बारहखम्भा / भाग-2 / अज्ञेय

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यद्यपि श्यामा ताँगे पर यही इरादा करके बैठी थी कि वह पहाड़गंज में अपने क्वार्टर में जा कर कोई किताब ले कर पढ़ते-पढ़ते सो जाएगी (वर्षों से वह सोने के इस नुस्खे को काम में लाती थी), पर जब ताँगा एक जगह मुड़ा और उसने अपनी कलाई-घड़ी की ओर दृष्टि डाली, तो वह सहसा चौंक पड़ी। जैसे उसने कोई महापातक कर डाला हो। घड़ी का छोटा वाला काँटा अभी नौ की संख्या से इधर ही खड़ा घूर रहा था, और बड़ा काँटा तो उससे भी पीछे कहीं अटका हुआ था। बिगड़ी हुई मोटर के सामने खड़ी हो कर उसे ऐसा प्रतीत हुआ था मानो रात अधिक हो गयी हो, पर अभी तो पौने नौ भी नहीं था। अपने क्वार्टर में इतना जल्दी लौटना उसे अच्छा मालूम नहीं हुआ।

उसके मन में एक बार इच्छा हुई कि वह लौट कर हेमचन्द्र के पास चले। करुणा-सी एक भावना का उद्रेक हुआ। चले तो दोनों एक साथ थे। यदि मोटर चलती, जैसा कि उसे चलना चाहिए था, तो दोनों न मालूम कितनी देर तक साथ रहते, कहाँ जाते! कोई प्रोग्राम तो था नहीं, पर बनते-बनते न जाने क्या प्रोग्राम बन जाता! शायद वे इंडिया गेट पहुँच जाते, और वहाँ कुछ गम्भीर, कुछ हलकी, कभी न खत्म होने वाली बातें छिड़ जातीं... रात अपनी ही थी, क्योंकि कल रविवार था।

केवल मोटर के बिगड़ने से सारी सम्भावनाएँ नष्ट हो गयीं। शनिवार की रात्रि की अज्ञात सम्भावनाएँ। वह मन-ही-मन खीझ उठी। यह मनहूस मोटर। उस बार भी ऐसा ही हुआ। हेमचन्द्र ने उस बार परिहास में मोटर के विषय में कहा था 'तुमसे ईर्ष्या है न' -बात तो कुछ ऐसी ही मालूम होती है। यद्यपि है यह हँसी की बात। जब-जब उसे ऐसा मालूम हुआ कि वह हेमचन्द्र को खूब समझ पा रही है - थोड़ी ही देर में शायद उसका सम्पूर्ण अर्थ खुल जाय, तब-तब यह मोटर कम्बख्त इन दोनों के बीच में आ कर एक जड़ महापिंड की तरह खड़ी हो गयी, और फिर लाख कोशिशों के बाद भी रंचमात्र नहीं डिगी।

श्यामा की खीझ बढ़ी, और न मालूम कैसे उसमें यह भावना आयी कि इस प्रकार हेमचन्द्र को अकेला छोड़ कर नहीं आना चाहिए था। मोटर बिगड़ गयी, तो इसका सारा कसाला हमेशा बेचारा हेमचन्द्र अकेला ही क्यों झेले! यह तो करीब-करीब वैसा ही हुआ कि सुख में वह हेमचन्द्र के साथ है और दुःख में नहीं। मीठा-मीठा हप, कड़वा-कड़वा थू। ऐसी ही कितनी बातें उसके दिमाग में फिर गयीं, जिनका नतीजा यह हुआ कि जब ताँगा कनॉट सर्कस के भूलभुलैया को पार कर पहाड़गंज ले जाने वाली सड़क के रहस्यों में प्रवेश करने ही वाला था, तो श्यामा ने ताँगेवाले से करीब-करीब निर्वैयक्तिक तरीके से जल्दी में कहा - “लौटाओ।”

ताँगेवाला दिल्ली की मेमसाहिबाओं से सम्पूर्ण रूप से परिचित था, उसने बिना कुछ प्रतिवाद किये ताँगे को लौटाया मानो वह कोई विचार-शून्य यन्त्र हो। निश्चिन्त होने के लिए उसने पूछा, “वहीं चलें?”

ताँगेवाले ने बिलकुल स्वाभाविक-सरल रूप से प्रश्न पूछा था, क्योंकि उसे तो घोड़े को चला कर कहीं जाना था, पर श्यामा को ऐसा मालूम हुआ जैसे उसके स्वर में कुछ श्लेष था। शायद ताँगेवाला स्त्री-चरित्र में निश्चय के अभाव पर हँस रहा है। ताँगेवाला था तो ताँगेवाला, पर था वह पुरुष। श्यामा एक क्षण के लिए तिलमिला गयी। मानो उसे यह दिखाने के लिए कि वह भी स्वतन्त्र इच्छाशक्ति रखती है, बोली, “वहाँ क्यों? चलो - “ कह कर वह खुद ही रास्ता बताने लगी।

इस प्रकार से श्यामा रमानाथ के फ्लैट में पहुँची थी। यों तो उसके कई मित्र तथा जान-पहिचान वाले इस तरफ रहते थे, वह कहीं भी जा सकती थी। पर एक मात्र रमानाथ के विषय में ही यह निश्चय था कि वह इस समय घर पर ही होगा, क्योंकि हर शनिवार को उसके यहाँ एक निजी गोष्ठी-सी जमती थी जिसमें कविता-पाठ तथा गायन से ले कर राजनीतिक बहस तक कुछ भी हो सकती थी। हर तरह के लोग इसमें आते थे, कुछ स्त्रियाँ भी आती थीं।

श्यामा इस गोष्ठी में जा कर शामिल हो गयी। उस समय काली अचकन वाले युवक का परिचय शुरू हो रहा था। रमानाथ ने संक्षिप्त परिचय दिया जिसमें से श्यामा के पल्ले केवल इतना ही पड़ा कि इनका नाम अल्ताफ हुसैन है, और यह कोई प्रगतिशील कवि हैं।

कवि-परिचय के बाद स्वाभाविक रूप से कविता-पाठ हुआ। अल्ताफ साहब मानो शेर सुनाने के लिए उधार खाये बैठे थे। उन्होंने एक के बाद एक कई कविताएँ सुनायीं। श्यामा ने कुछ सुना, कुछ नहीं सुना। उसके मन का एक हिस्सा अभी बिगड़ी हुई मोटर के इर्द-गिर्द चक्कर काट रहा था। फिर भी जब लोग वाह-वाह करने लगे, तो उसे ध्यान देना पड़ा, और ध्यान देने पर उसे लुत्फ आ गया। अल्ताफ साहब की कविताएँ सचमुच अच्छी थीं। प्रगतिशील कविता के नाम से बाजार में जो चीज चलती थी, उसके प्रति श्यामा के मन में विशेष श्रद्धा नहीं थी; रमानाथ के कारण उसे बहुत से प्रगतिशील कवियों की रचनाएँ सुननी पड़ी थीं। इन लोगों में बहुत कम लोग इस मोटी बात को समझते ज्ञात होते थे कि प्रगतिशील कविता के लिए भी सबसे पहले कविता होना जरूरी है। पर अल्ताफ साहब तो अपवाद निकले। उनकी कविताएँ उर्दू की अच्छी परम्परा में होने के अतिरिक्त युग का मुकुर थीं। प्रत्येक शेर में युग-मन की तड़पन थी। चोरबाजारी पर उनकी कविता बहुत पसन्द की गयी क्योंकि उसमें अल्लामियाँ और सरकार को भी घसीटा गया था।

जब कविता हो चुकी, तो सब लोगों ने दिल से कवि की तारीफ की। श्यामा बोली, “यों तो आपकी सभी कविताएँ सुन्दर थीं, पर आप उन कविताओं में सबसे अधिक चमके हैं जिनमें किसी का विरोध करना है।” कह कर वह अपनी वाचालता से आप जोश में आ कर बोलीं, “यही शायद प्रगतिशील साहित्य का क्षेत्र है - किसी का विरोध करना।” उसने सबको निर्भीकता से घूरा।

'विरोध करना' शब्द पर श्यामा ने इस प्रकार जोर दिया, मानो वह कह रही हो खाहमखाह विरोध करना। गृहपति के नाते रमानाथ जरा सँभल कर बैठा। वह शायद कुछ कहने जा रहा था, पर अल्ताफ हुसैन ने उससे पहले कहा, “आप जो फरमा रही हैं, वह एक हद तक ठीक है; जब तक सारी दुनिया में सोशलिज्म नहीं हो जाता है, तब तक हमारे मुखालिफ हैं और हमें डट कर उनकी मुखालिफत करनी पड़ेगी। पर एक तो यह मुखालिफत महज मुखालिफत के लिए नहीं है, दूसरे हम इसके साथ ही एक नयी दुनिया की तामीर भी कर रहे हैं। नयी शायरी रजतपसन्द अनासरों की मुखालिफत के साथ-साथ नयी दुनिया की तामीर की आवाज भी बुलन्द करेगी।”

“पर आपकी कविता में विरोध के ही तत्त्व हैं”, श्यामा बोली। इसके बाद वह बिलकुल अप्रासंगिक रूप से बोली - (शायद बिगड़ी हुई मोटर कहीं उसके मन में करकरा रही थी) “और आप लोगों में मशीन के प्रति जो अगाध श्रद्धा है, वह मेरी समझ में नहीं आती। मैं कहती हूँ नयी दुनिया का सृजन मनुष्य करेगा, मनुष्य...”

रमानाथ ने उसकी उद्दीप्त वाक्यधारा पर ब्रेक-सी लगाते हुए कहा, “अवश्य, पर वह इस नये जगत् का निर्माण मशीनों के सहारे करेगा।”

अल्ताफ हुसैन ने बड़ी नम्रता से, मानो जिस दुश्मन को पछाड़ दिया उससे निष्ठुरता क्या की जाए इस भावना से, कहा, “जी हाँ, और क्या?”

पर उधर से वह दूसरी महिला केतकी, जो अब तक चुप बैठी थी, और जिसने अभी आलोचना में भाग नहीं लिया था, आवश्यकता से अधिक जोश में बोल उठी, “और इन मशीनों को आप मनुष्य से अलग कैसे कर सकती हैं श्यामाजी? क्या मशीन उसी प्रकार से मनुष्य जाति के युग-युग के कौशल का पुंजीभूत रूप नहीं है जिस प्रकार से हमारे पुस्तकालय मनुष्य जाति के युग-युग के ज्ञान के पुंजीभूत रूप हैं?”

“ज्ञान के, और अज्ञान के।” - श्यामा ने इतनी बात को निर्वैयक्तिक रूप से कह कर सहसा केतकी को चुनौती की दृष्टि से देखा, बोली, “क्या आप प्रगतिशील लोग यह मानते हैं कि सभी पुस्तकें ज्ञान की द्योतक हैं? क्या कोई-कोई पुस्तक अविद्या और अज्ञान की विराट् पहाड़ी के रूप में मनुष्य-जाति के मार्ग को रोक कर खड़ी नहीं हुई? और किसी पुस्तक का नाम लूँगी तो बात बढ़ेगी, इस कारण मैं नीत्शे की पुस्तकों को लेती हूँ। इन पुस्तकों ने मनुष्य-जाति को नहीं तो उसके एक हिस्से को भटकाया। ऐसी बहुत-सी पुस्तकों के नाम लिए जा सकते हैं।” कह कर उसने स्वर को कुछ नीचा किया। वह समझ रही थी कि उसने एक ऐसी बात कह दी है जिससे उसका पल्ला भारी पड़ गया है, बोली, “मैं यही मशीन के विषय में कह रही थी। सभी मशीनें अच्छी नहीं होतीं। जैसे एटम बम, क्या वह अच्छा है? क्या उसके बनाने में जो कौशल लगा है, उसे अपकौशल कहना अधिक उचित नहीं होगा? अपकौशल शब्द मैं इसलिए इस्तेमाल कर रही हूँ कि इससे तगड़ा शब्द मुझे नहीं सूझ रहा है।”

रमानाथ बोला, “पर अपकौशल भी तो एक कौशल है। जहाँ आदिम मनुष्य की मार करने की शक्ति उसकी पेशियों तथा स्नायुओं तक सीमित थी, वहाँ आधुनिक मनुष्य ने अपनी उस शक्ति को अकल्पनीय रूप से, पहले के युगों के लिए अकल्पनीय रूप से, बढ़ा लिया है।”

“पर क्या यह अच्छा हुआ है?” श्यामा ने तड़ाक से पूछा; फिर बोली, “मेरा इसीलिए कहना है कि मशीन पर भरोसा करना ठीक नहीं, मनुष्य अपने ही ऊपर भरोसा करे। मैं चाहती हूँ कि सब लोग चंडीदास की उस उक्ति पर विश्वास करें कि 'सबसे ऊपर मनुष्य सत्य है, उसके ऊपर कुछ नहीं है...”

केतकी ने उधर से कहा, “इसमें क्या शक है कि मनुष्य सत्य है, पर कौन-सा मनुष्य सत्य है, टाटा-बिड़ला-मोदी या उनके द्वारा शोषित कल्लू-हरकू-रमजान?”

रमानाथ ने देखा कि अब तो फिर वही बहस होने जा रही है जो इस कमरे में सैकड़ों बार हो चुकी है, जो बहस शायद अभी-अभी जो भारत स्वतन्त्र हुआ है, उसमें सर्वत्र-राजधानी के रंगमहलों से ले कर कृषक के कुटीरों तक हो रही है। यद्यपि वह स्वयं नरम प्रगतिशील था, उसे कुछ भय-सा हुआ क्योंकि सामने की घड़ी में दस बज रहे थे। उसने जल्दी से बीच-बचाव-सा करते हुए कहा, “हम लोग तो बड़े काँटे की बहस में पड़ गये। मैं यह नहीं कहता कि इन तर्कों का जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं, सम्बन्ध तो है, और बहुत है - पर इन दोनों में कौन-सा पक्ष सही है, इसका इस बैठक में, और इस कारण किसी भी बैठक में निर्णय नहीं होने जा रहा है। इसलिए मैं यह प्रस्ताव करता हूँ कि केतकी जी एक गाना सुनावें, और उसके बाद - “ कह कर उसने आकस्मिकता के साथ लहजा बदल कर कहा, “दस बज चुके हैं, किसी को ख्याल है?”

सबको शेषोक्त बात पर आश्चर्य हुआ, यद्यपि प्रत्येक की कलाई पर एक घड़ी बँधी हुई थी, और सामने एक टाइमपीस भी रखा हुआ था। अल्ताफ तो एकदम उछल-सा पड़ा; बोला, “हाय, लोदी रोड की आखिरी बस तो छूट गयी होगी!” कह कर फिर केतकी की ओर देख कर मानो साहस संचय करता हुआ बोला, “गाइए, गाइए, जल्दी गाइए...”

यद्यपि केतकी दस बज जाने की खबर से चौंक पड़ी थी, फिर भी बहस के मँझधार में छूट जाने से उसे अफसोस हुआ था। गाने का प्रस्ताव उसे नापसन्द नहीं था, फिर भी बोली, “अब आपको जल्दी क्या है, आपकी बस तो छूट ही गयी...” वह मुस्करायी।

प्रथम परिचय के लिए कुछ अधिक जोश दिखाते हुए अल्ताफ ने कहा, “केतकी जी, बस की भली चलायी, अगर आपका गाना सुनने के लिए सौ बसें भी छूट जायें, तो कोई हर्ज नहीं।” कहकर वह अचकन की लम्बी आस्तीन को कुछ चढ़ा कर सँभल कर बैठ गया, मानो किसी लड़ाई के लिए तैयार हो चुका हो।

उसकी इस मुद्रा ने हँसी का उद्रेक किया। कम से कम केतकी खिलखिलाकर हँस पड़ी; बोली, “कवियों में बस यही बात बुरी है...”

सब लोगों ने इस पर कहकहा लगाया, केवल श्यामा नहीं हँसी, कवि को अजीब दृष्टि से घूरती रही। केतकी ने अपने वक्तव्य का स्पष्टीकरण करते हुए, पर अपनी झेंप को हँसी से ढकने की व्यर्थ चेष्टा करते हुए अल्ताफ से कहा, “आपने यह अच्छी कही। आपने कभी मेरा गाना नहीं सुना, और लगे यों ही तारीफों के पुल बाँधने!”

अल्ताफ समझ चुका था कि वह कुछ अधिक कह गया था। उसने कनखी से एक बार रमानाथ को देखा, फिर बोला, “माफ कीजिए, जब रमानाथ भाई ने आपसे गाने के लिए कहा, तभी मैं समझ गया कि हम आपसे क्या उम्मीद कर सकते हैं। रमानाथ भाई के टेस्ट पर मुझे काफी भरोसा है।” उसने ठहर कर मानो सारी बातों को हँसी में डुबा देने के लिए कहा, “अब तो मेरी बस छूट ही गयी है, सारी रात भी प्रोग्राम चले तो मैं तैयार हूँ... मुझे तो बहरहाल यहीं सोना है, अब इतनी रात को मुझसे यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि मैं तीन-चार मील चल कर लोदी रोड जाऊँ।”

रमानाथ ने अभय देते हुए कहा - “घबड़ाओ नहीं, तुम्हें या तो केतकी जी लोदी रोड तक लिफ्ट दे देंगी - “ फिर कुछ सोच कर बोला, “मैं भी साथ आऊँगा - या यहीं तुम्हारे सोने की व्यवस्था की जाएगी।”

अल्ताफ ने अचकन के एकमात्र बन्द बटन को ढीला करते हुए कहा, “रमानाथ भाई, तुम तो मुझे ऐसे इतमीनान दिला रहे हो मानो मैं किसी जंगल में शेरों के बीच फँस गया हूँ, और बचने के लिए गिड़गिड़ा रहा हूँ। तुम तो मुझे जानते हो, सन् ४२ से जहाँ रह गया, वहीं घर रहता है।”

रमानाथ को एकाएक कुछ स्मरण हो आया, सबकी तरफ देख कर क्षमा-याचना के स्वर में बोला, “मैं यह बताना भूल गया था कि अल्ताफ साहब मेरे साथ जेल में थे।”

श्यामा ने देर से कुछ नहीं कहा, मौका पाती हुई बोली, “आपने इस बात को ऐसे बताया मानो अल्ताफ साहब के और सब परिचय गौण हों, और वह जेल जाने वाला परिचय ही मुख्य हो।”

अल्ताफ ने स्वयं ही उत्तर दिया, “है भी यही।”

“क्यों?” श्यामा ने पूछा।

“इसलिए कि नहीं तो मैं कुछ भी नहीं रह जाता। जेल जाना कम से कम जाहिर करता है कि मैंने अपने ख्यालात के लिए तकलीफ उठायी, चाहे वह तकलीफ कितनी भी कम हो। अच्छे और ऊँचे ख्यालात अपने में अच्छे हैं, पर सिर्फ ख्यालात से क्या होता है? दुनिया को ऐसे लोगों की जरूरत है जो अपने ख्यालात के लिए तकलीफ उठा सकते हैं, फाँसी पर चढ़ सकते हैं। हमेशा ऐसे ही लोगों ने दुनिया को बदला है।”

रमानाथ ने देखा कि फिर मामला गम्भीर विषयों की ओर जा रहा है। क्योंकि वह जानता था कि अगले ही क्षण श्यामा कहेगी, दुनिया को केवल क्रूस और फाँसी पर चढ़ने वालों तथा जेल जाने वालों ने ही नहीं बदला है, बल्कि न्यूटन, गेटे, शेक्सपियर, रवीन्द्रनाथ, आइनस्टाइन ने भी उसे बदला है; इसलिए उसने जल्दी से बात को मोड़ देते हुए कहा, “भाई अल्ताफ, तुम अब तो बिल्कुल ही इनकारिजिबल हो गये; जब तक तुम कांग्रेसियों के साथ थे, इतने गये-बीते नहीं थे, पर जब से तुम पर प्रगतिशीलों का साया पड़ा तब से तुम हर समय अपने वेद का डंका बजाने के लिए तैयार रहते हो। कौन इनकार करता है कि बस छोड़ कर तुमने बहुत भारी कुर्बानी की है, पर अब कुर्बानी का नतीजा तो लो... गाना सुनो।”

अल्ताफ फिर भी कुछ कहने जा रहा था, पर रमानाथ ने उसकी तरफ कुछ आज्ञामूलक और कुछ प्रार्थनामूलक इंगित किया, और वह मुँह बा कर चुप रह गया।

रमानाथ ने केतकी से कहा, “केतकी जी, आप गाना शुरू करिए नहीं तो - “ आगे उसने स्पष्ट नहीं किया।

केतकी बोली, “गाऊँगी, गाती हूँ, पर एक शर्त है, आप भी गाएँगे...”

सबने इसका जोरों से समर्थन किया। फिर सब लोग चुप हो गये। थोड़ी देर में कमरा मधुर गायन से गूँज उठा। अल्ताफ ने चौंक कर आँखें बन्द कर लीं। मानो गाना हृदय का विषय हो, श्रवणेन्द्रिय का नहीं। सबने अपने को अपनी-अपनी कुर्सियों पर शिथिल कर दिया। बड़ी देर तक केतकी गाती रही। फिर एकाएक उसने गाना बन्द कर दिया। जब तक दूर तक हवा में गाने की लेशमात्र गूँज रही, तब तक कोई कुछ न बोला, फिर सबने खुलकर तारीफ की।

रमानाथ बोला - “केतकी जी, आज तक आपने कभी इतना अच्छा नहीं गाया था। आज मानो आपने इस गाने में अपना सारा हृदय ढाल दिया। बहुत खूब...”

अल्ताफ ने गद्गद होकर कहा - “मेरा दिल्ली आना सफल हो गया। कल्चर के ख्याल से मैं अपने लखनऊ को दिल्ली से ऊँचा समझता हूँ, पर दिल्ली में ऐसी आर्टिस्ट दो-चार भी हुईं तो पल्ला भारी पड़ेगा।”

न मालूम क्यों सब लोग अल्ताफ की इस बात को सुन कर हँस पड़े, स्वयं केतकी सबसे जोर से हँसी। बोली, “माफ कीजिएगा, मैं कवियों की किसी बात पर विश्वास नहीं करती।” फिर एकाएक कलाई-घड़ी की ओर देखती हुई बोली, “अब तो बहुत देर हो गयी, उठना चाहिए” - कह कर उसने उठने का रुख किया।

तभी श्यामा बोली, “पर अभी तो रमानाथजी गाएँगे।”

केतकी बैठ गयी। फिर रमानाथ का गाना हुआ। रमानाथ ने गाया कम और आलाप अधिक किया। अल्ताफ ने फिर आँखें बन्द कर लीं। श्यामा टकटकी बाँधे रमानाथ को देखने लगी, जैसे आँखों के जरिये से ही वह गाना सुन रही हो। इस बीच में उसे कई बार हेमचन्द्र और उसकी बिगड़ी हुई मोटर की याद आयी थी, पर जब रमानाथ गाने लगा, तो वह इन बातों को, यहाँ तक कि अपने को भी भूल गयी। उसका अपना कुछ रह नहीं गया। उसे ऐसा मालूम हुआ जैसे रमानाथ उसके रन्ध्र-रन्ध्र में, प्रत्येक रोम-कूप में प्रविष्ट हो कर छा गया है। वह रमानाथमय हो गयी, उसका अपना कुछ नहीं रहा।

जब रमानाथ गीत समाप्त कर चुका, तो ग्यारह बज चुके थे। सब लोग जल्दी से उठे, केवल अल्ताफ विशेष जल्दी में नहीं मालूम पड़ा। वह केवल उठ खड़ा हुआ।

केतकी विदा होने लगी, तो रमानाथ अल्ताफ से बोला, “क्या तुम यहीं रहोगे, या जाओगे?”

“जैसा कहो।”

“तुम्हें सवेरे कुछ ऐसा काम है जो लोदी रोड गये बगैर नहीं हो सकता?”

“है भी और नहीं भी।”

“डायलेक्टिक्स न चलाओ, जरूरी काम हो तो केतकी जी तुम्हें लिफ्ट दे सकती हैं; नहीं तो यहीं सो जाओ, मुझे खुशी होगी।”

अल्ताफ ने केतकी की तरफ देखते हुए कहा, “जरूरी काम है।”

“तो चलिए - केतकी बोली, “मैं पहुँचा देती हूँ।”

रमानाथ पेशावरी जूते के स्ट्रैप चढ़ाने के लिए हाथ बढ़ाते हुए बोला, “मैं भी चलता हूँ।”

केतकी बोली, “कोई जरूरत नहीं।”

“नहीं मैं चल सकता हूँ, यहाँ करना ही क्या है? दरवाजा बन्द कर दूँ...”

“नहीं, जरूरत नहीं,” - केतकी ने दृढ़ता से कहा।

तब रमानाथ मान गया। अल्ताफ ने झुक कर सबको आदाब किया और पास पड़े हुए एक पोर्टफोलियो को उठा कर अदब के साथ केतकी के पास खड़ा हो गया। केतकी ने रमानाथ से कहा, “मैं इन्हें दस मिनट में पहुँचाती हूँ”, कह कर वह जीना उतरने लगी। साथ-साथ अल्ताफ अचकन सँभालता हुआ लपकता हुआ चला।

सब लोग विदा हो गये। सबसे अन्त में श्यामा रह गयी। रमानाथ बोला, “मैं आपको पहुँचा आऊँ?”

“नहीं, मैं खुद जा सकती हूँ”, श्यामा ने अप्रत्याशित तिखाई से कहा।

रमानाथ बोला, “उस सम्बन्ध में मैंने कभी सन्देह नहीं किया, मैंने तो इसलिए कहा कि रात अधिक हो गयी।”

“यह तो देख रही हूँ।” कह कर उसने अद्भुत दृष्टि से रमानाथ को देखा, फिर कुर्सी पर बैठ गयी।

रमानाथ ने एक बार चारों तरफ देखा, फिर बोला, “मुझे तो भूख लगी है, मैं खाने जाता हूँ। आप-तुम कुछ खाओगी?”

“नहीं-नहीं, तुम खाओ, मैं देखती हूँ... मैं तो खा कर आयी थी।” फिर एकाएक बोली, “बैठो-मैं तुम्हारा खाना लगा देती हूँ।”

“खाना तो लगा-लगाया होगा, आज के दिन मेरा नौकर सिनेमा जाता है, और मैं ठंडा खाना खाता हूँ...”

मना करने पर भी श्यामा ने उठ कर खाना लगा दिया, फिर एकाएक बोली, “तुम्हारी श्रीमती जी कब आ रही हैं?”

“अभी नहीं आ रही है,” - रमानाथ ने संक्षिप्त रूप से उत्तर दिया, फिर एकाएक खाने लगा।

श्यामा ने भी कुछ नहीं पूछा।

रमानाथ खाता रहा, और श्यामा उसके खाने को नहीं, उसे देखती रही।

अगले दिन हेमचन्द्र की जब नींद खुली, तो उसने देखा कि आठ बज रहे हैं। वह हड़बड़ा कर उठ पड़ा, मानो उसे रेलगाड़ी पकड़नी हो। उसने जल्दी-जल्दी मुँह धोया, कपड़े पहने और जा कर मोटर पर सवार हो गया।

पहाड़गंज में श्यामा के क्वार्टर के सामने पहुँच कर ही उसने दम लिया।

श्यामा चाय पी रही थी, उसने हेमचन्द्र का स्वागत किया। वह बिना निमन्त्रण के ही चाय में शामिल हो गया। सामने जो कुछ पड़ा था, उसे दुर्भिक्ष-पीड़ित की तरह खा कर उसने चीनी मिली हुई चाय में और चीनी डाल कर पीना शुरू किया; एक ही घूँट में प्याले को अधिया कर उसने कहा, “वंडर आफ वंडर्स, कल तुम्हारे चले जाने के पन्द्रह मिनट के अन्दर ही मेरी मोटर ठीक हो गयी।”

श्यामा ढेर-सा बिस्कुट आदि मेज पर रखती हुई बोली, “हाँ?”

“फिर मैंने प्रतिहिंसा की भावना से मोटर को खूब दौड़ाया।”

“और वह दौड़ी?” श्यामा ने अजीब कड़ुवेपन से पूछा, और मक्खन लगे हुए बिस्कुट हेमचन्द्र की ओर बढ़ा दिये।

“हाँ, वह दौड़ी, खूब दौड़ी।” वह कुछ और भी कहने जा रहा था, पर एकाएक ब्रेक-सा लगा कर बिस्कुट मुँह में डालता हुआ बोला, “तुम अपनी सुनाओ।”

श्यामा ने कुछ उत्साह नहीं दिखाया। दोनों चुपचाप चाय पीने लगे। हेमचन्द्र ने कुछ आश्चर्य में कनखी से एक बार श्यामा को देखा।

श्यामा सोच रही थी। अपने लिए एक और प्याला चाय बनाती रही। फिर एकाएक बोली, “मेरे पास मोटर तो है नहीं, जो मैं उसे दौड़ाती। मैं आ कर चुपचाप सो गयी।”

“सो गयी?” हेमचन्द्र ने कुछ आश्चर्य के साथ कहा, मानो सोना कुछ आश्चर्यजनक बात हो। प्रचुर मक्खन लगा हुआ बिस्कुट उसके गले में अटक गया।

वह इतना ही बोला, “ओह!”