बाबा उपद्रवीनाथ का चिट्ठा / भाग 17 / कमलेश पुण्यार्क

Gadya Kosh से
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ठीक सवातीन बजे मैं अपना सारा काम निपटाकर, होटल पहुंच गया। दरवाजे पर दस्तक दो-तीन बार देना पड़ा। प्रफ्फुल्लित गायत्री ने किवाड़ खोला- ‘बड़ी जल्दी निपट लिये सारा काम। घूमने की ललक में कहीं फांकीमार कर तो नहीं निकल गये?’

गायत्री के इस पुराने ज़ुमले से मैं वाकिफ़ था, अतः बिना कुछ प्रतिक्रिया व्यक्त किये विस्तर पर धब्ब से लेट गया। बड़ी थकान लग रही थी। जी चाहता था- सो लूं घंटे भर, किन्तु गायत्री की कामना- मनकामेश्वर दर्शन, और पुनः अगली यात्रा...। सिर टिकाने के लिए तकिया खींचा, जिसके नीचे पड़ी औंधी-खुली डायरी देख चौंका।

‘डायरी लिख रही थी क्या? शायद इसी कारण दरवाजा खोलने में देर हुयी।’-कहते हुये विस्तर पर पड़ी खुली डायरी उठा लिया। सादे पन्ने खुले हुए थे, उनके बीच में एक बड़ा सा सीट मोड़ कर रखा हुआ था। डायरी गायत्री के हाथों में देते हुए, मुड़े हुए पन्ने को खोला। कोई विचित्र सा चित्र बनाया हुआ था- अंग्रेजी के आठ को बड़ी आकृति में लिखकर, लगातार कुछ कड़ियों के रुप में जोड़ने का प्रयास किया जाय, वैसी ही कुछ आकृति बन रही थी। आठ के दोनों वृत इतने बड़े थे कि उनके अन्दर भी कुछ छोटी आकृति दर्शाने का प्रयास किया गया था, जो स्पष्ट तो नहीं थे, किन्तु अपने अस्तित्व का संकेत अवश्य कर रहे थे। आड़ी-तिरछी रेखाओं के माध्यम से उन्हें एकरंगे होने के दोष से भी मुक्त करने का प्रयास किया गया था। कुछ देर तक मैं उसे गौर से देखते रहा, किन्तु कुछ खास समझ न आया। फलतः पूछना पड़ा- ‘ये क्या है, कैसा चित्र बना रही थी?’

‘ये क्या है, क्यों है, कहाँ है- आदि बातों का जवाब तो उपेन्दर भैया ही ठीक से दे सकते हैं। मैंने तो जल्दबाजी में इस रेखाचित्र को खींच भर दी हूँ। पता नहीं फिर ज़ेहन में रहे, या कि गायब हो जाये। मैं बहुत बार अनुभव की हूँ, कुछ ऐसे आश्चर्यजनक विम्ब बनते हैं- मानस पटल पर क्षण भर के लिए, और लुप्त हो जाते हैं। बाद में ठीक से स्मरण भी नहीं रहते कि उसके बारे में किसी से पूछ-जान सकूँ। हाँ, इतना जरुर लगता है, कि किसी रहस्यमय बात का इशारा है। आज भारद्वाजेश्वर के सामने ज्यूं ही आसन लगायी, बिना किसी प्रयास के ही ये बिम्ब सामने, वो भी बहुत ही प्रकाशमय होकर दीखने लगा। लगता था, शीशे की बनी घुमावदार नालियों के बीच से सतरंगी प्रकाश-किरणें गुजर रहीं हों, काफी तेजी से, और उनकी गत्यमान स्थिति में कुछ और नये विम्बों का सृजन भी हो रहा हो, बीच-बीच में- त्रिभुजाकार, वृत्ताकार, पद्माकार, शंक्वाकार आदि-आदि। तुम यदि बीच में ही मुझे छेड़ते नहीं, तो शायद मैं घंटो निहारती रहती इसे। क्या है, ये तो पता नहीं, किन्तु अजीब सा सम्मोहन प्रतीत हुआ इस बिम्ब में। आंखें खोलने की जरा भी इच्छा न हो रही थी हमें।’

गायत्री के कहने पर मुझे भी ध्यान आया। उसके बनाये हुए रेखाचित्र पर फिर से गौर किया- आड़ा-तिरछा-उलटा-सीधा करके देखने-बूझने का प्रयत्न किया। तभी चौंक उठा- अरे, मैं भी तो कुछ ऐसा ही विम्ब-दर्शन किया उस वक्त। वस अन्तर इतना ही है कि तुम्हारे इस रेखाचित्र को उल्टा करके रख देने की आवश्यकता है। और हाँ, ये जो गति और प्रकाशपुंज की बात कर रही हो, ये तो मेरे विम्ब में भी कुछ ऐसे ही, किन्तु चमक बहुत ही धूमिल-सी थी, जैसे गंदले शीशे की नाली को बाहर से झांक कर देखा जा रहा हो, या कहो अन्दर का प्रकाश ही अपेक्षाकृत कम हो। आखिर क्या रहस्य हो सकता है- हमदोनों एक ही समय में, एक ही स्थान पर एक ही विम्ब को देख रहे हैं, सीधे और उल्टे क्रम में?

‘इस रहस्य पर से पर्दा तो अब भैया ही उठा सकते हैं। इतना तो तय है कि चलते समय भारद्वाज आश्रम अवश्य जाने का भैया का इशारा कुछ अन्य बातों का संकेत देता है, साथ ही दोनों को एक ही विम्ब का दर्शन!’

चलो, जो भी हो, ईश्वर-कृपा कुछ शुभ का ही संकेत कहें इसे।अब उनसे मिलकर ही शंका-समाधान होगा, फिलहाल तो मनकामेश्वर मन्दिर के दर्शन के लिए चलना है न। चलो जल्दी से तैयार हो जाओ।

‘तैयार क्या होना है, मैं हमेशा तैयार ही रहती हूँ। वस छोटा बैग उठाओ और चल पड़ो। उधर से घूम कर फिर इधर आना है न, या कि सीधे निकल जाना होगा?’

सामान ढोने का बोझ सहन कर सकें हमलोग, तो समय की कुछ बचत होगी, और अधिक समय दे सकेंगे मन्दिर में। वस यही समझो कि करीब चालीस-पचास किलोमीटर जाना-आना है—मिंटोपार्क के पास यमुना नदी के किनारे ही किले के पश्चिमी भाग में। ऐसा करते हैं कि टैक्सी ले लेते हैं। समय की बचत होगी, और थकान भी कम झेलना पड़ेगा। उधर से ही सीधे वसस्टैंड निकल जायेंगे।

‘क्या ऐसा नहीं हो सकता कि उसी टैक्सी से फिर हमलोग विन्ध्याचल तक निकल जायें, कितनी दूरी होगी- साठ-सत्तर कि.मी. से अधिक दूरी तो नहीं होना चाहिए।’ –गायत्री ने सुझाव दिया।

ठीक है, तुम्हारी राय है तो यही करता हूँ- कहते हुए बैग, और अटैची दोनों

उठा लिया। छोटा बैग गायत्री ने लिया, और होटल से बाहर आ गये। रास्ता, और सुविधा की जानकारी लेने के क्रम में होटल-मैनेजर ने ही एक टैक्सी तय कर दी, जिससे काफी सुविधा हो गयी हमलोगों को।

लगभग पाँच बजे हमलोग मनकामेश्वर मन्दिर के प्रांगण में थे। मन्दिर बड़ा ही सुरम्य वातावरण में अवस्थित है। सरस्वती घाट के पास यमुना नदी के तट पर स्थित, इलाहाबाद के प्रसिद्ध शिव-मंदिरों में एक है यह। चारों ओर से १२० डिग्री के मेहराबी द्वार, अष्टकोणीय आकृति में बने हुये। यानी गोलम्बर सीधे वृत्ताकर न होकर, कोणीय बने हुए हैं, जिसके कारण बहुत ही आकर्षक लगता है। औंधे गोलम्बर को भी विविध चित्रकारियों से सजाया गया था। मुख्य मन्दिर के साथ ही और भी कई मन्दिर हैं, किन्तु वे इतने आकर्षक न लगे। प्रशस्त प्रांगण को पार करके, प्रकाश-स्तम्भ के समीप खड़े होकर अगल-बगल का दृश्य निहारने लगे हमलोग। काफी देर तक वास्तुकला और सौन्दर्य का आनन्द लेते रहे। फिर मन्दिर के भीतर प्रवेश किये। विशाल काले पत्थर को तराश कर अर्घ्यसहित शिवलिंग बना हुआ था- हाथ भर की ऊँचाई पर। पास ही नन्दी और गणेश की भी सुन्दर प्रतिमा थी। संयोग से उस समय आगन्तुकों की संख्या न के बराबर थी। शिवलिंग से बिलकुल सट कर ही हम दोनों ने आसन लगाया। आदतन मैं वज्रासन में बैठकर, दोनों हाथ आगे बढ़ा, शिवलिंग का स्पर्श करने ही वाला था कि गायत्री ने टोका- ‘ऐसे क्यों, आराम से बैठिए न - पद्मासन में।’

मुझे बैठने का सुझावादेश देकर गायत्री स्तोत्र पाठ करने लगी। रावणकृत शिवताण्डव स्तोत्र का गायन वह बड़े ही भावमय होकर करती है। पहले भी कई बार उसका गायन सुन चुका हूँ। बिलकुल लगता है कि नाभिमंडल से स्वर फूट रहें हैं। पूरा स्तोत्र मुझे कण्ठस्थ तो नहीं है, किन्तु गायत्री के स्वर में किंचित स्वर मिलाने का मैं भी प्रयास करता रहा।

करीब बीस मिनट बाद जब स्तोत्रपाठ समाप्त कर, पीछे ध्यान गया तो देखता हूँ- गर्भगृह के बाहर बीसियों लोग- पुरुष-स्त्री खड़े हैं। लगता है गायत्री के गायन ने सबको सम्मोहित कर लिया था। एक महिला ने तो आगे बढ़कर गायत्री के चरण-स्पर्श करने का भी प्रयास किया, जिसे गायत्री ने सहज ही रोक लिया अपने हाथ बढ़ाकर- ‘ये क्या रही हो बहन! देव-प्रतिमा के सामने वैसे भी किसी को प्रणाम नहीं करना चाहिए, और मैं कोई विशेष औरत तो हूँ नहीं।’

अब तक गर्भगृह बिलकुल खाली था। हमदोनों के सिवा भीतर कोई था ही नहीं, किन्तु इस अनजानी महिला के प्रवेश करने के साथ ही बाकी सभी लोग भी भीतर घुस आये, और प्रतिमा के चारों ओर से घेर कर बैठ गये।

हमलोग अभी कुछ देर और ठहरना चाहते थे, किन्तु आसन्न भीड़ ने इसकी इज़ाज़त न दी। चलने को उठ खड़ा हुआ, तो वे लोग भी उठ खड़े हुए, मानों मेरे ही वास्ते बैठे हों। एक ने साहस करके परिचय पूछा- ‘कहाँ से आये हैं आपलोग?’

‘जी, हूँ तो मैं बिहार की, किन्तु फिलहाल आयी हूँ दिल्ली से।’- गायत्री ने संक्षिप्त परिचय देकर, बात समाप्त करनी चाही, किन्तु बात बनी नहीं।

‘वहीं रहती हैं, या कि...?’- एक और महिला ने सवाल किया।

‘जी हाँ, वहीं हूँ काफी समय से। पति नौकरी में हैं।’-गायत्री का संक्षिप्त उत्तर था।

मैं तबतक बाहर निकल आया था, सभामंडप में। किनारे पर खड़े होकर पीछे वाले मन्दिर के बारे में उन्हीं में से एक से पूछा। जवाब समवेत स्वर में मिला- जी हाँ, बोत बढ़िया है, देखने माफिक... जोरुर देखो...।

आगे बढ़कर गायत्री का हाथ थाम ली उस महिला ने, अपने दोनों हाथों से- ‘तोम बोउत अच्छा गान किया, जी करता...ओर सुनना मांगता...।’ फिर आपस में ही बातें करने लगी, अपने लोगों से। टोली बंगालियों की थी, कुछ उड़िया लोग भी थे। सबने हाथ जोड़कर अभिवादन किया। प्रत्युत्तर में हमने भी हाथ जोड़े।

अब चलना चाहिए-कहते हुए मैं सभामंडप से बाहर निकलने लगा; किन्तु गायत्री ने इशारा किया, अभी रुकने के लिए। अतः वहीं एक ओर कोने में बैठ गया। थोड़ी देर में पूरी जमात वापस चली गयी- पास वाली तीसरी मन्दिर में। भीड़ विदा होने पर गायत्री पुनः उठकर गर्भगृह में जा घुसी, और मुझे भी आने को कही।

पुनः एकान्त पा, आसन जमाया हमदोनों ने। ‘तुम्हें तो अटपटा लग रहा होगा कि फिर क्यों अन्दर आयी, किन्तु जान लो कि ये सारा संकेत भैया का था। उन्होंने ही कहा था- प्रयाग जाना तो मनकामेश्वर में कुछ लम्बा आसन जरुर मारना। स्तोत्रपाठ के बाद ज्यों ही थिर होना चाही कि ये मंडली आ जुटी। चलो अब इत्मिनान है।’

आसन लगा सो लग ही गया। आँखें खुलना नहीं चाह रही थी। एकाग्रता की ऐसी अद्भुत अनुभूति आज से पहले कभी लब्ध नहीं हुयी थी, जब कि प्रयास हमेशा कुछ न कुछ अवश्य किया करता था। स्थान का भी ऐसा प्रभाव होता है- सोच भी न सका था। गायत्री भी ध्यानस्थ थी।

काफी देर बाद घंटे की जोरदार टनटनाहट से एकाग्रता भंग हुयी। बिलकुल समीप से सट कर किसी भक्त ने मन्दिर का घंटा हिलाया था, और मुझे लगा, भीतर का तार-तार मानों झंकृत हो उठा हो। घंटे की आवाज बड़ी तेज थी। बोझिल पलकें खुलने को विवश हो गयी। आँखें खुली तो किसी स्वप्नलोक में तैरने लगा। जागृत और स्वप्न के बीच की दूरी स्पष्ट न हो पा रही थी। अरे ये क्या!

आत्मविश्वास को बलवान करने के लिए आँखें मल कर देखा— बगल में बाबा खड़े हैं, और जोरजोर से घंटा अभी भी हिलाये जा रहे हैं। मेरे मुंह से कोई आवाज निकल न पा रही थी। गायत्री ने झकझोरा, तब कहीं तन्द्रा टूटी- ‘क्यों क्या बात है, किसे ढूढ़ रहे हो? क्या देख रहे हो इतने सशंकित भाव से?’