम से बताती है वहीं 'पिंक स्लिप डैडी' बड़े-बड़े व्यावसायिक समूहों और कार्पोरेट घराने के भीतर की बारीक राजनीति और उठा-पटक के बहाने भूमंडलीकृत परिवेश की असलियत से पर्दा उठाना चाहती है। 'अकार' के 63 पृष्ठों में फैली यह कहानी प्रफुल्ल शशिकांत उर्फ पीएस दाधीच नामक एक ऐसे व्यक्ति की अंतर्कथा है जो पार्थो ग्रुप ऑफ कंपनीज में एक सीनियर एक्सीक्यूटिव के रूप में काम करते हुए 'बड़ा आदमी' बनने के चक्कर में एक घाघ और विकृत व्यक्ति के रूप में बदल जाता है। एक तरह से यह कहानी कैरियर और व्यवसाय की अतिमहत्वाकांक्षाओं के चलते दिनानुदिन अमानवीय होते जा रहे समाज की कहानी है।

कभी का मित्र और पार्थो ग्रुप ऑफ कंपनीज में पीएस दाधीच का बॉस राजकुमार पसरीचा बिजनेस में आए स्लोडाउन से बेतरह परेशान है। इस संकट से निकलने का सबसे कारगर उपाय उसे कर्मचारियों की छँटनी के रूप में नजर आता है। पसरीचा ने इस बड़े काम की जिम्मेदारी दाधीच को दी है। दाधीच को कर्मचारियों की छँटनी क्या करनी है अपने बॉस के सामने खुद को काबिल और जिम्मेदार साबित करना है। एक बारगी दाधीच इस नई जिम्मेवारी के कारण विचलित हो जाता है। आखिर हो भी क्यों नहीं, किसी के मुँह का निवाला छीनना कोई आसान काम भी तो नहीं। लेकिन तमाम ऊहापोहों के बाद वह खुद को इस अमानवीय कृत्य के लिए न सिर्फ तैयार कर लेता है बल्कि दो-एक शुरुआती झिझक के बाद उसे इस काम में संभोग के दौरान स्खलन का सा आनंद आने लगता है। छँटनी करने वाले अधिकारी के भीतर ऐसे आनंद की कल्पना से ज्यादा विकृत और क्या हो सकता है। लेकिन अपने काम के प्रति दाधीच के इस अमानवीय समर्पण की तुलना 'कामिही नारि पियारि जिमि' से नहीं की जा सकती। कारण की इस कहानी मे बारंबार वर्णित यौन दृश्य और प्रतीक पाठक के मन में जुगुप्सा से ज्यादा विकृत आनंद का संचार करते हैं। यही इस कहानी की सबसे बड़ी कमजोरी है। इसी कारण से कई-कई स्त्री पात्रों की उपस्थिति के बावजूद यह कहानी एक आधुनिक स्त्री के जीवन में आए सार्थक बदलावों और उसके व्यावसायिक जीवन के संघर्षों को रेखांकित करने की बात तो दूर उसकी तरफ कोई इशारा भी नहीं कर पाती। उलटे ये तमाम स्त्री पात्र या तो व्यावसायिक सफलताओं के लिए अपने शरीर का इस्तेमाल करती हैं या फिर दूसरे पुरुष चरित्र उनकी उपस्थिति के बहाने अपनी यौन कुंठा का भौंडा प्रदर्शन करते हैं। ऐसा नहीं है कि आज समाज में ऐसा नहीं होता है लेकिन गीत चतुर्वेदी इन विकृतियों पर तंज करने की बजाय इन्हें 'सेलिब्रेट' करने लगते हैं और यहीं आ कर यह कहानी खालिस पुरुष-दृष्टि से लिखी कहानी भर हो कर रह जाती है। इतना ही नहीं, कहानी के स्त्री पात्रों की नियति देख कर आधुनिक स्त्री के संदर्भ में फैलाया गया यह भ्रम और पुख्ता होता है कि स्त्रियों की सफलता का रिश्ता सिर्फ और सिर्फ बिस्तर से हो कर जाता है।

उक्त कहानी को प्रस्तुत करते हुए संपादकीय टिप्पणी में कहा गया है कि गीत चतुर्वेदी ने यह लंबी कहानी पूरे बीस महीने में तैयार की है और यह इस कहानी का सातवाँ ड्राफ्ट है। गीत चतुर्वेदी के लेखकीय श्रम का पूरा सम्मान करते हुए मैं इसी कहानी की एक पंक्ति 'क्या हम श्रम के राग पर भ्रम का गीत गाते है?' की तर्ज पर कहना चाहता हूँ कि इस कहानी में इन्होंने श्रम के राग पर भ्रम के गीत को ही पुख्ता किया है। हालाँकि गीत चतुर्वेदी की इस पंक्ति को भूमंडलीकृत आर्थिक-सामाजिक परिस्थितियों पर एक मारक टिप्पणी के रूप में भी देखा जा सकता है। काश अपनी इस अकूत लेखकीय क्षमता का इस्तेमाल वे इस कहानी को मसालेदार बनाने की बजाय कहानी के पात्रों और उनकी स्थितियों से उत्पन्न नई जटिलताओं की व्यंजनापूर्ण अभिव्यक्ति के लिए कर पाते। तब पाठकों के भीतर यह मलाल नहीं रह जाता कि पीएस दाधीचि 'टेक बे त टेक न त गो' की दुलारी, 'बेला का भू' के बेचू लाल गुप्ता और 'मित्र की उदासी' के सलोने की तरह आधुनिक जटिलताओं से उत्पन्न परिस्थितियों का प्रतिपक्ष क्यों नहीं बन पाया। लेकिन हाँ, कॉर्पोरेट जगत की शब्दावलियों, वहाँ के परिवेश, भीतरी उठापटक, आपसी प्रतिस्पर्धा, खींचतान और तनावों से यह कहानी हिंदी जगत को जरूर परिचित कराती है।

पिछले कुछ वर्षों में पहले सरकारी विभागों के निगमीकरण फिर उसके विनिवेश और अंततः उसके निजीकरण की कहानी आम हो गई है। प्राइवेट और पब्लिक सेक्टर के दो ध्रुवों के बीच एक लंबा फासला है और उस फासले की कुछ अलग किस्म की परिणतियाँ भी। अधिकाधिक लाभ और पूँजी निर्माण के लिए कॉस्ट कंट्रोल के नाम पर निजी क्षेत्रों में हो रहा श्रम का शोषण जहाँ ट्रेड यूनियन की जरूरत को एक बार फिर से रेखांकित कर रहा है वहीं सरकारी दफ्तरों और पब्लिक सेक्टर में व्याप्त अकर्मण्यता और तथाकथित ट्रेड यूनियन की बेईमान चालाकियों के पीछे से झाँकती उनकी असलियत उनकी व्यावहारिक सार्थकता पर रोज नए प्रश्नचिह्न खड़े कर रहा है। परस्पर दो प्रतिकूल परिस्थितियों से उत्पन्न ये जटिलताएँ निश्चित तौर पर पिछले कुछ वर्षों में तेजी से बढ़ी हैं। जाहिर है इन बदली और अपेक्षाकृत नई परिस्थितियों में, प्रतिरोध और संघर्ष के नए उपकरणों और उनका इस्तेमाल करने के लिए नई दृष्टि और सलाहियत की जरूरत है, जिसके लिए हमें समय के दोनों छोरों पर समान रूप से नजर रखनी होगी। इस संदर्भ में मैं कथन (जनवरी-मार्च, 2008) में प्रकाशित वरिष्ठ कथाकार रमेश उपाध्याय की कहानी 'प्राइवेट पब्लिक' का जिक्र करना चाहूँगा जिसमें दूरसंचार की उल्लेखनीय क्रांति और दूरसंचार विभाग के निगमीकरण के बाद की परिस्थितियों का जायजा लेने के बहाने प्राइवेट और पब्लिक के द्वंद्व को समझने की कोशिश की गई है। यह कहानी निजीकरण-वैश्वीकरण के दुश्परिणामों पर विस्तार से चिंता करती है लेकिन कहानीकार ने कहानी की पीठ पर एक खास तरह के राजनैतिक पूर्वाग्रह का ऐसा बोझ लाद दिया है कि कहानी एकांगी और अव्यावहारिक हो गई है। सच है कि मोबाइल की क्रांति ने टेलीफोन आपरेटरों की पारंपरिक नौकरी के रास्ते बंद कर दिए हैं, लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं है कि मोबाइल के आविष्कार को आपरेटरों की नौकरी छीनने की साजिश के रूप में देखा जाय। उल्लेखनीय है कि दूरसंचार विभाग का सरकारी उपक्रम 'भारत संचार निगम लिमिटेड' जहाँ लगभग सवा छह लाख कर्मचारी काम करते हैं मानव संसाधन की दृष्टि से देश का सबसे बड़ा सार्वजनिक उद्यम है और निगमीकरण के बाद यहाँ कोई छँटनी नहीं हुई है। इसके उलट संचार क्रांति ने कई तरह के छोटे-छोटे व्यवसायों और उद्योगों के अवसर भी पैदा किए हैं। जहाँ तक सार्वजनिक क्षेत्र की दूरसंचार कंपनियों की बदहाली का प्रश्न है तो इसके लिए नई आर्थिक नीतियों से ज्यादा कामकाज का सरकारी तरीका जिम्मेवार है जो आज अकर्मण्यता, कामचोरी और अदूरदर्शिता का पर्याय बन चुका है।

दरअसल रमेश उपाध्याय इस कहानी में बिना बदली परिस्थितियों का समग्र मूल्यांकन किए हुए कुछ परंपरागत उपकरणों के सहारे इसके प्रतिरोध की अव्यावहारिक और एकांगी लड़ाई लड़ना चाहते हैं यही कारण है कि उन्हें यहाँ ट्रेड यूनियन की विवशताएँ तो दिखती हैं, उनकी चालाकियाँ नहीं दिखतीं, उन्हें निजी कंपनियों में श्रम का शोषण तो दिखता है सरकारी महकमों की कामचोरी नहीं दिखती। परिणामतः आधुनिक समस्याओं का प्रतिपक्ष रचते-रचते वे आधुनिकता के ही प्रतिपक्षी बन जाते हैं। लागत नियंत्रण (कॉस्ट कंट्रोल) के नाम पर चल रहे अमानवीय साजिशों का प्रतिरोध जरूरी है, और होना भी चाहिए। लेकिन निर्माण और उत्पादन में प्रयुक्त होने वाले तमाम संसाधनों, जिनमें श्रम और समय भी शामिल है, की बर्बादी को चिह्नित करते हुए उनके मानवोचित लेकिन 'ऑप्टिमम यूटिलाइजेशन' की बात किए बगैर भी तो तरक्की की सीढ़ियाँ नहीं चढ़ी जा सकती न!

पाश ने कभी कहा था 'सबसे खतरनाक होता है सपनों का मर जाना'। आज बाजार में सपने बेचे जा रहे हैं। सपनों का यूँ बेचा जाना सपनों के मरने से कहीं ज्यादा खतरनाक है।