बाबू मठाधीश! / कांग्रेस-तब और अब / सहजानन्द सरस्वती

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इनकी राजनीतिक पंडागिरी का एक और पहलू भी देखिए। मठ-मंदिरों और धार्मिक संपत्तियों के नियंत्रण एवं सुसंचालन के नाम पर इनने बिहार में धर्मादाय संपत्ति बिल तैयार किया है जिसे कानूनी जामा पहनाने के लिए भी ये आतुर हैं। हमने वह बिल पढ़ा है। यदि उसे कानूनी रूप मिला तो वर्तमान महंतों एवं पंडे-पुजारियों का स्थान ये ' खाजा टोपी ' धारी बाबू ले लेंगे और उनकी समस्त संपत्ति या तो चुनावों में लगेगी या इनके तथा इनके चेले-चाटियों के पेट में समाएगी , वह ध्रुव सत्य है। मठ-मंदिरों के प्रभाव से भी चुनाव में काफी फायदा उठाया जाएगा। जिनने राजनीति और अर्थनीति में सभी कुकर्म खुलकर किए , जो ऐसा करने में आज जरा भी नहीं हिचकते , वह धर्मनीति को सीधे फाँसी लटकाकर सारी संपत्ति को द्रविड़ प्राणायाम के द्वारा डकार जाने में साँस भी न लेंगे।

मठ-मंदिरों को मिटा देना है तो साफ कहिए। द्रविड़ प्राणायाम की क्या जरूरत ? उन्हें यदि वर्तमान पंडे-पुजारी और महंत मिट्टी में मिला रहे हैं तो बाबू लोग उससे भी बुरा करेंगे। अप्रत्यक्ष संगठित लूट प्रत्यक्ष लूट से कहीं बुरी है। क्योंकि पकड़ी नहीं जा सकती है। यह बिल अप्रत्यक्ष लूट का रास्ता साफ करता है। सुधार तो इससे होगा नहीं।

पंजाब में सिख-धर्म के मठ-मंदिरों का संशोधन-सुधार जैसे संगठित सिखों ने किया और संघर्ष के द्वारा उन्हें गुरुद्वारा प्रबंधक कमिटी के हवाले किया , वही बात हिंदू-मुस्लिम मठ-मंदिरों के बारे में होगी। तभी इनका उध्दार होगा। जो साधु-फकीर और पंडित राष्ट्रवादी , जनवादी और सर्वभूतहितवादी हैं , और आज ऐसों की कमी नहीं है , उनकी ही राय से उन्हीं के तत्वावधान में मठ-मंदिरों का उध्दार या संहार जो भी उचित हो होना ठीक है। बाबूभैयों और दूसरों को इसमें टाँग अड़ाने का हक नहीं । हाँ , ये सुझाव पेश कर सकते और सहायता दे सकते हैं। मगर इसका श्रीगणेश वे साधु-फकीर और पंडित ही करेंगे , उन्हीं का यह हक है।

यह भी बात है कि धर्म का प्रश्न पेचीदा और खतरनाक है। आज यह सवाल नहीं कि ये मठ-मंदिर भले हैं या बुरे। चाहे ये जो भी हों , जैसे भी हों इनके पीछे हजारों वर्षों की अनंत लोगों की भावना है जो बड़ी ही मजबूत है। धीरे-धीरे उसमें खराबी आई है सही। फिर भी यह अपनी जगह पर है और उसके संबंध में कुछ भी उलट-फेर करने के पूर्व जनता के सामने वह प्रश्न जाना चाहिए। आज जो असेंबली है उसके सदस्यों के चुनाव के समय यह सवाल उठाया गया न था। फलत: जनता ने इसके बारे में अपनी कोई राय न दी। इतने महान प्रश्न पर जब तक जनमत न लिया जाए असेंबली को कोई हक नहीं है कि बोले , सो भी बुनियादी परिवर्तन के लिए। यह भी सही है कि जब तक बुनियादी परिवर्तन न हों , कुछ होने जाने का नहीं। जो धार्मिक बातों के पंडित नहीं , जो इस मामले में अधिकारपूर्वक बोल नहीं सकते , वही इसी के लिए कानून बनाएँ यह सरासर गलत है। उन्हें इसमें हाथ डालने का हक नहीं है। फिर भी राजनीतिक लाभ के लिए इसमें दखल देने पर तुले बैठे बाबुओं को हम आगाह दें कि अलग , अलग दूर , दूर।