बाबा उपद्रवीनाथ का चिट्ठा / भाग 33 / कमलेश पुण्यार्क

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ऐन्द्री चैव यवर्गस्था चामुण्डा तु शवर्गिका। एताः सप्तमहामा- तृः सप्तलोक व्यवस्थिताः॥

यानी अवर्ग की महालक्ष्मी, कवर्ग की ब्राह्मी, चवर्ग की माहेश्वरी, टवर्ग की कौमारी, तवर्ग की वैष्णवी, पवर्ग की वाराही, यवर्ग की ऐन्द्री, और शवर्ग की अधिष्ठातृ चामुण्डा हैं। अब यहाँ तुम संशय में पड़ सकते हो कि अ वर्ग की अधिष्ठातृ महालक्ष्मी का अधिष्ठाता भैरव से क्या वास्ता?’’

मैंने सिर हिलाते हुए कहा- जी महाराज! अभी मैं यही सवाल करने ही वाला था। एक ओर महालक्ष्मी हैं, तो उधर भैरव कैसे, विष्णु होना चाहिये न?

नकारात्मक सिर हिलाते हुए, बृद्धबाबा ने आगे बतलाया- ‘‘ज्ञानदीप्तमयी उमा ही वस्तुतः महालक्ष्मी हैं। वे उमापति भैरव-देह से अभिन्न हैं। अतः महेश्वर ही सप्तमातृकाओं से परिवारित परालक्ष्मी के साथ विद्यमान रहते हैं। ये गिनायी गयी सात विभिन्न शक्तियाँ कोई और नहीं उमा ही हैं, बल्कि आठों कहो। उमा और लक्ष्मी में अभेद जानो। वहीं, स्वच्छन्दतन्त्रम् के ही दशवें पटल में कहा गया है - उमैव सप्तधा भूत्वा नामरुपविपर्ययैः। एवं स भगवान् देवो मातृभिः परिवारितः। आस्ते परमया लक्ष्म्या तत्रस्थो द्योतयञ्जगत्॥

यहाँ विस्तार से इन सभी मातृकाओं का स्वरुप वर्णन भी किया गया है। कभी अवसर मिले तो इन गूढ ग्रन्थों का अवलोकन अवश्य करना। आद्यशंकराचार्य ने अपने गूढ़ग्रन्थ सौन्दर्यलहरी में मातृकाओं के रहस्य को विशद रुप से उद्घाटित किया है। यह ग्रन्थ भी तन्त्र-प्रेमियों के लिए अवश्य सेवनीय है। वामकेश्वर तन्त्रम् में उक्त शक्तियों के अतिरिक्त- वशिनी, कामेश्वरी, मोदिनी, विमला, अरुणा, जयिनी, सर्वेश्वरी, कौलिनी आदि आठ देवों की पुनः चर्चा की गयी है, जिनकी साधना भेदाभासात्मक, तथा अभेदाभासात्मक फलदायी है। यानी पर और अपर दोनों सिद्ध होते हैं इन देवों की साधना से। इन प्रत्येक वर्ग की शक्तियां पुनः त्रिधा विभक्त हैं- घोर, घोरतर और अघोर। कामक्रोधादि का विस्तार करती हुयी ये भोगापवर्गात्मक मिश्रित कर्मों में व्यक्ति को आसक्त करती हैं, तो इनका लक्षण ‘घोर’होता है। विषयासक्त चित्त वालों को नीच से भी नीच दशा में डालने का कारण बनती है, तब इन्हें ‘घोरतर’ कहते हैं, और ये शक्तियां ही ‘ज्ञात’ होने पर जब साधक को शिवत्व प्रदान करती हैं तब ‘अघोर’ रुप में जानी जाती हैं। पर, परापर और अपर भी ये ही तीन हैं। उक्त शक्तियों को ही योगिनीहृदय में योगिनी नाम से सम्बोधित किया गया है, इसमें किसी तरह का संशय न करना।’’

इतना कह कर बाबा जरा ठहर गये। हमदोनों के चेहरे पर सघन दृष्टिपात करते हुए, मनोभावों को पढ़ने का प्रयत्न करने लगे। फिर किंचित आस्वस्त हो, कुछ देर बाद कहने लगे–– ‘‘सामान्य रुप से जिन वर्णमातृकाओं का चलन - क्रम है, उन्हें मातृका, सिद्धा अथवा ‘पूर्वमालिनी’ के नाम से जाना जाता है। इससे भी विलक्षण है ‘उत्तरमालिनी’ का क्रम, जिसकी अधिष्ठात्री मालिनीशक्ति है। मातृका को अभिन्नयोनि और मालनी को भिन्नयोनि कहते हैं। कथन का अभिप्राय यह है कि योनि अर्थात् व्यञ्जन यानि ‘कादि’ जहाँ बीज यानि स्वरों से परस्पर मिल गये हों, वही भिन्नयोनि मालिनीशक्ति है। यथा- मातृकाशब्दराशिसंघट्टात् शक्तिमदैक्यात्मलक्षणात् लवणारनालवत्परस्परमेलनात् ––– भिन्ना बीजैर्भे दिता योनयो व्यञ्जनानि यस्याः सा तथाविधा सती (तन्त्रालोकविमर्श) तथा च- शब्दराशिः स एवोक्तो मातृका सा च कीर्तिता। क्षोभ्यक्षोभकतावेशान्मालिनीं तां प्रचक्ष्महे॥

(उक्त २३२) वस्तुतः भैरवात्मक शब्द-राशि को मातृका और मालिनी इन दो रुपों में स्मरण करते हैं। मातृका ही क्षोभ्य और क्षोभकतावेश से मालिनी बन जाती है। क्षोभ्य योनियों का क्षोभक-बीजों से परस्पर सङ्घट्टात्मक आवेश ही मूल कारण है, जैसा कि अभी कहे गये श्लोक से स्पष्ट है। वहीं तन्त्रालोक के अगले(२३३वें) श्लोक में कहा गया है- बीजयोनिसमापत्तिर्विसर्गोदय सुन्दरा। मालिनी हि पराशक्तिनिर्णीता विश्वरुपिणी॥

यानि यही शक्ति सम्पूर्ण विश्व को अपने रुप में धारण करती है, अथवा कहें कि समग्र को अपने में अन्तर्भूत कर लेती है। यही कारण है कि मालिनी कहलाती है। यथा- मलते विश्वं स्वरुपे धत्ते, मालयति अन्तःकरोति कृत्स्नमिति च मालिनीति व्यपदिश्यते। इसकी वर्णयोजना सच में विलक्षण है। इसका प्रारम्भ ‘न’ से , और समापन ‘फ’ से होता है। इसे भी क्रमवार देखो- न, ऋ, ॠ, लृ, ॡ, थ, च, ध, ई, ण, उ, ऊ, ब, क, ख, ग, घ, ङ, इ, अ, व, भ, य, ड, ढ, ठ, झ, ञ, ज, र, ट, प, छ, ल, आ, स, अः, ह, ष, क्ष, म, श, अं, त, ए, ऐ, ओ, औ, द, एवं फ। यहाँ एक और बात जान लो कि भगवती मालिनी मुख्यरुप से शाक्तरुप धारिणी हैं। बीज और योनि के संघट्ट जनित यह शक्ति सम्पूर्ण कामनाओं की प्रदातृ हैं। रुद्र और शक्तियों की माला से युक्त होने के कारण ही इसका मालिनी नाम सार्थक होता है। इस विषय की गहन जानकारी करने के लिए मालिनीविजयोत्तरतन्त्रम् का अवलोकन करना चाहिए।

“...प्रपञ्चसारतन्त्रम् के अनुसार समस्त वर्ण अग्निसोमात्मक हैं। वर्णों में व्याप्त आकारांश ही आग्नेय अथवा पुरुषात्मक है, तदीत्तर अंश सौम्य वा प्रकृत्यात्मक है। इसे ही वर्णों के प्रमुख दो भेद कहे गये हैं- स्वर और व्यञ्जन। व्यंजन यानि कादि योनियाँ स्वरों से प्रकाशित हो पाती हैं। शब्द द्वारा चित्तवृत्ति को अनुभावित करने के कारण, या कहो कि ‘स्व’अर्थात् आत्मरुप का बोध कराने के कारण , या कहो कादि योनियों को विकसित करने के कारण ही इन्हें स्वर कहा गया है। पुनः इनका स्पर्श और व्यापक- दो भेद करते हैं। पुनः व्यापक भी दो भागों में बंट जाता है- अन्तस्थ और ऊष्म। पुनः सभी वर्णों के तीन प्रकार भी कहे गये हैं- सोलह स्वर को सौम्य, पच्चीस स्पर्शवर्णों को सौर, और दस व्यापक वर्णों को आग्नेय कहते हैं। पुनः स्वरों में भी ह्रस्व और दीर्घ दो भेद करते हैं, तथा इनका उपप्रकार भी है- अ, इ, उ, ए और विन्दु को पुरुषस्वर, तथा आ, ई, ऊ, ऐ, औ और विसर्ग को स्त्रीस्वरवर्ण एवं शेष- ऋ, ॠ, लृ, ॡ- इन चार को नपुंसक स्वरवर्ण कहते हैं। ये समस्त ह्रस्व स्वर शिवमय हैं, और दीर्घस्वर शक्तिमयी कही गयी हैं। यहाँ एक और बात का ध्यान रखना चाहिए कि ऋ, लृ को शिव में और ॠ, ॡ को शक्ति वर्ग में अन्तर्भावित किया गया है। प्रपञ्चसार तन्त्र में इस पर व्यापक रुप से प्रकाश डाला गया है।’’

इतना कहकर बृद्धबाबा फिर चुप्पी साध लिए, और हमारे चेहरे पर गौर करने लगे। वर्णों की अद्भुत संरचना और विभाग, अनुविभागों को सुन-जान कर हम चकित हो रहे थे। ऐसा लग रहा था, मानों आज तक कुछ सीखा-समझा ही नहीं हूँ, अभी-अभी अक्षर-ज्ञान कराया जा रहा हो। सच कहें तो सामान्य जानकारी भर थी इन अक्षरों (अल्फावेट्स) के बारे में। ये अल्फावेट नहीं हैं, मूलतः अक्षर हैं, यानि इनका कदापि ‘क्षर’ नहीं होता, स्वरुपवान हैं, परम चैतन्य हैं- इस बारे में आज ही आँखें खुल रही हैं। हालाकि अभी आँखें खुलना नहीं कह सकते, क्यों कि अज्ञान-निद्रा वाला प्रभाव अभी गया कहाँ है! हाँ, ये भले कह सकता हूँ कि जानकारियां थोड़ी चमकदार हुयी हैं- पॉलिस चढ़ गया बाबाओं की कृपा का।

वृद्धबाबा ने पुनः कहना प्रारम्भ किया- ‘‘मन्त्रशास्त्रों में विलोममातृका, वहिर्मातृका, अन्तर्मातृका आदि की चर्चा मिलती है। प्रचलित मातृका का बिन्दु सहित उलटारूप ही विलोममातृका है। लिपीमयी देवी के रूप को ही वहिर्मातृका कहते हैं, या कह सकते हो कि वाग्देवता के अंग वर्णमय हैं(इसलिए उन्हें वर्णतनु भी कहते हैं), ये वर्णमयी मातृकादेवी ही बहिर्मातृका के नाम से जानी जाती है। विभिन्न अंगविन्यास इन वर्णों का ही प्रसार मात्र है। अकादिवर्णों द्वारा ही देवी के अंगों का निर्माण होता है। साधकगण इन्हीं निगूढ़ शक्तियों को निज अंगों में न्यासित करते हैं साधना-क्रम में।”

जरा ठहर कर वृद्धबाबा ने फिर कहना शुरु किया- “पता नहीं तुम्हारे उपेन्द्रभैया ने अन्तः शरीर-संरचना के बारे में कुछ बताया है या नहीं, किन्तु संक्षेप में इतना जान लो कि शरीर में बहुत से स्थान हैं, जिनका उपयोग, या कहो जिन पर प्रयोग करते हैं साधक गण। उन्हीं मूलाधार, स्वाधिष्ठानादि चक्रों में साधक जब इन्हीं मातृकावर्णों का विधिवत न्यास करते हैं, तब इसका ही नाम अन्तर्मातृका न्यास होता है। यह कहाँ, कैसे, कब किया जाय बहुत ही गूढ़ और गुरू-सानिध्य वाली बातें हैं। यानी कि यह सब बिलकुल ही व्यावहारिक साधना-जगत की बातें हैं, अतः अभी विशेष कुछ कह भी नहीं सकता। क्या कहते हो तुमलोग इसे- ‘प्रैक्टिकल’ यही न? अब तैराकी का प्रैक्टिकल मैदान में खड़े होकर तो नहीं किया जा सकता न! उसके लिए तो नदी की धार में उतरना होगा–– डूबने-उतराने का भय-संकोच छोड़कर। वैसे, तुम तो ब्राह्मण हो। सुने होवोगे बहुत कुछ, देखे-पढ़े भी होवोगे- मार्कण्डेयपुराणान्तर्गत वर्णित श्रीदुर्गासप्तशति का पाठ तो जरुर किये होगे? वहाँ विविध न्यासों की चर्चा है। तान्त्रिक विधि से पाठ करने के लिए ग्यारह प्रकार के न्यासों की व्यवस्था कही गयी है। कर्मकाण्डी ब्राह्मणों के बीच बहुश्रुत और प्रसिद्ध ‘दुर्गार्चनसृति’ नामक पुस्तक में भी इसकी थोड़ी चर्चा मिल जाती है, किन्तु इशारा मात्र ही है वहाँ, और संख्या भी पूरी नहीं है। पूर्ण जानकारी के लिए तो तन्त्र के विविध मूलग्रन्थों में ही झांकना होगा, या किसी गुरु के सामने प्रणिपात करना होगा, तभी पराम्बा की कृपा प्राप्त हो सकती है। अज्ञान रुपी अन्धकार से ज्ञानरुपी प्रकाश में जो पहुँचा देने की क्षमता रखता हो, वही तो सच्चा गुरु है। शेष तो कामाऊखाऊ गुरुघंटाल भर हैं। उनपर भरोसा करने से कहीं अच्छा है - ‘निगुरा’ ही रहे।’’

‘निगुरा’ शब्द पर मैं जरा चौंका। क्यों कि इस शब्द का तात्त्विक अर्थ तो कुछ और ही होता है;परन्तु मैंने कुछ कहा नहीं। कुछ कहने को सोच ही रहा था कि बाबा के उपदेशात्मक ज्ञानामृत का एकाग्रचित्त से रसपान करती गायत्री बोल उठी- ‘महाराज! दो-तीन प्रकार के न्यासों के बारे में तो पिताजी ने मुझे बतलाया है। करती भी हूँ पाठ के समय; किन्तु अन्तर्मातृका, बहिर्मातृका आदि सिर्फ नाम भर ही सुनी हूँ। इसके गूढ़ रहस्यों को उद्घाटित कर आज आपने हमलोगों पर महती कृपा कर दी।’

सिर हिलाते हुए वृद्धबाबा ने कहा- ‘‘चलो, इतना क्या कम है, तुम जैसी समान्य स्त्री इनका नाम जानती है, यानी कि वैसे कुल की हो, जहाँ साधना की किंचित परम्परा सुप्त पड़ी है। दुःख और चिन्ता की बात तो ये है कि आम ब्राह्मण सिर्फ दशहरे में दुर्गापाठ कर थोड़ी आमदनी करके ही सन्तुष्ट हो जाते हैं। इसकी उपयोगिता उनके लिए बस इतना ही है। उससे आगे भी कुछ है, हो सकता है- प्रश्न ही नहीं उठता कभी उनके मन में। खैर, छोडो, जाने दो।कौन क्या करता है- इसकी आलोचना में समय क्यों गंवाना! मैं तुमलोगों को इन मातृकाओं के अंगादि से सैद्धान्तिक परिचय कराये देता हूँ। व्यावहारिक परिचय तो तुम स्वयं करोगे।’’

इतना कह कर वृद्धबाबा ने आंखें मूंद ली। तीन-चार बार बड़े गहराई से ऊँकार का सुमधुर उच्चारण किये, और फिर सभी वर्णों का उच्चारण करते हुए, अपने अंगों का स्पर्श करने लगे। उपेन्द्र बाबा ने इशारा किया- ठीक से उन्हें देखने के लिए। और हमदोनों देखने लगे, बाबा के अंगों को, स्वरों से समायोजित होते हुए–– क्र. वर्ण अंग १. अ शिर २. आ मुख ३. इ दक्षिण नेत्र ४. ई वाम नेत्र ५. उ दक्षिण कर्ण ६. ऊ वामकर्ण ७. ऋ दक्षिणनासा ८. ॠ वामनासा ९. लृ दक्षिणकपोल १०. ॡ वामकपोल ११. ए अधर १२. ऐ ओष्ठ १३. ओ अधोदन्त १४. औ उर्ध्वदन्त १५. अं जिह्वा १६. अः ग्रीवा १७. क दक्षिणवाहु मूल १८. ख दक्षिणकर्पूर (केहुनी) १९. ग दक्षिण मणिबन्ध २०. घ दक्षिणअंगुली मूल २१. ङ दक्षिण अंगुल्यग्र २२. च वामवाहुमूल २३. छ वामकर्पूर २४. ज वाममणिबन्ध २५. झ वामअंगुली मूल २६. ञ वामअंगुल्यग्र २७. ट दक्षिणऊरु मूल २८. ठ दक्षिणजानु २९. ड दक्षिणगुल्फ ३०. ढ द.पादांगुलि मूल ३१. ण द.पाद अंगुल्यग्र ३२. त वामऊरुमूल ३३. थ वामजानु ३४. द वामगुल्फ ३५. ध वा.पादागुलि मूल ३६. न वा.पाद अगुल्यग्र ३७. प दक्षिणकुक्षि ३८. फ वामकुक्षि ३९. ब पृष्ठ ४०. भ नाभि ४१. म उदर ४२. य हृदय ४३. र दक्षिणस्कन्ध ४४. ल वाम स्कन्ध ४५. व तालु ४६. श हृदय से दक्षिण हस्त पर्यन्त ४७. ष हृदय से वाम हस्त पर्यन्त ४८. स हृदय से दक्षिण पाद पर्यन्त ४९. ह हृदय से वाम पाद पर्यन्त ५०. क्ष ब्रह्मरन्ध्र ५१. ळ xxx अन्तिम ५१वें वर्ण ळ के उच्चारण के साथ वृद्धाबाबा ने अपनी आंखें खोलते हुए कहा-- ‘‘न्यासक्रम में इसे समाहित नहीं किया गया है। इसकी वहाँ आवश्यकता भी नहीं है। साधना के क्रम में साधक को इन सभी वर्णों को परम चैतन्य और दिव्य भाव से स्वीकारते हुए अपने विविध अंगों में न्यस्त करना चाहिए, जैसा कि सामान्य न्यास-प्रक्रिया में भी कहा जाता है। ये ठीक वैसा ही है, जैसे कि तुम्हें दुर्गा की उपासना करनी है, तो सर्वप्रथम उनकी एक प्रतिमा वा चित्र की व्यवस्था करोगे। उसे सामने रखकर, यथोपलब्धोपचार पूजन करोगे। तन्त्र साधना में साधक भी कुछ ऐसा ही करता है, किन्तु काफी गहरे अर्थ में। जैसा कि हमने कहा, सभी वर्ण परम चैतन्य, स्वरुपवान हैं। उनके इन्हीं स्वरुपों को बाहर के वजाय भीतर स्थापित करना है, और सच पूछो तो स्थापित क्या करना है, स्थापित तो है ही, क्यों कि ब्रह्माण्ड की प्रतिकृति ही तो हमारा यह पिण्डात्मक शरीर है। वे हैं कहाँ, किस अवस्था में यही तो समझना, जानना, देखना, अनुभव करना है- साधक को। और इसके लिए सर्वप्रथम उनकी सही जानकारी चाहिए, सो मैं दिये देता हूँ। वर्ण हैं तो उनके ऋषि होंगे ही, छन्द भी होगा, स्वरुप भी होगा। देवता होंगे, तो उनके साथ उनकी शक्ति भी होगी ही। यहाँ एक और बात को समझ लो कि संहारक और पालक भेद से देवता की स्थिति , जिसे हम रुद्र और विष्णु नाम से यहाँ कह रहे हैं–सीधे शब्दों में यूं कहो कि अमुक वर्ण के अमुक रुद्र हैं, और अमुक विष्णु भी हैं। ये दोनों तो देवता ही हैं। ध्यान ये रखना है कि रुद्र के साथ कौन सी शक्ति है, और विष्णु के साथ कौन सी शक्ति कार्यरत है। वैसे इन सब बातों में, बहुत पचरे में मत उलझना। मान लो तुम और गायत्री किसी कार्य के लिए निकले। तुम दोनों एक दूसरे के पूरक हो, सहयोगी हो, एक शक्ति और दूसरा है शक्ति का आधार। तुम दोनों मिलकर, एक दूसरे के सहयोगी बन कर कभी घर का काम करते हो, कभी बाजार का भी, कभी नौकर की भूमिका में होते हो, कभी मालिक की भूमिका में। एक ही व्यक्ति पिता भी होता है, पुत्र भी, सेवक भी, मालिक भी, ब्राह्मण भी, शूद्र भी...इन बातों की गहराई को समझो, बूझो...सृष्टि का सारा रहस्य परत-दरपरत खुलता जायेगा। महामाया अपना आंचल पसारे बैठी हैं, उनकी भंगिमाओं का ही तो सारा खेल है यह स्थावर-जांगम, दृश्यादृश्य जगत-प्रपंच। एक और बात का ध्यान देना, आगे जो सारणी सुना-बता रहा हूँ उसमें पाओगे कि किसी एक ही ऋषि के अधीन एकाधिक वर्ण भी हैं, और ऋषि यदि एक है, तो छन्द भी एक ही होना स्वाभाविक है। किन्तु अपवाद स्वरुप ज और झ के छन्द तो वही है, पर ऋषि अलग हैं। इस प्रकार अजऋषि के जिम्मे ख, ग, घ, ङ और झ वर्ण हो गये। इसी भांति माण्डव्य के जिम्मे अः के अलावे ढ , ण, क्ष, और ळ भी है। आगे व से क्ष पर्यन्त छन्द साम्य है- सभी वर्णों का दण्डक ही है, जबकि ऋषि बदलते गये हैं। एक और जगह भ्रान्ति होती है प्रायः- य और र के ऋषि में तो संशय नहीं है, पर छन्द या कहो छन्दोच्चारण में किंचित भेद है। वृत्तरत्नाकर में अतिकृति छन्द कहा गया है, किन्तु पिंगल, ऋकप्रातिशाख्य यहाँ तक कि भरतनाट्यम् में भी अभिकृति छन्द की चर्चा है। ये बात मैं तुम्हें इसलिए बतला दिया ताकि कहीं और से सुनो-जानो तो संशय में न पड़ो। जहाँ तक व्यावहारिक और साधना-क्षेत्र की बात है, वहाँ छन्द-भेद से कोई अन्तर नहीं होने वाला है। हाँ, छन्दों का सम्यक् ज्ञान करने के लिए पिंगलसूत्र को भी टटोल सकते हो। और फिर कौन मना करता है कि भरतनाट्यम् को न देखना, उसे भी देख ही डालो। परन्तु फिर एक बार ये भी कहना चाहूँगा कि साधक को अधिक जानकारियों के बोझ से भी बचना चाहिए। क्यों कि प्रायः ये बोझिल कर देती हैं। नदी के किनारे खड़े होकर नावों की गिनती और किराये का मोल-तोल करने में ही समय चूक जाता है। यात्रा प्रारम्भ ही नहीं हो पाती। अतः उचित है कि सद्गुरु के आश्रय में प्रणिपात पूर्वक साधना प्रारम्भ की जाये। अस्तु। यहाँ अभी सभी वर्णों के ऋषि, छन्द, रुद्र, विष्णु एवं शक्ति को स्पष्ट करने का प्रयास करता हूँ। इसे जरा ध्यान से सुनो, या कागज-कलम हो तो लिख सकते हो; किन्तु लिखने लगोगे तो मेरे कथन-प्रवाह में बाधा पहुंचेगी, अतः हृदयंगम करने की आदत डालो। लिखी हुयी तो बहुत सी वातें हैं।”