बाबा उपद्रवीनाथ का चिट्ठा / भाग 1 / कमलेश पुण्यार्क

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बाबा उपद्रवीनाथजी कोई महान चिट्ठाकार (Blog writer) हैं—इस भ्रम में न रहियेगा। जो आदमी बा-मुश्किल अपना नाम लिख पाता हो, वह महान आत्मा 'ब्लॉगराइटरी' क्या करेगा! किन्तु हां, आरजू करके, दबाव डाल कर, या फिर न हो तो 'लंठई' करके भी, किसीको ब्लॉगराइटरी के लिए विवश कर सकने का हुनर है, बाबा उपद्रवी नाथ में, जैसा कि मुझे लगा।

बाबा कोई साहित्यकार नहीं हैं, और न मेरे रिश्तेदार ही हैं, फिर भी एक गहरा रिस्ता जोड़ लिया है मुझसे इन्होंने, वह भी अपने 'हुनर' से। मुझे लगा कि ये किस्सा आपसे अवश्य साझा करने लायक है।

मेरे 'गृह'मंत्रालय से रोज-रोज फरमान जारी होता था–– सुबह-सबेरे उठकर 'मॉर्निंगवाक' के लिए. अब भला आप ही बतायें– डेढ़-दो बजे रात तक कम्प्यूटर पर खटरपटर करते रहने वाला आदमी 'ब्रह्मबेला' में जगकर हवाखोरी क्या खाक करेगा?

'गृहमंत्रिणी' की हिटलरशाही, और भावी 'वाकयुद्ध' से त्राण पाने के लिए 'वाक' पर निकलना भी चाहूँ यदि, तो क्या कहीं अनुकूल जगह मिलेगी वाकिंग के लिए! इसलिए मैं तो कहता हूँ - ब्रह्ममुहुर्त और मॉर्निंगवाक ये दोनों शब्द 'बैक-टू-डेट' हो चुके हैं।

मगर उस दिन वैसा कुछ हुआ नहीं। पहले झकझोर कर, और फिर 'पूष की भोर' में पानी का छींटा मार कर, मुझे वाकआउट कर दिया गया।वैसे आप हिन्दी साहित्य से प्रेम रखते होंगे तो मुंशी प्रेमचन्द की पूष की रात का अनुभव तो ज़रूर हुआ होगा। हालांकि ए.सी.वालों के लिए ये टॉपिक ही बेकार है।

खैर, कहते हैं न- 'धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का', वैसे अब इसके लिए कोई और शब्द ढूढ़ना पड़ेगा, अन्यथा सुप्रिमकोर्ट सोकॉज कर सकता है- मुहावरे में प्रयुक्त शब्द परतन्त्र भारत के हैं, जिनसे सामन्ती बू आ रही है। वैसे भी यह मुहावरा कुछ ग़लत ही लगता है- धोबी का सम्बन्ध कुत्ते से ज्यादा, गदहे से होता है। किन्तु मैं न धोबी हूँ, न मेरे पास कुत्ता है, और न गदहा। घाट का भी पता नहीं है। नतीजन, अकेले ही निकल जाना पड़ा धक्के खाकर, किधर जाऊँ...कहाँ जाऊँ- प्रश्न के साथ।

विश्व-स्वास्थ्य-संगठन ने हमारी 'महाराजधानी' को विश्व के महाप्रदूषित

नगरों की सूची में गौरव के साथ शामिल कर लिया है– यह जानकर अब भला राजधानी की प्रशस्त सड़कों पर चहल कदमी करने की हिम्मत होगी कभी? डीजल-पेट्रोल के धुएँ भरे प्रदूषण में 'लेड' भी भारी मात्रा में घुस आया है। पर जाऊँ कहाँ! हालाकि ये बात मेरी श्रीमती समझे तब न!

सोच-विचार के बाद यमुना-तीर का ध्यान आया। सुन रखा था कि इसी नदी के तीर पर कदम्ब का कोई पेड़ था; किन्तु तभी याद आया कि वह पेड़ तो वृन्दावन में था, हस्तिनापुर में कहाँ! फिर भी नदी तो वही है न। चलो उधर ही चला जाय। आज के पहले कभी जाना भी नहीं हुआ था, उस ओर। स्मृतियों के झरोखे में यमुना का वही पावन पुलिन हिलोरें ले रहा था।

काफी दूर तक चलने के बाद, एक चौड़ा-सा नाला नजर आया, जहाँ आदमी- आसपास क्या, दूर-दूर तक भी नदारथ। किससे पूछूँ- यमुना कितनी दूर है, सोच ही रहा था कि एक झाड़ी के पास उकड़ू बैठा- रात का अपना 'वजन हल्का करता' एक इन्सान नजर आया। तनिक इन्तजार के बाद जब वह अपना लंगोट बांध-बूंध कर निश्चिन्त हुआ, तो मैं उसके करीब जाकर, पूछ बैठा- 'भई यमुना किधर है?'

मेरे पूछने पर वह मुस्कुराया नहीं, बल्कि 'रावण मार्का' अट्टहास किया। मैं भयभीत हो उठा। उस रौद्र और वीभत्स हँसी वाले का आपादमस्तक मुआयना करने लगा— दुबली-पतली, छःफुटी काया- बिलकुल काली कलूटी. हाथ भर से अधिक लम्बी, बिना गांठों वाली, फहराती चुटिया। खिचड़ी, लम्बी दाढ़ी। घनी मूछों को भेद कर बाहर झांकते दो विशाल गजदन्त- विशुद्ध स्वर्णाभ, जिन्हें पता नहीं कब धोया-मांजा गया था। ये कॉलगेट-पेप्सोडेन्ट वालों के चमचमाते दांतों के विज्ञापन की खबर, लगता है उसतक अभीतक, कोई पहुँच नहीं पाया था, और न बाबा रामदेव के पतञ्जली दन्त-कान्ति का कोई एजेन्ट ही अभी तक मिल पाया था। पूरे मुंह में दांत तो सिर्फ दो ही थे, मगर दन्तकान्ति की आवश्यकता तो महसूस होनी ही चाहिए थी। नाक भी वैसी ही लम्बी- 'वराह' मार्का। डफली-सा उदर प्रान्त। शरीर की हड्डियों को गिनने-देखने के लिए किसी एक्स-रे प्लेट की ज़रूरत नहीं। शरीर को ढांकने में असफल प्रयासरत झूलनुमा अंगरखे-धोती को चिथड़ा कहने में भी संकोच हो रहा था, जिसपर और मैल जमने की जगह भी नहीं बची थी।

'लगता है दिल्ली में नये आये हो।' – हँसी रुकने के बाद उसने कहा– 'दिल्ली वाले इसी को यमुना कहते हैं; और तुम जिस यमुना की तलाश कर रहे हो, वह तो मथुरा और प्रयाग में भी शायद ही मिले।'तरनी तनूजा तट तमाल तरुवर बहु

छाये'वाला भारतेन्दु का जमाना थोड़े जो है। वैसे, तुम्हारा आना कहाँ से हुआ है?'

मैंने कहा—'मैं पिछले कई वर्षो से यहीं हूँ- दिल्ली में ही। ज़िन्दगी की चक्की

चलाने में इतना उलझा रहा कि इस ओर कभी ध्यान ही नहीं गया। पत्नी की प्रेरणा से आज हवाखोरी के लिए निकला, तो सोचा, यमुना किनारे ही हो लूं।'

मेरी बात पर, वह फिर हँसा, लगभग वैसी ही हँसी. उसकी सांसों की दुर्गन्ध एक बार फिर समा गयी मेरे नथुनों में।

'रहने वाले कहाँ के हो?'

'बिहार का।'- मेरे छोटे से जबाव पर, उसकी आँखें विस्फारित हो आयी। आत्मीयता भी उमड़ पड़ी। दो पग आगे बढ़, मुझसे लिपट पड़ने की धृष्टता करना चाहा, जिसे भांप कर, मैं ही चार पग पीछे हो लिया।

'मैं भी वहीं का था कभी।'- मायूसी से, उसने कहा।

'कभी? तो फिर अब कहाँ हो? क्या यहीं? दिल्ली में ही?'—मैंने पूछा।

'अभी कहाँ का कहूँ, मुझे खुद पता नहीं। नील गगन के तले...धरती का प्यार पले...वो गाना है न किसी सिनेमा का! कहीं सांझ-कहीं सबेरा।'

'तो क्या भिक्षाटन करते हो? देशाटन जैसा तो लग नहीं रहा है। तीर्थाटन की ये जगह नहीं है।'- मेरी जिज्ञासा पर, फीका-सा मुस्कान बिखर गया उसकी घनेरी मूछों के बीच, जिसे लम्बें पीले दांत सम्भालने का अथक प्रयास करके भी पराजित हुए.

'मेरी क्या पूछते हो, अपनी कहो- क्या करते हो? कहाँ रहते हो?'

'बस यहीं, पास में ही एकाध किलोमीटर।'

उसने प्रसन्नता जाहिर की- 'तब क्या पूछना है, आज सबेरे-सबेरे अपने राज्य का कोई मिला है। बड़ी खुशी की बात है। शहर वालों ने तो शब्दकोष में से'अतिथि' शब्द वाला पन्ना ही फाड़ दिया है। और हो भी कहाँ से! जहाँ मां-बाप ही वृद्धाश्रम में कालक्षेप करते हों, फिर अतिथि का सवाल ही कहाँ रह जाता है! पश्चिम वालों ने, इतना तो सिखला ही दिया कि "हम दो हमारे दो" से बाहर संसार

में कुछ भी नहीं है। "वसुधैव कुटुम्बकम्" कोई उपनिषद-महावाक्य थोड़े जो है!

और फिर "एकोऽहं द्वितीयो नास्ति" के सामने तो सब शेष है।'- मेरी ओर प्रश्नात्मक दृष्टि भेदते हुए उसने कहा-' अपने घर ले चलोगे मुझे या...? '

पता नहीं क्यों, उसकी ये थोड़ी-सी बातें ही मुझे बाँध गयी थी। उसके बारे में विशेष कुछ जानने को मन ललक रहा था। अतः मैं 'ना' न कर सका। भले ही अनजान है बिलकुल, किन्तु चलना तो चाहता है राज्यवासी की ललक लेकर। स्वीकृति मुद्रा में सिर हिला, हाथों से इशारा करते हुए मैंने कहा- 'चलो भाई, दिक्कत क्या है। दो रोटी ही तो खाओगे।'

मेरा 'वाक' पूरा हो गया। उस अजनवी को लिए डेरे की ओर वापस चल पड़ा। रास्ते में कुछ बातें भी होती रही, जो मुझे अदृश्य रुप से बांधे जा रही थी।

दरवाजा खोलने से पहले ही पत्नी ने सवाल दागे- 'बड़ी जल्दी वापस लौट आये, कहीं नजदीक से ही फांकीमार...!'

द्वार खुला। एक अनजान, वह भी अजीबो-गरीब स्थिति में। नजर पड़ते ही आँखों ही आँखों में पूछी, मेरे 'पूछने वाली' ने- 'ये किसे उठा लाये?' क्योंकि वह मेरी आदत से परिचित थी- आये दिन, कब किसे लिए चला आऊँगा, कुछ कहा नहीं जा सकता।और फिर स्थिति चाहे जो भी हो, आवश्यकतानुसार आवभगत तो उसे ही करनी होती थी न।

'हां, वहीं मिल गया यमुना किनारे। अपने ही राज्य का है।'- अबतक प्राप्त संक्षिप्त परिचय में थे थोड़ा शेयर किया पत्नी को भी, और गुसलखाने की ओर लपक पड़ा, क्योंकि पेट गुड़गुड़ कर रहा था, बहुत देर से। उधर से फारिग होकर, आने पर देखा- सारा माजरा ही बदला-बदला-सा था। मैं तो घबरा रहा था कि आज फिर कुछ पत्न्योपदेश लब्ध होगा, किन्तु हुआ उल्टा ही। सामने छोटी तिपाई पर चाय की प्याली के साथ बिस्कुट भी नजर आये, जिसका अधिकांश कुतर चुके थे आगन्तुक महोदय।

बड़े गर्मजोशी से कहा उसने- 'अजी जानते हो, ये तो मेरे मैके के बिलकुल करीब के निकले। इनके दादा जी मेरे दादाजी के गहरे दोस्त थे। बराबर मेरे यहाँ आना-जाना होता था। मैं भी बचपन में कई बार इनके घर गयी हूँ। उपेन्द्र नाथ भट्ट नाम है इनका।'

'तो क्या महाप्रतापी गदाधर भट्ट के पौत्र हैं आप?'—तुम का ओछा सम्बोधन पल भर में ही 'आप' में बदल गया। महापरिचय पर सघन पहल, मेरी पत्नी ने किया, या कि उन्होंने— निर्णय करना ज़रा कठिन है। अतः इस पचरे में पड़ने के वजाय मैं विषय वस्तु पर आ गया। उन्होंने सिर्फ सिर हिलाकर हामी भरी मेरे प्रश्न पर, क्योंकि हाथ और होठ दोनों व्यस्त थे- चाय-बिस्कुट-संघर्ष में।

श्रीमतीजी दो कप चाय और ले आयीं- अपने और मेरे लिए. आज अनजाने में ही उन्हें प्रसन्नता लब्ध हुयी थी, इसलिए अच्छी चाय की एक प्याली तो बनती ही है न! हमदोनों चाय की चुस्की लेने लगे। थोड़ी देर में भट्टजी चाय-विस्कुट पर विजय पा कर, कुछ कहने-बतियाने के मूड में आ गये।

बात श्रीमतीजी ने छेड़ी- 'उपेन्द...ऽ...ऽ...र... भैया! आप अचानक गायब कहाँ हो गये थे? अपने विवाह मंडप से जो भागे मामाजी से लड़-झगड़कर, सो आज अचानक नजर आरहे हैं, वह भी इस औघड़ वेश में!'

'तुम नहीं मानोगी गायत्री। इतने वर्षों में भी, तुम ज़रा भी नहीं बदली। बिलकुल वैसी की वैसी ही हो आज भी, बस कद और पद ज़रा बदल गया है।'- मूछों में मुस्कान को छिपाने का व्यर्थ प्रयास करते हुए बोले- 'अच्छा पहले ये बतलाओ कि इतने दिनों बाद, वह भी इस रुप में, इतनी सहजता से तुम मुझे पहचान कैसे गयी?'

उनकी बात सुन गायत्री मुस्कुरायी- 'वाह भैया उपद्रवीनाथ! खूब कहा तुमने। तुम चाहे जिस वेश में रहो, मेरी ये पारखी आँखें तुम्हें पहचान ही लेंगी, वस मौका चाहिए. इन बड़ी-बड़ी आँखों के चलते ही तुम मुझे'डाइन'कहकर चिढ़ाते थे न? अब भला ऊपर से नीचे तक चारों कर्मेन्द्रियों में'आकाश की वृद्धि'क्या हर कोई के हाथ-पैर में दीखने वाले चिह्न हैं? तिस पर भी तुम्हारे पीठ पर बचपन में मेरे द्वारा दिये गये गहरे घाव वाला स्थायी मुहर–– क्या इसे भी विसराया जा सकता है? शक तो मुझे चाँदी की रुपल्ली-सी खनखनाती तुम्हारी हँसी से ही हुयी थी, जिसमें ये चारो अंगूठे गवाह बने, और जब कुल्ला करने के लिए तुम नाली के पास ज़रा पीठ टेढ़ी किये, उस वक्त मैं पीछे खड़ी, इसी ताक में थी कि एक और साक्ष्य मिल जाय, फिर फैसले पर दस्तख़त कर दूँ।'

गायत्री की बात पर मैंने गौर किया। कभी-कभी वह बहुत ही दार्शनिक अन्दाज में बोल जाया करती है। ज़्यादा पढ़ी-लिखी तो नहीं है, पर 'सुनी-गुनी' ज़रूर है। साधककुल का संस्कार है शायद। बाबा के चार अतिरिक्त अंगूठे- कुछ खास संकेत ज़रूर दे रहे हैं- ऐसा उसकी बातों से लगा।

बाबा जोर से हँसे। उनकी गहरी हँसी नाभि-तल तक हिलोरे ले लिया। आजकल लोग ठीक से हँसना भी कहाँ जानते हैं! हँसने के लिए भी खुशी कहीं से उधार लेने की ज़रूरत होती है, जब कि देगा कौन भला! होठों की हँसी और नाभी

की हँसी में बहुत अन्तर है। नीचे से ऊपर अनायास, स्वतः आना, और ऊपर से नीचे सायास ले जाना- दोनों बिलकुल ही अलग बात है। सांस छाती से लेंगे तो हँसी में भी सिर्फ होठों का ही इस्तेमाल हो सकेगा। पेट से सांस लेने की कला तो सभ्य समाज का शत्रु बन बैठा है। ऐसे हँसो, ऐसे बोलो, ऐसे चलो, ऐसे खाओ, ऐसे सोओ, ऐसे रहो...ये ऐसे-ऐसे का नियम सभ्यतायी चाबुक की मार है, हमारी उन्मुक्तता का दमन है, स्वतन्त्रता का शोषण है। सभ्य होते ही हम सांस भी सभ्यता वाली लेने लगते हैं। खैरियत है कि सांस कब कितना लेना है, यह जिम्मा प्रकृति ने हमारे अधीन छोड़ा ही नहीं है, अन्यथा जीवन की आपाधापी में हम इसे भी समय पर लेना भूल जाते। और टें बोल जाते। हममें बहुत कम लोग ही जानते हैं कि गिनती की सांसों के साथ हमें भेजा गया है, कर्मभूमि में। २१, ६०० प्रति अहोरात्र के हिसाब से, ३६०दिनों वाले सौ वर्षो का हिसाब है हमारे पास जीवन के खाते में। 'कर्म' ही गिनती का हिसाब लेता-देता है। कर्म पर हमारा नियन्त्रण ही भावी भाग्य का लेखन करता है, और प्रारब्ध बनकर भोगने को विवश करता है। सोने और जागने का सांस भिन्न होता है। ध्यान और मैथुन का सांस भी भिन्न ही होगा, तय बात है। इस सांस की पूंजी को जितने हिसाब से व्यय करेंगे, जीवन उतना ही दीर्घ होगा।

मैं गहरी सोच में डूब गया था। तभी, बाबा की हँसी थमी।

'जानते हो?'- झूलनुमा फटे अंगरखे के छेद को सरकाते हुए बाबा, अपनी पीठ दिखाने लगे- 'ये जो गहरा दाग देख रहे हो न, तुम्हारी पत्नी गायत्री के ही दिये हुए हैं। बात-बात में मैं इसे बहुत चिढ़ाता था। एक बार ऐसा ही कुछ कह दिया, जिसका ये नतीजा है। पीछे से आकर नंगी पीठ पर ऐसा हबकी कि दो अंगुल भर मांस ही निकाल ली। बहुत दिनों तक घाव बना रहा था। अब निशान शेष है, जो शरीरान्त तक साथ देता रहेगा।'

'मुझे तुम्हारी आदत जो छुड़ानी थी, सो, छुड़ाने में सफल हुयी। फिर उसके बाद कभी तुमने मुझे सताया भी नहीं।'- ढिठाई पूर्वक गायत्री ने कहा- 'किन्तु क्या-क्या आदत छुड़ाती मैं! ये बात-बात में घर से भाग जाना कहाँ छुड़ा पायी?'

'अच्छा हुआ कि ये आदत छुड़ाने का मौका नहीं मिला तुम्हें, वरना।'-

कहते हुए बाबा रुक गये अचानक। शायद उनके मुंह से कुछ ऐसा निकला जा रहा था, जिसका अवसर शायद अभी न था।

मेरी ओर देखते हुये गायत्री ने कहा- 'मैं अन्तिम बार इनके घर, इनकी शादी में ही गयी थी, फिर तो मौका ही न मिला। बिना दुल्हा-दुल्हन के बारात, बैरंग वापस आगयी थी। बहु नहीं आयी, कोई बात नहीं। जमींदारों के यहाँ वैसे भी बहुओं की भीड़ रहती है। बस, बेटा होना चाहिए. बहुयें तो आती-जाती रहती हैं। इनके पिताजी की ही पांच शादियां थी, और सबके सब मौजूद भी। फिर भी सन्तान सुख के अभाव में'छट्ठी'भी करनी पड़ी, और तब जाकर ढेला-ईंटा पूजते-पुजाते उपेन्दर भैया का जनम हुआ।'- ज़रा ठहर कर वह फिर कहने लगी- 'छूंछा बारात और पलायन कर गये इकलौते बेटे का गम बेचारी चाची बरदास्त न कर सकीं। खबर सुनते ही जो धब्ब से गिरी सो गिरी ही रह गयी।'

'हां सुना था मैंने भी बहुत बाद में, माँ की मार्मिक मौत की खबर; किन्तु वापस आकर ही क्या करता? एक मात्र, चाहने वाली माँ! रही नहीं, बाप के लिए तो उपद्रवीनाथ हूँ ही- कुलनाशक...कुलकलंक... कुलडुबोरन...न जाने क्या-क्या।'

'तो ये उपनाम आपके पिता का ही दिया हुआ है?'- मैंने मुस्कुराकर पूछा। वैसे भी अब, जब कि रिस्ता साफ हो गया है- गायत्री ने भाई माना है, सो मुस्कुराने में कोई आपत्ति नहीं लगी मुझे।

'निकला तो पहली बार पिता के ही श्रीमुख से था, जिसे घर, गांव, इलाका सबने मिलकर विज्ञापित कर दिया। अब तो मुझे भी कुछ बुरा नहीं लगता इस सम्बोधन से। क्या रखा है- इन झूठे सम्बोधनों में जी! कोई हमें कुछ भी कह ले, मेरे'होने'में क्या फर्क पड़ने को है! "सोऽहं...सोऽहं...हंसः...सोऽहं..."।'- कहते हुए बाबा एकाएक काष्ठवत हो गये।

उनके कथन से मुझे भी थोड़ा झटका लगा। बाबा ठीक कह रहे हैं- ये नाम-रूप-यश सब तो उधार का है। पता नहीं कब तगादा आ जाये, और इन सबको वापस लौटा देना पड़े, उसे ही, जिसने दिया है ये सब। मैं भी चिन्तन मुद्रा में आ गया, उनके साहचर्य के किंचित प्रभाव वश।

बाबा उपद्रवीनाथ का चेहरा ही अनजान था सिर्फ मेरे लिए, क्योंकि मिलने का सौभाग्य-संयोग न हो सका था कभी। बाकी, इनके बारे में कौन नहीं जानता पूरे इलाके में। ऊतुंग टुनटुनवां पहाड़ की छाती पर विशाल किला बनवाया था इनके दादाश्री गदाधर भट्टजी ने। ये वही टुनटुनवां पहाड़ी है, जिसके लिए अंग्रेजों के लार टपकते रहे अन्त-अन्त तक; किन्तु कोई रहस्य नहीं मिल सका- न उस टुनटुनाते ढोंके का, और न एक के भीतर एक बने उस गुफा का ही; जितने मुंह उतनी बातें- सात है, पांच है, नौ है...अन्दर-अन्दर।

भट्टजी कोरे सामन्तवादी जमींदार ही नहीं, प्रत्युत वेद-वेदांग, काव्य, मीमांसा, तन्त्र, ज्योतिष, व्याकरण आदि अनेक विषयों के उद्भट्ट विद्वान भी थे। उनके तन्त्र-ज्योतिष चमत्कारों से नतमस्तक होकर मीनाक्षीगढ़ के राजा ने अपना आधा राज ही उनके श्रीचरणों में अर्पित कर दिया था। तपती जमींदारी के जमाने में पवईराज के राजपुरोहित होने का सम्मान भी उन्हें ही प्राप्त था। अंग, बंग, कलिंग, कौशल तक तूती बोलती थी। उनके यश का पताका पश्चिमोत्तर भारत में शान से लहराता रहता था। अपने अन्तिम समय में, अर्जित सम्पदा का साढे पन्द्रह आना भाग उन्होंने विभिन्न शिक्षण और स्वास्थ्य–रक्षण-संस्थानों को अनुदानित कर दिया था। फिर भी 'थऊसा हाथी, गदहे से ऊँचा ही' था। निश्चित ही भविष्य दर्शन किया होगा महानुभाव गदाधर भट्ट ने। उन्हें आभास हो गया होगा कि आगे उनके वंश का पतन नहीं, नाश होने वाला है। वृद्ध भट्ट जी की भी चार शादियां थी। तीन से कोई सन्तान लाभ नहीं। चौथी पत्नी से पांच पुत्र रत्न प्राप्त हुए, जिनमें क्रमशः चार बड़े, घोंघे-सितुहे, कांच-कंकड़ से आगे न बढ़े। सिर्फ कनिष्ट पुत्र ही प्रतिभा लब्ध कर पाया। राज्य-लक्ष्मी घुटने टेके बैठी थी, मगर विद्या की अधिष्ठात्री सरस्वती सदर द्वार तो दूर, किसी खिडकी-गवाक्ष से भी अन्दर आने में संकुचित थी। बेचारे गदाधर भट्ट तक ही सरस्वती की असली साधना रह पायी।

ऐसे 'नीलरक्त' (blue blood) भट्टकुल के उपेन्द्र को उपद्रवी नाम देने में पिता का शौक नहीं, 'शॉक' ही रहा होगा। आँखिर कोई प्रबुद्ध पिता अपने इकलौते पुत्र को इस प्रकार तिरष्कृत क्यों करेगा!

वातावरण में विखरे मौन को पत्नी ने फिर तोड़ा। 'उपेन्द्र भैया, आप पहले स्नान-ध्यान कर लें। ये भी नहा-धोआ लें। तब तक मैं आपलोगों के लिए कुछ जलपान की व्यवस्था कर दूँ।'- कहती हुयी गायत्री, उठकर रसोई घर की ओर चली गयी। मैं भी उसके पीछे हो लिया। अन्दर जाकर धीरे से कहा- 'बाबा तो बिलकुल खाली हाथ हैं। झोला-झक्कड़ भी नहीं दीखता। लंगोट और झूल तो एक ही है, जो वदन पर चढ़ा हुआ है।' गायत्री मेरा इशारा समझ गयी। बक्से में से नयी धोती, चादर, गमछा ले आयी निकालकर। साबुन की बट्टी भी। साबुन छोड़, शेष, वस्त्रों को सहर्ष स्वीकार किया बाबा ने।

स्नान-ध्यान के पश्चात् हमदोनों जलपान किये। मुझे दफ्तर की हड़बड़ी थी। अतः बाबा से क्षमायाचना सहित दिन भर के लिए मोहलत ले, बाहर निकल गया; यह कहते हुए कि अब क्या चिन्ता, जिसकी बहन अन्दर, उसका भाग सिकन्दर। किसी प्रकार की आवभगत में कोताही थोड़े जो होनी है। शाम को लौटूंगा, तो जमकर बातें होंगी। दिन भले ही बिका होता है, रात तो अपनी है न!

'बहुतों की रातें भी बिकी होती है...सांसें भी बिकी होती हैं।'- बाबा ने ध्यान दिलाया।

"सांसें भी बिकी होती है..."- बाबा के गूढ़ वाक्य पर विचार करता मैं, अखबार के दफ्तर की ओर कूच किया। पिछला पखवारा 'नाइट-ड्यूटी' किया था, इस बार दिन वाली ड्यूटी चल रही थी। किसी तरह अपनी ड्यूटी बजाता रहा। न जाने क्यों काम में आज जी न लग रहा था। सच में आदमी कितना बिका हुआ है। मन हो ना हो, रोटी जुटाने के लिए काम तो करना ही है। नून-तेल-लकड़ी के जुगत में ही ज़िन्दगी खप जाती है, और फिर चार साथियों के सहारे राम नाम सत्य की घोषणा सहित, श्मशान पहुँच जाना पड़ता है। अब तो वह चार साथी भी नहीं, चार चक्के वाली म्युनिसपैल्टी की गाड़ी होती है, और विजली की भट्ठी में क्षण भर में फू। कहाँ फुरसत है, किसी को...श्मशान पहुँचाना भी कोई साधारण काम थोड़े जो है।

बे-मन के काम में आदमी कुछ ज़्यादा ही थक जाता है। देर शाम, कबूतरखाने को डेरा कहे जाने वाले 'घर' पहुँचा। पत्नी इन्जार कर रही थी, चाय का समय बीता जा रहा था।

'यहाँ अकेली बैठी हो...और तुम्हारे नये भाई सा'ब? '

'आते ही होंगे। तुम्हारे आने का समय पूछ-जान, सुबह ही निकल गये थे, तुम्हारे जाने के कुछ ही देर बाद, यह कहकर कि समय पर आ जाऊँगा। और हाँ, रात का खाना बनाने को भी मना करते गये हैं। कहा है उन्होंने कि रात की भोजन-व्यवस्था उन्हीं के द्वारा रहेगी।'

मैं ज़रा चौंका- ये फक्कड़ आदमी क्या व्यवस्था लेकर आयेगा हम सबके लिए! यकीन न आ रहा था ज़रा भी उनकी बातों का। फिर भी गायत्री, और उसके तथाकथित औघड़ भाई की बात पर भरोसा तो करना ही था। गायत्री चाय-नास्ते की तैयारी में जुट गयी। मैं वहीं, बालकनी में बेंत की कुर्सी पर बैठ 'वासी' अखबार के पन्ने पलटने लगा। दिन भर अखबार के दफ्तर में ही गुजर जाता है, हजारों-हजार खबरों की छंटाई-कटाई-पिटाई में, फिर भी खबरों के प्रति जिज्ञासा बनी ही रहती है- मेरे किये गये छटाई का भी किसी सिनियर ने छंटाई तो नहीं कर दी...! कहते हैं न कि कहे जो झूठ-सच हरदम उसे अखवार कहते हैं, जहाँ खाना मिले भरपूर उसे ससुरार कहते हैं, जो खाये औ'न खाने दे उसे कंजूस कहते हैं, किरानी से कलक्टर तक पिघल कर मोम बनता हो उसी को घूस कहते हैं। आँखिर ये लोकतन्त्र का चौथा खम्भा करता क्या है! ये भी सिर्फ पैसा पहचानता है। ७५ % विज्ञापनों के बीच कुछ खबरें झांक भर लेती हैं- थोड़े से, बाकयी काम की, बाकी अखबार-मालिक के काम की। खबर की परिभाषा किसी सिरफिरे ने सही ही की होगी- जो संपादक की कलमियां धार से बंच जाये, और जिसके छपने से ऐतराज़ न हो मालिक को...वही तो असली खबर है, जिसे हम-आप पढ़ने को मजबूर हैं। सुबह-सुबह अखबार उठायें, चाय के प्याले के साथ तो'लिप्टन'और'ताजमहल' भी तीता-कड़वा लगने लगता है। लूट, हत्या, बलात्कार की खबरें चूरन-चटनी की तरह चखी जाती हैं- ये सम्पादक को भी अच्छी तरह पता होता है। आखिर उसे भी तो अपनी कुर्सी की रक्षा करनी है- जैसा कि भीष्म ने हस्तिनापुर की रक्षा की। किन्तु नहीं, ऐसा कहना उचित नहीं। भीष्म लुट गये, मिट गये, पिट गये- अपनी प्रतिज्ञा की डोर से बंधे-बंधे...पर सम्पादक! वह तो कुर्सी के पाये का बन्धुवा है।

पत्नी चाय ले आयी कुछ नमकीन के साथ। प्याला उठाने ही वाला था कि सीढ़ियों पर आहट मिली, अगले दो मिनट में बाबा सामने थे। हाथ खाली था सुबह की तरह ही। किन्तु हाँ, कंधे पर एक मैला-कुचैला सोशलिस्टिक झोला लटक रहा था, परन्तु उसका कलेवर भी 'इन्हीं' की तरह दुर्बल दीख रहा था। मेरी सवालिया निगाहें गायत्री से जा मिली। गायत्री भी समझ गयी- सवाल रात के भोजन से है; किन्तु बिना कुछ कहे, वह अन्दर चली गयी, बाबा के लिए चाय लाने। बाबा भी पीछे हो लिए.

'मेरे लिए चाय-वाय मत लाना गायत्री। सुबह तुमलोगों का मन रखने के लिए पी लिया था। ज़रा कुल्ला-उल्ला कर लूँ, फिर बातें होंगी। और हां, याद है न- इस वक्त खाने की व्यवस्था मेरी ओर से है। बहन का अन्न कितना खाऊँगा! हाजमा कमजोर है। एक शाम खा लिया, वह भी वस्त्र-दक्षिणा के साथ। इसका भी, द्रौपदी की साड़ी के फाड़ की तरह हिसाब देना होगा। कृष्ण से जब नहीं पचा, तो मैं भला क्या पचा पाऊँगा?'

मुंह-हाथ धोकर, बाबा इत्मिनान से आकर बैठ गये। भाई द्वारा दुबारा याद दिला दिये जाने के कारण गायत्री भी आश्वस्त हो, निश्चिन्त हो गयी कि अब तो इस समय कुछ काम-वाम है नहीं। खाना बनाना नहीं है, चुप बैठ कर गप्पें मारी जायें। अतः वह भी आकर बैठ गयी। मेरे चित्ताकाश में तैरते हुए सवालों के काले-सफेद घनेरे बादल बरसने को आतुर थे।

'वो विल्ली की खाल, और काली स्याही वाली बात याद है न उपेन्द्र भैया?'- गायत्री ने बात छेड़ी। बाबा मुस्कुराते हुए सिर हिलाये। गायत्री कहने लगी- 'एक मजेदार वाकया सुना रही हूँ। इनके एक चचेरे भाई थे सुशान्त भट्ट। इनसे पांच साल बड़े। नौवीं में पड़ते थे। एक दिन विज्ञान की कक्षा में बताये गये बिजली और चुम्बक के प्रयोग को उपेन्द्र भैया को समझाये। और समझो कि बन्दर के हाथ नारियल लग गया, पता नहीं किसका सिर फोड़ दे। प्रयोग सीख-समझ कर, उपेन्द्र भैया वैठक में रखा गुलदस्ता तोड़कर शीशे का रॉड निकाले। पालतु विल्ली घर में थी ही। सुशान्त भैया को घर पर पढ़ाने के लिए लम्बी चुटिया वाले एक झाजी आते थे। वस उन्हीं पर प्रयोग कर डाला। गोद में बिल्ली को दाबा, और उसके बदन पर शीशे के रॉड को तेजी से रगड़कर, झाजी की चुटिया से चुपके से सटा दिया। चुटिया सीधी खड़ी हो गयी-लोहे के सलाखों की तरह। फिर रॉड हटाया, चुटिया नीचे। थोड़ी देर तक चुटिया का उठना-गिरना जारी रहा। सुशान्त भैया का पेट फूलने लगा, हँसी रोके न रुक रही थी। उधर झाजी अचम्भे में कि अचानक इसे हो क्या गया- पागलों की तरह हंसे जा रहा है। तभी अचानक चाचाजी आगये। उपेन्द्र भैया की हरकत देख, आग-बबूला हो उठे। भेद खुला, और फिर दोनों भाइयों की जम कर पिटायी हुयी।

मुझे भी हंसी आगयी, बाबा की पुरानी हरकत सुन। मुस्कुराते हुए बाबा ने कहा- 'मैं तो छः-छः मांओं का दुलरुआ था शिव-नन्दन कार्तिकेय की तरह; किन्तु पढ़ने-लिखने में मन कभी लगा नहीं। पांच वर्षो तक पहली जमात में ही गुजारता रहा, पर'ककहरा-मात्रा'भी सीख न पाया। गुरुजी को हिदायत थी कि इस पर विशेष ध्यान रखा जाय। नतीजा ये कि ज़रा भी देर होती कि विद्यालय से चार-चार विद्यार्थी आजाते, और यमदूत की तरह हांथ-पांव बांध कर ले जाते। एक दिन खुराफात सूझा। मैं समय से काफी पहले विद्यालय पहुँच गया। स्याही की बोतली को दोनों सिरे पर इस प्रकार बांधा कि आसानी से उसे दूर बैठ कर हिलाया-डुलाया जा सके, और गुरुजी की कुर्सी के ठीक ऊपर, फूस के छप्पर में छिपाकर रख दिया। मोटे धागे का दूसरा सिरा, अपने हाथ में लेकर पीछे की मेज पर जा बैठा, बिलकुल भोले स़रीफ़ बच्चे की तरह। कक्षा जैसे ही प्रारम्भ हुयी, गुरुजी की पीठ अचानक सराबोर होगयी काली-काली स्याही से। चौंक कर इधर-उधर देखने लगे। आसपास कोई होता तब न दिखता। किन्तु उनका सफेद कुरता-धोती काला हो गया था। गुरुजी जोर से चीखे- "ये किसकी हरकत है? सामने आओ अभी मजा चखाता हूँ।" मैंने पीछे से कहा- "गुरुजी ये तो आपका पसीना है, मैं भी काला हूँ न आपही की तरह, ज़्यादा गरमी लगती है तो मुझे भी ऐसा ही काला-काला पसीना आता है।" सभी बच्चे ठठाकर हँसने लगे। गुरुजी तो सुलग कर काफ़ूर। तुरत बुलावा भेजे पिताजी को। उस दिन भी जम कर पिटायी हुई। इसी तरह पिटाई होती रही बात-बात में, और मेरी शैतानी भी घटने के बजाय बढ़ती रही।'

बाबा के बचपन की लीला वाकई दिलचस्प थी। हमदोनों सत्यनारायण-कथा की तरह तन्मय होकर भक्तिभाव से सुनते रहे। ज़रा ठहर कर बाबा ने कहा- 'गुरुजी ने स्कूल से नाम काट दिया, और हिदायत दी कि अब कल से तुम्हें नहीं आना है। खबर दादा जी तक पहुँची। उनका फरमान जारी हुआ, जो पिछले सारे फरमानों से ज़्यादा घातक था मेरे लिए. गोमास्ताजी को बुलाया गया, और उन्हें आदेश हुआ कि यथाशीघ्र कोई बढ़िया, और कड़ियल मास्टर खोज लाया जाय, जो घर पर रह कर ही उपेन्द्र को शिक्षा देगा। उसके रहने-खाने की पूरी व्यवस्था महल की ओर से होगी।

'...अगले दो दिनों बाद ही एक हट्ठे-कट्ठे पहलवान मार्का मास्टर साहब ढूढ़ लाये गये। उनके ऐशोआराम की पूरी व्यवस्था हवेली की ओर से कर दी गयी। हवेली के ही एक खण्ड में कमरा मिल गया। खाना-पीना, कपड़ा-लत्ता, ऊपर से साठ रुपये वेतन भी। मास्टर साहब को एक वर्ष में बोनस का भी ऐलान कर दिया दादाजी ने उसी दिन— हितोपदेश-पञ्चतन्त्र, अमरकोश पूरा कर देंगे तो एक शाही घोड़ा भी दिया जायेगा। और मुझे आदेश हुआ- सुबह से दोपहर तक, और फिर शाम अन्धेरा होते ही, लालटेन में तेल खतम होने तक नियमित रुप से पढ़ने की।

'...शाही घोड़े की पीठ पर बैठने का बादशाही सपना देखते, माटसा'ब बड़े लाड़-दुलार से मुझे पढ़ाने लगे, जब कि खजूर की छड़ी उन्हें दी गयी थी- दिन भर में एक पहाड़ा न याद करने पर पांच छड़ी का उपहार देने हेतु। मुझे अपने इस आपातस्थिति से निपटने का कोई रास्ता नजर न आ रहा था। दिन तो दिन, रात में भी तीन-चार घंटे खड़िया-पट्टिका लेकर लालटेन के सामने आँखें सुजाना बड़ा ही भारी पड़ रहा था।

'...किसी तरह दो-तीन दिन गुजरा। चौथे दिन कलुआ को देखा- सांझ का दीया-बाती उसीके जिम्मे रहता था। कमरे से लालटेन लाकर, शीशा निकाला, और गोइठे की राख से मांजने लगा। वह शीशा मांज रहा था, और मैं अपना दिमाग। थोड़े ही देर में दोनों चमकने लगे- शीशा भी और मेरा दिमाग भी। लालटेन में ज़रूरत भर तेल भर, जलाकर, दीअट पर रख, कलुआ चला गया। माटसा'ब सायं शौच से निवृत होने गये हुए थे। कंडे की राख वहीं पड़ी हुयी थी। दो-तीन मुट्ठी उठाया और लालटेन का ढक्कन खोल, राख डाल, मनोहरपोथी लेकर कर- अ से अनार, आ से आम करने लगा, खूब जोर-जोर से, ताकि दालान में बैठे दादा के कानों तक जा सके होनहार पढ़ाकू पोते की तोते जैसी मीठी आवाज। उधर, तोतारट करते देख माटसा'ब भी खुश, खुद को शाबासी देते हुए. किन्तु घड़ी भर बाद लालटेन टिमटिमाने लगी। उन्हें लगा कि कलुआ ठीक से तेल भरा नहीं होगा। "चलो कोई बात नहीं, कल याद कर लेना"- कहते हुए मास्टर साहब खैनी ठोंकने लगे।

'...और फिर अगले दिन भी यही बात हुयी...और फिर अगले दिन भी। आखिर एक ही ऊख में रास्ता रोज-रोज तो लगता नहीं! अगले दिन कलुआ को डांट पड़ी। उसने अपने सफाई में कहा कि तेल तो नियमित डालता है, किन्तु इधर तीन दिन से पता नहीं क्यों कम तेल में ही लालटेन भर जा रहा है।

'...लालटेन विषय पर दादाजी के चौपाल में आकस्मिक बैठक हुयी, और जांच कमेटी बैठायी गयी, जिसके चेयरमैन थे पिताजी. दिन के उजाले ने लालटेन की टंकी का पोल खोल दिया। कलुआ अपराधी सिद्ध हुआ। अब उसे मार पड़ेगी, जान कर मुझे बड़ा दुःख हुआ, किन्तु आखिर करता क्या! मगर कलुआ भी पक्का कांईआं निकला। मार खाने से पहले ही उगल दिया – "जी मालिक, मैं रोज देखता हूँ, छोटे मालिक लालटेन में राख भर देते हैं, पर डर से टोका नहीं।" कलुआ की गवाही पर मुझे जो सजा मिली वह शायद कभी न भूलने वाली है- एक नहीं, सात-सात खजूर की कांटेदार छड़ी तोड़ी गयी, मेरी पीठ पर, और मरहम पट्टी के वजाय बेरहमी पूर्वक बन्द कर दिया गया एक कमरे में, जहां अन्न था न जल। कमरा हवेली के बाहरी हिस्से में था, जहाँ छः में से एक माता का भी करुण क्रन्दन पहुँचना मुश्किल था। मेरी रुलाई तो कमरे की दीवारें ही हजम कर जा रही थी। छत्तीस से भी अधिक घंटों तक बन्द पड़ा रहा कालकोठरी में, जहाँ पिताजी के डर से 'काल' को भी प्रवेश करने में संकोच हो रहा था।

'...योगी लोग कहते हैं न कि अन्नमय कोश का जब सम्यक् शोधन हो जाता है, तब प्राणमय कोश का पट्ट स्वतः खुल जाता है, और उत्तरोत्तर साधना यदि जारी रहे तो साधक एक-एक कोशों को भेदता मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय के प्रकाश-पुञ्ज का दर्शन कर लेता है। छतीसवां घंटा आते-आते, मेरा कोई और कोश तो भेदित नहीं हुआ, परन्तु कुटिल बुद्धि का कोश प्रकाशमान हो उठा। बिजली की तरह विचार कौंधा, और उसे अमल में लाने की योजना बनाने लगा। आंखिर कब तक रखते हो बन्द अपने लाडले को, देखते हैं हम भी।

'...अगली सुबह दादा जी आकर किवाड़ खोल दिये। गोद में लेकर पुचकारते हुए बोले- "क्यों इतनी शरारत करते हो कि मजबूर होकर तुम्हें दण्ड देना पड़ता है। जाओ, अन्दर जाकर जल्दी से नहा-धोआ कर, कुछ खा-पीलो। मेला चलना है। तुम्हें छोटा घोड़ा लेना है न? लेकिन हाँ, हमें अमरकोश के पांच श्लोक रोज सुनाने होंगे। " मैं बिना कुछ कहे, उनकी गोद से कूद पड़ा, और भागा सीधे बड़ी माँ के पास। मांये तो सब थी, परन्तु बड़ी माँ मुझे सबसे ज़्यादा लाढ़ करती थी। उनकी गोद में घुस कर घंटो रोया, किन्तु अब लगता है कि वे आंसू पश्चाताप जनित नहीं थे। थे बिलकुल विद्रोही ज्वाले की तरह।'

जरा ठहर कर, बाबा फिर कहने लगे- 'तुम देखी होगी गायत्री! कुम्हार को घड़े बनाते हुए- कितने नज़ाकत से निर्माण करता है। कोई माँ अपने बच्चे को क्या सहलायेगी इतने नाज़ुक हाथों से, जितना कि कुम्हार सहलाता है अपने कच्चे घड़े को। चाक पर घुमाता है, सूत की धार से बड़े चतुराई पूर्वक चाक से अलग करता है, मानों बच्चे का नाल-छेदन कर रहा हो, और फिर आहिस्ते से छांव में रखता है, जैसे माँ पालने में बच्चे को सुला रही हो। कपड़े की पोटली में गोइठे की राख भरकर, मिट्टी और लकड़ी के कड़े'थपकन'से, आहिस्ते-आहिस्ते थपथपा कर घड़े को सही आकार देता है। दो दिन तक कड़ी धूप भी नहीं लगने देता, उसे फटने-बिफरने से बचाने हेतु। और हम इन्सान? अकसर इन्सान का सर्जन तैयारी से नहीं, बल्कि इत्तफाक से हो जाता है। कामातुर जोड़े आपस में टकराते हैं, आतुरता पूर्वक, बरबरता पूर्वक भी, और किसी कृत्रिम'अवरोधक की चूक' वश सृष्टि रचा जाती है, रची नहीं जाती। रचने और रचाने में बहुत फर्क होता है। आसमान और जमीन-सा फर्क। और जो तैयारी से, योजनावद्ध रुप से रची ही नहीं गयी, उसे पल्लवित करने में सृजनहार की कितनी लालसा होगी?

'...सृष्टि का इतना महत्त्वपूर्ण कार्य- सन्तानोत्पत्ति, और नियम-सिद्धान्त की ऐसी धज्जियां उड़ती हैं कि पूछो मत। गर्भाधान पर ही विचार नहीं, फिर पुंसवन-सीमन्त की बात कौन सोचे! अब तो ये शब्द सिर्फ सिसक रहे हैं, कोशों में पड़े-पड़े। संस्कार चालीस से सिमट कर सोलह हुए, और अब उनका भी ठीक पता नहीं। हाँ मोमबत्तियों से घिरा केक और 'हैप्पीबर्थडे टू यू' नहीं भूलता।

'...मेला नहीं जाना था, सो नहीं गया। दादा जी कहते रहे। दुलारते रहे। मेरे दिमाग में तो रात वाली योजना घूम रही थी। दालान पर आज कोई नहीं था, न पिताजी न दादाजी. सबके सब मुड़ारीमेला गये हुए थे- हाथी खरीदने, और मुझे मनाने के लिए छोटा घोड़ा भी। मास्टरसाहव भी साथ गये थे। मौका पाकर भुलना को बुलाया, क्योंकि कलुआ अब भरोसे का नहीं रह गया था। उसकी बजह से ही मुझे इतनी सजा झेलनी पड़ी। अब तो उसे भी मजा चखाना ही होगा।

'...बड़ी माँ से जिद्द करके चारआने मांगे, 'लकठो' के लिए, और उसे भुलना को देकर भावी योजना का साझेदार बनाने में सफल हुए। योजना की गोपनीयता के लिए उसे अपने सिर का कसम भी दिलाये।

'...शाम होते-होते भुलना के सहयोग से मेरी योजना साकार होगयी। सारी तैयारी कर ली गयी। अब इन्तजार था कि जल्दी रात हो, सोने का वक्त हो। आज शाम की पढ़ाई में भी खूब जोर लगाया। लालटेन भी देर तक जली। भोजन के बाद, सोने के लिए बड़ी माँ के पास चला गया, जबकि रोज दादाजी के साथ सोता था। बड़ी माँ कुछ उत्पाती बच्चों की दुखद कहानियां सुनाकर, उपदेश दे रही थी कि मुझे मन लगाकर पढ़ना चाहिए, क्योंकि प्रतिष्ठित भट्ट कुल के बालक हैं हम। तभी अचानक शोर मजा- मास्टर साहब को बिच्छु काट दिया। दालान में भीड़ लग चुकी थी। मास्टर साहव को टांग-टूग कर अपने कमरे से दालान में ही लाया गया था। औरों की तरह हम भी बाहर आये, भीड़ का हिस्सा बनने, माटसा'ब को सहानुभूति जताने। विच्छु का एक दंश ही जानलेवा कष्टकारी होता है, तिस तो पीठ, जांघ, चूतड़, कमर...बीसियों दंश थे माटसा'ब के शरीर पर। 'भीड़' अपना-अपना तजुर्बा बता रही थी। किसी ने कहा कि ठीक से वहीं जाकर ढूढो, जहां बिच्छु ने काटा था। यदि मिल जाय, तो उसे मार कर, लुग्दी बना, दंशस्थान पर लेप कर दो, तुरत छूमन्तर हो जायेगा।

'...तजुर्बा सुन कर लगा कि मुझे ही विच्छु का डंक लग गया। पर अब करता क्या। मन ही मन खुद को दुरुस्त करने लगा- भावी उपहार के लिए। टॉर्च की रोशनी में विच्छु ढूढ़ा जाने लगा कमरे में। एक ने विस्तर से चादर सरकायी, और पूरे मामले का पोस्टमार्टम रिपोर्ट हाजिर हो गया। विस्तर पर बिच्छु नहीं, बिच्छुओं की जमात रेंग रही थी। सबकी पूंछ में धागा बंधा हुआ था।

'...लोग चौंके, अरे ये क्या माज़रा है! ढेर सारे बिच्छु, वह भी धागे से बन्धे हुए. अब, मास्टरसाहब को कौन देखता, सभी लोग विच्छुओं की बरात देखने आ जुटे। कलुआ भी आँख मलते आया। उसे तो हरिश्चचन्द्र बनने की बीमारी थी न। देखते ही बोला- "छोटे मालिक ने भुलना को चार आने देकर, केवाल वाले ढूह से विच्छु ढूढ़कर मंगवाया था। दोनों मिलकर, वांस की कमाची के सहारे, उसके पूंछ में धागा बाधे, और गुरुजी के विस्तर में पिरो दिया। दीया-बाती के समय उधर गया तो चुपके से इन लोगों की हरकत देखी मैंने। शोर मचाने की धमकी देने पर, भुलना ने अपनी चवन्नी में से आधा हिस्सा मुझे भी भोर होते ही देने का वायदा भी किया है।" - कलुहा की गवाही, और नमकहरामी पर हम जलभुन गये। किन्तु करते ही क्या।

'...उस दिन भरी भीड़ के सामने ही पिताजी ने मुझे नंगा करके, घोड़े वाले चाबुक से मारमार कर अधमुआ कर दिया- "नालायक...हरामी...पता नहीं किस अशुभ घड़ी में इसका नाम उपेन्द्रनाथ रखा गया...यह तो साक्षात उपद्रवीनाथ है।" और उसी दिन से मैं उपद्रवीनाथ हो गया। गांव तो उस रात ही जान चुका था, दो-चार दिन में ही इलाका भी जान गया...मेरा यह नया नाम।

'...विच्छुओं की पिष्टी बनाकर, माटसा'ब के बदन में लेप लगाया गया। चंगे होने के बाद, अगले ही दिन वह अपने मूल निवास को प्रस्थान किये, सो फिर कभी दर्शन न दिये। बेचारे का शाही घोडे पर सवार होने का सपना धरा ही रह गया, और मुझे पढ़ा-लिखाकर विद्वान बनाने का पिताजी का सपना भी।

'...अगले ही दिन नया फरमान जारी हुआ- "अब इस हरामी को किसी गुरुकुल में छोड़ आते हैं। यहाँ रहकर छः-छः मांओं के लाढ़-दुलार में बिगड़ गया है।"

बाबा ने गायत्री की ओर देखा, फिर मेरी ओर। गायत्री तो हँस-हँस कर बेहाल हो रही थी, पर मुझे हँसी बहुत ही कम आती है, शायद मैं ज़्यादा सभ्य हो गया हूँ। मैं सोचने लगा था- बच्चों को नालायक और हरामी कहते समय मां-बाप, भाई-बन्धु को कम से कम इन शब्दों के अर्थ पर तो विचार कर ही लेना चाहिए. बाप अपने बेटे को हरामी कहे, या क्रोध में माँ ही कह डाले यही शब्द- आखिर क्या मतलब! कर्ण जैसा योद्धा आजीवन हरामीपने का दंश झेलता रहा। क्षत्रिय का गुण और सारे लक्षण-प्रमाण होते हुए भी 'सूत-पुत्र' सम्बोधन से अभिशापित रहा। कर्ण के जन्म का रहस्य कुन्ती को तो ज्ञात था, फिर क्यों हुआ महाभारत! क्या एक मात्र कुन्ती दोषी नहीं है- इस विनाश के लिए? पाण्डु जैसा उदार पति, जिसने आदेश दिया हो—जैसे भी हो पुत्र प्राप्ति हो। फिर क्यों नहीं कुन्ती ने उसी दिन पूरा सच बता दिया? आधा सच बताकर, पांच पुत्र प्राप्त कर लिए। ठीक है, मान लेता हूँ कि उस दिन, विवशता वश कर्ण को त्याग दी थी, किन्तु रंगभूमि में- क्या बेहोशी टूटी ही नहीं कभी! या उसके बाद, कभी भी ऐसा क्षण नहीं आया सत्य से साक्षात्कार करने का? जबकि, स्वयं उस भरतकुल में ही ताजा उदाहरण मौजूद था- माता सत्यवती के आदेश से महर्षि व्यास द्वारा नियोग विधि से धृतराष्ट्र, पाण्डु, और विदुर के जन्म का। ओह! कितना सहृदय था उस दिन का हमारा समाज! बलात्कार-पीडिता, परित्यक्ता, कुंआरी मांओं को कानूनी संरक्षण देकर सुप्रिमकोर्ट ने कोई नया काम नहीं किया है आज। ऐसे संरक्षण और सम्मान का प्रमाण तो हमारे प्राचीन पुस्तकों में भरे पड़े हैं। सत्काम जाबाल का उपनिषद कालिक प्रसंग तो ऐसी उदारता का अप्रतिम उदाहरण है। एक अज्ञात नाम-कुल-बालक गुरु के पास शिक्षा-ग्रहण के उद्देश्य से जाता है। गुरु द्वारा नाम-गोत्रादि पूछे जाने पर असमर्थता व्यक्त करता है। वापस आकर माता से प्रश्न करता है। माता कहती है – "मैं एक दासी हूँ। विभिन्न घरों में काम करती हूँ। विभिन्न पुरुषों के सम्पर्क में आती हूँ। तुम्हारा जनक कौन है, मुझे स्वयं ही स्पष्ट रुप से ज्ञात नहीं है।" बालक अगले दिन गुरु चरणों में पुनः उपस्थित होकर, माँ के शब्दों को यथावत रख देता है। गुरु अतिशय प्रसन्नता पूर्वक कहते हैं- "निश्चित ही तुम ब्राह्मण कुमार हो। जाबाला के पुत्र हो, सत्य को स्वीकर किया है तुमने। अतः सत्यकामजाबाल के नाम से ख्यात होओगे जग में। सत्य को यथावत स्वीकारने की क्षमता सिर्फ ब्राह्मण में ही हो सकती है।"- सामाजिक उदारता का इससे सुन्दर उदाहरण और क्या हो सकता है?

मैं सोच रहा था, तभी बाबा ने टोका- 'किस चिन्तन में डूब गये जी?'

मैंने ना में सिर हिलाया, बोला कुछ नहीं। बाबा फिर कहने लगे, अपनी लीलाकथा— 'पिताजी का आदेश, दादाजी के आदेश से भी कठोर था, जिसका पालन भी उतना ही कठिन। महज आठ साल के बालक को पढ़ने के लिए सुदूर देश, किसी गुरुकुल में विस्थापित करने की योजना बनने लगी। आजकल तो आधुनिक माता-पिता होश सम्हालते ही बच्चों को बोर्डिंगहाउस में डाल देते हैं। प्रत्यक्ष कारण तो होता है-उसकी सही शिक्षा, किन्तु परोक्ष में कारण कुछ और ही होता है- पैसे के बूते, अपनी जिम्मेवारी से पलायन। मूलतः व्यावसायिक, हॉस्टल में रह कर शिक्षा पाने वाले बच्चे ही तो आगे चल कर मां-बाप के लिए भी वृद्धाश्रम तलाशने लगते हैं। अपनी जवानी में मां-बाप स्वतन्त्रता खरीदते हैं। आगे चलकर, बेटा-बहु भी फिर वही हासिल करना क्यों न चाहेगा? सच पूछो तो ये भी पश्चिम का ही देन है। संयुक्त परिवार क्या होता है- ठीक से कहाँ पता है पश्चिम वालों को।

'...खैर, मेरे रोअन-धोअन से हुआ सिर्फ इतना ही कि गुरुकुल पहुँचाने का कार्यभार पिताजी के वजाय दादाजी ने लिया, और स्थान भी नियत किया उन्होंने ही- गयाजी के खरखुरा संस्कृत विद्यालय में, क्योंकि उसके संस्थापक अवस्थीजी दादाजी के परम मित्र थे।'विच्छुकांड'के तीसरे दिन ही पूर्व दिशा की यात्रा बन रही थी। लग्न और चन्द्रमा सब अनुकूल जान, दादाजी ने यात्रा की मुझे साथ लेकर। 'चन्द्रमा मन सो जाता...' चन्द्रमा को मन का अधिपति माना गया है। मेरे मन को नियन्त्रित करना ही तो अभीष्ट था मेरे अभिभावकों का। अतः चन्द्रमा को अनुकूल रहना, या रखना निहायत ज़रूरी था। वैसे भी ज्योतिष में लग्न और चन्द्र को सर्वाधिक महत्त्व पूर्ण कहा गया है। ज्योतिषीय भविष्यवाणी का मूलाधार ये ही दोनों हैं।