बामण का क़र्ज़ / कुँवर दिनेश

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हर सप्ताहांत की तरह शनिवार शाम को सुमेर सिंह शहर से क़रीब तीस किलोमीटर की दूरी पर स्थित अपने गाँव पहुँचा, जहाँ उसके माता-पिता रहते थे। साथ ही रहता था उसका एक छोटा भाई व उसका परिवार पुश्तैनी ज़मीन-जायदाद की देखभाल करने के लिए। भाई कम पढ़ा-लिखा था, इसलिए कहीं नौकरी नहीं मिल पाई, परन्तु वह खेती-बाड़ी के कार्य में दक्ष था। सुमेर को उसके पिता ने मैट्रिक के बाद पढ़ाई के लिए ज़िला मुख्यालय भेज दिया था। उसने उच्च शिक्षा प्राप्त कर अच्छी नौकरी प्राप्त की। ज़मीन-जायदाद से घर का ख़र्चा निकल ही जाता था, साथ में पिता वैद्य थे। सारा गाँव उन्हें आदर से “वैद जी” ही कहता था या “मियाँ जी” क्योंकि वे राजघराने से सम्बन्ध रखते थे। वैद्य के कार्य को वे सेवा-भाव से करते थे। इससे उनकी आय निश्चित नहीं थी पर कोई उन्हें कुछ भी दे देता वे उसी में संतुष्ट रहते। वे कभी फ़ीस माँग कर नहीं लेते। कोई दे गया तो भी ठीक, नहीं दे गया तो भी ठीक। किसी से कोई इच्छा, उम्मीद अथवा गिला-शिकवा नहीं रखते थे। लोगों को उनका व्यवहार अजीब तो लगता था, किन्तु वे उनसे बहुत प्रभावित थे। उनका आदर दिल से करते थे।

एक बार एक मरीज़ को लेकर कोई एंजिनियर पहुँचा। वह काफ़ी सम्पन्न व्यक्ति था। उसने दवा ली और दो सौ रुपए फ़ीस आगे बढ़ाई। सौ-सौ के दो नोट थे। वैद जी को देते हुए एक सौ का नोट ग़लती से एंजिनियर के हाथ से नीचे गिर गया। और वैद जी ने उसे लेने से इन्क़ार कर दिया। बोले वह नोट तो उनके लिए नहीं था। और मात्र एक सौ के नोट को ही लेकर संतुष्ट दिखे। उनके चेहरे पर संतोष की अद्भुत् चमक देखते ही बनती थी, जो आज के समय में अमूमन लोगों के चेहरों से नदारद ही है। वैद जी के चहरे पर इस प्रकार के प्रभामण्डल होने के पीछे कारण था उनकी सादा, सात्विक व सहज जीवन शैली। जो भी उनके घर आता, उन्हें किसी न किसी कार्य में मशग़ूल पाता। कभी धरती पर गिरे अनाज के दानों को इकट्ठा करते हुए; कभी आँगन में अपने पाले हुए कबूतरों को बाजरा-चावल-मकई के दाने खिलाते हुए; कभी बैलों की जोड़ी को चारा खिलाते; कभी बच्चों से बतियाते हुए; कभी पूजा-कक्ष में ध्यान लगाते हुए; कभी धूप में बैठे हमाम-दस्ते में जड़ी-बूटी कूटते हुए या खरल में दवा घोटते हुए; कभी दवाख़ाने में दवाइयों की पुड़ियाँ बनाते व रोगियों-आगन्तुकों से गप्पे लगाते हुए; तो कभी अकेले बैठे राम नाम का जाप करते हुए उन्हें देखा जाता। अपनी अनूठी जीवन-शैली के लिए वैद जी बहुचर्चित थे। उनका सन्दर्भ आते ही लोग अक्सर कह उठते कि आज के कलियुग में ऐसे सतयुगी पुरुष कहाँ मिलते हैं। लोग वैद जी को ऋषि से कम नहीं मानते थे।

इस बार शनिवार सायं जैसे ही सुमेर घर पहुँचा, वैद जी उससे आग्रह करने लगे कि वह उन्हें शहर लेकर चले। वहाँ उन्हें अपने बाल्यकाल के सखा पंडित आत्माराम से मिलना है। वे इस मुलाक़ात को बेहद ज़रूरी बताने लगे। अचानक इस तरह वहाँ जाने का कोई कारण बताया नहीं। सुमेर ने कह दिया, “ठीक है, कल इतवार है, मुझे भी अवकाश है; कल प्रात: ही चले चलेंगे।”

सुबह होते ही सुमेर ने पिता से कहा कि वे तैयार हो जाएँ। बस साढ़े आठ बजे मिलेगी। कम-से-कम पौने आठ घर से निकलना होगा ताकि क़रीबी बस स्टॉप पर सवा आठ तक पहुँच जाएँ।

वैद जी की दिनचर्या तो तड़के पाँच बजे ही शुरू हो जाती थी। रोज़ प्रात: ब्रह्म मुहूर्त्त में उठना, शौच-निवृत्ति के लिए जाना, फिर पहाड़ी नीम टिमरी की दातुन अथवा अखरोट की छाल दंदासा से दाँत साफ़ करना, ठण्डे-ठण्डे पानी के छींटों से आँखें साफ़ कर, हाथ-मुँह धोना और बावड़ी से पीने का ताज़ा पानी लाना और उसके बाद कुछ देर अपने ही कक्ष में बैठकर ज़ोर-ज़ोर से राम धुन लगाना उनका रोज़ का शुग़ल था। वे तुलसीदास विरचित श्रीराम स्तुति “श्रीरामचन्द्र कृपालु भज मन . . .” को गाना कभी नहीं भूलते थे।

आज अभी वैद जी ने प्रातश्चर्या को पूरा किया ही था कि बेटे सुमेर का तैयार होने का आदेश सुन वे चले स्नान करने। तदुपरान्त उन्होंने कुर्ता-पायजामा व उस पर लॉन्ग-कोट पहना। हमेशा की तरह कोट के ख़ीसों में दवाओं की गोलियों से भरी चाँदी व पीतल की छोटी-छोटी डिब्बियाँ डालीं। फिर काली ऊँची किश्ती टोपी धारण की व उठाई अपनी लाठी और फिर कपड़े के जूते पहन कर तैयार हो गए। वे हमेशा कपड़े के जूते पहनते; चार धाम के तीर्थ पर उन्होंने चमड़ा धारण न करने का अहद जो कर लिया था। इसके साथ ही वे अपनी मन-पसन्द लाठी को हमेशा साथ रखते थे क्योंकि यही लाठी सभी तीर्थों में उनके साथ रही थी। वे जहाँ भी जाते थे, उस लाठी को साथ रखते।

वैद जी तैयार होकर लगे सुमेर को आवाज़ें लगाने ―”अरे सुमेर . . . कहाँ चला गया? . . . अब देर मत कर, भाऊआ . . . ज़रा घड़ी तो देख, क्या वक़्त होइ चला? . . .”

उधर सुमेर की माता भी अब रसोई में पहुँच कर चूल्हा जला चुकी थीं। सुमेर के पिता की आवाज़ें सुनकर लगीं बेटे की तरफ़दारी में बोलने - “जी भाऊ अभु शौच गया ए। ज़रा तिस चाय-पाणी तो करने दो। तुसा तो कुछ लेणा नहीं; भाऊ बेचारा भूखा जाओगा क्या? चाय नाश्ता करी रो हो जाओगा तैयार; अभु बड़ा बख़त (वक़्त) ए बस आणे दा . . .”

“भाऊ ही तो चिल्ला रहा था कि जल्दी करो, जल्दी करो . . . अब ख़ुद क्यों देरी कर रहा है? मैं तो तैयार हो गया हूँ . . .”

“भाऊ आ रहा है; कुछ देर बैठ जाओ आप . . . हाँऊ तो बोलूं थोड़ा नाश्ता लेइ लो तुसे भी; ख़ाली पेट सफ़र नी करणा हो . . . दोपहरे पता नी कितणे बजे वापस पुजणे . . .”

“ना भई ना . . . मां तो दोपहरे आई रो ई खाणा . . . एक गिलास पाणी पी लऊँगा . . .” माँ-बाप अभी बतिया ही रहे थे कि सुमेर आया और जाने की जल्दी को लेकर यकायक ग़ुसलख़ाने में घुसा और नहा-धोकर तैयार हो गया। उधर माँ ने सब्ज़ी-चपाती ताज़ा दही के साथ परोस दी। जल्दी-जल्दी में दो चपाती खाकर सुमेर ने अपना पैकेट उठाया और बाहर की ओर क़दम बढ़ाए। वैद जी तब तक पूजा कक्ष में धूप-बत्ती कर आए थे और सुमेर के पीछे चल दिए।

वैद जी की तक़रीबन पचासी साल की उम्र हो गई थी। पीठ पर हल्का-सा कूब पड़ने लगा था। शारीरिक कमज़ोरी उम्र के साथ आ रही थी, परन्तु उनकी हिम्मत, आदर्शों पर अडिगता व ज़िद्दी स्वभाव में कोई कमी न थी।

वे सुमेर के साथ-साथ तीव्र गति से बढ़े चले जा रहे थे। साथ ही साथ पहले कितनी ही बारी कही हुई नसीहतें देते जा रहे थे। वे लाठी को जगह-जगह पर पटकते जा रहे थे और सुमेर से कहते जा रहे थे ― “देख भाऊआ, डण्डा या लाठी हमेशा साथ रखनी चाहिए और इसे रास्ते में ऐसे पटकते रहना चाहिए कि यदि माटी-हेठ-रा (मिट्टी के नीचे रहने वाला ― साँप) बाट में कहीं हो तो वह चग़र जाए (सचेत हो जाए)। लाठी तो वैसे भी बड़े काम की चीज़ है ― सहारा भी और शस्त्र भी . . .”

“अच्छा-अच्छा, पिता जी अब जल्दी आ जाओ, बस का वक़्त हो रहा है। थोड़ी चढ़ाई बाक़ी है। ज़रा तेज़ी से क़दम बढ़ाना . . .,” सुमेर ने बीच में ही टोकते हुए कहा।

“हाँ भई हाँ, तेज़ ही चल रहा हूँ। अब उम्र बढ़ गई है ― अभी कुछ बरस पहले की ही बात है, मैं यहाँ से शहर तक पैदल ही जाया करता था। जंगल में से छोटे रास्ते हैं। मैं तो बस से सफ़र करना पसन्द ही नहीं करता था . . . अब मजबूरी है, भई, क्या करें? . . .,” वैद जी यह बात अक्सर बोला करते थे।

सुमेर फिर बीच में टोकने लगा ― “पिता जी, यह बात मैं कई दफ़ा सुन चुक हूँ . . . अब सहूलियत है तो उसका फ़ायदा क्यों न उठाएँ भला . . . अब आ जाओ, बस के आने में दस-बारह मिनट और हैं . . .”

ऐसे ही बातें करते हुए दोनों सड़क पर बस ठहराव पर पहुँच गए। बस आने में अभी भी चार-पाँच मिनट बाक़ी थे। वैद जी कुछ अराम करने के लिए पास के मील-पत्थर की टेक लगाकर बैठ गए।

सुमेर पूछने लगा ― “पिता जी, यह अचानक आपको पंडित आत्मा राम जी से मिलने की क्या सूझी?”

वैद जी कुछ बोलते कि उतने में बस की आवाज़ कानों में पड़ी। हॉर्न बजा। एक मोड़ पीछे बस दिखने लगी थी। वैद जी तुरन्त खड़े हो गए। सुमेर ने बस को रुकवाया और पहले वैद जी को सहारा देकर बस में चढ़ाया और फिर स्वयं भीतर प्रविष्ट हुआ। दरवाज़ा बंद करके वह ख़ाली सीटों की तलाश करने लगा। बस पूरी भरी हुई थी। किन्तु वैद जी को देखते ही दो-तीन व्यक्ति सीट छोड़ने को तैयार हो गए। थोड़ा हिचकिचाते हुए वैद जी एक सीट पर बैठ गए। और सीट छोड़ने वाला व्यक्ति भी किसी के साथ एड्जस्ट हो गया। सुमेर को भी एक व्यक्ति ने एड्जस्ट कर लिया।

सफ़र तक़रीबन पौने घण्टे का था। इस दौरान बग़ल में बैठे एक-दो व्यक्ति वैद जी का साथ पाकर उनसे बतियाने लगे। कुशल-क्षेम व स्वास्थ्य सम्बन्धी बातों के अलावा फ़सल व गाय-भैंस के हाल तथा वर्तमान में हो रहे जीवन-मूल्यों के बदलाव पर ख़ूब चर्चा चली। बातों-बातों में सफ़र का पता ही नहीं चला।

सुमेर व उसके पिता गंतव्य पर पहुँच बस से उतरे। वहीं छोटा-सा बाज़ार था। बाज़ार के बीच ही पंडित आत्मा राम का घर था, जिसके भूमितल पर पंडित जी के बेटे की कपड़े की दुकान थी। अभी दुकान खुली ही थी। दुकान का नौकर सफ़ाई कर रहा था। पंडित जी का बेटा सामान करीने से लगा रहा था। तभी सुमेर व वैद जी दुकान में प्रविष्ट हुए। सुमेर ने उससे पूछा ― पंडित आत्मा राम जी घर पर हैं। उसने बताया कि घर पर ही हैं; दुकान पर तो अभी ठहर कर आएँगे। सुमेर ने उसे पंडित जी को यह सूचित करने का आग्रह किया कि वैद जी उनसे मिलने आए हैं।

पंडित जी के बेटे ने वैद जी के विषय में सुना था। उसने उन्हें प्रणाम किया व तुरन्त ऊपर की मंज़िल पर गया और तीन-चार मिनट में वापस लौटा; उसके पीछे-पीछे पंडित आत्मा राम जी भी लाठी के सहारे दुकान में पहुँच गए। पंडित जी वैद जी के आने की बात सुनकर स्वयं को रोक नहीं पाए। बचपन के प्रिय सखा का नाम सुनते ही उनकी आँखों के सामने सारा बचपन लौटता दिख रहा था। पंडित जी को दुकान में आते देख वैद जी भी भावुक हो गए। पंडित जी ने वैद जी को गले लगाकर उनका अभिनन्दन किया। दोनों के पुत्र नम नेत्रों से उनका यह भावपूर्ण मिलन देख रहे थे।

“ओ वैद जी! कितने बरसों के बाद आज मेरी याद आई आपको . . .,” पंडित जी कंपकंपाते स्वर में बोले।

“बस पंडित जी, याद आ गई, मिलने को जी चाहा और चला आया . . .,” वैद जी भी भावपूर्ण स्वर में बोले।

“आओ, आओ वैद जी, ऊपर घर चलो; वहीं बैठ कर बातें करते हैं . . .” पंडित जी धीरे-धीरे वैद जी और सुमेर को सीढ़ियों से ऊपर की मंज़िल में अपनी बैठक में ले गए। दोनों सोफ़े पर बैठ गए और लगे बातों की झड़ी लगाने।

पंडित जी बोले, “मुझे तो लगता है हम तक़रीबन पच्चीस-तीस बरसों के बाद मिल रहे हैं। पीछे जब आपके छोटे बेटे की शादी थी, तब मैं आपके घर आया था। उसके बाद न तो आप यहाँ आए, न ही मैं आपके पास आ सका . . .”

वैद जी भी लगे याद करने, “हाँ, शायद तभी मिले थे . . .”

“वैद जी, अब क्या उम्र हो गई भला आपकी . . .”

“ओ पंडित जी, ऊपर वाले की किरपा है बस . . . उम्र तो अब काफ़ी हो गई है . . . पचासी के आसपास हो गई होगी . . .”

“मेरे को तो छयासीवाँ बरस लग गया है . . .”

माथे की रेखाओं को ऊपर की ओर इकट्ठा करते हुए वैद जी ने पूछा ― “आप का जनम कब का है भला? कौन सा मास होगा? . . . सम्वत् तो हमारा मेरे ख़्याल में एक ही होगा . . .”

“हाँ जी, हाँ जी, सम्वत् तो एक ही होगा; मेरे जनम का महीना तो माघ था . . . आपका कौन सा था?”

“पंडित जी, मेरा तो असौज का महीना था . . . तब तो आप मेरे से चार-एक महीने छोटे हुए . . .”

“हाँ जी, हाँ जी, ऐसा ही होगा . . . मेरी अम्मा बोलती थी कि जब मैं पैदा हुआ था तो उस वक़्त पहला विश्वयुद्ध लगा ही था . . .”

“तब तो पंडित जी आप मेरे से सात-आठ महीने बड़े हुए . . . मेरा जनम विश्वयुद्ध के शुरू होने से कुछ महीने बाद का है . . .।”

“चलो जी . . . भगवान् की दया दृष्टि चाहिए बस . . . वक़्त काटना है, वैद जी, सुख से कट जाए तो अच्छा . . .”

“हाँ जी, हाँ जी, पंडित जी . . . स्वास्थ्य ठीक रहना चहिए बस . . . और क्या चाहिए . . .” फिर बात बच्चों की चली। दोनों के बेटे अच्छे खाते-पीते थे। दोनों के पोते-पोतियाँ भी अच्छे पढ़-लिख गए थे, कमाने भी लगे थे। दोनों अब परदादा भी बन गए थे। दोनों बातों में रमे हुए थे कि भीतर से पंडित जी की बहू आई और बातों के बीच में ही वैद जी को प्रणाम कर चाय-पानी के लिए पूछने लगी। पंडित जी ने बताया कि चाय तो वैद जी पीते ही नहीं, अत: वह उनके लिए दूध और सुमेर के लिए चाय व कुछ खाने के लिए लाए। वैद जी कुछ भी खाने-पीने से इन्क़ार करने लगे।

पंडित जी बोले, “ऐसा नहीं हो सकता वैद जी, आप इतनी दूर से आए हैं और इतने अरसे के बाद मिले हैं ― अभी दूध ले लो, उसके बाद नाश्ता भी लेना पड़ेगा . . .”

वैद जी बोले, “अरे पंडित जी, आप कैसे भूल रहे हो कि मैं तो घर से बाहर कुछ नहीं खाता पीता। मात्र फल, जल और दूध कभी ले लेता हूँ, पर बामण के घर का तो बिल्कुल भी नहीं . . . बामण का क़र्ज़ मैं ऊपर साथ नहीं ले जा सकता . . . हम मियाँ लोग हैं, बामणों का हमारे को नहीं रूचता . . .”

“ओ हो, वैद जी, अब ज़माना बदल गया है . . . ऐसी बातें कौन मानता है अब। यह तो हमारे-आपके ज़माने की बातें हैं। आज की पीढ़ी तो ऐसी बातों पर हँसती है . . . कुछ ले लो, कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। ज़माने के साथ चलना चाहिए . . .”

“ना . . . ना . . . ज़माना बेशक़ बदलता रहे . . . मैंने कभी हालात से समझौता नहीं किया, पंडित जी . . .”

“चलो, वैद जी, जैसा आप ठीक समझें . . . मैं आपको समझता हूँ . . . दबाव में ज़्यादा परेशान नहीं करूँगा . . . भाऊ तो चाय ले लेंगे . . .”

“अब ये तो भई नए लोग हैं . . . लछण-कुलछण नहीं समझते . . . पता नहीं क्या कुछ खाते-पीते रहते हैं। ना तो छोत-छिपत का ध्यान करते हैं, ना ही जात-पांत का . . .”

पंडित जी की बहू चाय लेकर आई और सुमेर ने पिता की ओर थोड़ा मुस्कुराते हुए देखा और चाय उठा ली, पर कुछ खाने से इन्क़ार कर दिया। सुमेर बोला - “पिता जी, हम नौकरी-पेशा में हैं; हमें ना जाने कहाँ-कहाँ आना-जाना पड़ता है, किस-किस से मिलना-बरतना पड़ता है, शिष्टाचार के नाते खाना-पीना भी पड़ जाता है . . . अब इन बातों पर तवज्जो देंगे तो कैसे जीएंगे भला . . .”

पंडित जी बोले, “ठीक है, भाऊ जी, अब वक़्त का तक़ाज़ा बदल रहा है . . .”


वैद जी बोले, “चलो, अब क्या कहें? पर पंडित जी, बातों-बातों में मैं असल बात तो भूल ही गया, जिस कारण मैंने सुमेर को तंग किया यहाँ आने को . . .”

“भला ऐसी क्या बात है, वैद जी?”

फिर वैद जी ने बताया, “अभी कुछ दिनों पहले मैंने आपको सपने में देखा . . . और आपको मैंने शिकवा करते हुए देखा . . .”

“शिकवा . . . कैसा शिकवा, वैद जी?”

“आपको याद होगा, जब हम तीसरी जमाअत में पढ़ते थे, हम किसी बात पर झगड़ गए थे और मैंने ग़ुस्से में आपकी तख़्ती तोड़ डाली थी . . . बस आपको मैंने उसी का शिकवा करते हुए देखा . . .”

“ओ-हो, वैद जी, आप भी कब की बात लेकर बैठ गए . . . बचपन में ऐसी बातें होती रहतीं हैं . . . इसमें कैसा शिकवा . . . पता नहीं आपके दिमाग़ में ऐसी क्या बात आई है . . .”

“ना . . . ना . . . यह सपना विहाग के वक़्त देखा है . . .,” ऐसा कहते-कहते वैद जी ने ज़ेबें टटोलीं और बीस रुपए का नोट निकाल कर पंडित जी को थमाने लगे, “लो पंडित जी, ये पैसे आप रख लो और एक तख़्ती ले लेना या उस तोड़ी हुई तख़्ती का हर्ज़ाना समझ कर रख लेना . . .”

“अरे वैद जी, यह आप कैसी बात कर रहे हो . . . मैंने नहीं लेने आपसे पैसे . . . यह कौन सी बड़ी बात हो गई भला?”

“आप के लिए ना हो, पंडित जी, मेरे लिए यह बड़ी बात है . . . मैंने बामण का क़र्ज़ नहीं रखना . . . मैंने सारी उम्र इस बात का ध्यान रखा; कभी किसी बामण से कुछ नहीं लिया . . . अब जब यह बात ईश्वर ने याद दिलाई है, तो भला मैं कैसे इसको नज़रअंदाज़ करूँ . . . (आत्मीय लहज़े में) हाँऊ तो मुक्ति री राह देखूँ ए, पंडित जी . . . बुरा ना मानो, राखि लो ए पैसे . . .”

पंडित जी ने वैद जी की भावना का आदर करते हुए पैसे पकड़ लिए और (बड़े आत्मीय ढंग से अपनी बोली में) नम आँखों से बोले ― “वैद जी, तुसे बड़े पक्के मियाँ हो . . . अबे कुण मानो ए गल्लाँ . . . चलो तुसा रे भी दिला दा नहीं रहणी चाई ओ . . .”

वैद जी की ऐसी बात सुन सुमेर भी हैरान था। वैद जी ने उसे भी यह बात नहीं बताई थी। सब बातें होने के बाद वैद जी ने पंडिताईन को नमस्ते कहा, पंडित जी के परपोतों को कुछ पैसे दिए और फिर पंडित जी व उनके परिवार से विदा ली और सुमेर के साथ लौट चले। ¡