बाबा उपद्रवीनाथ का चिट्ठा / भाग 15 / कमलेश पुण्यार्क

Gadya Kosh से
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‘सामान ही कितना है हमलोगों के पास, एक ट्रिप से ज्यादा थोड़े जो होगा। सारा सामान मैं रात में ही पैक कर चुकी हूँ। वस उठाकर वैन में डाल देना है। स्नान-ध्यान अब नये आवास में ही चल कर होगा।’- कहा गायत्री ने और बाथरुम की ओर बढ़ चली।

‘और मेरी चाय, वो भी नये वंगले में ही जाकर पीना होगा क्या?’- मेरी बात पर भाई-बहन दोनों हँस पड़े।

“बेड’ टी- अंग्रेजियत का दुम चिपक गया है हिन्दुस्तानियों में।” - बाबा को कुछ कहने का अवसर मिल गया— “इसके वगैर काम ही नहीं चलता। मैं ये नहीं कहता कि चाय बुरी चीज है, पर ये अवश्य कहूँगा कि इसकी आदत बहुत ही बुरी है, वो भी सुबह-सबेरे, बिलकुल खाली पेट में तो सीधे जहर पीने जैसी है। मुझे याद है, पिताजी अपने युवावस्था का वाकया सुनाते थे– उन दिनों कलकत्ते में रहते थे। ब्रुकब्रॉन्डइण्डिया डेगा-डेगी दे रही थी। भारतीय संस्कृति में उसका प्रवेश आमजन क्या, खासजन तक भी न के बराबर था। सुबह-सुबह मुहल्ले के नुक्कड़ पर बड़ी सी गाड़ी- पेट्रोल-डीजल ढोने वाले टैंकर की तरह आ लगती- कुछ विशेष प्रकार की बनावट वाली - भीतर ही भट्ठा भी था, टैंकर में चाय बन रही होती, और लोगों को पुकार-पुकार कर मुफ्त में चाय पिलायी जाती। साथ ही चलते समय चाय की छोटी दो पुड़िया और दूध-चीनी का पैकेट भी थमाया जाता। एक पर्ची भी साथ में दी जाती, जिस पर चाय-चालीसा होता- यह कह कर कि शाम को भी जरुर पीजियेगा, इसमें बतायी गयी विधि से, घर में बनाकर, फिर अगली सुबह तो हम यहां पिलायेंगे ही- सोचो जरा, कैसा लाजवाब तरीका है, हमारी आदत को प्रभावित करने का, हमारी संस्कृति को ध्वस्त करने का। कुछ दिनों तक चाय-विज्ञापन का यह क्रम चला, और धीरे-धीरे लोग अंग्रेजों की गुलामी के साथ चाय की गुलामी में भी जीना सीख गए। हम भारतीय, गाय का धारोष्ण दूध पीते थे, वो भी बिना शक्कर, चीनी, गुड़ के। रात, सोते समय हल्की शक्कर डाल कर गरम दूध पीने का रिवाज था। गर्मियों में सिकंजी, मट्ठा, लस्सी पीते थे। जीरा, गोलकी, सौंफ, गुलाब, केवड़ा, खस मिश्रित मिश्राम्बुपान करते थे। अमीर लोग चिरौंजी-बादाम का शर्बत पीते थे। और अब सुबह से रात तक चाय, कॉफी, कोला, पेप्सी, लिमका...पता नहीं क्या-क्या अनाप-सनाप जहर पीये जा रहे हैं।और ये व्यापारी मोटे होते जा रहे हैं। बहुत सी बेतुकी, वाहियात चीजें हमारी आदतों में समा गयी हैं, और दिनों दिन समाती जा रही हैं। बड़े-बड़े व्यापारियों ने हमें परवश कर रखा है, गुलाम बना लिया है- अपने विविध उत्पादों का। इतने आहिस्ते से, बड़े मनोवैज्ञानिक ढंग से प्रवेश करते हैं, ये व्यापारी हमारे घरों में कि पता भी नहीं चलता। खाने-पीने से लेकर दैनिक उपयोग की बहुत सी वस्तुओं पर इनका ही वर्चस्व है। हम चाह कर भी इनसे पिंड छुड़ा नहीं पाते। दरअसल हमारी सोंच ही बदल देते हैं ये कलाबाज़।”

पेस्ट का झाग बेसिन के हवाले करती हुयी गायत्री ने कहा- ‘और ये भी

अंग्रेजों का दुम ही है न भैया? नीम-बबूल की ताजी दातुन को विसार कर, प्लास्टिक का झाड़न दांतों पर फेर रहे हैं...एक झाड़न वर्षों घसीटेंगे दांतों पर।’- फिर मेरी ओर देखती हुयी बोली- ‘तुम निराश न होओ, तुम्हारी चाय अभी हाजिर करती हूँ। इसीलिए सबकुछ तो पैक कर दी थी, पर चाय का सारा सामान अभी बाहर ही पड़ा है। तुम भी जल्दी से फ्रेश हो लो, और भैया तुम भी। आज इस डेरे की अन्तिम चाय है हमलोगों की। आज तुम्हें भी पिलाऊँगी-लौंग, अदरख, इलाइची वाली कड़क स्वास्थ्यवर्द्धक चाय।’-– कहती हुयी गायत्री रसोई की ओर लपकी; और मैं बाहर बालकनी में निकल गया, यह कहते हुए कि जरा बता दूँ ड्राईवर को- सामानों की व्यवस्था, जो दो लेबरों के साथ अभी-तक नीचे ही खड़ा है।


अगले दो घंटे बाद, गायत्री और बाबा को साथ लिए नये बंगले में दाखिल हुआ। बंगला- वाकई खुशनुमा था। एक छोटे से कमरे और कीचन, तथा छःफुटी लॉबी में पिछले दस-बारह साल गुजारने के बाद, चार बड़े कमरों के साथ बड़ा सा बैठकखाना, कीचन, स्टोर, दो-दो लैट्रिन-अमेरिकन और इंडियन, बाथिंग टब वाला बाथरुम, बड़ा सा गार्डेन, आउट हाउस, टैरेश, और भी बहुत कुछ– घूम-घूम कर देखती हुयी गायत्री के खुशनुमा गाल और भी गुलाबी हो चले थे। दुर्भाग्य! आजतक मैं बेचारी को कभी ढंग की साड़ी भी नहीं पहना पाया था। आधुनिक श्रृंगार प्रसाधनों से तो इतनी दूर थी, जितनी उसके गांव से दिल्ली की दूरी है। आज अचानक ये सबकुछ जो हुआ है, उसे वह सिर्फ और सिर्फ बाबा के चरणों का प्रताप मान रही है। सुपरिचित मुंहबोले भाई तो हैं ही, पर अब मन ही मन उन्हें भगवान का दर्जा दे बैठी है गायत्री। कल ही मुझसे कह रही थी- किसी तरह अनुनय-विनय करके उपेन्दर भैया को अब यहीं साथ में ही रखूंगी। पहले तो जगह की कमी के लिहाज में वे भी बहानाबाजी करके निकल जाया करते थे, किन्तु अब वो सब नहीं होने दूंगी। मैं भी इधर-उधर घूम कर गायत्री की प्रसन्नता का आंशिक लाभ लिए जा रहा था।

‘ये ऊपर में, टैरेश वाला कमरा बिलकुल एकान्त है, भैया का आसन इसी में रहेगा। सामने से यमुना-छवि का भी दर्शन होते रहेगा।’- कहा गायत्री ने, जिसे सुनते ही बाबा चिहुंक उठे, मानों बर्रे ने डंक मार दिया हो- ‘क्या कहा तूने मेरा कमरा? मैं यहाँ क्यों रहने लगा? मुझ फक्कड़-घुमक्कड़ को इस कैदखाने में क्यों बन्द करना चाहती हो? मैं जहां हूँ, वस ठीक हूँ।’ लपक कर गायत्री ने उनके पैर पकड़ लिए। बाबा पीछे खिसकने का प्रयास करते रहे, पर पैर तो गायत्री के गिरफ्त में थे।

‘ये क्या कर रही हो गायत्री! बहन का रिस्ता रखती हो , और पैर छू कर पाप चढ़ा रही हो?’

‘मैं पाप-पुण्य नहीं जानती। मैं एक ही बात जानती हूँ कि मुझसे रिस्ता जोड़ा है, तो ठीक से निभाओ। यहाँ जगह की कोई कमी नहीं है। इतने बड़े बंगले में क्या किसी में हाथ, किसी में पैर धर कर सोयेंगे हम दो जन? तुमको यहीं रहना होगा वस, और कुछ नहीं जानती, मेरी कसम है तुम्हें। तुम्हारी साधना-क्रिया में मैं किसी तरह का बाधक नहीं बनना चाहती, इसलिए तुम्हें एकान्त स्थान भी दे रही हूँ। बस कृपा करो, कहीं और जाने का विचार छोड़ दो। तुम्हें तो पता ही है कि बचपन से ही कितनी जिद्दी हूँ मैं। जबतक स्वीकृति नहीं दोगे, मैं तुम्हारी पांव छोड़ने वाली नहीं हूँ, चाहे जितना पाप-पुण्य चढ़ जाये तुम्हारे ऊपर।’

काफी ना-नुकुर के बाद अन्ततः गायत्री सफल हुयी बाबा की स्वीकृति लेने में। मुझे भी अतिशय प्रसन्नता हुयी- चलो, अच्छा ही हुआ, बाबा अब हमेशा हमलोगों के साथ रहेंगे।

मजदूरों के सहयोग से ड्राईवर सारा सामान अपने स्तर से व्यवस्थित कर चुका था। रही-सही कसर गायत्री अपने स्तर से दूर करने में जुट गयी। मैं भी कुछ हाथ बटाने लगा उसके काम में। बंगले में आवश्यकता की लगभग सारी चीजें स्थायी रुप से पहले से ही मौजूद थी- सोफा, पलंग, कुर्सी, मेज, ड्रेसिंग-टेबल, एसी, पंखे, यहां तक कि फ्रीज और वासिंग-मशीन भी। एक बड़ा सा टीवी बैठकखाने की शोभा बढ़ा रहा था। एक मध्यम आकार का टीवी ब्रैकेट पर शयनकक्ष में भी रखा हुआ था। बड़े से शयनकक्ष का एक हिस्सा केबिन के रुप में घेर कर बनाया हुआ था, जिसमें कम्प्यूटर, प्रिंटर, फैक्स, लैंडलाइन आदि की आधुनिक सुविधायें भी थी। इन सारी चीजों को देख-देख कर गायत्री कितना प्रफ्फुलित हो रही थी, इसका अन्दाजा वही लगा सकता है, जिसने सिर्फ सपने देखे हों सुख-सुविधाओं का, और बारम्बार जमींदोज़ भी हुए हों, सपनों के राजमहल जिसके। मुझे अच्छी तरह याद है, बिलकुल आज की बात सी ताजी है, मेरे ज़ेहन में- शादी की पहली वर्षगांठ। मुझे इच्छा थी कि बंगाली स्टाइल वाली शंख की चूड़ी भेंट करुं गायत्री को, किन्तु बाजार और जेब टटोला तो वो मेरे औकाद से बाहर की निकली। मन मसोस कर, साधारण सी डिबिया वाली सिन्दूर और एक मखमली हैंकी का गिफ्ट पैक कराकर उदास चेहरे पर जबरन हँसी थोपते हुए घर में घुसा था। किसी और ने तो नहीं, किन्तु गायत्री ताड़ गयी मेरी मनःस्थिति पर। मेरी बाहों में सिमटती हुयी कहा था उसने- ‘अभिनय करना नहीं आता तो क्यों करते हो? क्या समझते हो अभिनय बहुत आसान काम है? तुम्हारे बस की चीज नहीं है।’ उसके कपोलों को आहिस्ते से छूते हुए मैंने पूछा था- ‘क्या कह रही हो, मैं कुछ समझा नहीं।’

‘मैं जानती हूँ, आज तुम कुछ मन-माफिक गिफ्ट देना चाहते थे, जो नहीं ला पाये हो। इसमें शर्मिंदगी की क्या बात है? मैं तुम्हारी प्रेमिका बनने से पहले तुम्हारी पत्नी हूँ, अर्द्धांगिनी हूँ। मायूस क्यों होते हो।’- कहती हुयी गायत्री, मेरे कुर्ते का जेब टटोलने लगी थी, जिसके एक कोने में आज का गिफ्ट पड़ा, छिपा सा था- ‘लाओ जल्दी से दे दो, जो लाये हो मेरे लिए।’

मेरे कांपते हाथ, खुद के कुर्तें की जेब में घुसे थे, मानों किसी का पॉकेट मारने जा रहा हूँ। खुद की ही नजरों में गिरा हुआ मैं, झुकी आँखों से गायत्री को देखते हुए, बांया हाथ उसकी आंखों पर धर दिया था और दाहिने हाथ ने, जल्दी से जेब टटोल कर छोटा सा पैक निकालकर, गायत्री के दायें हाथ के हवाले कर दिया था। अपनी आंखों पर से मेरी हथेली को झटके से हटाती हुयी गायत्री ने एक हाथ से पैकेट थामा, और लिपट पड़ी थी मुझसे। देर तक लिपटी रही यूंही। दोनों में किसी के पास कोई शब्द न थे। थी तो सिर्फ कुछ ध्वनियां, जो दो दिलों की धड़कनों के माध्यम से बाहर निकलने को बेताब हो रही थी। सच में खास क्षणों में शब्द कितने निरीह हो जाते हैं...!

और फिर संघर्षमय वैवाहिक-जीवन का ‘सिलवरजुबली’ भी यूँ ही गुजर चुका था, बिना कुछ टीम-टाम के।

गायत्री की पुकार पर मेरे विचारों की तन्द्रा टूटी। मॉर्डेन कीचन को अपने ढंग से अरेंज कर, मुझे पुकार रही थी- मुआयना करने को।

चाय का प्याला थमाती हुयी गायत्री ने कहा- ‘कैसा लगा मेरा अरेजमेंट?’

प्याले को पूर्ववत ट्रे में रखते हुए, दायें-बायें झांका। बाबा शायद बाथरुम में थे। आगे बढ़कर गायत्री को आगोश में लेते हुए बोला- ‘लगना कैसा है, जैसी तुम हो, वैसा ही तुम्हारा रसोईघर भी....।’

‘धत्त! बड़े रोमांटिक हो रहे हो आज। दफ्तर नहीं जाना है क्या?’- बाहुपाश से मुक्त होती गायत्री ने कहा।

‘कौन कहें कि मीलों जाना है, अब। इस कोठी से निकला, और उस कोठी में घुसा...। मैं अभी तैयार होता हूँ, स्नान करके। अभी समय ही कितना हुआ है।’- कहते हुए प्याला उठाकर, बाहर आ गया। बाबा का स्नान हो चुका था। उन्हें लिए गायत्री ऊपर चली गयी, उनका कमरा दिखाने, और वहां की व्यवस्था देखने।

कमरे में पहले से पड़ी बड़ी सी चौकी, बाहर टैरेश पर निकाली जा चुकी थी। कुर्सी वगैरह बाकी के सामान भी वहीं बाहर में ही पड़े थे। गायत्री के कहे मुताबिक नौकर ने कमरे को धो-पोंछ कर नया कम्बल बिछा दिया था। कमरे में गूगुल-देवदार की भीनी सुगन्ध फैली हुयी थी।

‘यहां की व्यवस्था में और क्या चाहिए भैया, बता दोगे, ताकि...।’- कमरे में घुसती हुयी गायत्री ने पूछा, जिसके बीच में ही टोकते हुये बाबा बोले- ‘चाहिए क्या मुझे, कुछ नहीं। कमरा, और कमरे में एक कम्बल। बाकी के मेरे सौगात तो मेरी झोली में है ही।’

गायत्री मुस्कुरायी।वह जानती थी कि उनकी झोली में क्या है- एक जोड़ी झूल-लंगोटी, और लाल ‘बन्धने’ में बंधी हुयी कुछ...तस्वीर, या कुछ और...यही थे उनके सौगात। ‘तो ठीक है, तुम अपनी धर्म-साधना में लगो, और मैं अपनी कर्म-साधना में। आज काम कुछ ज्यादा दीख रहा है, फिर कल से तो...।’-कहती गायत्री कमरे से बाहर आगयी, तभी याद आयी- ‘दिन में क्या लेते हो आदतन, मुझे निःसंकोच बताना।’

प्रश्न दिन के भोजन से था, जिसके उत्तर में बाबा ने स्पष्ट कहा- ‘किसी तरह की औपचारिकता की जरुरत नहीं है। तुम जानती ही हो कि चौबीस घंटे में सिर्फ एक बार अन्नाहार लेना पसन्द करता हूँ। अब इसे दिन में दे दो, या कि रात में- तुम्हारी सुविधा और मर्जी।’

‘मेरी सुविधा और मर्जी नहीं, तुम्हारी इच्छा और तुम्हारी मर्जी।’