बाबा उपद्रवीनाथ का चिट्ठा / भाग 2 / कमलेश पुण्यार्क

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‘...अवस्थीजी बहुत प्रसन्न हुए,मुझे अपने शिष्य रुप में पाकर- “अहोभाग्य मेरा कि अपने मित्र गदाधर भट्ट के पौत्र को शिक्षा देने का मुझे अवसर मिल रहा है।” दादाजी ने उन्हें लगभग सारी रामकथा सुना डाली,जिसके जवाब में उन्होंने कहा -“ तुम चिन्ता न करो गदाधर ! तुम्हारा पौत्र मेरा पौत्र। मैं तुम्हारे बेटे की तरह क्रोधी-तपाकी नहीं हूँ। भला अबोल बालक को कहीं ऐसी मार लगायी जाती है ! बच्चों को कैसे रखा जाता है,मैं जानता हूँ। इसके पालन,रक्षण,शिक्षण में मेरे पितृधर्म और गुरुधर्म दोनों का सम्यक् उपयोग होगा। तुम देखना,थोड़े ही दिनों में इसमें अप्रत्याशित परिवर्तन ला दूंगा मैं। ”-कहते हुए अवस्थीजी की ललाट दर्पित हो आयी थी।

‘...मुंह अन्धेरे में ही ब्रह्ममुहूर्त की वापसी यात्रा की दादाजी ने। प्रणाम-पाती-विदा देकर, अवस्थी जी अपने कमरे में चले गये। रात की मित्र-वार्ता में ही मुझे पता चल चुका था कि दादा जी यहां से पैदल ही कन्दौल,जो कि गया से समीप ही है, की यात्रा करेंगे, अपने मित्र वैद्य सिद्धनाथ मिश्र से मिलने के लिए। दिन भर वहीं बिता कर अगले दिन गांव वापस जायेंगे। कुछ विशेष कारण से ही,घुड़सवारी को छोड़,पदयात्रा का ही चयन किया था इन्होंने इस बार। कुछ मायने में ये इनकी एकान्तिक यात्रा कही जा सकती है।

‘...अनुभवी परियोजना पदाधिकारी की तरह मुझे भी अपनी योजना बनाने में देर न लगी। दादाजी के प्रस्थान के थोड़ी देर बाद ही,अवस्थीजी से आदेश,और उनका ही पीतल का लोटा लेकर, प्रातः शौच के लिए,मैं भी निकल गया, विद्यालय-प्रांगण से बाहर। फाटक से बाहर कदम रखा तो लगा कि स्वच्छ आकाश में उन्मुक्त पक्षी सा पंख फड़फड़ा रहा हूँ। कहां आ फंसा था इस पिंजरे में ! अब देखता हूँ- अवस्थी के शिक्षण-रक्षण का दर्प !

रास्ता बहुत अन्जान नहीं था। पहले भी एक-दो बार दादाजी के साथ कन्दौल जा चुका था, और गयाजी की यात्रा तो बीसियों बार हो चुकी थी- कभी घोड़े,कभी पालकी से। कहीं भी जाते, दादा जी मुझे जरुर साथ ले लिया करते थे। उनका स्नेह मेरे ऊपर सर्वाधिक था,किन्तु क्या करता, कभी-कभी सर्वस्नेह की भी आहुति देनी होती है। ये स्नेह ही मनुष्य का सबसे बड़ा अवरोधक है,विघ्न है....।’

उपद्रवी बाबा की इस बात पर मेरा मन खटका। स्नेह की आहुति क्यों- मुझे जरा भी पल्ले न पड़ा। अतः पूछ दिया- ‘माफ करेंगे महानुभाव ! ये क्या कह रहे हैं ? किसी के प्रति आदर,सम्मान, स्नेह, प्रेम ही नहीं रहेगा तो फिर...? ’

मेरी बात पर बाबा मुस्कुराये। उनकी मुस्कुराहट वैसी ही थी जैसी किसी बुजुर्ग की होती है, किसी बच्चे के बचकानी सवाल पर। वे कहने लगे- ‘तुमने जो इन एक जैसे दिखने वाले अनेक शब्दों का इस्तेमाल किया ,वो बिलकुल भिन्न हैं। प्रायः हम शब्दों के ‘तथाकथित पर्याय’ को भी ‘शब्द’ ही मान लेने की भूल ही नहीं,मूर्खता कर बैठते हैं। आदर-सम्मान,और स्नेह-प्रेम को एक ही परियानी पर क्यों तौल रहे हो ? आदर-सम्मान बिलकुल अलग चीज है। इसकी आहुति देने की बात मैं नहीं कर रहा हूँ। ये किसी भी तरह से हमारे लिए विघ्नकारी नहीं हो सकते। माता-पिता, गुरुजनों को आदर-सम्मान देना ही चाहिये,इसका कोई विकल्प भी नहीं है। माता-पिता कैसे भी हों,आदरणीय और सम्मानीय होते ही हैं। वो ना होते तो मेरा वजूद ही कहां होता ! देखो,फिर यहाँ संशय में मत पड़ जाना। माता के साथ मैंने पिता को रखा है, ‘वाप’ को नहीं। वह वन्दनीय नहीं ‘भी’ हो सकता है। किन्तु पिता सदा वन्दनीय होता है। पिता अनेक हो सकते हैं,पर वाप सदा एक ही होगा। इसकी अनेकता का सवाल कहाँ ! खैर,तुम्हारा सवाल यहां स्नेह से सम्बन्धित है। मैं यहां बात भी स्नेह की ही कर रहा हूँ। स्नेह की,प्रेम की भी नहीं। यह जो ‘स्नेह’ है न, ‘श्लेष’ है। श्लेषित कर देता है- चिपका देता है, हमारे मन-प्राण को। और फिर इसी के गर्भ से मोह उत्पन्न होता है। इस मोह ने अच्छे-अच्छों को मोहित किया है। महात्मा जड़भरत का नाम सुना होगा तुमने,जिन्होंने संसार को ही विसरा दिया था, किन्तु एक मृगछौने के मोह ने- स्नेह ने,बांध लिया,और फिर से एक ‘शरीर’ लेना पड़ा। अस्तु, इस स्नेह की तो आहुति देनी ही होगी,आज दो,कल दो जब दो...और स्नेह का उल्टा परित्याग नहीं होता है। प्रायः शब्दों के गूढ़ार्थ को ही हम समझने में चूक जाते हैं,फिर विपरीतार्थ तो बहुत दूर की बात है। साधक को शब्दों के महाजाल से बाहर आना होता है; इसीलिए गीता जैसा महान पथ-प्रदर्शक ग्रन्थ ‘निर्ग्रन्थ’ होने की सलाह देता है।’

बाबा की अद्भुत बातें बरबस ही मुझे बांधे जा रही थी। जरा ठहर कर, गहरी सांस लेकर, बाबा ने पुनः कहना शुरु किया- ‘हाँ,तो मैं अपने दादाजी का पीछा करने लगा, उनकी स्वाभाविक चाल भी बहुत तेज थी। जवानों को भी उनके साथ चलने में सांस फूलने लगता था। मुझे तो लगभग दौड़ना पड़ रहा था। कुछ दूर तक तो पता भी न चला कि किधर निकल गये। सिर्फ अन्दाज से रास्ते पर बढ़ता रहा। अवस्थीजी के विद्यालय से कोसों दूर पश्चिम जाने पर नदी किनारे उनकी गठरी नजर आयी। शायद शौच के लिए गये हों। सूर्योदय होने ही वाला था। मौका पाकर, गठरी को पानी की धार पर रख दिया,जो तैरते हुए आगे सरक गया।

‘...गठरी बहाने के बाद, दो तरह के विचार मेरे मन में उठे- एक तो कि मैं चुपचाप पलायन कर जाऊँ यहाँ से,और दूसरा यह कि यहीं कहीं छिप कर देखूं कि आगे क्या होता है। दादाजी के प्रति स्नेह मुझे बांधे हुए था। संसार में दो ही प्रिय लगते हैं मुछे- बड़ी माँ और दादाजी। पिता तो फूटी आँखों भी नहीं सुहाते। अपनी माँ से सामान्य लगाव है,जैसा कि अन्य चार मांओं से।

‘...थोड़ा सोच विचार के बाद दूसरा विकल्प ही सही लगा । अतः मैं वहीं एक ओर दुबक कर बैठ, तमाशा देखने लगा। थोड़ी देर में दादाजी निवृत होकर लौटे तो गठरी नदारथ पा,चौंक गये। कुछ देर हक्केबक्के खड़े रहे। आसपास कोई नजर न आया। गठरी आंखिर गयी कहाँ ! फिर कुछ सोच,नदी की धार में उतर कर,हाथ-मुंह धोये,और ऊपर आकर आवाज लगाने लगे- “ उपेन्द्र कहाँ हो तुम, जल्दी सामने आओ। आंखिर मैं तुम्हारा दादा हूँ । मैं जानता हूं कि यह काम तुम्हारा ही है, छिपने से कोई लाभ नहीं।“

‘…हँसते हुए मैं झाड़ी से बाहर आगया। बड़ी ढीठायी से बोला- आपकी

गठरी तो मैं नदी में बहा दिया। आप मुझे छोड़ कर क्यों आ गये? मैं वैसी जगह पर बिलकुल नहीं रहूँगा जहाँ न आप हैं और न बड़ी माँ।

‘...मेरी बातों का जवाब दिये वगैर वे नदी की ओर लपके । पानी की धार

तेज न थी ।थोड़ी ही दूर पर गठरी किनारे लगी हुयी थी। झपट कर गठरी उठा लाये। और तब,मेरा हाथ पकड़ कर वहीं बालू पर बैठ गये। पीठ पर हाथ फेरते हुए समझाने लगे- “ उपेन्दर तुम पढ़ोगे नहीं तो मेरे जैसा विद्वान कैसे बनोगे? पढ़ने के लिए ही तो अवस्थी जी के पास रखा था,घर पर पढ़ाई अच्छी नहीं होती, और पिताजी मारते भी हैं। यहाँ रहने में तुम्हें कोई तकलीफ नहीं होती...।”

‘...इसी तरह की बहुत सी बातें कह-कह कर दादाजी घंटों मुझे समझाते रहे,पर मैं टस से मस न हुआ अपने विचार से। अन्त में लाचार होकर,बोले- “ ठीक है,जैसी तुम्हारी मर्जी,मगर एक बात जान लो कि इस बार घर जाओगे तो तुम्हारा बाप छठी का दूध याद दिला देगा,और मैं भी कुछ नहीं बोलूँगा- जान लो,क्यों कि तुम मेरी भी बात नहीं मानते।” फिर कुछ सोचने के बाद,बोले- “अच्छा , तुम यहीं बैठो,तब तक मैं स्नान-ध्यान कर लूँ। तुम तो अपना झोला वहीं छोड़ आये , और ऊपर से, अवस्थीजी का ये लोटा भी लिये चले आये हो। ”

‘...स्नान-पूजा के बाद,गठरी से निकाल कर कुछ जलपान किये,और तब, वहां से हम दादा-पोता आगे बढ़े- कन्दौल की ओर,जो कि अभी चार-पांच कोस से कम न था।

दोपहर वाद हमलोग वहाँ पहुंचे। दादाजी ने एक पत्र,और अवस्थीजी का लोटा वैद्य जी के घुड़सवार को सौंप कर कहा कि जल्दी वापस आ जाये,उपेन्द्र का झोला और अवस्थी जी का समाचार लेकर।

‘...अगले दिन वहां से वैद्यजी का घोड़ा लेकर,सीधे दक्खिन-पश्चिम का रुख किये। ये रास्ता मेरे लिए बिलकुल अनजान था। पूछने पर भी दादाजी ने कुछ बतलाया नहीं। दोपहर से पहले ही हमलोग एक गांव में पहुंचे। दादाजी ने बताया कि यहां पहाड़ के ऊपर बड़ा ही सुन्दर ऐतिहासिक मन्दिर है- ‘उमगा’- उमा,महेश,और गणेश का सिद्ध स्थल। पहाड़ की तलहटी में बसा है गांव— पूर्णाडीह, जहाँ अनेक साधक हुए हैं। शाक्त उपासक ब्राह्मणों की सिद्धस्थली है यह।

‘...वहीं,पंडित ज्ञानेश्वर जी के यहाँ पहुँचे हमलोग। आवभगत और लम्बी

वार्ता के पश्चात् पंडित जी ने कहा- “ गदाधर,यदि तुम्हें कोई आपत्ति न हो,तो मैं इस महाउदण्ड बालक को अपने पास रख लूँ।”

उनकी बात सुन, दादाजी हर्षित होकर बोले- “ मुझे क्यों आपत्ति होने लगी,मैं तो कुछ ऐसी ही कामना लेकर,चामुण्डा के दरबार में आया हूँ। आप इस

विषय के ज्ञानी हैं। स्वयं जांच-परख लें कि ‘वटुक’ किस योग्य है।”

“योग्यायोग्य का विचार न करो, और न संशय ही। मैं तो ललाट और आँखें देख कर ही जान लिया था कि यह बालक किसी और उद्देश्य से जन्मा है। अमरकोश और पञ्चतन्त्र में कहाँ उलझाना चाहते हो इसे।”

‘...ज्ञानेश्वरजी मेरे दादाजी से काफी उमरदराज थे। उनकी आँखों का जादू मुझे भेदे जा रहा था। लगता था, मानों किसी लोहे को शक्तिशाली चुम्बक खींचे जा रहा हो। उन्होंने मुझे पास बुला कर एक लड्डू खाने को दिया,और पुचकार कर गोद में बैठा लिया।

“तुम्हें यहीं रहना है मेरी सेवा में, रहोगे न ? रोज एक लड्डू मिलेगा,और पढ़ने-लिखने से भी छुट्टी। मगर एक काम करना होगा- उधर पहाड़ी पर माँ का मन्दिर है, उसकी साफ-सफाई करनी होगी,पूजा के लिए फूल तोड़ना होगा,हवन के लिये वेदी बनानी होगी,पास के जंगल से लकड़ियां भी लानी होगी। बोलो मंजूर है न? ”

‘...उनकी गोद में बैठा मैं, किसी प्रेंषादोला के पेंगे सा आनन्दित हो रहा था। ऐसा सुकून न तो बड़ी मां की गोद में मिला था और न दादाजी की गोद में ही कभी। लड्डू खाते-खाते धीरे से सिर हिला दिया।

‘...मेरी स्वीकृति से आश्वस्त हो,दादाजी मन्त्रमुग्ध, देखने लगे,पंडितजी की ओर- “ अरे ये तो अद्भुत बात है,कल ही सुबह कह रहा था कि जहाँ मैं और इसकी बड़ी मां नहीं होगी,वहां कदापि नहीं रह सकता।”

“ठीक ही तो कहा था इसने, गलत क्या है ! यहाँ पहाड़ पर उस माँ से भी बड़ी माँ विराजमान है, और इधर पहाडी के नीचे, इसे गोद में बैठाने के लिए, इसके दादा से भी बड़ा दादा मैं जो हूँ। क्यों ठीक कह रहा हूँ न उपेन्द्र?”- पंडितजी की बात पर मैंने फिर ‘हां’ में सिर हिला दिया। दादाजी की ओर देखते हुए वे बोले- “ अग्नि प्रस्फुटित है,गदाधर ! पृथ्वी जल में घुल चुकी है,किंचित शुद्ध वायु की आवश्यकता है। अग्नि को वायु का संसर्ग देकर,आकाश में उड़ा देना है,वस इतना ही तो काम है। आगे महामाया जाने।” दादाजी पंडितजी का मुंह देखे जा रहे थे। उन्होंने आगे कहा- “ यह जो पृथ्वी है न सबसे ‘गुरु’ है, इसका गुरुत्व बहुत बाधक होता है। दीर्घ प्रयास और संघर्ष से जल के सहयोग से,किंचित बिलीनता आती है, तभी इसकी गांठे टूटती हैं। किन्तु एक बहुत बड़े खतरे की भी आशंका रहती है- जल का सम्पर्क सिर्फ द्रवित ही नहीं करता,प्रत्युत अधोगामी भी बना दे सकता है। परन्तु कोई बात नहीं, अग्नि सम्भाल लेगा। सुखा देगा। आकार दे देगा। और फिर आकार को निराकार होने में बहुत पापड़ नहीं बेलने हैं। तुम इस प्रचण्ड ज्वाला को अमरकोश और हितोपदेश से शान्त करने का दुष्प्रयास कर रहे थे। सफलता कहाँ से मिलती? एक वामन अदिति के गर्भ से अवतरित हुए,एक वामन तुम्हारे यहाँ उत्पन्न हुआ है। ‘उपेन्द’ वामन का ही तो नाम है। आठ वर्ष का यह वामन अब तुम्हारे कुल का उद्धार करेगा। तुम बड़े सौभाग्यवान हो गदाधर ! बड़े सौभाग्यवान। ” –इसी तरह की कुछ और भी बातें बड़ी देर तक उन दोनों में चलती रही।

‘...पंडितजी की बातें मेरे कुछ पल्ले न पड़ी। पल्ले पड़ी सिर्फ यही कि अब मुझे यहीं रहना है। जगदम्बा की सेवा का सामान जुटाना है,लड्डू खाना है,और मस्ती करना है।

‘...दादाजी उसी दिन शाम होने से कुछ पहले ही चल दिये वापस अपने गांव । चलते समय मुझे गोद में उठा कर बड़े स्नेह से चूमते हुए बोले- “ आराम से रहना। मन लगा कर माँ की सेवा करना, और पंडितजी की भी। ये भी तुम्हारे दादाजी ही हैं,हमसे भी बड़े दादाजी। तुम कहाँ हो,ये बातें घर में किसी को बतायी न जायेगी। लोग यही जानेंगे कि अवस्थीजी के विद्यालय में पढ़ रहे हो। बीच-बीच में फुरसत निकालकर मैं आया करुंगा। कम से कम दशहरा-दीपावली तक यहीं रहो। छठ के समय घर ले चलूंगा,माँ के पास। ”

बाबा की इन लम्बी बातों का सिलसिला अभी और भी चलता रहता। असली बातें तो अभी शुरु ही हुयी थी,किन्तु घड़ी की ओर देखते हुए गायत्री ने टोका- ‘उपेन्दऽरऽ भैया ! समय बहुत हो गया है। भूख नहीं लग रही है क्या अभी ?’

मुस्कुराते हुए बाबा ने कहा - ‘ मेरे भूख की परवाह ना किया करो। हां,

तुमलोगों को भूख लग गयी हो, तो खाने-पीने का बन्दोबस्त किया जा सकता है।

बातें तो होती ही रहेगी। “कलौ अन्नगताः प्राणाः ” कलयुगी लोगों का प्राण तो अन्न में ही बसता है न। चलो, चलकर पीढ़ा-पानी लगाओ। मैं अभी भोजन-सामग्री का प्रबन्ध करता हूँ।’

मैं गायत्री का मुंह देखने लगा,वह भी मेरी ओर ही देखे जा रही थी। कहीं

कुछ दीख नहीं रहा है,भोज्य-व्यवस्था,और पीढ़ा-पानी की बात कर रहे हैं....। फिर भी बाबा की बात को आदेश की तरह पालन करते हुए,सशंकित गायत्री उठकर भीतर बरामदे में चली गयी,और लोटा,गिलास,पीढ़ा-पाटी सजाने लगी।

बाबा भी उठे अपना झोला लिए। मुंह-हाथ धोकर भोजन के लिए पलथी मार कर बैठ गये। मुझे भी बैठने को कहा,और गायत्री से बोले कि काठ का एक और पीढ़ा हो तो ले आओ।

गायत्री पीढ़ा ले आयी। उसे अपने सामने रख कर,झोली में हाथ डाल, एक अद्भुत गांठदार बड़े से ‘सीपी’ जैसा, और चांदी की एक डिबिया निकालकर,पीढ़े पर रख दिये। अंजली में जलभर कर कुछ मन्त्र बुदबुदाये,और उसपर छिड़क कर आँखें बन्द कर लिए। हमलोगों को भी आँखें बन्द करने को कहा,और हिदायत किया कि जब तक आदेश न हो आँखें, बन्द ही रखी जायें।

मैं रोमांचित हो रहा था। उत्सुकता,और जिज्ञासा तो थी ही। करीब पांच मिनट के बाद आँख खोलने का आदेश हुआ। आँखें खुली तो विस्फारित रह गयी, सामने का दृश्य देख कर- बाबा के सामने रखा पीढ़ा दाहिनी ओर खिसका हुआ था। उस पर रखा गांठदार वस्तु और चाँदी वाली डिबिया भी गायब थी,या पुनः झोली में चली गयी थी,कह नहीं सकता। हम तीनों के सामने बिलकुल ताजी पत्रावली में यथेष्ट मात्रा में सुस्वादु भोज्य पदार्थ रखे पड़े थे,जिनका सुगन्ध नथुनों में पहुंचकर,बच्चों सा लालायित-पुलकित कर रहा था-शीघ्र कौर उठाने को। बाबा कुछ बोले नहीं,सिर्फ इशारा किये भोजन करने के लिए।

‘...भोजन शुरु किया बाबा ने,साथ ही हमदोनों ने भी। हमारी तो आदत है, रात के भोजन के समय ही टीवी पर समाचार देखने की । दिन भर के भाग दौड़ में वक्त ही कहां मिल पाता है ! टमटम के घोड़े की तरह सुबह से शाम,या देर रात तक जुते रहना – दाल-रोटी की जोड़ी की सलामती के जुगत में,तिस पर भी कभी नमक गायब तो कभी दाल तो कभी सब्जी...घी-दूध, मेवा-मिष्ठान्न तो पौष्टिक-आहार की किताब में ही देखने को नसीब हो पाता है। बस यही तो जिन्दगी है। ‘भोजन’ कभी किया कहाँ ! हाँ खाना भले खा लेता हूँ- वैसे ही जैसे कि रेल के ईंजन में धड़ाधड़ बेलचे से कोयला डाल दिया जाता है,और किसी जंक्शन पर पहुँच कर मोटे नलके से पानी भी भर दिया जाता है। सुबह का भोजन तो ऐसे ही होता है रोजदिन,और रात का- ठीक उससे विपरीत- ‘अबतक’ ‘आजतक’ ‘कब-कैसे-कहां’ जब तक चलता,भोजन भी चलते रहता उसी रफ़्तार से। ये नहीं कि चार के बदले चौदह रोटियां खा जाता हूँ,रोटियां तो उतनी होती हैं,पर खाने की गति गांधी वाली होती है। सुनते हैं कि गांधी पचास ग्राम चने को आध घंटे में आहिस्ते-आहिस्ते चबा-चबाकर खाते थे। बचपन में खेलते-खलते खाता था तो मेरी दादी कहती थी- अन्तिम कौर पेट में पहुँचने तक तो तुम्हारा पहला निवाला आंत में पहुंच जाता होगा...।

‘...आज सच में ‘भोजन’ किया,खाना नहीं खाया। बाबा के इशारे पर,मौन भोजन। भोजन क्या होता है,कैसे किया जाता है,क्या अर्थ और औचित्य है भोजन का- आज स्वतः ही समझ आगया। बाबा का वह अद्भुत कृपा-प्रसाद– दिव्य भोजन, जिसके गुण,रस और स्वाद की व्याख्या के लिए मेरे पास कोई शब्द ही नहीं हैं,अतः भोजन के बाद भी मौन ही रहना अच्छा है।

‘...बाबा के आगमन के बाद से अब तक हुयी बातों में ही अनेक बातें उलझी हुयी थी,जिसे सुलझाने को मन व्याकुल हो रहा था; किन्तु अभी का ये चमत्कारिक भोजन-प्रसंग- सर्वाधिक जिज्ञासु बना दिया । इस रहस्य को जानने-समझने को ललक उठा। भोजन के बाद,हम सभी उसी स्थान पर आ बैठे- बालकनी में। गायत्री ने जिज्ञासा प्रकट की- “ वो क्या चीज थी उपेन्दर भैया,और कैसे हो गया ये सब? क्या जब चाहे तब इससे भोजन प्राप्त किया जा सकता है?”

बाबा मुस्कुराये- “ अरे नहीं पगली ! ये कोई खेल-तमाशा नहीं है,और न इससे भोजन जुटा कर राष्ट्र की भूखमरी ही दूर की जा सकती है।”

“ तो फिर क्या है ? ”- गायत्री का अगला सवाल था।

“तुम नहीं मानेगी, सब कुछ उगलवा ही लेगी मुझसे।”- कंधे से लटकती झोली में से बाबा ने पुनः उन दोनों वस्तुओं को निकालते हुए कहा- “ बहुत कर्ज है तेरा, मेरे सिर पर,पता नहीं अभी और कितना कर्जा खाना है तुम्हारा...ये ले आंचल फैला।”

उत्सुकता पूर्वक गायत्री अपना आंचल फैला दी बाबा के सामने। बाबा ने दोनों वस्तुयें उसके आँचल में डालते हुए कहा- “ ले जा,इसे अपने पूजा-स्थल में श्रद्दा, विश्वास और आदरपूर्वक रख दे। नित्य धूप-दीप दिखाना,और सच्चे मन से प्रार्थना करना कि प्रभु मेरा कल्याण करो।”

मेरी उत्सुकता अपनी सीमा तोड़ छलांग लगा गयी। पूछ बैठा- आंखिर ये

है क्या चीज?

मेरे प्रश्न पर बाबा झल्लाये,मगर क्रोध वाली झल्लाहट नहीं,स्नेह वाली-बिलकुल स्निग्ध - “ तुम अखबार वालों की यही आदत है,बाल की खाल निकाल कर अन्दर और अन्दर झांकने का प्रयास,यहां तक की तुमलोग कभी-कभी प्याज को भी छीलने लगते हो, अन्दर किसी फल (परिणाम) की तलाश में। प्याज के अन्दर भी कोई फल होता है क्या,जिसमें उसका बीज(कारण) हासिल हो सके ? कोई जरुरी नहीं कि फल के अन्दर बीज हो ही,और सिर्फ बीज से ही फल उत्पन्न हो- यह भी जरुरी नहीं। जिज्ञासा अच्छी चीज है,किन्तु हर जगह अच्छी नहीं है।”

फिर भी ! जो वस्तु मुझे आप दे रहें है,उसका परिचय तो जानना ही चाहिए न ? ये तो मेरा अधिकार बनता है?

इस बार बाबा सच में झल्ला गये। - “ ये अधिकार वाली बातें सिर्फ नेताओं के लिए छोड़ दो । इसे वे हथियार की तरह इस्तेमाल करके,जनता को मूर्ख बनाते हैं- उसके अधिकारों की गिनती गिना कर। काश ! कर्तव्यों की झोली में से एकाध भी समझा देते,तो राष्ट्र और राष्ट्रवासियों का कल्याण हो जाता। खैर तुमने पूछा है,तो कुछ तो बताना ही पड़ेगा।” —गायत्री की आंचल में से वो गांठदार चीज निकाल कर मेरे हाथ में देते हुए बोले- “ इसे मोतीशंख कहते हैं,किन्तु यह बजाने वाला शंख नहीं है। इस ‘पर’ साधना की जाती है ; और ‘इससे’ साधना भी की जाती है- दधिशंखतुषाराभं क्षीरोदार्णव सम्भवम्...चन्द्रमा का अति प्रिय पदार्थ है यह। सामान्य शंख की तुलना में यह जरा दुर्लभ है,किन्तु बिलकुल अलभ्य नहीं। रामेश्वरम् आदि समुद्री तट पर पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हो जाता है। वैसे बसरा की खाड़ी में सर्वोत्तम गुण-आकृति वाला मोतीशंख पाया जाता है। मोती सीपी से जरा भिन्न आकृति है इसकी। और सामान्य शंख से तो बहुत ही फर्क है इसमें- रंग,रुप, आकृति सब कुछ बिलकुल अलग। बस नाम भर है शंख- मोती जैसा चमक होने के कारण मोतीशंख नाम चरितार्थ होता है। मोतीसीपी में से मोती निकलता है, मोतीशंख में से मोती भी नहीं निकलता। तुम मानवी भाषा में इसे यूँ समझो कि मोतीसीपी नारी है,और मोतीशंख नर। किन्तु नारियों की तुलना में नर का अत्यन्त अभाव है। मोतीसीपी तो बहुत मिलते हैं,पर मोतीशंख अपेक्षाकृत कम। प्रकृति अट्रासाउण्ड का प्रयोग करके स्त्रीभूण हत्या जैसा कुकृत्य नहीं करती । ये तो सभ्य

कहे जाने वाले मानव वेषधारी दानवों का तथाकथित सुकृत्य है।...

“...इस मोतीशंख का विविध प्रयोग है तन्त्रशास्त्र में, उसकी ही एक बानगी, अभी देखा तुमलोगों ने; किन्तु इसका ये अर्थ नहीं कि इसे साध कर, अकर्मण्यों की भांति पड़े-पड़े सुस्वादु भोजन का आनन्द लेते रहा जाय। विशेष अवस्था में साधकों का ‘सहायक’ है ये, ‘सहारा’ नहीं; और उस अवस्था में ही इसका प्रयोग करना चाहिए। हां,आमजनों के लिए इसकी महत्ता और उपयोगिता है- मात्र,इसका द्राव्यिक गुण-प्रभाव। द्रव्य का अर्थ यहां रुपया-पैसा मत समझ लेना। तुम अखवारी लोग कुछ का कुछ समझने में माहिर हो। कहने वाला कहता कुछ है, और उसे अपनी समझ से तोड़-जोड़ कर अलग रुप दे देते हो। द्रव्य का यहां वस्तुगत अर्थ में प्रयोग हुआ है। ये विशेष रुप से साधित मोतीशंख जहाँ कहीं भी रहेगा,जीवन की अपरिहार्य आवश्यकताओं की पूर्ति के साधन का कदापि अभाव नहीं होने देगा...

“…यहाँ फिर मेरे शब्दों पर ध्यान देना- मैं एक-एक शब्द महात्मा विदुर की भांति तौल-तौल कर बोलने का प्रयास करता हूँ। शब्दों के पर्याय पर मुझे आस्था नहीं है। यहां अपरिहार्य आवश्यकता की पूर्ति के साधन की बात कर रहा हूँ। सभ्य कहे जाने वाले लोगों की उछृंखल,अकूत आवश्यकता-पूर्ति की बात मैं नहीं कर रहा हूँ। तुम इसे यों समझो- मान लो कि तुम बीमार हो,दवा के लिए विशेष रकम चाहिए,जो नहीं है तुम्हारे पास,तो ऐसी अवस्था में यह साधित मोतीशंख तुम्हें पैसे के अभाव में मरने नहीं देगा। पैसे के आभाव में तुम्हारी बेटी की शादी नहीं रुकेगी। किन्तु हवाई जहाज पर उड़ने के लिए ये मोतीशंख पैसे नहीं जुटायेगा। महीने का घरखर्चा नहीं उठायेगा। गायत्री के क्रीम-पाउडर के लिए तो तुम्हें कमाना ही होगा। ”- बाबा की बातों पर गायत्री मुस्कुरायी। बाबा कह रहे थे- “…किन्तु इस अपरिहार्य आवश्यकताओं की पूर्ति के साधन के लिए भी श्रद्धा और दृढ़ विश्वास होना चाहिए। हमारे बहुत से काम बिगड़ जाते हैं, इसी के अभाव में । पारस को भी पत्थर समझ लेते हैं,या कभी अन्धीश्रद्धा,अन्धविश्वास कंकड़ को भी तिजोरी में रखवा देता है। वैसे, हम मनुष्य माहिर हैं- कंकड़ को बचाकर,हीरे को गंवाने में। हमसब पूजा,अर्चना,प्रार्थना,दान, जप,योग, तीर्थ,व्रत,यज्ञ सब कुछ करते हैं,किन्तु संशय सहित, प्रयोग,और आजमाइश के रुप में, या फिर बनिये की तरह- हानि-लाभ का हिसाब देखकर। भीतर में सच्ची श्रद्धा नहीं होती, और ना ही विश्वास होता है। करना चाहिये- सुन-जान लिए और करने में लग गये। फल(परिणाम)कुछ दीखा नहीं,तो बस शास्त्र को दोषी करार दे दिये चट-पट।

‘... एक बार एक गांव में अकाल की स्थिति देख,इन्द्रप्रीत यज्ञ का आयोजन हुआ ताकि प्रचुर वर्षा हो सके। इस यज्ञ का फल कहा गया है शास्त्रों में कि पूरी विधि से विश्वास पूर्वक किया जाय तो पूर्णाहुति होते-होते घोर वर्षा होती ही है- इन्द्र का संकल्प है यह। उस गांव में यज्ञ हुआ। पूर्णाहुति के दिन सारा गांव ही नहीं, बल्कि आस-पड़ोस के गांव भी उमड़ पड़े—यज्ञ का प्रसाद पाने को- “प्रसाद” वो कृपा-प्रसाद नहीं, जिसके लिए यज्ञ किया गया है,बल्कि लड्डू,पेड़ा,केला,अमरुद की भीड़ इकट्ठी हो गयी। सभी खाली हाथ यज्ञ मंडप की ओर दौड़ लगा रहे थे, ताकि पिछुआ न जायें। एक साधारण सा आदमी चुपचाप अपने दरवाजे पर बैठा, जाते हुए लोगों को देख रहा था। किसी ने पूछ लिया- क्यों भाई तुम नहीं जाओगे यज्ञ देखने ? उसने सहजता से कहा- “ मेरी तबियत ठीक नहीं रहती। जरा सा भींग जाने पर बीमार हो जाता हूँ। मेरे पास छाता भी नहीं है,कैसे जाऊँ।” पूछने वाला हँसा उसकी बेवकूफी भरी बातों पर- “ पागल हो क्या ? क्या लगता हैं बारिश होने वाली है? मेघ कहीं नजर आ रहे हैं ? यज्ञ करने से भी कहीं वर्षा होती है ?” अब जरा सोचो- भीड़ भागी जारही है यज्ञ देखने,और आस्था-विश्वास का लेश मात्र भी नहीं। उस पूरे जमात में सच्चा विश्वासी अगर कोई है तो वह आदमी,जो छाता न रहने के कारण यज्ञ का प्रसाद लेने नहीं जा पा रहा है। प्रसाद का असली अधिकारी वही है। ईश्वर उसे ही कुछ मदद करता है,जिसे भरोसा है उस पर। श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है- अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते । तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।। (९-२२)। बात यहां अटूट भरोसे की है- जो सबकुछ भुला कर, छोड़कर, विसराकर,एकमात्र उस परमात्मा का यजन-भजन करता है,उसके हानि-लाभ,सुख-दुःख का ध्यान तो रखना ही पड़ेगा न उस भगवान को ! मोतीशंख बेचने वाले को तो बहुत अमीर हो जाना चाहिए था, किन्तु वह सिर्फ व्यापारी ही रहता है। यहां इसका द्राव्यिकगुण काम नहीं आयेगा। ”

इतना कहकर,बाबा जरा रुके। मैं कुछ कहना ही चाहता था कि गायत्री पूछ बैठी- “ और ये क्या है भैया ! इस डिबिया में? ”

बाबा ने मेरे हाथ से मोतीशंख लेकर,पुनः गायत्री की आँचल में डाल दिया,और उसमें पड़ी चांदी वाली डिबिया निकाल कर, उसे खोलकर दिखाया- छोटा सा,कोई ईंच भर घेरे की गोलाई वाला, ठीक छोटे आलू जैसा,किन्तु उसमें दो-दो ईंच के रोयें का गुच्छा निकला हुआ, डिबिया में रखे पीले सिन्दूर से लिपटा-सना सा। मैंने हाथ में लेकर देखा- अद्भुत सुगन्ध नथुनों में बरबस घुसा जा रहा था। बाबा ने कहा-

“ इसे सियारसिंगी कहते हैं। संस्कृत नाम श्रृगालश्रृंगी है। जांगम द्रव्यों में श्रृगालश्रृंगी एक अद्भुत और अलभ्य पदार्थ है।सियार के सभी पर्यायवाची शब्दों- जम्बुक,गीदड़ आदि से जोड़कर इसके भी पर्याय प्रचलित हैं;किन्तु सियारसिंगी सर्वाधिक प्रचलित नाम है। आमलोग तो इसके होने पर ही संदेह व्यक्त करते हैं- कुत्ते-सियार के भी कहीं सींग होते हैं? किन्तु तन्त्र शास्त्र का सामान्य ज्ञान रखने वाला भी जानता है कि सियारसिंगी कितना महत्त्वपूर्ण तान्त्रिक वस्तु है। शहरी सभ्यता और पश्चिमीकरण ने नयी पीढ़ी के लिए बहुत सी चीजें अलभ्य बना दी हैं।बहुत सी जानकारियां अब मात्र किताबों तक ही सिमट कर रह गयी हैं,अपना अनुभव और प्रत्यक्ष ज्ञान अति संकीर्ण हो गया है। चांद और मंगल की बातें भले कर लें,जमीनी अनुभव के लिए भी "विकीपीडिया" तलाशना पड़ता है।

बहुत लोगों ने तो सियार देखा भी नहीं होगा । चिड़ियाघर में शेर की तरह इन बेचारों को स्थान भी शायद ही मिला हो,फिर शहरी बच्चे देखें तो कहां? सियार काफी हद तक कुत्ते से मिलता-जुलता प्राणी है,किन्तु कुत्ते से स्वभाव में काफी भिन्न। एक कुत्ता दूसरे कुत्ते को देखकर गुरगुरायेगा, क्यों कि उसमें थोड़ी वादशाहियत है,शेखी है।कुत्ता बहुत समूह में रहना पसन्द नहीं करता,जब कि सियार बिना समूह के रह ही नहीं सकता। उसकी पूरी जीवन-चर्या ही सामूहिक है। देहात से जुड़े लोगों को सियार का समूहगान सुनने का अवसर अवश्य मिला होगा। वन्य-झाड़ियों में माँद(छोटा खोहनुमा) बनाकर ये रहते हैं।दिन में प्रायः छिपे रहते हैं,और शाम होते ही बाहर निकल कर "हुआ ... हुआ" का कर्कश कोलाहल शुरु कर देते हैं। सियारों के इस समूह में ही एक विशेष प्रकार का नर सियार होता जो सामान्य सियारों से थोड़ा हट्ठा-कट्ठा होता है। अपने समूह में इसकी पहचान मुखिया की तरह होती है,आहार-विहार-व्यवहार भी वैसा ही।फलतः डील-डौल में विशिष्ट होना स्वाभाविक है।अन्य सियारों की तुलना में यह थोड़ा आलसी भी होता है- बैठे भोजन मिल जाय तो आलसी होने में आश्चर्य ही क्या? खास कर रात्रि के प्रथम प्रहर में यह अपने माँद से निकलता है। विशेष रुप से कर्कश संकेत-ध्वनि करता है,जिसे सुनते ही आसपास के मांदों में छिपे अन्य सियार भी बाहर आ जाते हैं,और थोड़ी देर तक सामूहिक गान करते हैं- वस्तुतः भोजन की तलाश में निकलने की उनकी योजना, और आह्वानगीत है यह। सामूहिक गायन समाप्त होने के बाद सभी सियार अपने-अपने गन्तव्य पर दो-चार की टोली में निकल पड़ते हैं,किन्तु यह महन्थ(मुखिया)यथास्थान पूर्ववत हुँकार भरते ही रह जाता है। यहां तक कि प्रायः मूर्छित होकर गिर पड़ता है। ”

बाबा सियार के बारे में कह रहे थे। मैं मन ही मन मुस्कुरा रहा था,कि ये मुझे और गायत्री को भी पक्का महानागर ही मान लिये हैं।किन्तु कह न सका कि चन्द दिनों से दिल्ली में रहकर मैं पक्का शहरी कब हो गया ! कितने सियार खदेड़े हैं बचपन में – कोई हिसाब है ! सियारसिंगी नाम भी सुना-जाना सा है,किन्तु देखने का मौका आज ही लगा है। अतः उत्सुकता तो बनी ही हुयी थी।

बाबा ने बतलाया- “...इसी महन्थ के सिर पर (दोनों कानों के बीच) एक विशिष्ट जटा सी होती है,जिसे सियारसिंगी कहते हैं। गोल गांठ को ठीक से टटोलने पर उसमें एक छोटी कील जैसी नोक मिलेगी,जो असलियत की पहचान है। भेंड़-बकरे की नाभी भी कुछ-कुछ वैसी ही होती है,पर उसके अन्दर यह नोकदार भाग नहीं होता। जानकार शिकारी वैसे समय में घात लगाये बैठे रहते हैं- पास के झुरमुटों में कि कब वह मूर्छित हो। जैसे ही मौका मिलता है,झटके से उसकी जटा उखाड़ लेते हैं। चारों ओर से रोयें से घिरा गहरे भूरे (कुछ छींटेदार) रंग का,करीब एक ईंच व्यास का गोल गांठ – देखने में बड़ा ही सुन्दर लगता है। एक सींग का वजन करीब पच्चीस से पचास ग्राम तक हो सकता है। तान्त्रिक सामग्री बेचने वाले मनमाने कीमत में इसे बेचते हैं। वैसे पांच सौ रुपये तक भी असली सियारसिंगी मिल जाय तो लेने में कोई हर्ज नहीं। ध्यातव्य है कि ठगी के बाजार में सौ-पचास रुपये में भी नकली सियारसिंगी काफी मात्रा में मिल जायेगा। रोयें,रेशे,वजन, सब कुछ बिलकुल असली जैसा होगा,असली वाला दुर्गन्ध भी होगा,सुगन्ध भी। वस्तुतः सियार की चमड़ी में लपेट कर सुलेसन से गांठदार बनाया हुआ, मिट्टी-पत्थर भरा होगा। कस्तूरी और सियारसिंगी के नाम से आसानी से बाजार में बिक जाता है। सच्चाई ये है कि कस्तूरी तो और भी दुर्लभ वस्तु है,जो मूलतः, मृग की नाभि से प्राप्त होता है। अतः धोखे से सावधान ।