बाबा उपद्रवीनाथ का चिट्ठा / भाग 24 / कमलेश पुण्यार्क

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बाबा ने आगे बताया- ‘मैंने कहा न ये विन्ध्यगिरि हिमवान से भी प्राचीन है। जो वहाँ भी नहीं है, वो यहाँ मौज़ूद है। यूँ तो शक्ति के अनेक पीठ हैं पूरे आर्यावर्त में, जिनकी गणना अलग-अलग प्रसंगों और रुपों में कहीं इक्यावन तो कहीं एकाशी, तो कहीं चौरासी की जाती है; किन्तु विन्ध्यगिरि का यह त्रिकोण-क्षेत्र यूँ ही नहीं महत्त्वपूर्ण माना गया है। ये सभी पीठ यहाँ प्रतिनिधित्व करते हैं- क्या वाम, क्या दक्षिण। एक बहुत ही रहस्यमय बात बतला दूँ तुम्हें, विन्ध्यगिरि आमतौर पर बस उत्तरप्रान्त के इस खास भूभाग को ही समझा जाता है; किन्तु सच पूछो तो पूर्व में विष्णुनगरी गयाजी से लेकर उत्तर में हिमालय तक अन्दर-बाहर दृष्टिगोचर और भूगर्भगमन करते हुए ये सारा सिलसिला विन्ध्यगिरि का ही है। काशी आदि सभी इसी के अंश हैं। और सबसे बडा रहस्य ये है कि ऊपर जो दीख रहा है, उससे कहीं हजार गुना रहस्य भीतर छिपा है। कलि के प्रभाव वश ये सारी वातें लुप्त-गुप्त होती जा रही हैं।’- बगल के मुहाने की ओर इशारा करते हुए बाबा ने कहा- ‘इस मुहाने में साहस करके प्रवेश करोगे तो ठीक इसके नीचे ही, जहाँ हमलोग बैठे हैं एक और कक्ष मिलेगा, जहाँ से सुरंगपथ प्रयाग, काशी, गया, आदि तक गया हुआ है। उस मार्ग में जैसे-जैसे आगे बढ़ोगे, इसी तरह के हजारों-हजार ताखे मिलेंगे- इससे भी बड़े-बड़े, जिसमें एक आदमी सहजता पूर्वक आसन लगा सकता है। उन सभी ताखों में कोई न कोई दिव्य मूर्ति विराजमान मिलेगी। यहाँ मैं एक और रहस्योद्घाटन कर दूँ कि सामान्य दृष्टि में पत्थर की मूर्ति नजर आने वाली वे सारी पीठासीन मूर्तियां मूर्तियाँ है ही नहीं, वे सीधे जीवित-जागृत साधक हैं, जो अनेकानेक वर्षों से समाधिस्थ हैं। किन्तु इसे सौभाग्य कहो या कि दुर्भाग्य, सामान्यजन का वहाँ तक प्रवेश कदापि नहीं है। प्रवेश तो यहाँ इस गुफा तक भी नहीं है किसी का। मेरे बदौलत तुमलोग आ गये यहाँ तक, इससे ये न समझ लेना कि मेरे पीछे में भी आकर घूम-फिर लोगे।’ – बातें करते हुए बाबा अपने आसन से उठे, और दायीं ओर मुहाने के पास, नीचे चट्टान पर प्रणाम करने के बाद कोई मन्त्र बुदबुदाते हुये ठोंकने लगे। थोड़ी ही देर में हमने देखा- वह विशाल चट्टान लोहे में चिपके चुम्बक की तरह उनके हाथों में चिपक सा गया, जिसे फूल की तरह सहज रुप से सरका कर, बाबा ने एक ओर कर दिया। बगल में हाथ भर का मुहाना खुल गया, जिससे आसानी से अन्दर झाँककर देखा जा सकता था। मैंने, और गायत्री ने भी उसमें झाँक कर देखा- भीतर वैसी ही नीली रौशनी थी, जैसी की अब से कुछ देर पहले इस कक्ष में थी। रौशनी की प्रखरता के कारण हमलोग कुछ और देख न पाये। बाबा ने कहा- ‘बहुत हो गया, अब अधिक जिज्ञासु न बनो। गर्दन बाहर निकालो। अब इसे पूर्ववत बन्द करता हूँ।’

हमलोगों के गर्दन निकालने के बाद, क्षणभर में उसी सहजता से बाबा ने उसे यथावत बन्द भी कर दिया। मेरी खोजी बुद्धि, और तीव्र जिज्ञासा इतनी बलवती हो गयी कि बेचैन हो उठा- जैसे किसी शराबी को शराब की बोतल दिखा कर, कोई दूर भागने लगे। मैंने बाबा के चरण पकड़ लिये, जैसे कि उस दिन बंगले में रोकने के लिए गायत्री ने पकड़ा था- ‘अब नहीं छोड़ सकता ये युगलपादपंकज। मिठाई खिलानी ही नहीं थी तो बच्चे के मुंह में सटाया ही क्यों आपने?’ बाबा की आत्मीयता और स्नेह ने कुछ-कुछ मुँह लगा बना दिया था मुझे भी, गायत्री तो उनकी मुँहलगी चहेती थी ही।

हँसते हुये बाबा ने मेरा पीठ ठोंका- ‘तुम भी अब गायत्री की तरह जिद्द करने लगे हो।’

मगर पीठ पर उनके हाथ का स्पर्श कोई सामान्य स्पर्श नहीं था। क्षण भर के लिए मुझे लगा मानों ग्यारह सौ वोल्ट वाला बिजली का तार छू गया हो, अनजाने में। सारा शरीर सुन्न सा हो गया। आवाज बन्द हो गयी। जमीन पर झुका सिर, और बन्द आँखें- एकदम बेवश हो गयीं। न सिर उठा पा रहा था, और न आँखें ही खुल पा रही थी। बस इतना ही अनुभव हो रहा था कि बाबा के हाथों का छुअन है पीठ पर, और शरीर बेसुध और बेसुध होता जा रहा है। किन्तु इसके साथ ही अनुभव किया कि शरीर से कुछ निकला जा रहा है- बाहर की ओर, और कुछ अद्भुत दृश्य दीख भी रहे हैं। एक साथ कई चीजें- जैसे प्रायः सपने में कुछ का कुछ दिखायी पड़ जाता है। मैंने देखा- एक प्रज्ज्वलित त्रिकोण है, जिसके आकार का कोई अन्दाजा नहीं लगाया जा सकता। जिसमें ज्वाला है, पर उष्मा नहीं। क्षितिज पर चुम्बन करते आकाश और भूमि की एकात्मकता जैसे समीप भी लगती है, और दूर भी, ऊपर विस्तृत नीलाम्बर कितना नजदीक लगता है, और कितना दूर, टिमटिमाते तारे, चाँद सितारे, कितने मोहक लगते हैं...उन सबको बहुत ही समीप से देखा जाए तो कैसा लगेगा-बिलकुल हाथ भरकी दूरी से! कुछ वैसा ही दीख रहा था, सारा गगन, सारी धरती। उस प्रज्ज्वलित त्रिकोण के ठीक मध्य में स्वयं को खड़ा देखा, और फिर तीनों भुजाओं पर गमन करते हुए भी, जिसकी गति का अन्दाजा लगाना भी मुश्किल...ये सारी क्रियाएँ एक साथ चल रही थी, न कोई आगे न कोई पीछे। लगता था- दृश्य अनेक हैं, तो द्रष्टा भी अनेक ही है। सैलून में दाढ़ी बनाते समय आमने-सामने के आदमकद आइने में अपना ही बिम्ब अनेक होकर भाषित होने लगता है, कुछ वैसी ही स्थिति लग रही थी; किन्तु वहाँ सिर्फ खुद का ही बिम्ब होता है, कभी-कभी हजाम का सिर या हाथ भी दीख जाता है; परन्तु यहाँ स्वयं के अतिरिक्त भी अनेकानेक दृश्य...कोई शब्द नहीं मिल रहे हैं, जो पूरी की पूरी अभिव्यक्ति दे सकूँ- उन दृश्यों का।

कुछ देर में बाबा ने अपना हाथ हटा लिया पीठ से, और लगा मानों डिस का कनेक्सन अचानक कट गया हो, और टीवी स्क्रीन सादा हो गया हो। झुका हुआ सिर, और खुली हुई आँखें। आँखों ने सिर्फ चट्टान को देखा- काली चट्टानी जमीन को। अब पूरे होशोहवाश में था।

मैं बाबा के चरणों में सीधे लोट गया- ‘बाबा! आप मेरा मार्गदर्शक बनें...बहुत भटका मझधार में...अब आपका ये श्रीचरण छोड़ना नहीं चाहता ... आपने इन स्वप्नलोकों का दर्शन कराकर, मेरी प्यास और बढ़ा दी...अब बर्दास्त नहीं होता...इन रहस्यमय लोकों की मैं यात्रा करना चाहता हूँ...इसके वगैर अब चैन नहीं..आज मौका आया है, तो सबकुछ खुल कर कह देना उचित है- ये जो कुछ आपने दिखाया, और अब से पहले, इस यात्रा क्रम में प्रयाग आदि जगहों में जो कुछ भी मैंने अनुभव किया- ये सारी चीजें स्वप्न में बीसियों बार देख चुका हूँ- टुकडे-टुकड़े में, जिन्हें आज एकत्र कर दिया आपने, जोड़ दिया सिलसिलेवार, फिर भी कुछ समझ नहीं पाया कि ये है क्या है...क्या देखा मैंने पहले टुकड़ों में, और क्या देखा आज एकत्र?’

बाबा इत्मीनान से बैठ गये बगल में, पहले की भांति पद्मासन मुद्रा में। हमदोनों भी पास ही बैठे रहे। थोड़ी देर तक मौन, मेरे चेहरे को निहारने के बाद, मेरे सिर पर अपना दाहिना हाथ रखा उन्होंने और बांया हाथ मेरे हृदय पर रखते हुए उपांसु भाव में कुछ मन्त्र बुदबुदाने लगे। उनकी इस क्रिया के दौरान मेरे शरीर में अजीब- सी झुरझुरी होने लगी- बिजली के हल्के झटके की तरह, जो सुखद अनुभूति पूर्ण थी। कोई पाँच मिनट के बाद बाबा ने वाचिक रुप से मेरे कान में एक मन्त्र बुदबुदाया, और फिर कहा- ‘इसे ठीक से हृदयंगम कर लो। आज से तुम्हारा ये गुरुमन्त्र हुआ, और मैं तुम्हारा दीक्षागुरु। इस मन्त्र का नित्य जप और इसके अनुकूल ध्यान का सतत् अभ्यास करते रहना है। आगे समयानुसार दिशानिर्देश स्वतः मिलता रहेगा। मैं सामने रहूँ न रहूँ, कोई बात नहीं, मन्त्र की साधना से ही तुम्हारा मार्गदर्शन होता रहेगा। वैसे जब तक मैं हूँ, तब तक तो प्रत्यक्ष संवाद होते ही रहेंगे। बाद में यदि संवाद करना आवश्यक प्रतीत हो तो आगे का ‘प्रणव’ और’ व्याहृतियों’ को हटाकर बीच के मन्त्र-स्वर का उच्चारण करोगे। तत्क्षण ही मुझसे संवाद होने लगेगा; किन्तु ध्यान रहे, इसका प्रयोग खिलवाड़ के लिए नहीं होना चाहिए। साधना-पथ में विशेष अड़चन आये तभी प्रयोग करना। भूल से भी दुरुपयोग करने की चेष्टा करोगे तो तत्क्षण ही मन्त्र का प्रभाव तुम पर से समाप्त हो जायेगा।’

इतना कह कर बाबा ने अपना दोनों हाथ हटा लिया मेरे सिर और छाती परसे। फिर कहने लगे- ‘मेरी बातों को जरा ध्यान से सुनो, और काय-संरचना को हृदयंगम करो। इन बातों की जानकारी अति आवश्यक है– साधना में आगे बढ़ने के लिए। वैसे बिना कुछ जाने समझे भी साधना की जा सकती है। साधक के लिए वेद-उपनिषद् का ज्ञाता होना अति आवश्यक नहीं है। ऐसा नहीं कि जो पतञ्जलि का योगसूत्र नहीं पढ़ा है, वो साधना कर ही नहीं सकता, किन्तु कुछ बुनियादी बातें जान लेना अच्छा होता है। मनुष्य का शरीर और ब्रह्माण्ड दोनों की संरचना एक ही तरह की है। भूः, भुवः, स्वः, महःजनः, तपः, सत्म् ये सात लोक ऊपर की ओर हैं, और ठीक इसी भांति सात लोक नीचे की ओर भी हैं- तल, तलातल, सूतल, वितल, रसातल, महातल और पाताल। ये सात और सात मिलकर चौदह हुए- ये ही चौदह भुवन कहे जाते हैं। ये जिस भाँति ब्रह्माण्ड में व्यवस्थित हैं, तद्भांति ही मानव शरीर में भी। यही कारण है कि मानव-शरीर को विधाता की सर्वोत्कृत रचना कही जाती है। चौरासी लाख योनियों में यहाँ-वहाँ भटकते हुए मानव-शरीर में हमें एक महान अवसर देकर भेजा जाता है कि साधना करो, और मुक्त हो जाओ इस भव-जंजाल से। किन्तु साथ ही परीक्षा के तौर पर कुछ अन्य चीजें भी साथ लगी रहती हैं। आहार, निद्रा, मैथुनादि तो प्रत्येक प्राणी का सहज कर्म है, उसके बिना वह रह ही नहीं सकता, किन्तु मनुष्य में बुद्धि और विवेक नामक दो अतिरिक्त चीजें देकर ईश्वर ने सावधान भी किया है। हमें इनका उपयोग करना चाहिए, अन्यथा हममें और अन्य प्राणी में फ़र्क ही क्या रह जायेगा।’

बाबा की क्रियाकलापों को देखती, सुनती गायत्री बड़ी देर से चुप्पी साधे थी, अब उसने जिज्ञासा की- ‘भैया! ये जो सात और सात चौदह भुवनों की बातें कर रहे हो, इनके बारे में कुछ विस्तार से बतलाओ, ताकि मैं भी समझ सकूँ। और दूसरी बात ये कि अभी-अभी तुमने कहा कि इनकी गुरुदीक्षा हो गयी। क्या साधना करने का अधिकार सिर्फ इन्हें ही है? स्त्री साधिका नहीं हो सकती, उसे मन्त्रदीक्षा की जरुरत नहीं है क्या?’

गायत्री की बात पर बाबा मुस्कुराये। क्षणभर चुप्पी के बाद कहने लगे- ‘मैं पहले तुम्हारे दूसरे प्रश्न का ही उत्तर दे दूँ, फिर पहले पर बात करुँगा। तुम कौन हो? क्या केवल गायत्री हो? तुम्हारी जन्मजात उपाधि तो ‘पाण्डेय’ थी, अब ‘पाठक’ क्यों कहती हो खुद को?’

‘ये तो नियम है समाज का उपेन्दर भैया। शादी के बाद स्त्री का कुलगोत्र, उपाधि सबकुछ पति वाला हो जाता है।’-गायत्री ने कहा, जिसपर सिर हिलाते हुए मैंने भी हामी भरी- ‘ये तो पितृ सत्तात्मक या कहें पुरुष सतात्मक व्यवस्था का गुण-दोष-परिणाम है।’

नकारात्मक सिर हिलाते हुए बाबा ने कहा- ‘नहीं, सिर्फ इतनी सी ही बात नहीं है। आजकल तो कान फूँक कर चेला-चेलिन बनाना रोजगार हो गया है। सच्चे गुरु दुर्लभ हैं संसार है, बड़े भाग्य से ही मिलते हैं। मन्त्र देने की जो बात है, पुरुष के कान में एक खास विधि से दी जाती है। ऐसा नहीं कि कान में फूँ कर दिये, या कि भ्रूमध्य में अंगूठा सटा दिये, और हो गयी दीक्षा। ये दीक्षा भी दुकानदारी बन गयी है। बड़ी-बड़ी दुकानें और मॉल खुले हुए हैं दीक्षा देने वाले। भीड़ भी खूब है वहाँ। अरे बाबू! हाईटेन्सनवायर में टोका फँसाने पर बत्ती तभी जलेगी न जब तार में बिजली होगी। और तार में भी अपनी बिजली तो होती नहीं, वह आती है ट्रान्सफर्मर से, और ट्रान्सफर्मर भी केवल ट्रन्सफर्मर ही है, उसके पास भी अपना कुछ नहीं है, देने को। उसे ऊर्जा(शक्ति) दे रहा है पावरहाउस। ये बल्व में जो प्रकाश है न, वह न तार का है, और न ट्रान्सफर्मर का। यह है पावरहाउस के उस जेनरेटर का जिसने बिजली को पैदा किया- ऊर्जा सारा उसी का है। क्या फ़ायदा- एक नहीं दस टोके फंसा लो। पावरहाउस ही बन्द है, फिर सप्लाई कहाँ से होगी? मन्त्र-दाता मन्त्र देने के लिए अपनी व्यक्तिगत ऊर्जा का प्रयोग करता है, जो सच पूछो तो उसका अपना नहीं है। वह उसी मूल ऊर्जा-स्रोत से लिया गया है। गुरु एक श्रेष्ट स्थानान्तरक-संयत्र की भूमिका निभाता है। सिर या ललाट मुख्य रास्ता है कुछ स्थानान्तरण करने के लिए।

‘...अब इसके दूसरे पक्ष को समझो- पति को विधिवत दीक्षा दे दी गयी यदि तो पत्नी को अलग से दीक्षा देने का कोई प्रयोजन नहीं रह जाता। साधना का दक्षिणपथ यही कहता है, और वाम पथ में तो स्त्री ही मूलतः गुरु की भूमिका में होती है- पुरुष के लिए। असली दीक्षा वहाँ स्त्री की ही होनी चाहिए। शक्ति का मूल स्रोत वही है। वह पुरुष की अर्धांगिनी कही जाती है। उसके बिना पुरुष अधूरा ही नहीं, शून्य सा है, व्यर्थ सा है। ऊर्जा की भाषा में समझने की चेष्टा करो तो कह सकते हो कि बिजली का धन और ऋण पक्ष है। इन दोनों छोरों को अलग-अलग विन्दुओं से लाकर विद्युत उपकरण से जोड़ने पर ही सक्रियता आती है। पत्नी पति के प्रत्येक कार्य की सहायिका होती है। वस्तुतः शक्ति का प्रतिनिधित्व वही करती है। शक्ति के सानिध्य(संयोग) में ही शक्तिमान की सार्थकता सिद्ध होती है। शक्ति के बिना तो शिव भी शव है। मनुष्य का जीवन सूर्य के रथ की तरह नहीं है, जिसमें केवल एक ही चक्का लगा है। पति और पत्नी जीवन-रथ के दो चक्के हैं- बैलगाड़ी के दो चक्के की भाँति। गृहस्थ जीवन में रहते हुए, गृहस्थाश्रम की नियम-मर्यादाओं का पालन करते हुए, साथ-साथ साधना-पथ पर बढ़ा जा सकता है। बढ़ना चाहिए भी। अब तुम यहाँ ये सवाल भी उठा सकती हो कि जिस पुरुष ने शादी नहीं की, या शादी करके संन्यास ले लिया, या स्त्री की शादी नहीं हुई या विधवा-परित्यक्ता हो गयी- उसका क्या होगा? सच पूछो तो संन्यास बिलकुल अलग चीज है, बहुत दूर की चीज है। स्वयं में न्यस्त हो जाना ही संन्यास का असली प्रयोजन है। आज के जमाने में किसी के बस की बात भी नहीं है। यही कारण है कि शास्त्रों में जैसे बहुत से कर्म का निषेध किया गया है, वैसे ही कलिकाल में संन्यास लेने की घोर मनाही है। आज का परिवेश संन्यास के योग्य कदापि नहीं है, और इस तथ्य की अवहेलना करके जो भी संन्यासी हुए हैं, हो रहे हैं- उनकी स्थिति बड़ी दयनीय होती है। धोबी के गदहे की तरह न वो घर के होते हैं, और न घाट के। आज का संन्यास पलायन वाद है- सांसारिक जिम्मेवारियों से पलायन करना। या फिर आतुर वैराग्य है- माँ-वाप, पत्नी किसी से झगड़ा हुआ, और चट चोला बदल लिए, घर से भाग खड़े हुए। संन्यासी बन गये। मन के कमजोर लोग ही संन्यास का रास्ता चुनते हैं। अतः किसी संशय में न रहो। गृहस्थ धर्म का सम्यक् पालन करते हुए साधन पथ पर अग्रसर होओ। एक धुरी से जुड़े दो चक्के, और उनसे जुड़ा जुआ, जो बैलों के कंधे पर रखा होता है, उबड़-खाबड़-प्रशस्त पथ पर सरकता जाता है शनैः-शनैः। हमारे शास्त्रों में यत्र-तत्र प्रचुर मात्रा में वर्णन है इन विषयों का। एक ओर गृहस्थ-धर्म की महत्ता दर्शायी गयी है तो दूसरी ओर पत्नी-परित्याग का दुष्परिणाम भी बतलाया गया है। ब्रह्मवैवर्तपुराण श्रीकृष्णजन्मखंड अध्याय ११३ के श्लोकसंख्या ६, ७, ८ में कहा गया है-

अनपत्यां च युवतीं कुलजां च पतिव्रताम्। त्यक्त्वा भवेद्यः संन्यासी ब्रह्मचारी यतीति वा॥

वाणिज्ये वा प्रवासे वा चिरं दूरं प्रयाति यः। तीर्थे वा तपसे वापि मोक्षार्थं जन्म खण्डितुम्॥

न मोक्षस्तस्य भवति धर्मस्य स्खलनं ध्रुवम्। अभिशापेन भार्याया नरकं च परत्र च॥

जरा ध्यान दो शास्त्र के इस वचन पर। तब से लेकर अब तक की सामाजिक, पारिवारिक स्थितियों को ध्यान में रख कर जरा विचारो, किस प्रकार संकेत किया गया है- ऋषि के वचन हैं कि कुलीन, पतिव्रता, युवती, पत्नी को सन्तान रहित त्यागकर संन्यासी, ब्रह्मचारी, यति, मोक्षार्थी बन जाना, तीर्थाटन वा तप के लिए निकल जाना, तथा व्यापार-नौकरी आदि के उद्देश्य से दीर्घकालिक प्रवास पर चले जाना- इन सभी स्थितियों में पत्नी के (प्रत्यक्ष-परोक्ष) शाप का भाजन बनना पड़ता है, जिसके परिणाम स्वरुप मोक्ष की प्राप्ति तो होती ही नहीं, उलटे धर्मच्युत(पतित) होकर, नरकगामी भी बनना पड़ता है।’