बादल नहीं आते / अहमद अली

Gadya Kosh से
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और बादल नहीं आते। निगोड़े बादल नहीं आते, गर्मी इस तड़ाखे की पड़ रही है कि अल्‍लाह-अल्‍लाह, तड़पती हुई मछली की तरह भुने जाते हैं। सूरज की गर्मी और धूप की तेजी। भाड़ भी क्‍या ऐसा गर्म होगा। पुरी दोजख है। कभी देखी भी है? नहीं देखी तो अब मजा चख लो। वह मुई चिलचिलाती हुई धूप है कि अपने होश में तो देखी नहीं। चील अंडा छोड़ती है। हिरन तो काले हो गए होंगे। भई कोई पंखे ही को तेज कर दो। सुकून तो हो जाता है।

खामोशी, खामोशी, सुस्‍ती और पस्‍ती, पस्‍ती और मस्‍ती। बचपन में सुनते थे कि हिमालय पर्वत के दामन में एक बड़ी गुफा है। ऊँचे आसमान से बातें करते हुए पहाड़। सख्‍त और घने। एक हिस्‍से में एक सूखी, बड़ी, चौड़ी और अँधेरी गुफा, उसके मुँह पर एक बड़ी चट्टान रखी रहती है। इस गुफा में बादल बंद रहते हैं। सफेद, भूरी और काली गाएँ बंद रहती हैं। कैसे-कैसे अहमक (मूर्खतापूर्ण) ख्‍यालात होते हैं। जहालत की भी कोई हद है। कितना ही समझाओ समझ में नहीं आता। एक ही लाठी से बैल और बकरियों को हाँकते हो। हम कोई कुत्ते हैं कि भौंके चले जाएँ? भें-भों-भों कोई सुनता तक नहीं। अक्‍ल पर पत्‍थर पड़ गए है। ऐ कोई तो बताओ कि अक्‍ल बड़ी या भैंस। भैंस बड़ी है भैंस। भैंस अक्‍ल की दुम में नमदा। ज्‍यादा कहो डंडा लेकर पिल पड़े। मौलवियों के भी कहीं अक्‍ल होती है? अक्‍ल-अक्‍ल, सूरत न शक्‍ल। भाड़ में से निकल। दाढ़ी ने दिल पर स्‍याही छा रखी है। दिमाग को इस्‍तेमाल नहीं करते। समझ को छप्‍प पर रख दिया। ताक में से किताब उतारी, हिल-हिल कर पढ़ रहे हैं, झुक-झुक कर पढ़ रहे हैं। वाह मियाँ मिट्ठू-खूब बोले। पढ़ो मियाँ मिट्ठू-पढ़ो हक अल्‍लाह-पाक जात अल्‍लाह, पाक नबी रसूल अल्‍लाह, नबी जी भेजो। या अल्‍लाह भेज। मौलवी साहब को बच्‍चे की तमन्‍ना है। सख्‍त आरजू है। न मालूम क्‍या गुनाह किया है जिसकी सजा मिल रही है। घबड़ाइए नहीं। दो तावीज देता हूँ। हकीर-फकीर, नाचीज ओ गुनाहगार हूँ। लेकिन कला में इलाही है। अल्‍लाह ने चाहा तो मुराद पूरी होगी। इशा (रात की नमाज) के बाद जहाँ कर सात बार दुरुद शरीफ पढ़ कर लोबान की धूनी के साथ सहवास के वक्त नाभि के नीचे बाँध दीजिएगा। दूसरा पानी में घोल कर एक सुराही या किसी बरतन में रख लीजिएगा और सात दिन आबे जम-जम (मक्‍का के एक पवित्र सोते का पानी) मिला कर निहार मुँह पी लीजिएगा। अगर खुदा ने चाहा तो मुराद जरूर बर आएगी! यह नजराना है।

लाहौल विला कूवत… तुमको शर्म नहीं आती! समझते हो कि अल्‍लाह का कलाम (शब्‍द) खरीदा जा सकता है? खुदा को भी मोल लोगे? मैं नजराना-वजराना नहीं लेता। जाओ किसी टूटपुँजिए के पास जाओ। भाग यहाँ से, निकल। हजरत सख्‍त कुसूर हुआ, माफी चाहता हूँ। आइंदा ऐसी गुस्‍ताखी न होगी। अच्‍छा खैर जा, लेकिन एक बात याद रखना-नौचंगदी जुमेरात (इस्‍लामी मास का पहला बृहस्‍पतिवार) को बड़े पीर साहब की नियाज दिलवा देना। सवा रुपया और पाव भर मोतिया के फूल हरे-भरे साहब के मजार पर चढ़ा देना। का-आ-री आजेब आ-आ आपकी दस्‍तारे मुबारक में खातन… का आ… आ मौलवी साहब खाई। हाँ बेटा खूब खाई। अजी मौलवी साहब खूब खाई। हाँ-हाँ बेटा खूब खाई। नहीं मोलवी साहब खाई, अबे कह तो दिया खाई, हाँ खूब खाई, आओ ब!! अंग्रेजों को खुदा गारत करे। अंग्रेजी पढ़ा-पढ़ा कर नास्तिक बना दिया, जनखा बना डाला। मर्दानगी की नाक काट कर ले गए, न दोजख का डर, न जन्‍नत की ख्‍वाहिश। पढ़ा-पढ़ाया सब खाक में मिला दिया। हमारा मजाक उड़ाते हैं, खुदा-ए-पाक पर हँसते हैं। जब आग में जलेंगे तो और एक साधू उस गुफा का मुँह बरसात में खोल देता है। बादल भड़-भड़ उड़ निकलते हैं। सुन-सुन सखी पंखी का बयाह होता था तातल ममूला नाचती थी… बुलबुल तो खूब बोला पोदना सताई… तीतरी मंमेरी सको कि नाल तेरी… पर बिल्‍ली जो नाइन आई सारी सबा भगाई। भाड़-भाड़ सब बारात उड़ गई। अब तो हवा उखड़ गई। अब तो हवा उखड़ गई। हवा। अभी देखो क्‍या होता है। खुदा नेक हिदायद दे। सच है, कयामत के सब आसार मौजूद हैं। आग उगलता हुआ साँप। तफरके, झगड़े, लडाइयाँ, मजहब और खुदा की तौहीन। जमीन का तबका बदल रहा है। जब यूनान का तबका उल्‍टा था तो यही सब लक्षण मौजूद थे। या अल्‍लाह रहम कर। यह जाहिल हैं। यह नहीं समझते कि क्‍या कह रहे हैं। तू दुनियाँ का रब है। इनको माफ कर।

बादल क्‍यों नहीं आते? और जिंदगी बवाल है। बवाल। बाल लंबे-लंबे काले-काले बाल। एक फिजूल की लादी लदी हुई। आखिर हम भी मरदुवों की तरह क्‍यों नहीं कटवा सकते। छोटे-छोटे बालों से सर कैसा हल्‍का मालूम होता होगा। खुदा बख्‍शे, अब्‍बा जान के तो छोटे-छोटे थे। एक मरतबा ऐसी ही गर्मी पड़ी तो पान भी बनवा लिया था। मैंने और साबरा ने खूब सर सहलाया। काश कि हमारे बाल भी कटने होते। गुद्दी जली जाती है। झुलसी जाती है। उस पर भी बाल नहीं कटवा सकते। खानदान वालों की क्‍या बड़ी नाक है, हम जो बाल कटवा लेंगे तो उनकी नाक कट जाएगी। अगर मैं कहीं लड़का होती तो खोंडी छुरी से काट डालती, जड़ से उड़ा डालती। जब नाक ही न रहती तो कटने का डर कहाँ? खुदा गंजे को नाखून ही नहीं देता। जख्‍म के भरने तलक नाखून न बढ़ आएँगे क्‍या? जक्ष्‍म तो भर आया लेकिन नाखून ही नहीं। जो जख्‍म-जख्‍म, रहम-अलरहम…

… आखिर हम ही में रहम क्‍यों पैदा किया। औरत कमबख्‍त मारी की भी क्‍या जान है, चिचड़ी से बद्तर। काम करें-काल करें, सीना-पिरोना, खाना-पकाना, सुबह से रात तक जले पाँव की बिल्‍ली की तरह इधर-उधर फिरना। उस पर तुर्रा यह कि बच्‍चे जनना। जी चाहे या न चाहे, जब मियाँ मुए का जी चाहा हाथ पकड़ के खींच लिया। अधर आओ मेरी जानी, मेरी प्‍यारी। तुम्‍हारे नखरे में गर्म मसाला। देखो तो कमरे में कैसी ठंडक है, मेरे कलेजे की ठंडक, वरे आओ। हटो परे, तुम पर हर वक्त कमबख्‍त शैतान सवार रहता है न दिन देखो, न रात। हाय, मार डाला, कटारी मारो न। हाथ निगोड़ा मरोड़ डाला-तोड़ डाला, कहाँ भागी जाती हो? सीने चिमट के लेट जाओ। देखो कटारी का मजा चल लो। वही मुए दूधों पर हाथ चलने लगे। सख्‍त-सख्‍त उंगलियों से मसल डाला-वसल डाला। कमबख्‍त ने घुंडी को किस जोर से दबाया कि बिलबिला भी न सकी। मुआ जवाना मरे। कोठेवालियों के साथ भी कोई ऐसा बर्ताव न करता होगा। कमजोर जान लेट गई कि सारा गर्मी का गुस्‍सा मुझ ही पर उतरा। मुर्दे की तरह क्‍यों पड़ी हो? क्‍या जान नहीं, जोर लगाओ। प्‍यारी, प्‍यारी, ज…अ…आ…नी।

और हम हैं कि कुछ कर ही नहीं सकते। हम क्‍यों नहीं कुछ कर सकते? अगर अपना रुपया होता तो ये सब जिल्‍लत क्‍यों सहनी पड़ती। जिस वक्त जो जी चाहता करते। कमाने की इजाजत भी तो नहीं। पर्दे में पड़े-पड़े सड़ते हैं। लौंडियों (नौकरानियों) से बद्तर जिंदगी है। जानवरों से भी गए-गुजरे हुए पिंजरे में पड़े हैं, कैद किए पड़े हैं। पर होते हुए भी फड़फड़ाने की गुंजाइश नहीं। हमारी जिंदगी ही क्‍या है? बुझा दिया तो बुझ गए, जला दिया तो जल रहे हैं। हर वक्त जला करते हैं। जलने के अलावा और भी कुछ हमारी किस्‍मत में है? हुक्‍म की तामील करते जाएँ बस! मर्द मुए सारे में जूतियाँ चटखाते फिरते हैं। कहीं बैठ कर हुक्‍का गुड़गुड़ाया, कहीं गप्‍पें कीं, कहीं गंजीफा (ताश), कहीं शतरंज, कहीं मुए ताश, रात को कुछ नहीं तो चावड़ी चले गए। गाना सुनने का बहाना। लेकिन फिर सुबह नहाना कैसा? और क-कह कर हमें जलाना। कहीं जल भी तो नहीं चुकते। लाख-लाख आँसू बहाते हैं। मुई आग ऐसी चौबीस घड़ी की लगी रहती है कि जरा बुझने का नाम नहीं लेती। मौत भी तो नहीं आती। हिंदुओं की जिंदगी कहीं हम से अच्‍छी है। आजादी तो है। ईसाइयों का तो क्‍या कहना। जो जी में आता है करती हैं। नाच नाचें, तस्‍वीरें देखें, बाल कटाएँ, लिखने वाला चैन लिखता है…

आग लगे ऐसे मजहब को। मजहब, मजहब, मजहब, रूह की तसल्‍ली मर्दों की तसल्‍ली है। औरत बेचारी को क्‍या? पाँच उंगली भर दाढ़ी रख के बड़े मुसलमान बनते हैं। टट्टी की आड़ में शिकार खेलते हैं। हमारे तो जैसे जान तलक नहीं। आजादी के लिए तो बस एक दीवार है। अब्‍बा जान ने किस मुसीबत से स्‍कूल में दाखिल किया था। मुश्किल से आठवीं तक पहुँची थी कि खुदाबख्‍शे दुनिया से चले गए। सबने ही तो फौरन स्‍कूल से नाम कटा दिया और इस मोटे-मुस्‍टन्‍डे, दाढ़ी वाले के साथ नत्‍थी कर दिया। मुवा शैतान है। औरत की आजादी तो आजादी, औरत का जवाब तक देना गवारा नहीं करता।

क्‍या समंदर सूख गए जो बादल नहीं आते, सूख गए? समंदर सात समंदर पार से आए, हमारी भी लुटिया डूब गई, गुड़प-गुड़प-गुड़प गोते लगा रहे हैं, अपने ही खून में नहा रहे हैं। धूप तो इतनी तेज है, भाप भी नहीं बनती। काहे की भाप बने, खून तो खुश्‍क हो गया, जल कर राख हो गया, लेकिन क्‍या सचमुच बादल भाप के बनते हैं? हम तो सुना करते थे कि बादल स्‍पंज की तरह होते हैं। हवा में तैरा करते हैं। जब गर्मी बहुत सख्‍त पड़ी, प्‍यास के मारे समंदर के किनारे उतर पड़ते हैं। खूब पानी पीते हैं और फिर हवा में उड़ जाते हैं। शायद हमारी सरकार के जहाजी बेड़े से डर के उड़ जाते हैं और तोपों के खौफ से मूतने लगते हैं। जो कुछ भी स्‍कूल में पढ़ाते हैं झूठ बकते हैं। बादल सचमुच भाप के नहीं होते। भूगोल गलत खौफे-बरतानियाँ दुरुस्‍त। दुरुस्‍त। यही बात है। ओ-हो बात समझ में आया। क्‍या समझे-जहाजी बेड़ा और तोप। लेकिन अफगान भी क्‍या तप्‍पुक मारता है। चट्टानों की आड़ में छिपा रहता है। जहाँ दुश्‍मन को देखा एक आँखें भींच लीं। शायद दोनों आँखें बंद कर लेता है। घोड़ा दबा दिया। ठाँय। टप से जिंदा जान मुर्दे की तरह गिर पड़ी। खूब मारा-खूब, लेकिन अफगान तो पैदल चलता है। मगर हवाई जहाज को एक गोली से गिरा लेता है। हमारे पास मोटर छोड़ इक्‍का भी नहीं। हम क्‍या करेंगे? चलो जलियांवाला बाग की सैर कर आएँ। मगर जाएँगे काहे में? हम बताएँ सरकंडे की गाड़ी दो बैल जोते जाएँ। वाह भाई वाह। खूब सुनाई। इतने सारे आदमी और सरकंडे की गाड़ी। पागल है भई पागल पीरी है बे लमड़द पीरी है। सफेदे की पीरी है। वह काटा, यों नहीं तो यों सही। हुश-हुश मेरे कान में घुस। सबके कान में घुस लेंगे। पागल है भई पागल है। वह काटा। यही तो मुसीबत है, सुनते तक नहीं। इस कान से सुना, उस कान से निकाल दिया। जूँ तक नहीं चलती। घड़ा भी क्‍या इतना चिकना होगा। मिट्टी में पड़े रौंदते हैं। सूरत तक को नहीं सँभालते। क्‍या शेर था-क्‍या? हमने अपनी सूरत बिगाड़ ली, उनको तस्‍वीर बनानी आती है। क्‍या था? एक हम हैं। हाँ, हम यह ही हम जिनको अपनी सूरत का एहसास नहीं। काले भुजंगे, मैले-कुचैले, लंगोटी में मस्‍त हैं। भाई बंदों में किसी ने काई बात कह दी लड़ने-मरने पर आमादा और दूसरे जो गला काट डालते हैं। उसका कुछ भी नहीं। जूते खाते हैं लाल सहते हैं। गालियाँ सुनते हैं और फिर वही लौंडों की सी बात, अबके तो मार। चाट। अच्‍छा अबके तो मार लिया। अबके तू मार। चाट-चाट। में, में। देखो बी अम्‍मा चुन्‍नु का बच्‍चा नहीं मानता, जबसे बरोबर मारे जा रहा है। उसको समझा लो, नहीं तो उस हरामजादे की।

माश अल्‍लाह-चश्‍मेबद्दूर-चश्‍मेबन्‍दूक, क्‍या मीठी गाली दी है। मुँह चूम ले। मुँह। जबान गुद्दी के पीछे से खींच के निकाल डाले, ऐसा चाँटा मारे कि सारा पिजूड़पन दूर हो जाये। कुत्ते की तरह मारते हैं, हड्डी दिखा कर मारते हैं, अजी पास बुला के मारते हैं, धार करके मारते हैं, प्‍यार करके मारते हैं, दुलार करके मारते हैं और तो और मार करके मारते हैं। और हम हैं कि कुत्ते की जाति फिर उनके चूतड़ों में घुसे जाते हैं। अफसोस तो यह है कि गू तक नहीं मिलता। आख थू… काले कुत्ते का गू। लानत तुम जैसे लोगों पर। बस बे छोटम। बस। चुन्‍नू की गाली सह ली। मार-मार देखता क्‍या है? लपक के, दे दबा के हाथ, मार और राजा मारी पोदनी हम बीर बसावन जाएँ। आपकी सूरत तो मुलाहजा हो। क्‍या पिद्दी का शोबा। हम बीर बसावन जाएँ। वाह मेरे सींख के पहलवान, वाह, कोई फबती कहो। खुदा लगती कहो। हम बैर बसावन जाएँ। हाँ, बेर कहते तो एक बात भी थी। मियाँ शेखपुर के बहुत अच्‍छे होते हैं। कभी सहारनपुर के वीरों का भी नाम सुना है? अजी हजरत बैल होंगे, बैल, जी हाँ। बजा फरमाया, दुरुस्‍त बैल ही तो थे। हम बैर बसावन जाएँ। सरकंडों की गाड़ी दो बैल जोते जाएँ। और …? राजा मारी पोदनी, हम बैर बसावन जाएँ। वाह मियाँ पोदने बड़ी हिम्‍मत की। मिट्टी का शेर है न? सरकंडों की गाड़ी में बैठेगा, बैलों पर, कि।

राजा मारी पोदी, हम बैर बसावन ...