बाबा उपद्रवीनाथ का चिट्ठा / भाग 9 / कमलेश पुण्यार्क

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मैंने निवेदन करना चाहा बाबा से, राधाकवच के विषय में और स्पष्ट करने हेतु, किन्तु मेरे कुछ कहने से पूर्व ही वे गा उठे–

ऊँ राधेति चतुर्थ्यर्न्तं वह्निजान्तमेव च। कृष्णेनोपासितो मन्त्रः कल्पवृक्षःशिरोऽवतु॥१॥

ऊँ ह्रीं श्रीं राधिका ङेऽन्तं वह्निजायान्तमेव च। कपालं नेत्रयुग्मं च श्रोत्रयुग्मं सदावतु॥२॥

ऊँ रां ह्रीं श्रीं राधिकेति ङेऽन्तं वह्निजायान्त मेव च। मस्तकं केशसंघांश्च मन्त्रराजः सदावतु॥३॥

ऊँ रां राधेति चतुर्थ्यन्तं वह्निजायान्तमेव च। सर्वसिद्धिप्रदः पातु कपोलं नासिका मुखम्॥४॥

क्लीं श्रीं कृष्णप्रिया ङेऽन्तं कण्ठं पातु नमोऽन्तकम्। ऊँ रां रासेश्वरी ङेऽन्तं स्कंदं१ पातु नमोऽन्तकम्॥५॥

ऊँ रां रासविलासिन्यै स्वाहा पृष्ठं सदावतु। वृन्दावनविलासिन्यै स्वाहा वक्षः सदावतु॥६॥

तुलसीवनवासिन्यै स्वाहा पातु नितंम्बकम्। कृष्णप्राणाधिका ङेऽन्तं स्वाहान्तं प्रणवादिकम्॥७॥

पादयुग्मं च सर्वाङ्गं सततं पातु सर्वतः। राधा रक्षतु प्राच्यां च वह्नौ कृष्णप्रियावतु॥८॥

दक्षे रासेश्वरी पातु गोपीशा नैऋतेऽवतु। पश्चिमे निर्गुणा पातु वायव्ये कृष्णपूजिता॥९॥

उत्तरे ससतं पातु मूलप्रकृतिरीश्वरी। सर्वेश्वरी सदैशान्यां पातु मां सर्वपूजिता॥१०॥

जले स्थले चान्तरिक्षे स्वप्ने जागरणे तथा। महाविष्णोश्च जननी सर्वतः पातु संततम्॥११॥

कवचं कथितं दुर्गे श्री जगन्मङ्लं परम्। यस्मै कस्मै न दातव्यं गूढ़ाद् गूढ़तरं परम्॥१२॥

तव स्नेहान्मयाऽऽख्यातं प्रवक्तव्यं न कस्यचित्। गुरुमभ्यर्च्य विधिवद्वस्त्रालंकार चन्दनैः॥१३॥

कण्ठे वा दक्षिणे वाहौ धृत्वा विष्णुसमो भवेत्। शतलक्षंजपेनैव सिद्धं च कवचं भवेत्॥१४॥

यदि स्यात् सिद्धकवचो न दग्धो वह्निना भवेत्। एतस्मात् कवचाद् दुर्गे राजा दुर्योधनः पुरा॥१५॥

विशारदो जलस्तंभे वह्निस्तभे च निश्चितम्। मया सनत्कुमाराय पुरा दत्तं च पुष्करे॥१६॥

सूर्यपर्वणि मेरौ च स सान्दीपनये ददौ। बलाय तेन दत्तं च ददौ दुर्योधनाय स॥१७॥

कवचस्यंप्रसादेन जीवन्मुक्तो भवेन्नरः॥हरिऊँ इति॥

‘‘ वैसे एक और भी राधाकवच है- नारद पञ्चरात्र में जिसकी चर्चा है, उसकी भी महत्ता अपने आप में कम नहीं है। प्रसंगवश उसे भी बता ही देता हूँ। न जाने कब किसकी ओर मन खिंच जाये तुम्हारा। उसका विनियोग इस प्रकार करना चाहिए-- ॐ अस्य श्री राधाकवच मन्त्रस्य महादेव ऋषिः अनुष्टुप छंदः श्रीराधादेवता रां बीजं कीलकं च धर्मार्थकाममोक्षये जपे विनियोगः॥ विनियोग का जलार्पण करके ही पाठ प्रारम्भ करना चाहिए। विनियोग के शाब्दिक अर्थ पर जरा ध्यान देना- विशेषेण नियोगः.....। मूल पाठ इस प्रकार है-

पार्वत्युवाच- कैलासवासिन् भगवन् भक्तानुग्रहकारक। राधिका कवचं पुण्यं कथस्व मम प्रभो॥१॥

यद्यस्ति करुणा नाथ त्राहि मां दुःखतो भयात्। त्वमेव शरणं नाथ शूलपाणे पिनाकधृक्॥२॥

शिव उवाच- श्रृणुष्व गिरिजे तुभ्यं कवचं पूर्वसूचितम्। सर्वरक्षाकरं पुण्यं सर्वहत्याहरं परम्॥३॥

हरिभक्तिप्रदं साक्षाद्भुक्ति मुक्तिप्रासाधनम्। त्रैलोक्याकर्षणं देवि हरिसान्निध्यकारकम्॥४॥

सर्वत्र जयदं देवि सर्वशत्रुभयावहम्। सर्वेषां चैव भूतानां मनोवृत्तिहरं परम्॥५॥

चतुर्धा मुक्तिजनकं सदानंदकरं परम्। राजसूयाश्चमेधानां यज्ञानां फलदायकम्॥६॥

इदं कवचमज्ञात्वा राधामन्त्रं च यो जपेत्। स नाप्नोति फलं तस्य विघ्नास्तस्य पदे-पदे॥७॥

ऋषिरस्य महादेवोऽनुष्टुप् छंदश्च कीर्तितम्। राधाऽस्य देवता प्रोक्ता रां बीजं कीलकं स्मृतम्॥८॥

धर्मार्थकाममोक्षेषु विनियोगः प्रकीर्तितः। श्री राधा मे शिरः पातु ललाटं राधिका तथा॥९॥

श्रीमति नेत्र युगलं कर्णौ गोपेन्द्रनन्दिनी। हरिप्रिया नासिकां च भ्रुयुगं शशिशोभना॥१०॥

ओष्ठं पातु कृपादेवी अधरं गोपिका तथा। वृषभानुसुता दंतांश्चिबुकं गोपनन्दिनी॥११॥

चन्द्रावली पातु गण्डं जिह्वां कृष्णप्रिया तथा। कण्ठं पातु हरिप्राणा हृदयं विजया तथा॥१२॥

बाहू द्वौ चन्द्रवदना उदरं सुबलस्वसा। कोटियोगान्विता पातु पादौ सौभद्रिका तथा॥१३॥

नखांश्चन्द्रमुखी पातु गुल्फौ गोपालवल्लभा। नखान् विधुमुखी देवी गोपी पादतलं तथा॥१४॥

शुभप्रदा पातु पृष्ठं कुक्षौ श्रीकान्तवल्लभा। जानुदेशं जया पातु हरिणी पातु सर्वतः॥१५॥

वाक्यं वाणी सदा पातु धनागारं धनेश्वरी। पूर्वां दशं कृष्णरता कृष्णप्राणा च पश्चिमाम्॥१६॥

उत्तरां हरिता पातु दक्षिणां वृषभानुजा। चन्द्रावली नैशमेव दिवा क्ष्वेडितमेखला॥१७॥

सौभाग्यदा मध्य दिने सायाह्ने कामरुपिणी। रौद्री प्रातः पातु मांहि गोपिनी राजनीक्षये॥१८॥

हेतुदा संगवे पातु केतुमाला दिवार्धके। शेषाऽपराह्नसमये शमिता सर्वसंधिषु॥१९॥

योगिनी भोगसमये रतौ रतिप्रदा सदा। कामेशी कौतुके नित्यं योगे रत्नावली मम॥२०॥

सर्वदा सर्वकार्येषु राधिका कृष्णमानसा। इत्येतत्कथितं देवि कवचं परमाद्भुतम्॥२१॥

सर्वरक्षाकरं नाम महारक्षाकरं परम्। प्रातर्मध्याह्नसमये सायाह्ने प्रपठेद्यदि॥२२॥

सर्वार्थसिद्धिस्तस्य स्याद्यद्यन्मनसि वर्तते। राजद्वारे सभायां च संग्रामे शत्रुसंकटे॥२३॥

प्राणार्थनाशसमये यः पठेत्प्रयतो नरः। तस्य सिद्धिर्भवेद्देवि न भयं विद्यते क्वचित्॥२४॥

आराधिता राधिका च तेन सत्यं न संशयः। गंगास्नानाद्धरेर्नामग्रहणाद्यत्फलं लभेत्॥२५॥

तत्फलं तस्य भवति यः पठेत्प्रयतः शुचिः। हरिद्रारोचनाचन्द्रमंडितं हरिचन्दनम्॥२६॥

कृत्वा लिखित्वा भूर्जे च धारयेन्मस्तके भुजे। कण्ठे वा देवदेवेशि स हरिर्नात्र संशयः॥२७॥

कवचस्य प्रसादेन ब्रह्मा सृष्टिं स्थितिं हरिः। संहारं चाहं नियतं करोमि कुरुते तथा॥२८॥

वैष्णवाय विशुद्धाय विरागगुणशालिने। दद्यात्कवचमव्यग्रमन्यथा नाशमाप्नुयात्॥२९॥

बाबा भावमय थे। ऐसा लगता था मानों कृष्ण साक्षात खड़े हों उनके समक्ष। राधा कवच का पाठ पूरा होजाने पर, जरा विलमे, और फिर कहने लगे– “...स्वप्न में ही सही, छलिया कृष्ण का साक्षात्कार कौन नहीं चाहेगा? क्लींकारी वंशी की सुमधुर तान से कर्णगुहा को झंकृत कराना भला कौन नहीं चाहेगा? वृन्दा-कुसुम-गुच्छ, कदम्ब-कुसुम, वैजयन्ती-माला, पुण्डरीक आदि के मिश्र-मदकारी सुगन्ध से अपने क्षुद्र नासारन्ध्रों को कौन नहीं आप्लावित करना चाहेगा? अगर यह चाह प्रवल है, प्यास तीव्र है, तड़पन तड़ित सा है, तो इस ‘शब्दभंवर’ में बे झिझक कूद जाओ। कहने को तो ‘शब्द’ आकाशतत्व की तन्मात्रा है, और इसका स्थान योगियों ने कंठ प्रदेश को बतलाया है, किन्तु मैं कहता हूँ- जरा नीचे आओ। शब्द तक पहुंचने की क्या हड़बड़ी है, उसके पूर्व के वायुतत्व को ही साधो। वही तो संवाहक है शब्द का। हृदयदेश में बारह पंखुड़ियों वाले कमल पर इस कामबीज को प्रतिष्ठित कर दो। वायुतत्व की तन्मात्रा है- स्पर्श। कृष्ण का स्पर्श यहीं हो जायेगा, यदि राधा की कृपा होगयी। हालाकि खतरा है- भाग जाने का। कूंए में गिरे ‘सूर’ को स्पर्श तो हो गया था, परिचय भी खुल गया था, फिर भी...बात पूरी बनी नहीं। सूर का अन्धत्व भू-लुण्ठित अज्ञानी का प्रतीक है। कृष्ण ने सहारा देकर कुंए से बाहर कर दिया, किन्तु बाहर करते ही, स्वयं उनका हाथ छोड़ भी दिया- स्वतः चलने को...। भूमि का भेदन होने पर ही बीज का अंकुरण होता है; और इसके लिए विशेष शक्ति(ऊर्जा) का सम्बल आवश्यक है। यहां, यह न भूलो कि कृष्ण राधामय हैं , और राधा कृष्णमयी हैं-देवी कृष्णमयी प्रोक्ता राधिका परदेवता। सर्वलक्ष्मी मयी सर्वकान्तिः सम्मोहिनी परा॥ (वृहद् गौतमीयतन्त्र)। इस सिद्धान्त को और भी दृढ़ करता है यह श्रीकृष्णार्जुनसंवाद— श्रीमद्भगवद्गीतोक्त विश्वरुप दर्शन के समय अर्जुन का चित्त तो अन्यान्य विषयों में ही उलझा रह गया-पश्यामि देवांस्तव देव देहे....न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम्॥ (अ.११-श्लो.१५-३१) कालान्तर में, पश्चाताप पूर्वक लालसा हुयी-रासलीलादर्शन की; किन्तु कृष्ण ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि उस अन्तरंग लीलादर्शन हेतु राधा की स्वीकृति अनिवार्य है, अतः तुम महात्रिपुरसुन्दरी की आराधना करो, उस रासेश्वरी की, जिसके सर्वांग वर्णन में वागीश्वरी की जिह्वा भी अशक्त है; और वह राधा ‘स्वयंदूती’ वंशी से आवद्ध है। उस वंशी से, जिससे निरंतर क्लीँकार निर्झरित हो रहा है, जो अन्ततः राधा नाम ही तो है- ईकारः प्रकृती राधा महाभाव स्वरुपिणी...(वृहद् गौतमीयतन्त्र)। यहाँ एक और रहस्यमय बात का ध्यान दिला दूँ कि ये महात्रिपुरसुन्दरी रासरासेश्वरी आद्याललिता या कहो राधा ही स्थितिनुसार पुरुष रुप में आती है। श्रीकृष्ण के तान्त्रिक स्वरुप को हृदयंगम करने हेतु ही यह लीला होती है। इसका संकेत तन्त्रराजतन्त्र में इस प्रकार मिलता है- कदाचिदाद्या ललिता पुंरुपा कृष्ण विग्रहा। वंशीनादसमारम्भादकरोद् विवशं जगत्॥ राधा ही कृष्ण बन कर वंशीनाद करती है, और अपने ही अंश को क्लीँकार में प्रकटकर त्रिभुवन को वशीभूत करती है। यहाँ श्रीकृष्ण और महात्रिपुरसुन्दरी में तत्वतः अभेद दर्शाया गया है।”

बाबा की बात पर मैं जरा चौंका- ये तो अद्भुत लीला है महाराज।कभी कृष्ण कभी राधा..कृष्ण राधा बनजाते हैं, तो कभी राधा कृष्ण बन जाती है।और यहां तो तन्त्रस्वामिनी त्रिपुरसुन्दरी को ही आप इनसे अभेद बतला रहे हैं।

“...मूलतः अभेद ही है। भेद या भेदाभास तो लीलाविलास मात्र है। परमसत्ता में क्या स्त्री, क्या पुरुष! शक्ति और शक्तिमान में भेद कैसे हो सकता है! हम नासमझी वश भेद कर लेते हैं। मनुष्य पुरुष या कि नारी है, अतः वह पुरुष और नारी की ही भाषा और स्वरुप को समझ सकता है। इससे जरा भी भिन्न हुआ कि मनुष्य के गले से नीचे उतरना कठिन होने लगता है। सब कुछ बिलकुल आसान है, फिर भी समझ से परे हो जाता है।

“...लोग कहते हैं- सच्चिदानन्द- इस शब्द पर कभी सोचा है तुमने? ”

गायत्री ने तपाक से कहा- ‘हां भैया! सत्+चित्+आनन्द ही तो मिलकर सच्चिदानन्द बनता है। सत है जो, परम चैतन्य है जो, और परमानन्द है जो, वही तो सच्चिदानन्द कहलाता है।’

बाबा मुस्कुराये- “ हां, गायत्री! बिलकुल सही कहा तुमने। यहां सत् ही अधिष्ठान है, यानी कि आधार है। चित् अन्तस्थ है, यानी भीतर छिपा हुआ है, और आनन्द इन दोनों को समेटकर, आवृतकर बाहर आकारवान है। इसे बिपरीत क्रम से समझो तो कह सकोगे कि प्रेम को प्रस्फुटित करके, आनन्द को लब्ध करो, आनन्द को लांघ कर चिति- यानी परम चैतन्य को पाओ, तब कहीं जाकर सत् की सता तक पहुंचने की बात होगी...।”

विषय अति गम्भीर चल रहा था, जिसे छोड़कर उठने की जरा भी इच्छा न हो रही थी, न मुझे और न गायत्री को ही; किन्तु काल-पाश में वद्ध पशु की विसात ही क्या? यहां तो महाकाल से भी कहीं बड़ा पाश - नौकरी- परवशता की विवशता बांधे हुए है। दुर्लभ, और रोचक प्रसंग के बीच भी आंखे उठ जा रही है बारबार घड़ी की ओर। गायत्री ने टोका- ‘ आपको तो फिर एक बार दफ्तर जाना है न ? तो हो ही आइये। खाना खाकर निकल जाइये जल्दी। उधर से लौटने पर ही बाकी बातें होंगी। वैसे भी आज रात होनी कहां है हमलोगों के लिए! ’

‘हाँ’- कहते हुए, मैं उठ कर नलके की ओर बढ़ा, मुंह-हाथ धोने के लिए। बाबा को भी आग्रह किया, भोजन के लिए। गायत्री रसोई की ओर लपकी, खाना परोसने के लिए।

जल्दी-जल्दी भोजन किया, जैसा कि आजकल लोग प्रायः किया करते हैं। भोजन जैसा आवश्यक कार्य भी चैन से करना नहीं हो पाता बहुतों को। और फिर भागा प्रेस-कार्यालय। खैरियत थी कि गाड़ी लगी थी, क्यों कि अब तो गाड़ीवाला हो गया था न। बाबा माने या न माने, मैं तो यही मानता हूँ कि यह सब बाबा के कृपा-प्रसाद से ही हुआ है। बाबा ने अपनी मुंहबोली बहन गायत्री को जो दो उपहार- मोतीशंख और सियारसिंगी दिये, उसी का सब करिश्मा है। गायत्री का भी यही मानना है।

कोई डेड़ घंटे बाद दफ्तर से वापस आया तो, बाबा को चौकी पर ही ध्यानस्थ पाया। दबे पांव भीतर गया तो देखा- गायत्री सामानों की पैकिंग कर रही थी। कल ही यह आवास छोड़ देना है। इस दर्बे से निकलकर, दफ्तर से मिले नये बंगले में जा बसना है- गाड़ी, वाड़ी, नौकर, माली...सारी सुविधाओं से सुसज्जित कोठी में। आजतक कभी गायत्री को ढंग की साड़ी भी न पहना पाया था। रोटी-दाल की जोड़ी को बचा पाने में ही कनपटी के बाल ललियाने लगे हैं। कभी-कभी तो जीवन ही बोझ सा लगने लगता था, किन्तु सहनशीला, सहधर्मिणी गायत्री की सान्व्बना के सम्बल से दुःसह जीवन-यान की खिंचाई या कहें ठेलाई हो रही थी। मुझे आया देख गायत्री कमरे से बाहर, लॉबी में आगयी, जहाँ बाबा विराजमान थे।

‘ भैया ने कहा था कि तुम आ जाओ तब फिर बातें होंगी। ध्यान में हैं-

इसकी परवाह किये बिना एक बार आवाज लगा देना।’- मुझे इस बात की जानकारी देकर उसने आवाज लगायी- ‘भैया! वो उपेन्दर भैया!...!’ तीसरे पुकार की जरुरत न पड़ी। बाबा आंखें खोल, आराम से बैठ गये, तकिये का सहारा लेकर- “लगता है, तुमलोग तैयार बैठे हो। ”

‘हां, भैया, इन्हीं का इन्तजार था, मैं तो पैकिंग का काम निपटाते हुए भी बातें सुनती रहूंगी।’-लॉबी में एक ओर पड़े मोढ़े को समीप खींचती हुयी गायत्री ने कहा, जिसकी बातों का मैंने खंडन किया— सो सब नहीं होगा। पैकिंग की चिन्ता छोड़ो। तुम भी आराम से बैठो। विषय बहुत ही गम्भीर चल रहा है। मेरे मन में अभी कई नये सवाल उधम मचा रहे हैं। उनका जवाब पाये वगैर, चैन नहीं।

“हां, गायत्री, बैठो तुम भी। जब तक रहेगी जिन्दगी, फुरसत न होगी काम से, कुछ समय ऐसा निकालो प्रेम कर लो राम से...है न?”- कहते हुए बाबा ने गायत्री का हाथ पकड़ कर मोढ़े पर बैठा दिया। मैं, बाबा के साथ ही चौकी पर पलथी लगाकर बैठते हुए बोला- ‘ महाराज! अभी पिछले बैठक में हमलोगों की बात श्रीकृष्ण और राधा के अभेद पर चलते हुए सत्, चित्, आनन्द पर आ रुकी थी। इस अभेद में ही कुछ ‘भेद’ लगता है मुझे। कृष्ण अर्जुन को जिस रासदर्शन के लिए आद्याललिता रुपी राधा की आराधना करने को कहे, उसमें तो अगनित गोपबालायें भी शामिल थी। क्या वे सभी ललिता की साधिका रह चुकी थी, जो रास-दर्शन ही नहीं, रास-सेवन का सौभाग्य प्राप्त की? और मेरी दूसरी शंका भी इसी रास से सम्बन्धित है। महारास और चीरहरण जैसी दो घटनायें क्या कृष्ण के दिव्यत्व को प्रश्न-चिह्नित नहीं करती ? गोकुल के शेष कृत्यों को तो बाल लीला मानने में किसी को आपत्ति नहीं, किन्तु ये दो घटनायें सामान्य बुद्धि में समा नहीं पाती। भले ही संत लोग इसे दिव्य धाम की लीला कह कर समझा देते हैं।’

मेरी बातों पर बाबा मुस्कुराते हुए गायत्री की ओर देखे- “ क्यों तुम्हें भी कुछ खटकता है, या सिर्फ अखबारी बाबू को ही ऐसा लग रहा है?”

गायत्री कुछ बोली नहीं। मेरी ओर देखकर, आंखें मटकायी। उसके उत्तर की प्रतीक्षा किये बगैर बाबा कहने लगे- “ पहले मैं तुम्हारे दूसरे सवाल का ही जवाब दे लूं। ये जो शत-सहस्र गोपियां थी न, जानते हो कौन थी ? पुरुष को ‘पुरुष’ से मिलने की लालसा जगेगी, तो उसे ‘स्त्री’ होना पड़ेगा। हर पुरुष में नारी, और हर नारी में पुरुष विद्यमान है- इसे तो अब तुम्हारा विज्ञान भी स्वीकारने लगा है। सिगमण्डफ्रायड ने भी इसकी स्वीकृति दे दी है। अतः आधुनिकों को ज्यादा भ्रमित नहीं होना चाहिए। पुरुष से स्त्री का ही मिलन हो सकता है, या कहो आनन्दानुभूति के लिए स्त्री होना पड़ेगा। मर्यादापुरुषोत्तम राम के समय तपस्यारत ऋषियों में ‘रमण’ की लालसा जगी थी। अन्यान्य घटनाक्रम में और भी बहुत से प्रत्याशी थे, जिन सबकी कामना पूर्ति के लिए लीलाबिहारी को अवतरित होना पड़ा। मर्यादा की डोर में बंधे हुए पुरुषोत्तम उनकी लालसा पूरी कैसे कर पाते ? अतः उन्हें वचन दिया था कि आगे कृष्णावतार में लालसा पूरी करुंगा। चुकि हम मनुष्यों की विचार, चिन्तन, दृष्टि आदि की क्षमता बड़ी सीमित है, बहुत ही संकीर्ण है। पुरुष और नारी से जरा भी बाहर हट कर सोच ही नहीं पाते। यही कारण है कि इससे बाहर की बातें समझने-बूझने में भारी कठिनाई होती है। और इतना ही नहीं, पुरुष-नारी के बीच बनने वाले सम्बन्धों के बारे में भी हमारा सोच बड़ा संकीर्ण है। पुरुष-नारी यानी प्रेमी-प्रेमिका, वो भी कायिक तल पर, काम-तल पर। मनोविज्ञानी फ्रॉयड ने भी दावा किया है कि मां अपने बेटे को स्तनपान कराती है, वहां भी कामसुख का वही विम्ब है...ये बड़ा ही गहन चिन्तन है। तुम्हारी आशंका गोपियों और कृष्ण के आपसी सम्बन्ध को लेकर है न। चलो, ठीक है, तुम्हारी ही आँखों से हम भी देख लेते हैं, थोड़ी देर- जिस समय की ये घटना है- चीरहरणवाली, या कि रासलीला वाली, उस समय कृष्ण की उम्र क्या थी पता है- मात्र आठ वर्ष के करीब, और गोपियाँ- कोई मामी थी, कोई चाची, कोई दादी भी, कोई बहन भी- यानी बाला, किशोरी, तरुणी और प्रौढ़ा भी, और वे सब के सब समान रुप से कृष्ण को चाहती थी—अब इस चाहत को तुम क्या कहोगे? बाला से प्रौढा तक, एक बालक को, जो ठीक से किशोर भी नहीं हुआ है, से कामतृप्ति की चाह रखी जा रही है ? ये कहीं उचित लग रहा है ? ”

अचानक गायत्री ने टोका- ‘ उम्र तो ठीक बताया तुमने भैया उन गोपियों का- बाला, किशोरी, तरुणी, प्रौढ़ा; किन्तु अगहन के महीने में कड़ाके की सर्दी में यमुना में स्नान, और कात्यायनी पूजन का ये महामन्त्र कात्यायनि महामाये महायोगिन्यधीश्वरि। नन्दगोपसुतं देवि! पतिं में कुरुते नमः॥ (श्रीमद्भागवत१०-२२-४) स्पष्टतौर पर कृष्ण को पति रुप में पाने की लालसा ही नहीं, कामना भी कर रही हैं गोपियां। मैंने भी पिताजी के कहने पर विवाह के पूर्व साधना की थी इस महामन्त्र का, तब जाकर ये महाशय मिले थे मुझे। ’

गायत्री की बातों पर मैं चौंका- अच्छा तो तुमने मुझे पाने के लिए उस तान्त्रिक महामन्त्र को साधा था- ये तो बातबात में आज पता चला। मुझे तो तुम कभी देखी नहीं थी, फिर इतनी आसक्ति क्यों हो गयी हममें?

मेरे प्रश्न पर गायत्री लजा गयी, क्यों कि उसके भाई के सामने ही मैंने ये सवाल कर दिया। थोड़ी झेंपती हुयी बोली- ‘ देखने न देखने की बात नहीं है, और न मैंने तुम्हारे नाम-रुप का सम्मोहन ही किया था। सीधी सी बात है- इस मन्त्र की साधना करने से मनोनुकूल पति की प्राप्ति होती है, वो भी अति शीघ्र। और वो भी क्या मैं अपने मन से की थी, पिताजी ने मां से कहा, मां हमें आदेश दी। तो क्या हो गया इसमें?’

अच्छा तो अब समझा। तुमको जल्दी घर से भगाने की हड़बड़ी हो गयी थी लोगों को- हँसते हुये मैंने कहा।

गायत्री जरा झुंझलायी- ‘ तुमने तो बात का बतंगड़ बना रहे हो। यहां कितनी गम्भीर बात चल रही थी- चीरहरणलीला की, और तुम...।’

“अच्छा, अब तुमलोग आपस में झगड़ा न करो। वस इतना ही जान लो कि तन्त्र-मन्त्र से तुम्हें बांध ली है मेरी बहना। अब चुपचाप इसके आदेश का पालन करते जाओ। ”- हँसते हुये बाबा ने कहा, और प्रसंग को आगे बढ़ाया- “ चीरहरण के प्रसंग को लेकर कई तरह की शंकायें की जाती हैं। सच पूछो तो सच्चिदानन्द भगवान की दिव्य मधुर रसमयी लीलाओं का रहस्य जानने का सौभाग्य कुछ भाग्यवानों को ही होता है, शेष जन तो सांसारिक भंवर में ही उब-चूब होते रहते हैं- जैसा कि मैंने पहले भी कहा- काम(सेक्स)से रत्ती भर भी बाहर निकल ही नहीं पाते। सोच ही नहीं पाते। कृष्ण का शरीर कोई पञ्चभौतिक तो है नहीं। जिस प्रकार चिन्मय है उनका शरीर, उसी प्रकार उनकी समस्त लीलायें भी चिन्मयी ही है। रसमय साम्राज्य के जिस परमोन्नत स्तर पर ये लीलायें होती हैं, उसकी ऐसी विलक्षणता है कि सामान्य की क्या, कई बार तो ज्ञान-विज्ञानस्वरुप विशुद्ध चेतन परब्रह्म में भी उसका प्राकट्य नहीं होता। फलतः ब्रह्म-साक्षात्कार-प्राप्त महापुरुष भी इस दिव्य लीलारस का सम्यक् आस्वादन करने से वंचित रह जाते हैं। ज्ञानमार्ग की साधना इसीलिए रुक्ष कही जाती है, भक्तिमार्ग की तुलना में। श्रीकृष्ण तो भक्ति के आधान हैं। इनका माधुर्य चखने के लिए भक्तियोग ही एकमात्र अवलम्ब है। इस दिव्यलीला का यथार्थ प्रकाश तो प्रेममयी गोपियों के हृदय में ही हो सकता है। इस स्तर पर आने के लिए ‘गोपीभाव’ अत्यावश्क है, वो भी वृषभानुनन्दिनी की कृपा से ही प्राप्त हो सकती है। और ये गोपियां कोई और नहीं रासेश्वरी के अंग-उपांग ही हैं। पता नहीं इनमें कौन क्या थी, कितने दिनों से प्यास थी, प्रयास था- कोई ऋषि है, कोई ऋषि पत्नियां, कोई महासाधक, कोई कुछ, कोई कुछ। इनके अनन्त जन्मों का पुण्य फलित हुआ तब कहीं जाकर गोपी-तन मिला, और उस शरीर में आने के बाद भी बहुत कुछ वासना शेष रह गयी थी, जो कृष्ण के दर्शन-स्पर्शन से तिरोहित हुआ। दरअसल अनन्त जन्मों के शुभाशुभ संस्कारों का पिटारा है हमारा जीवन, ये शरीर।”- जरा ठहर कर बाबा ने हमदोनों की ओर गौर से देखा, और फिर बोले- “ इस प्रसंग को बहुत ध्यान से सुनो, और गुनो भी। भक्तिरसामृत वृक्ष का परिपक्व फल है यह। चीरहरण को कोई मामूली घटना समझने की मूर्खता न करो...।

“....श्रीमद्भागवत समूचा पढ़ने-समझने का सामर्थ्य न हो तो भी कम से कम दशम स्कन्ध का अध्यवसाय करो। इसके इक्कीसवें अध्याय में कहा गया है कि भगवान की रुप-माधुरी, वंशीध्वनि, प्रेम-लीलायें देख-सुनकर गोपियां मुग्ध हो गयीं। अगले ही अध्याय में वर्णन है कि वे इस आनन्दघन श्यामसुन्दर को पाने की अतिशय लालसा से कात्यायनी-साधना में लग गयी। जरा इस श्लोक को गुनो- न मय्यावेशितधियां कामः कामाय कल्पते। भर्जिता क्वथिता धाना प्रायो बीजाय नेष्यते॥ (१०-२२-२६) भगवान को जब लगा कि अब ये अपने मन-प्राण मुझे ही समर्पित कर चुकी हैं, इनकी कामनायें अब सांसारिक भोगों की ओर लेजाने में समर्थ नहीं रह गयी हैं, तो इनकी मनोकामना पूर्ण होनी चाहिए। भुने या उबाले हुए बीज में जैसे अंकुरण असम्भव है, वैसे ही पूर्णतया भगवदार्पण मन-बुद्धि में सांसारिक विकार उत्पन्न नहीं हो सकते। गोपियां क्या चाहती हैं- यह तो उनकी आपसी चर्चा से ही स्पष्ट है। इसे वहीं ‘वेणुगीत’ में तलाशो। वेणुगीत में गोपियों की चाहत खुलकर सामने आयी है। ”

बाबा ने गायत्री को ईंगित कर कहा- “ क्या तुम कभी चाहोगी कि तुम्हारा यह पति-प्रेमी किसी और स्त्री की ओर आँख उठाकर देखे? नहीं न  ? संसार की कोई स्त्री नहीं चाह सकती ऐसा। दो स्त्रियां किसी एक पुरुष का चरित्रगान कर ही नहीं सकती खुलकर। खास कर तब तो और नहीं जब उन्हें पता हो कि यह पुरुष इसे भी चाहता है। वहां तो सीधे शत्रुभाव(सौत-भाव)उदित हो जायेगा। सख्यत्व का कहां सवाल है! किन्तु यहां जरा गोपियों की आपसी वार्तालाप पर गौर करो–साधना रत गोपियां मार्ग में कृष्ण का चरितगान करती जाती हैं यमुना-स्नान के लिए। सबके सब यही मनाती है- मानसिक ही नहीं वाचिक रुप से भी कि कृष्ण हमें पति रुप में प्राप्त हों- पतिं में कुरु ते नमः –यही कामना है न? क्या सामान्य अवस्था में कोई नारी-समूह ऐसी कामना एकत्र कर सकती है? कदापि नहीं। अनेक स्त्रियों का एक साथ एक ही पुरुष को पाने की लालसा से एक ही तरह का अनुष्ठान कदापि सम्भव नहीं है। यहां भी सामान्य मानवी स्वभाव और बुद्धि से बिलकुल भिन्न लक्षण-प्रमाण लक्षित हैं।”

“...अब इसे दूसरे रुप में समझने का प्रयास करो- वैधी भक्ति का पर्यवसान होता है रागात्मिका भक्ति में, और रागात्मिका भक्ति ही पूर्ण समर्पण की स्थिति में ले जाती है। जल, अक्षत, फूल, धूप, दीपादि ये जो क्रियात्मक रुप की बाह्य पूजा है, इसे ही वैधी भक्ति जानो। भक्ति का बुनियाद है यह। निरंतर इसे करते-करते, अचानक रागात्मिका भक्ति स्फुरित हो उठती है। और तब कहीं जाकर स्व-समर्पण की स्थिति बनती है। कात्यायनी साधना में गोपियों की वैधीभक्ति-क्रिया हो रही है। रागात्मिका भक्ति तो उनके मनप्राणों में पहले से ही गुप्त है, सुप्त है। ध्यान देने की बात है कि एक ओर रागानुरागी, रागमयी गोपियां कृष्ण के लिए व्याकुल हैं। उन्हें ये पता है कि श्रीकृष्ण कोई और नहीं परात्पर ब्रह्म ही हैं, जिसकी व्याप्ति सर्वत्र है। संसार में बांधने वाले उनके सारे संस्कार लगभग नष्ट हो चुके हैं, किन्तु यत्किंचित अभी शेष हैं। जिसके कारण कृष्ण को ये चीरहरण-लीला करनी पड़ी। ”

मेरी ओर देखते हुए बाबा ने कहा- “....इसे अविशेष दृष्टि से, सामान्य दृष्टि से सोचो- पुरुष-स्त्री का पूर्ण मिलन तभी हो सकता है, जब उनके बीच किसी प्रकार का व्यवधान न रह जाय। किसी प्रकार की बाधा न पुरुष को पसन्द है, और न स्त्री ही चाहती है अपने एकान्त मिलन में। झीना से झीना आवरण भी पूर्ण मिलन में बाधक ही है। आत्मा और परमात्मा के मिलन के बीच हमारे संस्कारों में यत्किंचित् भी शेष रह जायेगा, तो मिलन अधूरा रहेगा। यहां अनजाने में गोपियों से दो भूलें हो रही हैं- एक तो यह कि एक तरफ उन्हें ज्ञात है कि कृष्ण सर्वव्यापी परब्रह्म हैं, तो फिर ये क्यों नहीं समझ है कि जिस जल को वे आवरण समझे हुए हैं, वहां भी कृष्ण की उपस्थिति है! कृष्ण ही जलतत्त्व भी हैं, वे ही आकाशतत्त्व हैं, वे ही वायुतत्त्व हैं, वे ही सर्वस्व हैं...। और दूसरी बात यह कि जिस कृष्ण की उन्हें चाह है, वही तो पुकार रहा है उन्हें; परन्तु वे कहती हैं कि पहले वस्त्र दे दो, नंगी कैसे वहां आऊँ? यानी कि सबकुछ भुला देने, यानी संस्कारों के सभी बीज नष्ट हो जाने के बाद भी अभी कुछ शेष प्रतीत हो रहा है। संसार छोड़ भी रहे हैं, और पकड़े हुए भी हैं। जिन वस्त्रों का हरण कर लिया है कृष्ण ने गोपियों पर कृपा करके, उन्हीं संस्कार रुपी वस्त्रों को पुनः मांग रही हैं गोपियां। वस्त्रों के आवरण की चाह अभी बनी ही हुयी है। स्वाभाविक है कि मिलन में बाधा होगी। कृष्ण इसी बाधा को दूर करने की बात करते हैं। साधकों के लिए निर्वस्त्र, निरावरण, निःशंक, निर्विकार होने की बात कही जा रही है। देह-गेह की परिमिति से बाहर आने की बात कही जा रही है।