बाबा उपद्रवीनाथ का चिट्ठा / भाग 10 / कमलेश पुण्यार्क

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“…कृष्ण के आह्वान पर गोपियां बाहर आयीं, जल से निकलकर, यानी संसारार्णव से मुक्ति मिल गयी; किन्तु आंखें मुदीं हैं, लज्जा से, संकोच से। गुप्तांगों को ढके हुए हैं गोपियां अपने हाथों से। जलरुपी संसार तो छूट गया, किन्तु त्याग, और त्यागी का भान अभी शेष ही है। ‘स्व’ का भान अभी बचा हुआ है। यह भेद भी बचा हुआ ही है कि कृष्ण पुरुष हैं और हम गोपियां नारी। एक मजेदार घटना घटी थी एक बार- कृष्णप्यारी मीरा नाचती हुयी जब मन्दिर में घुसने जा रही थी, तो पुजारी ने रोक दिया, यह कहते हुए कि इस मंदिर में नारी का प्रवेश वर्जित है। सिर्फ पुरुष ही जा सकता है। पुजारी के वक्तव्य पर मीरा चौंकी- ‘और तुम क्या हो ? क्या तुम स्वयं को पुरुष समझते हो ? मैं तो यही जानती हूँ कि ‘पुरुष’ सिर्फ एक है- श्रीकृष्ण, बाकी सब प्रकृति है, नारी है। गोपियां जल में कृष्ण को नहीं देख पा रही थी, मीरा ने विष के प्याले को भी कृष्ण का होठ समझ लिया। और पान कर गयी। यही है विलक्षण प्रेमाभक्ति।’

“…सांसारिक रुप से देखते हो- नारी किसी नारी के सामने चट से नंगी हो जा सकती है, पर...। इस भेद, और त्याग के बचे हुये संस्कार को भी नष्ट करने का अगला प्रयास है कृष्ण का। त्यागने की भावना का भी जब त्याग हो जाये तभी सही त्याग है। हमने किया- में ‘हम’ बचा हुआ है। इस हम का भी नष्ट हो जाना जरुरी है। चीवर, चिमटा, जटा-जूटधारी महंथों से कभी मिलो तो कहेंगे- हमने घर छोड़ दिया, पत्नी छोड़ दिया, धन छोड़ दिया, लाखों-करोड़ो मन्त्र जपे, दान दिये, पुण्य किये...ये किये-त्यागे का लम्बा सा फ़ेहरिस्त होता है उनके पास। किन्तु जान लो कि जब तक ये ‘मैंने किया’ बचा हुआ है, तब तक सच पूछो तो तुमने कुछ नहीं किया, सिर्फ लिस्ट बनाते रहे हो अब तक।

“…लौकिक दृष्टि से गोपियों से यहां एक और भूल हो रही है- जल में नग्न स्नान शास्त्र वर्जित है। इसका भी प्रायश्चित कराना था गोपियों से, भले ही लोकहितार्थ कर्म था ये। ऊपर की ओर हाथ उठा कर सूर्यदेव से क्षमायाचना की क्रिया में एकसाथ दोनों काम हो जा रहा है- लौकिक मर्यादा के उलंघन-दोष से भी मुक्ति होगयी और ‘स्व’ का शेष भान भी विनष्ट हो गया।

“…ये सब तो हुआ गोपी-पक्ष। अब जरा चीरहरण को कृष्ण-पक्ष से भी देख लो। कुछ नासमझ लोग कहते हैं- कृष्ण कामी है। क्या किसी कामी पुरुष में इतना धैर्य हो सकता है कि नंगी खड़ी अगनित गोपियों को सामने पाकर भी एक वर्ष आगे का समय दे दे? देखो, वहीं अगले श्लोक में कृष्ण कहते हैं- याताबला व्रजं सिद्धा मयेमारंस्यथ क्षपा। यदुद्दिश्य व्रतमिदं चेरुरार्यार्चनं सतीः॥ अगली शरतपूर्णिमा की रात्रि में मिलने का वचन दिया कृष्ण ने। इस पर गोपियां निराश नहीं हुयी, उदाश नहीं हुयी। बल्कि प्रसन्न हुयी। क्यों कि उनकी कामना पूरी हुयी है। काम का लेश भी रहता यदि किसी पक्ष में, तो खिन्नता होती, जब कृष्ण कहते कि ये लो अपने वस्त्र, इसे पहनो और अपने-अपने घर वापस लौट जाओ, क्यों कि तुमलोग सती-साध्वी हो। ”

मेरे विचारों के बहुत से काले घनेरे बादल छंट गये, बाबा की बातों से, फिर भी कृष्ण के विषय में अभी और सुनने को मन ललक ही रहा था। बाबा भी पूरे भावमय थे।

जरा ठहर कर बाबा ने कहा- “ गोपियों के अन्तिम संस्कार को अनावृत करने में कृष्ण को बहुत प्रयास करना पड़ा, तब जाकर सफलता मिली; किन्तु ठीक इसके विपरीत, बिलकुल विलक्षण भाव हैं विदुरानी(विदुर-पत्नी) के, जहां कृष्ण को कुछ करना नहीं पड़ा। हालाकि किये, किन्तु चीरहरण के ठीक विपरीत क्रिया हुयी- अपना उत्तरीय-प्रदान किए विदुरानी को। एक बार की बात है, श्रीकृष्ण अचानक उनके महल में पहुँचे। विदुरानी स्नान कर रही थी। ज्यों ही कृष्ण की पुकार कानों में पड़ी बेसुध होकर बाहर निकल आयी- निर्वस्त्र ही। उनकी इस अवस्था को देखकर कृष्ण ही संकुचित हो गये। चट, अपना दुकूल उनके ऊपर फेंक दिया। क्या कहोगे इस दृश्य को ? सामान्य मानवी बुद्धि पहुंच सकती है इस अवस्था तक ? आत्मविस्मृति साधक का अन्तिम आवरण परित्याग है, वो भी अनायास। सायास नहीं। विदुरानी इतना कृष्ण मय हैं सदा कि उन्हें ‘स्व’ का भान ही नहीं रहा। उन्हंन तो बस यही सुनायी दिया कि कृष्ण पुकार रहे हैं। जल्दी से द्वार खोल देना चाहिए। ताकि उन्हें प्रतीक्षा न करनी पड़े। कृष्ण के टुपट्टे का स्पर्श विदुरानी को और भी मोहित कर दिया। छोटी पीठिका उठा लायी उन्हें बैठने के लिए। और मजे की बात ये है कि विदुरानी ने उसे उल्टा रख कर बैठने का आग्रह किया। लीलाविहारी कृष्ण भी कम नहीं। बस बैठ गये, उसी उल्टी पड़ी पीठिका पर। विदुरानी को टोका भी नहीं, उनकी भूल के लिए। भावलीला यहीं समाप्त नहीं हुयी, इससे भी मजे की घटना आगे हुयी - विदुरानी केले ले आयी कृष्ण के प्रसाद के लिए। शबरी ने तो प्रेम परवश प्रभु श्रीराम को चख-चख कर बेर ही खिलाया था, किन्तु यहां विदुरानी केले फेंकती गयी छील-छीलकर, और छिलके देती गयी प्रभु को...यही है प्रेम माधुर्य लीला...कृष्ण भी मुस्कुराते हुए खाये जा रहे हैं केले का छिलका। ये भी नहीं टोकते कि ये क्या कर रही हो विदुरानी। सच पूछो तो केले और छिलके का भेद तो हमारे तुम्हारे लिए है! कृष्ण के लिए क्या केला, क्या छिलका!

“…कुछ ऐसी ही बेसुधी की स्थिति गोपियों की भी हुयी, जब आगामी शारदीय पूर्णिमा को कृष्ण ने वंशी टेरी...सम्मोहन महामन्त्र क्लीँकार गूँजा बनप्रान्तर से गोकुल की गलियों तक, तो गोपियां स्वयं को रोक न पायी। वे जिस अवस्था में थी चल पड़ी। बड़ा ही प्रीतिकर वर्णन है उस दृश्य का व्यास जी द्वारा— जगौ कलं वामदृशां मनोहरम् वाली कामगायत्री की वंशी टेर के बाद जरा देखो, क्या स्थिति हो रही है गोपियों की- निशम्य गीतं तदनङ्गवर्धनं व्रजस्त्रियं कृष्ण गृहीतमानसाः। आजग्मुरन्योन्यमलक्षितोद्यमाः स यत्र कान्तो जवलोलकुण्डलाः॥ ....लिम्पन्त्यः प्रमृजन्त्योऽन्या अञ्जन्त्यः काश्च लोचने। व्यत्यस्तवस्त्रा भरणाः काश्चित् कृष्णान्तिकं ययुः।....तमेव परमात्मानं जारबुद्ध्यापि सङ्गताः। जहुर्गुणमयं देहं सद्यः प्रक्षीणबन्धनाः॥ (१०-२९-३ से ११) वंशी की धुन कानों में पड़ते ही गोपियां बेसुध हो गयी- अपने आप में रह ही नहीं गयी। लाज, डर, भय, संकोच, मर्यादा, शील- ये सारी की सारी लोक-वृत्तियां छिन गयी, गिर गयी, निरस्त हो गयी मानों; और दौड़ पड़ी यमुना पुलिन की ओर, जिधर से वंशीध्वनि तरंगित हो रही थी। वेग इतना था कि कानों के कुंडल झोंके खा रहे थे। किसी ने चूल्हे पर चढ़ाया दूध खौलते छोड़ दिया, किसी ने लपसी के जलने की भी परवाह न की, थाली में परोसा जा रहा भोजन अधूरा रह गया किसी का, तो किसी की सुश्रुषा बाकी रह गयी, किसी के एक आंख में अंजन थे, तो किसी के एक कान में कुंडल, किसी ने अधोवस्त्र को ही उर्ध्व समझ लिया, तो किसी ने उर्ध्व को अधो बना लिया...ऐसा इसलिए हो रहा था कि कृष्ण का महातान्त्रिक सम्मोहन मन्त्र सबके चित्त का आहरण नहीं, कर्षण भी नहीं, बल्कि अपहरण कर लिया था। विरह की वेदना की आँच इतनी तेज हो गयी कि सारे कर्म-संस्कार क्षण भर में जल कर भस्म हो गये। इतना ही नहीं किसी-किसी ने इस प्राकृतिक पञ्चभूतात्मक शरीर को ही छोड़ दिया, और विशुद्ध अप्राकृत शरीर से उपस्थित हो गयी कृष्ण के पास। कृष्णभक्तिरसामृत का जो सेवन कर लेता है, उसकी ऐसी ही स्थिति होती है। ऐसी ही गति होती है।”

जरा ठहर कर बाबा पुनः कहने लगे- “ ऐसी दिव्य स्थिति में महारास प्रारम्भ हुआ- रासोत्सवः सम्प्रवृत्तो गोपीमण्डलमण्डितः। योगेश्वरेण कृष्णेन तासां मध्ये द्वरोर्द्वयोः॥(१०-३३-३) प्रत्येक युगल गोपियों के मध्य एक कृष्ण....शतसहस्र गोपियां, शतसहस्र कृष्ण भी। एक गोपी-एक कृष्ण के क्रम से एक महावलय निर्मित हो गया यमुना के रमणरेती पर। प्रत्येक गोपी यही समझ रही है कि कृष्ण तो मेरे आलिंगन में हैं। महानृत्य चलता रहा, चलता रहा। चराचर थम सा गया, उस दृश्य से मुग्ध होकर। भक्तप्रवर जयदेव ने अपने काव्य गीतगोविन्द मंत अद्भुत चित्रण किया है- पीनपयोधरभारभरेण हरिं परिरभ्य सरागम्। गोपवधूरनुगायति काचिदुदञ्चितपञ्चमरागम्॥ कापि विलासविलोलविलोचनखेलनजनित मनोजम्। ध्यायति मुग्धवधूरधिकं मधुसूदनवदनसरोजम्॥ कापि कपोलतले मिलिता लपितुं किमपि श्रुतिमूले। चारु चुचुम्ब नितम्बवती दयितं पुलकैरनुकूले॥ केलिकलाकुतुकेन च काचिदमुं यमुनाजलकूले। मञ्जुलवञ्जुलकुञ्जगतं विचकर्ष करेण दुकूले॥ करतलतालतरलवलयावलिकलितकलस्वनवंशे। रासरसे सहनृत्यपरा हरिणा युवतिः प्रशशंसे॥ श्लिष्यति कामपि चुम्बति कामपि रमयति कामपि रामाम्। पश्यति सस्मितचारु परामपरामनुगच्छति वामाम्॥

- कोई गोपी अपने स्तनों के भार से प्रेमपूर्वक श्रीकृष्ण का आलिंगन करती हुयी उनके स्वर में स्वर मिलाकर गान कर रही है। कोई गोपी अपने चंचल नेत्रों के कटाक्षों के कामोत्पादक संचार से कृष्ण के मुखारबिन्द का ध्यान कर रही है। कोई सुन्दर जघनों वाली गोपी कान में कुछ कहने के बहाने कृष्ण का मुखमंडल ही चूम ले रही है, तो कोई वेतस लता के कुंज में श्रृंगार करने की कामना से उनका वस्त्र खींच रही है। कोई गोपी साथ-साथ नृत्य करती हुयी वंशीध्वनि में अपने कंकणध्वनि को मिला रही है। कृष्ण किसी गोपी का आलिंगन कर रहे हैं, किसी का चुम्बन कर रहे हैं, किसी का अनुसरण कर रहे हैं, किसी के साथ मृदु मुसकान सहित बिहार कर रहे हैं...– ऐसा ही विलक्षण दृश्य है रमण-रेती यमुना-पुलिन का। जयदेवस्वामी ने तो मानों कलम तोड़कर रख दी है-इस महारास वर्णन में।

“...कृष्ण ने गीता में अर्जन को समझाते हुए इसे महागोपनतन्त्र कहा है- इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन। न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति॥ रास शब्द का मूल रस है, और रस हैं स्वयं श्रीकृष्ण- रसो वै सः - जिस दिव्य क्रीड़ा में एक ही रस अनेक रसों के रुप में होकर अनन्त-अनन्त रस का समास्वादन करे- आस्वाद, आस्वादक, लीला, धाम, आलम्बन, उद्दीपन सभी रुपों में क्रीडा करे, उसी का नाम रास है। वंशीध्वनि, गोपि के अभिसार, बातचीत, रमण, अन्तर्धान, प्राकट्य, वसनासनारुढ, कूट संवाद, नृत्य, क्रीडा, जलकेलि, वनविहार- ये सब के सब मानवी दीखते हुए भी परम दिव्य हैं। हम समान्य जनों के लिए भ्रमित होना कोई आश्चर्य नहीं। बड़े बड़े ऋषि-मुनि भी भ्रमित हो गये हैं, तो फिर मानव की क्या गिनती! जड़ की सत्ता जड़ दृष्टि में ही होती है। देह और देही का भान प्रकृति के राज्य में तो होगा ही न। अप्राकृतलोक में जहां चिन्मय है सब कुछ, वहां ऐसा नहीं होता। जड़ राज्य की जड़ धारणायें, जड़ विचार, जड़ क्रियायें दिव्य-चिन्तन कर ही नहीं पाती, इसी कारण सारा भ्रम होता है। ब्रह्मा, शंकर, उद्धव, अर्जुन आदि सबने गोपियों की उपासना करके, गोपीश्वरी ललिता की कृपा प्राप्त करके कृष्ण तक पहुंचने की सीढ़ी का निर्माण किया है...

“...ये जो प्राकृत शरीर है न, जो दृष्यमान है, मूलतः यह एक त्रिकुटी है- स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर मिल कर यह शरीर बना है। कारण शरीर यानी कि जन्म-जन्मान्तर के संस्कारों से निर्मित शरीर। यह जब तक पूर्णतः नष्ट नहीं होगा, जन्म-मरण का चक्कर लगा ही रहेगा। सात प्रकार की धातुओं के बारे में मैं तुमलोगों से पहले भी चर्चा कर चुका हूँ, स्मरण होगा। ”- मेरी ओर देखते हुए बाबा ने कहा, जिसके उत्तर में मैंने कहा- ‘ जी हां, बिलकुल याद है। अन्तिम धातु शुक्र को ओज में बदलने की विधि भी आपने बतलायी थी मुझे।’

“ प्रकृति के राज्य में जितने शरीर हैं- चाहे वो कामजनित निकृष्ट समझे (कहे) जानेवाले मैथुन से उत्पन्न हुये हों या कि ऊर्ध्वरेता महापुरुषों के संकल्प से, या बिन्दु के अधोगामी होने पर कर्त्तव्यरुप श्रेष्ठ मैथुन से, अथवा बिना मैथुन के ही नाभि, हृदय, कर्ण, कंठ, नेत्र, सिर, मस्तकादि से- ये सभी मैथुनी-अमैथुनी शरीर प्राकृत शरीर ही हैं। यहां तक कि योगियों द्वारा निर्मित ‘ निर्माणकाय ’ अपेक्षाकृत शुद्ध होते हुए भी प्राकृत ही हैं। दिव्य कहे-माने जाने वाले पितरों, और देवों के शरीर भी प्राकृत ही हैं। अप्राकृत शरीर इन सबसे विलक्षण है। यह ठीक है कि देवादि शरीर रक्त-मांसादि सप्त धातुओं से निर्मित नहीं होते, किन्तु फिर भी उन्हें अप्राकृतिक शरीर नहीं कहा जा सकता। श्रीकृष्ण का शरीर प्राकृत शरीर तुल्य दीखते हुए भी चिन्मय है। वहां देह-देही, रुप-रुपी, नाम-नामी, लीला-लीलापुरुषोत्तम का जरा भी भेद नहीं है। कृष्ण का नख भी सम्पूर्ण कृष्ण है, आँख भी सम्पूर्ण कृष्ण है, रोम-रोम सम्पूर्ण ही है। वे आँखों से सूंघ सकते हैं, नाक से बोल सकते हैं, कान से देख सकते हैं। कोई फर्क नहीं है। गीता में कहा गया है- सर्वतः पाणिपादंतत् सर्वतोक्षिशिरोमुखम्। सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति॥ इन्हीं भावों को तुलसी ने भी दुहराया है- बिनु पग चलै, सुनै बिनु काना, कर विनु करम करै बिधि नाना...। अब भला ऐसे विलक्षण शरीर में मैथुनी भाव- काम-पिपासा कहां से हो सकती है ? किन्तु हम मनुष्य इस दिव्यत्व को समझ नहीं पाते, सारी शंकाओं का जड़ यही है। और इसी का परिणाम है कि चीरहरण और रासलीला को मानवी दृष्टि से सोच-विचार कर कृष्ण को कलंकित करने में भी नहीं हिचकते।”

बड़ी देर से चुप्पी साधे गायत्री ने सवाल किया- ‘ जब ऐसी बात है भैया, तब कृष्ण की सोलह हजार एक सौ आठ रानियाँ, उनसे उत्पन्न पुत्र-पौत्र की करोड़ों की संख्या- ये सब क्या तमाशा है ?’

गायत्री की बात पर बाबा मुस्कुराये- “इतना सुन चुकने के बाद भी तुम अभी यहीं अटकी हुयी हो? श्रीकृष्ण का ये सन्तान-व्यूह मैथुनी नहीं है, और न दैवी। इसका निर्माण शुक्र-शोणित-संयोग से नहीं हुआ है। ये ‘योगमाया की भागवती सृष्टि’ है- सृष्टि के विविध प्रकारों में एक; और योगमाया तो उनकी सहचरी ठहरी। स्वयं ये योगेश्वर कहे जाते हैं। अखण्ड ब्रह्मचारी हैं। श्रीमद्भागवत में उनके लिए एक शब्द प्रयुक्त हुआ है- अवरुद्धसौरत”

मैंने सिर हिलाते हुए कहा- इनके ब्रह्मचर्च की परीक्षा का एक प्रसंग मुझे भी याद आ रहा है- एक बार यमुना में भयंकर बाढ़ आयी थी। मालूम हुआ कि उस पार महर्षि दुर्वासा पधारे हुए हैं। गोपियां उनकी सेवा में भोज्य-थाल सजाये बैठी थी, किन्तु जायें तो कैसे – विकट सवाल था। चिन्तातुर गोपियों को देखकर कृष्ण ने कहा- ‘ जाओ, और यमुना से कहना कि अखण्ड ब्रह्मचारी कृष्ण ने हमें भेजा है। हे यमुने! मार्ग दे दो।’ गोपियां ठिठकीं। कृष्ण के साथ नित रमण करने वाली गोपियां भला कैसे स्वीकारें कि कृष्ण अखण्ड ब्रह्मचारी हैं।अखण्ड ब्रह्मचारी के लिए तो अष्टविध मैथुन- नारी देह का चिन्तन, स्पर्शन, दर्शन, लीलावर्णन...आदि सबकुछ वर्जित है, फिर ये ब्रह्मचारी कैसे! गोपियों के भाव को समझ कर कृष्ण ने पुनः कहा- ‘ जाओ तो सही, देखो यमुना क्या करती है। हो सकता है मार्ग मिल ही जाये।’ कृष्ण का मान रखने के लिए गोपियां अनमनी सी यमुना-तट पर गयी, और उनके शब्द दुहरा दिये। आश्यर्य कि यमुना तत्क्षण ही सूख गयी लगभग, और गोपियां सहजता से उस पार चली गयी।

हजारों थालियां सज कर गयी थी। महर्षि ने सबका मान रखा। सब चट कर गये। भोजन कराने के बाद गोपियाँ अपना-अपना थाल लिए संकुचित खड़ी थी, क्यों कि यमुना पूर्ववत हुंकार भर रही थी। उन्हें संकुचित देखकर दुर्वासा ने पूछा- ‘ क्या बात है, तुमलोग अब जाती क्यों नहीं?’ यमुना की स्थिति व्यक्त करने पर ऋषि ने पुनः प्रश्न किया- ‘ तो फिर आयी कैसे थी? ’ गोपियों ने कृष्ण का वक्तव्य दुहरा दिया। ऋषि मुस्कुराये, और बोले- ‘ ठीक है, जाओ, यमुना से कह देना कि सदा निराहारी दुर्वासा ने हमें भेजा है, हे यमुने! मार्ग दे दो।’ अभी-अभी हजारों थालियां छक कर जाने वाले ऋषि की बातों पर गोपियों का अविश्वास स्वाभाविक था- ये आदमी निराहारी कह रहा है स्वयं को। बुतबनी गोपियों को देख ऋषि ने फिर टोका, जाती क्यों नहीं? ’ शिवांश दुर्वासा की क्रोधाग्नि की चर्चा सुन रखी थी गोपियां। अतः बिना कुछ आशंका व्यक्त किये, भयभीत, वहां से चल देना पड़ा। किन्तु आश्चर्य, उनका मार्गदर्शन काम आया। निराहारी दुर्वासा ने भेजा है- कहते ही यमुना पुनः सूख गयी, और गोपियां पूर्ववत वापस आगयी। बाबा के होठों पर गम्भीर मुस्कान तैर गया एक बार। लम्बी सांस छोड़ते हुए बोले- “ सामान्य मानवी बुद्धि में नहीं समा सकती ये बातें। गोपियां जब शंकित हो सकती हैं, तो फिर आम आदमी का क्या! अकर्तापन का अनन्यतम उदाहरण है ये दोनों घटनायें। सबकुछ करते हुए भी न करने वाला...।

“…ये महारास की लीला जो है न दिव्यातिदिव्य है। श्रीकृष्ण ही जगत के आत्मा हैं, और आत्माकार वृत्ति ही श्रीराधा हैं, और शेष आत्माभिमुख वृत्तियाँ ही गोपियाँ हैं। इनका अनवरत, धाराप्रवाह आत्मरमण ही महारास है। ये किसी लौकिक स्त्री-पुरुष का देह-मिलन कदापि नहीं है। यहां न ‘जारभाव’ है, और न ‘औपपत्य’ का ही प्रश्न है। मायिक पदार्थों के द्वारा मायातीत प्रभु का अनुकरण कोई कैसे कर सकता है। भगवान के दिव्य उपदेशों का पालन(अनुसरण) तो अवश्य करे, किन्तु उनके सभी लीलाओं और कृत्यों का अनुकरण कदापि न करे।”

इतना कह कर बाबा चुप हो गये। यह प्रसंग समाप्त हो गया—शायद इसलिये। किन्तु मेरे मन में अभी भारी कुलबुलाहट चल ही रहा था। बाबा ने कृष्ण को महातान्त्रिक कहा था- इस प्रसंग के प्रारम्भ में। अब तक की बातों से काफी हद तक तो सिद्ध भी हो गया, फिर भी कुछ रहस्य अभी गर्भगत ही रह गया। मेरे मन का उद्वेलन इसी कारण था। कुछ देर तक तो देखता रहा, उनके चेहरे को, शायद और कुछ बोलें; किन्तु काफी देर हो जाने पर छेड़ना ही पड़ा– ‘ तो क्या महारास में गोपियों के साथ नृत्यगान भी तान्त्रिकता है, या कुछ और? जैसा कि आपने कहा- गोपियों और कृष्णों का चक्राकार व्यूह रचित हो गया, और आगे की सारी क्रिया-लीला उस व्यूह-संरचना में ही होते रही, जैसा कि स्वामी जयदेव ने भी चित्रित किया है ; किन्तु क्या इसे भैरवीचक्र की क्रिया से भी कुछ वास्ता है?’

मेरे मुंह से ये ‘भैरवीचक्र’ शब्द सुन कर बाबा अचकचाये। उनके चेहरे का रंग कुछ बदला। मुझे लगा कि वे क्रोधित हो रहे हैं। आँखें जरा लाल हो आयी, और विस्फारित भी। कभी मेरी, और कभी गायत्री की ओर घूरे जा रहे थे। तभी, गायत्री ने कहा- ‘ हाँ भैया! मैं तो हमेशा इन शब्दों के अर्थ और व्यवहार पर ही भ्रमित होते रहती हूँ; किन्तु इसके बारे में पूछूँ-जानूँ तो किससे, कोई उचित व्यक्ति मिले तब न। जिस दिन, ये सब बताने वाले दादाजी थे, उस दिन अभिरुचि नहीं थी, और अब जिज्ञासा होती है, तो वे न रहे। सोचती हूँ- तरह-तरह के टोटके, तन्त्र-मन्त्र के नाम पर जीवों का बलि-विधान, मदिरा-मांस का धड़ल्ले से प्रयोग- क्या ये सब उचित और सनातन है?’

गायत्री के प्रश्न पर, बाबा थोड़े सामान्य हुए, और कहने लगे- “अच्छा, तुम दोनों के सवालों का जवाब देता हूँ। पहले जरा इस तन्त्र को ही समझ लो, क्यों कि विडम्बना है कि आजकल बड़े ही संकीर्ण और गर्हित अर्थों में प्रायः जाना-समझा जा रहा है। विस्तृत अर्थ कहीं खो सा गया है। हमने पहले भी तुमलोगों से कहा है, फिर दुहरा रहा हूँ कि हमारी संस्कृति वैदिक और तान्त्रिक परम्पराओं का अद्भुत महासंगम है। यहां तन्त्र शब्द- आगम, यामल, डामर और तन्त्र –इन चारो अर्थों मंह प्रयुक्त है। आगम, यामल, डामर पर कभी बाद में विस्तार से चर्चा करूंगा। चुंकि अभी हमलोगों की बात महातान्त्रिक श्रीकृष्ण पर चल रही थी, इसलिए विशेषकर ‘आगम’ पर एक आँख खोलने वाली बात कह दूं- आगतं शिववक्त्राब्जाद् गतं तु गिरिजामुखे। मतं च वासुदेवस्य तस्मादागम उच्यते॥ वासुदेव (कृष्ण) का मत, शिव के मुख से आकर(निकलकर), पार्वती के कानों में गया, यानी आगत (आया) का ‘आ’, गतं(गया) का ‘ग’ और मतं(मत-विचार) का ‘म’- आ+ग+म से शब्द बना आगम। इस प्रकार ‘आगम मात्र’(सभी आगम) वासुदेव कृष्ण के मत (विचार) कहे जा सकते हैं। वैसे इनकी मान्यता पंचविध है- शैव, शाक्त, वैष्णव, सौर और गाणपत्य। आगे इन पांचों के भी अनेक भेद हैं। वाराही तन्त्र में आगम का लक्षण इस प्रकार निरुपित है- सृष्टिश्च प्रलयश्चैव देवतानां यथार्चनम्। साधनश्चैव सर्वेषां पुरश्चरणमेव च॥ षट्कर्मसाधनश्चैव ध्यानयोगश्चतुर्विधः। सप्तभिर्लक्षणैर्युक्तमागमं तद्विदुर्जनाः॥ यानी सृष्टि, प्रलय, देवतार्चन, पुरश्चरण, षट्कर्म, ध्यान और योग- इन सात चीजों का समन्वय है आगम-शास्त्र। किन्तु अभी तो तुमलोग इस तन्त्र शब्द के अर्थ में ही उलझे हुए हो, अतः इसे ही पहले समझने की चेष्टा करो, फिर अवसर मिलने पर इन्हें बूझने का प्रयास करना। तन्त्र शब्द के भी अनेक अर्थ हैं। ‘तनु विस्तारे’ में ‘ष्ट्रन्’ प्रत्यय लगाने से तन्त्र शब्द बनता है। इसमें कर्म और ज्ञान दोनों का समावेश है। तथा ‘तन्त्रिधारणे’ से ‘धञ्’ प्रत्यय करके भी तंत्र शब्द बनता है। अमरकोष, शब्दकल्पद्रुम आदि कोषग्रन्थों में इसके अनेक अर्थ हैं- तन्त्रं प्रधाने सिद्धान्ते सूत्रवाये परिच्छेदे..। तथा सर्वानुपायानाथ संप्रधाय समुद्धरेत् स्वस्थ कुलस्य तन्त्रम् — प्रधान, सिद्धान्त, करघा, ताना, साज-सामान, औषधि, परिच्छेद, श्रुतिशाखा, विधि, नियम, व्यवस्था, साधना, विस्तार, राष्ट्र, करण, कुल, शास्त्र, सैन्य, प्रबन्ध, शपथ, धन, गृह, वयन, साधन, कल्याण आदि विविध अर्थो में तन्त्र शब्द का प्रयोग होता है, भले ही आमजनों में तन्त्र सिर्फ जादू-टोना-टोटका, मारण, मोहन, वशीकरण, उच्चाटन, विद्वेषण आदि अभिचार कर्म के रुप में ही जाना जाता है। तन्त्र को इस प्रकार भी परिभाषित किया गया है- यत् सकृत्कृतं बहूनामुपकरोति तत् तन्त्रमित्युच्यते। शैवसिद्धान्त कामिक आगम में कहा गया है- तनोति विपुलानर्थान् तत्त्वमन्त्रसमन्वितान्। त्राणञ्च कुरुते यस्मात्तन्त्रमित्यभिधीयते॥ तथा कालीविलासतन्त्र में कहा गया है- तं त्राति पतितं घोरे तन्त्र इत्यभिधीयते —इस घोर संसार में पतित जीवों की जो रक्षा करे, वही तन्त्र है। उत्कृष्ट साधना और सृष्टि नियम-सिद्धान्त को भी उद्धाटित करता है यह- इसे बहुत कम लोग ही जान-समझ पाते हैं। यही कारण है कि तन्त्र के प्रति बहुतों का घृणाभाव है, या कहो कि इसे लोग निकृष्ट कोटि की कोई क्रिया मात्र समझने की भूल कर बैठते हैं। हालांकि, इस जन-भावना के पीछे भी बहुत बड़ा कारण है।आज जो तन्त्र का विकृत रुप देखने-सुनने को मिल रहा है, वह अचानक नहीं हो गया है। न जाने कब, कैसे, धीरे-धीरे बौद्धतन्त्र से लेकर हिन्दु तन्त्र तक, विशेष कर वाममार्गी साधना में शिश्नोदर-पीड़ित भोगवादी अनाधिकारी लोगों का प्रवेश होता चला गया। स्वाभाविक है कि अनाधिकारी कहीं भी घुसेगा को मूल चीजों को नष्ट-भ्रष्ट ही तो करेगा। तन्त्र की मर्यादा-कीर्ति को भी इन अनाधिकारियों ने ही कलंकित किया। आज हम कृष्ण को महातान्त्रिक कहें, भगवान दतात्रेय को महाकापालिक कहें, तो आमजनों को ऐसा ही कुछ भ्रम या अविश्वास होगा। महानिर्माणतन्त्र स्पष्ट कहता है-

उत्तमो ब्रह्म सद्भावः, ध्यान भावस्तु मध्यमः। स्तुतिर्जपोधमो भावो बहिर्पूजाधमाधमा॥

- बाह्यपूजा-जप, तप, स्तुति आदि बाहरी पूजा प्रक्रिया को वरीयता क्रम में अधम कहा है, और ध्यान भाव को मध्यम, तथा ब्रह्मभाव को साधना की उत्तम कोटि में रखा गया है। कृष्ण ने भी बारम्बार कर्मकाण्डीय आडम्बरों का वहिष्कार किया है। तन्त्र की गुह्यतम साधना के विषय में कहा गया है—

क्रूरान्खलान्पशून्पापान्नास्तिकान्कुलदूषकान्। निन्दकान्कुलशास्त्राणां चक्राद्दूरतरं त्यजेत्॥

– क्रूर, खल, पशु(अष्टपाशवद्ध), नास्तिक, कुलदूषण, शास्त्र-निंदक आदि को ‘चक्रसाधना’ से दूर ही रखा जाना चाहिए। क्यों कि हंसविलास तन्त्रानुसार यह असिधारावत- तलवार की धार के समान है -

असिधाराव्रतसमो मनोनिग्रहहेतुकः। स्थिरचित्तस्य सुलभः सफलस्तूर्णं सिद्धिदः॥

इन्हीं बातों को कुलार्णवतन्त्र में भी किंचित शब्दभेद से कहा गया है-

कृपाणधारागमनात् व्याघ्रकण्ठावलम्बनात्। भुजंगधारणान्नूनमशक्यं कुलवर्तनम्॥

यानी इन साधनाओं को अपनाना तलवार की धार पर चलने, वाघ को गले लगाने, सर्प को गले में धारण करने तुल्य है। इससे स्पष्ट होता है कि तपे-तपाये, बिलकुल जितेन्द्रिय साधकों के लिए है ये सब साधना।”