बाबा उपद्रवीनाथ का चिट्ठा / भाग 30 / कमलेश पुण्यार्क

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वृद्धबाबा की बातें अति रहस्यपूर्ण और ज्ञानवर्धक थी। हमदोनों तन्मयता पूर्वक सुन रहे थे। मैंने करवद्ध आग्रह किया कि बाबा इसे और भी विस्तार से बतलावें।

वृद्धबाबा ने कहा - “विस्तार से ही तो बता रहा हूँ। ये विमान मुख्य रुप से तीन प्रकार के होते हैं – १) मान्त्रिक यानि मंत्र-चालित, जिसे दिव्य विमान भी कहा जाता है। २) तांत्रिक यानि विविध औषधियों तथा शक्तिमय वस्तुओं से संचालित तथा ३) कृतक यानी यन्त्र-चालित...

“…यन्त्रसर्वस्वम् में ही अन्य प्रसंग में उक्त तीन के ही उपप्रकारों की भी चर्चा है। मान्त्रिक विमान का चलन त्रेतायुग तक रहा है। धनाध्यक्ष कुबेर का पुष्पक नामक विमान, जिसे लंकापति रावण ने हर लिया था, एक मान्त्रिक विमान ही था। इसकी कई विशेषताओं में एक यह भी था कि कितने हूं लोग बैठ जायें, एक स्थान रिक्त ही रह जाता था। यानी स्थान-विस्तार-गुण-युक्त था। लंका-विजयोपरान्त श्रीराम जानकी सहित उसी विमान से अयोध्या लौटे थे। रास्ते में उन्होनें महर्षि भारद्वाज का दर्शन भी किया था। अयोध्या पहुंचने के पश्चात् उस मन्त्र-चालित पुष्पक विमान को आदेश देकर मूल स्वामी कुबेर के पास भेज दिया था। इससे प्रमाणित होता है कि विमान को बिना चालक के भी संचालित किया जा सकता है। आजकल दूरस्थ नियन्त्रण-व्यवस्था(रिमोट-कन्ट्रोल) से विविध यानों को संचालित किया जा रहा है, यह कोई नयी खोज नहीं है, बल्कि हमारे महर्षि की ही देन है। वाल्मीकि रामायण में भी इसकी विशद चर्चा है। दूसरे शब्दों में कहें कि तान्त्रिक विमानों का उपप्रकार छप्पन कहा गया है। इस प्रकार के विमानों का चलन श्रीकृष्ण के द्वापर युग तक रहा है। तृतीय श्रेणी का कृतक विमान भी पच्चीस उपप्रकारों वाला होता है। जिन सिद्धान्तों का वर्णन महर्षि ने किया है, उनमें अभी भी बहुत से ऐसे हैं, जिनकी मानसिक कल्पना भी आधुनिक वैज्ञानिकों के लिए कठिन सा है। वर्तमान समय के जेट, हेलिकॉप्टर, रडार और सुडार के पकड़ से बाहर के विविध आकाशीय और जलीययानों की चर्चा मिलती है उनके ग्रन्थों में। भूतयान का प्रसंग मिलता है, जिसे अल्पज्ञ लोग भूतों द्वारा चालित समझ लेते हैं, जब कि यहाँ भूत शब्द का अर्थ ही भिन्न है- वस्तुतः ये आकाशादि पंचमहाभूत हैं, न कि भूत-प्रेत। यानी कि जल से, वायु से, धुए से, आग्नेय ऊर्जा आदि से वे चालित होते थे। एक विशेष प्रकार के यान की भी चर्चा है जो जल, स्थल और वायु में समान रुप से गतिशील हो सकता है। आधुनिक आविष्कार का ‘होवरक्राफ्ट’ भी उसी सोच पर आधारित प्रतीत होता है। महर्षि के सूत्रों की व्याख्या करते हुए यति बोधायन ने आठ प्रकार के विमान बतलाए हैं-१. शक्तियुद्गम - बिजली से चलने वाला, २.भूतवाह - अग्नि, जल और वायु से चलने वाला, ३.धूमयान - गैस से चलने वाला, ४.शिखोद्गम - तेल से चलने वाला, ५.अंशुवाह - सूर्यरश्मियों से चलने वाला, ६.तारामुख यानी चुम्बकीय शक्ति से चलने वाला, ७.मणिवाह - चन्द्रकान्त, सूर्यकान्त आदि मणियों की शक्ति से चलने वाला, तथा ८.मरुत्सखा यानी वायु से चलने वाला। महर्षि रचित एक अन्य पुस्तक- अंशुबोधिनी भी है, जिसमें अन्य विविध विद्याओं की चर्चा है। इस प्रकार हम पाते हैं कि महर्षि भारद्वाज का अद्भुत योगदान रहा है प्राचीन विज्ञान में।”

बातें अभी और भी होती, क्योंकि बृद्धबाबा भावमय होकर महर्षि चरित का गुणगान कर रहे थे, किन्तु उपेन्द्र बाबा ने बीच में ही टोका- “तब, अभी और भारद्वाज चरित ही सुनने का विचार है या कि कंकालकाली का दर्शन भी करोगे?”

बाबा के टोकने पर, मेरा ध्यान घड़ी पर गया- रात के ग्यारह बजने ही वाले थे। ज्ञानवर्धक विषयवस्तु से तृप्ति तो नहीं हुई थी, किन्तु कंकालकाली के आकर्षण को भी नकारा नहीं जा सकता। काश छुट्टी थोड़ी लम्बी ली होती... – बुदबुदाते हुए उठ खड़ा हुआ।

तारा मन्दिर से बाहर आते ही ऑटो मिल गया। उपेन्द्र बाबा ने उसे हितायत दे दी कि विरोही में घंटे भर करीब रुकना है हमलोगों को। इस बीच या तो वह वहीं रुका रहे, या पुनः घंटे भर बाद आ जाये लेने के लिए। क्यों कि उन्हें पता था कि विरत रात में उधर से वापस आने के लिए कोई साधन मिलना कठिन है।

कोई आधे घंटे बाद हमलोग विरोही पहुंच गये। संयोग से टेम्पो वाला वहीं

पास का ही रहने वाला था, अतः कोई परेशानी की बात नहीं थी, न उसके लिए और न हमलोगों के लिए। स्टेशन पर हमलोगों को छोडकर वह अपने आवास पर चला गया, और हमलोग कालीमन्दिर की ओर रुख किये।

विरोही गांव के लगभग बीच में एक विशाल वटवृक्ष के नीचे ऊँचे चबूतरे पर बना हुआ छोटा सा मन्दिर- आसपास की स्थिति से ही लग रहा था कि यह स्थान उपेक्षित सा है। कोई आता-जाता भी बहुत कम ही है। मन्दिर के दायीं ओर यानी दक्षिण की ओर एक विशाल कुआँ भी है, जिसमें जल तो है, पर बिलकुल अनुपयोगी- कुछ कूड़े-कचरे भी पड़े हुए। कुएँ का जगत टूटा-फूटा, गन्दा-सन्दा। आसपास कुछ खूँटे गड़े हुए- मवेशियों को बाँधने हेतु, किन्तु शायद रात का वक्त होने के कारण कोई मवेशी वहाँ वँधा हुआ नहीं दिखा। गाँव के आवारा कुत्ते भों-भों करते हुए, ग्रामवासियों को हमारे प्रवेश की सूचना देकर, अपना कर्त्तव्य पूरा कर रहे थे। एक बूढा-सा श्वान ऊँचे चबूतरे पर विराज रहा था, आवारा कुत्तों के मुखिया की तरह। ज्यों ही हमलोग चबूतरे पर चढ़ने के लिए आगे बढ़े, वह जोरों से गुर्राया। बाबा ने हाथ से संकेत करते हुए उसे शान्त रहने को कहा। मानों उनकी भाषा और भाव को भाँप गया हो, स्वामीभक्त सेवक-सा आकर पैरों में लोटकर, दुम हिलाने लगा। बाबा ने अपनी झोली से निकाल कर कुछ खाद्य-पदार्थ उसे अर्पित करते हुए बोले- “ये महाभैरव के साक्षात् वाहन हैं। इनकी सेवा किये वगैर किसी की मजाल नहीं जो इस मन्दिर में प्रवेश पा जाये।”

मन्दिर का आकार बिलकुल ही छोटा था - न सभामंडप, न परिक्रमा-पथ। या तो ये बनाये ही नहीं गये होंगे, या कालान्तर में नष्ट हो गये होंगे; किन्तु कुछ भी अवशेष दिख न रहा था। आधुनिक शैली का लोहे का ग्रील लगा था, जिसमें कुंडे की भी सही व्यवस्था न थी। बगल में एक जीर्ण-शीर्ण कोठरी नजर आयी। शायद किसी जमाने में पुजारी या किसी साधक का स्थल रहा हो।

ग्रील खोल कर बाबा अन्दर घुसे। उनके साथ ही हमदोनों भी प्रवेश किये। भक्तों ने इतनी कृपा अवश्य की थी कि मन्दिर के भीतर बिजली का एक बल्व लटका दिया था। उधर कुएँ के पास लकड़ी के पुराने खम्भे पर भी एक लट्टू टिमटिमाता हुआ अपने अस्तित्व की गुहार लगा रहा था, जिसकी वजह से कुएँ के पास हल्की रौशनी हो रही थी। मन्दिर के भीतर बिलकुल साफ-सुथरा था। लगता है किसी भक्त ने रात्रि काल में ही आरती-वन्दना की थी, कारण की देवदार-अगरु-गुगुल-धूने का परिमल मन्दिर के भीतरी वातावरण में अभी भी व्याप्त था।

कोई चार-साढ़े चार फीट की, शवारुढ़ा मूर्ति काले पत्थर की बनी हुई- हाथ भर ऊँचे चबूतरे पर विराज रही थी। जीवन में अनेक मूर्तियाँ देखी है मैंने, किन्तु इस तरह का मूर्ति-दर्शन-सौभाग्य नहीं मिला था। आकृति पर विशेष ध्यान देने पर ही, खास कर मुण्डमाला धारिणी, और शवारुढा होने के कारण ही दावे के साथ कहा जा सकता था कि मूर्ति निश्चय ही काली की है, जो कंकाल मात्र हैं- एक-एक हड्डियां सहजता से गिनी जा सकती थी। गले में पड़ी आपादकण्ठ मुण्डमाल भी कंकालवत् ही था। कोटरनुमा आँखें बड़ी भयावह लग रही थी, जो आकार में भी अपेक्षाकृत काफी बड़ी प्रतीत हुई।

बाबा के इशारे पर हम तीनों वहीं बैठ गये। बाबा ने हमें सावधान करते हुए कहा- “अन्य मन्दिरों की भाँति यहाँ तुमलोगों को ध्यानस्थ होने नहीं कहूँगा, किन्तु सजग-चैतन्य अवश्य रहना। मैं अभी कुछ क्रिया सम्पन्न कर रहा हूँ। इसके पश्चात् जो कुछ दृश्य दिखे, उससे जरा भी घबराना नहीं।”

उक्त निर्देश देकर, बाबा वीरासन-मुद्रा में बैठ गये, और किसी स्तोत्र का पाठ करने लगे। स्तोत्र की वाणी तो वैखरी ही थी, किन्तु कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। एक भी शब्द पल्ले नहीं पड़ रहा था।

थोड़ी देर बाद स्तोत्र पाठ समाप्त हो गया। बाबा ने अपनी झोली से काले खड़े उड़द के कुछ दाने निकाले, साथ ही सरसों के आकार का कुछ और भी अनजान दाना - बिलकुल सफेद-सा। क्या यह ‘श्वेत सर्सप’ है- मेरे मन में प्रश्न उठा, और स्वयं ही उत्तर भी मिला- हाँ, निश्चित ही। इस प्रजाति के बारे में सिर्फ तन्त्र की किताबों में पढ़ा था, देखने का मौका आज ही मिला। उन्हें वहीं सामने जमीन पर रखने के बाद, घुंघची के लाल और श्वेत दाने भी निकालकर आसपास रख दिये, और चामुण्डा मन्त्र का सस्वर पाठ करने लगे।

कुछ पल बीते होंगे कि पीछे से जोरों की खड़खड़ाहट सुनायी पड़ी- ठीक वैसे ही जैसे कि कुएँ में ‘रहट’ चलने की होती है॥ बैठते वक्त ही बाबा ने हिदायत कर दिया था कि मूर्ति के ठीक सामने से जरा हट कर ही बैठना चाहिए यहाँ- बायीं या दायीं ओर। हमदोनों बायीं ओर बैठे थे, और बाबा दायीं ओर। बीच में- द्वार के सीध वाला स्थान रिक्त था।

खड़खडाहट की आवाज पर, गर्दन हठात् पीछे घूम गया- आवाज की वजह जानने को; किन्तु जो भी नजर आया उसे देखते ही रोंगटे खड़े हो गये। बाबा का संरक्षण, और न घबराने का आश्वासन न रहता यदि, तो शायद चीख उठता। मैंने देखा - ताजे लहू से लथपथ एक नरमुण्ड स्वतः सरकते हुए मन्दिर का चौखट लाँघ रहा है, और अकेला नहीं, उसके पीछे और भी नरमुण्ड, उसी अवस्था में सरकते चले आ रहे हैं।

चौखट लाँघकर, नरमुण्ड सीधे मूर्ति के ग्रीवा तक सरकते हुए पहुँच कर थिर हो गया। उसके ठीक नीचे दूसरा नरमुंड भी स्थित हो गया, और देखते ही देखते नरमुण्डों की माला तैयार हो गयी काली के गले में। इतना ही नहीं, काली की मूर्ति भी अन्य मूर्तियों की भाँति परिपुष्ट- मांसल प्रतीत होने लगी। आँखों से अद्भुत तेज निकलने लगा, जिह्वा लपलपा रही थी। कटार भी गतिशील था। ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानों मूर्ति नहीं साक्षात् काली विराज रही हों।

मेरा शरीर पसीने से लथपथ हो गया था। लाख सम्भालने पर भी जूड़ीताप के मरीज की तरह वदन काँप रहा था। गायत्री की भी लगभग यही दशा थी।

बाबा ने कठोरता पूर्वक कहा – “डरो नहीं। घबराओ नहीं जरा भी। कालीकर्पूरस्तोत्र का पाठ प्रारम्भ करो। एक मात्र यही उपाय है - इस स्थान पर। भय-मुक्त होकर, मातेश्वरी की कृपा प्राप्त करो। इस अवस्था का दिव्यदर्शन बहुत ही सौभाग्य से प्राप्त होता है। तुमलोगों पर वृद्धबाबा की महती कृपा है, जो यहाँ तक आने को प्रेरित किये हैं, अन्यथा यहाँ आता कौन है, और आता भी है यदि, तो पाता कहाँ कुछ है! स्थान की वीरानगी देख वापस चला जाता है।”

संयोग से मुझे कालीकर्पूरस्तोत्र याद है। किसी जमाने में एक शुभेच्छु विप्र ने यह कह कर इसका नियमित पाठ करने का सुझाव दिया था कि इससे जीवन की अति अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति कदापि बाधित नहीं होगी- अतिअनिवार्य; और तब से लगभग साधे हुए था, मगर सिर्फ तोतारट। इसके गूढ़ रहस्यों पर न ध्यान गया था और न जिज्ञासा ही उठी थी ; किन्तु आज इस महाभैरवी के समक्ष बाबा ने ज्यों ही आदेश दिया पाठ का, त्यों ही एक अजीब झटका- सा लगा, और पूरा शरीर जो पहले ही कम्पायमान था, और भी कांप उठा, साथ ही अभिज्ञानित हो उठा – कालीकर्पूर के तार-तार खुलने लगे। जिन क्लिष्ट और दुरुह शब्दों का गूढ़ार्थ किसी कोष में भी न मिला था, स्वतःस्पष्ट होने लगा। अब भला ‘तल्प’ का अर्थ आसन, ‘पलल’ का अर्थ मांस-कौन बताता? सच्चे गुरु-मार्गदर्शक बहुत ही भाग्यवानों को लब्ध होते हैं।