बाबूराव पटेल एवं उनकी शकुंतला / जयप्रकाश चौकसे

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बाबूराव पटेल एवं उनकी शकुंतला


बाबूराव पटेल पत्नी सुशीला रानी के साथबाबूराव पटेल और सुशीला रानी के बीच प्यार हुआ और दोनों ने विवाह कर लिया। दोनों मानो एक-दूसरे के लिए ही जन्मे थे। बाबूराव पटेल ने पाली हिल्स पर ‘गिरनार’ नामक बंगला खरीदा, जिसकी कलात्मक सजावट उनकी पत्नी ने ही की। उन दिनों उनकी इतनी ख्याति थी कि बंबई आए पर्यटकों को ‘गिरनार’ दिखाया जाता था ..ह अजीब बात है कि जब प्रसिद्ध फिल्म समीक्षकों को फिल्म बनाने का अवसर मिलता है तो वे प्राय: असफल फिल्में ही बनाते हैं। गोयाकि फिल्म का पोस्टमार्टम करने वाले अपनी बारी आने पर एक ‘कैडेवर’ की ही रचना कर पाते हैं। ज्ञातव्य है कि कैडेवर उस मृत शरीर को कहते हैं, जिसकी चीरफाड़ मेडिकल कॉलेज में भावी डॉक्टरों के अभ्यास का हिस्सा है। यह सिलसिला पहले से चला आ रहा है।

केए अब्बास बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे, लेकिन उन्होंने अपना कॅरियर फिल्म समालोचक के रूप में ही प्रारंभ किया था और शांताराम ने उन्हें स्टूडियो में आमंत्रित किया था कि फिल्म निर्माण देखकर उन्हें आलोचना की बेहतर दृष्टि मिलेगी।

कालांतर में अब्बास की पटकथा ‘डॉ कोटनीस की कहानी’ पर शांताराम ने फिल्म बनाई। केए अब्बास को राजकपूर की सफल फिल्मों के लिए पटकथा लिखने के कारण पूरी दुनिया में जाना गया, लेकिन स्वयं अब्बास ने कभी कोई ब्लॉकबस्टर नहीं बनाई। यहां तक कि उनकी ‘चार दिल चार राहें’ में राजकपूर, मीना कुमारी, शम्मी कपूर इत्यादि दर्जनभर सितारे थे, परंतु फिल्म सफल नहीं रही। गोयाकि सफल समालोचक और लेखक ने स्वयं कभी बॉक्स ऑफिस पर सफल फिल्में नहीं बनाईं।

कुछ वर्ष पूर्व खालिद मोहम्मद, जो ‘टाइम्स’ के समालोचक और ‘फिल्मफेयर’ के संपादक थे, ने रितिक रोशन और करिश्मा कपूर जैसे सितारों के साथ असफल फिल्म ‘फिजा’ बनाई। बाद में उनकी ‘तहजीब’ भी नहीं चली।

हिंदुस्तानी फिल्म समीक्षा के दादा फाल्के थे बाबूराव पटेल जिनकी पत्रिका ‘फिल्म इंडिया’ अत्यंत लोकप्रिय थी और आलोचक की हैसियत से उनका बहुत सम्मान भी था और फिल्मकार उनसे डरते भी थे। उन दिनों यह आलम था कि बाबूराव पटेल के लिए प्रदर्शन-पूर्व एक विशेष शो भी आयोजित किया जाता था। एक निर्माता ने युवा मेहबूब खान को निर्देशन का अवसर दिया तो पांच रीलें बाबूराव को दिखाई गईं कि उन्हें नापसंद आने पर फिल्म रद्द कर देंगे और बाबूराव पटेल ने कहा कि यह युवा कमाल करेगा। कालांतर में मेहबूब खान ने ‘औरत’, ‘रोटी’, ‘नजमा’, ‘अंदाज’, ‘अमर’, ‘आन’ और ‘मदर इंडिया’ जैसी महान फिल्में बनाईं।

कोंकण की सुशीला रानी अत्यंत सुंदर एवं मधुर गायिका थीं। फिल्म अभिनय के लिए बंबई आईं तो उन्होंने ‘फिल्म इंडिया’ के कुछ अंक पढ़े। वह बाबूराव पटेल की फैन हो गईं और उनके दफ्तर में सहायक संपादक की तरह काम करने लगीं।

बाबूराव पटेल और सुशीला रानी के बीच प्यार हुआ और दोनों ने विवाह कर लिया। दोनों मानों एक-दूसरे के लिए ही जन्मे थे। बाबूराव पटेल ने पाली हिल्स पर ‘गिरनार’ नामक बंगला खरीदा, जिसकी कलात्मक सजावट उनकी पत्नी ने ही की। उन दिनों उनकी इतनी ख्याति थी कि बंबई आए पर्यटकों को ‘गिरनार’ दिखाया जाता था कि यहां बाबूराव पटेल और सुशीला रानी रहते हैं। बहरहाल, 1944 में बाबूराव पटेल की सुशीला रानी अभिनीत ‘द्रौपदी’ को खूब प्रचार के साथ प्रदर्शित किया गया, लेकिन फिल्म असफल रही। पटेल साहब ने फिर ‘शकुंतला’ बनाई और वह भी असफल रही। इन दो फिल्मों में आर्थिक घाटे से ज्यादा बड़ी चोट यह थी कि एक समालोचक के रूप में उनकी सितारा हैसियत ध्वस्त हो गई। सुशीला रानी का अभिनय और गायन पसंद किया गया, लेकिन फिल्म में अनेक तकनीकी दोष थे और प्रेमी-पति निर्देशक बाबूराव पटेल का कैमरा उनकी प्रेमिका-पत्नी के चेहरे से हटता ही नहीं था और अन्य चरित्र अनदेखे से रह गए। फिल्म की समालोचना करना एक बात है और फिल्म बनाना जुदा काम है। जब भी कोई निर्देशक अपनी नायिका पर इस तरह आसक्त होता है तो उसकी फिल्म में संतुलन कायम नहीं रहता। लेख टंडन ने भी ‘आम्रपाली’ में यही किया और मधुर संगीत के बावजूद फिल्म नहीं चली।

बहरहाल देश की स्वतंत्रता के बाद बाबूराव पटेल ने अपनी ‘फिल्म इंडिया’ को ‘मदर इंडिया’ के नाम से प्रकाशित रखना जारी रखा, परंतु तब तक कम दामों में अन्य पत्रिकाएं बाजार में आ गई थीं और आर्ट पेपर पर छपने वाली ‘मदर इंडिया’ महंगी होने के कारण कम बिकने लगी। यह संभव है कि महबूत खान ने अपनी 1939 की ‘औरत’ को 1957 में ‘मदर इंडिया’ के नाम से पटेल की प्रेरणा से बनाया। बाबूराव पटेल के निधन के बाद सुशीला रानी वर्ष में केवल एक अंक अपने पति की याद में निकालती रहीं। उन्होंने अपने बंगले ‘गिरनार’ को बचाने के लिए लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी। दो पत्रकारों के बीच की प्रेम-कहानी के सफर में दो फिल्मों की असफलता के बावजूद उनका प्रेम हमेशा जीवित रहा।