बारहखम्भा / भाग-6 / अज्ञेय

Gadya Kosh से
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अल्ताफ ने मानो नयी दिलचस्पी से श्यामा को सिर से पैर तक देखा। दबी आँखों से, पर भरपूर। फिर बोला, “...यहीं आ जाइए न, जगह तो है; या कि जनाने डब्बे में बैठेंगी?”

केतकी ने कहा, “चलिए, आपको सफर के लिए साथी भी मिल गया। आप बड़े खुशकिस्मत हैं।”

अल्ताफ ने कुछ ढिठाई के साथ उत्तर दिया, “जी हाँ, इसमें क्या शक है। शायर होता ही है खुशकिस्मत।” फिर श्यामा की ओर उन्मुख हो कर उसने पूछा, “कहाँ तक मेरी खुशनसीबी की दौड़ है... यानी कि आप कहाँ तशरीफ ले जा रही हैं?”

एकाएक श्यामा को लगा, उसका दम घुट रहा है। वह कहाँ आ कर फँस गयी है -क्यों ये लोग उसके पीछे पड़े हैं। उसका मन हुआ चिल्ला कर कह दे - नहीं मुझे कहीं नहीं जाना है, और तुम लोगों की किस्मत का मेरे साथ कोई सम्बन्ध नहीं, कोई सम्बन्ध नहीं। पर वह अपने को हास्यास्पद नहीं बनाना चाहती - केतकी के सामने कदापि नहीं, अल्ताफ की उसे उतनी परवाह नहीं, वह उसकी दुनिया से बाहर का है। पर केतकी भी कौन है - उसकी दृष्टि में वह क्यों ऊँची बनी रहना चाहती है, केतकी के कुछ सोचने की परवाह उसे क्यों है? है, क्योंकि हेमबाबू - क्योंकि हेम - क्योंकि केतकी हेमचन्द्र की भी परिचित है, और श्यामा हेम की दृष्टि में हास्यास्पद होने का जोखिम नहीं उठाना चाहती। पर क्या वह अभी हास्यास्पद नहीं हो गयी है - हेम तो स्टेशन से घर गया है, और वह -उसने चाहा, कह दे कि वह तो यहीं गाजियाबाद - या शाहदरा ही जा रही है, पर एकाएक इतने से भी झूठ पर उसे ग्लानि हो आयी - ये सब बहाने ही मनुष्य के शत्रु हो जाते हैं, स्वयं उलझन बन कर फाँस लेते हैं, उलझन से बचाते नहीं... और वह बोली, “नहीं, शायर साहब, खुशकिस्मती मेरी होती - पर मैं जा नहीं रही हूँ कहीं भी, मैं तो किसी को मिलने आयी थी, फिर सोचा कि आपको भी सी-ऑफ करती चलूँ -” वह हँस दी मानो अब तक तो अल्ताफ को वह बना ही रही थी।

“देख ली आपने अपनी खुशकिस्मती की हकीकत!” केतकी ने हँस कर कहा, “जैसे शायर तोताचश्म होते हैं, वैसी ही उनकी किस्मत भी होती है।”

“जी नहीं, यों कहिए कि शायर मुस्तकिल होता है, उसकी किस्मत मुजमहिल।”

श्यामा मना रही थी कि गाड़ी जाय और वह मुक्ति की साँस ले। पर अभी कुछ मिनट बाकी थे - गाड़ियों के छूटने के वह दृश्य सबसे बुरे होते हैं जब वह किसी तरह घिसटती-काँखती चलना आरम्भ करती है और सबके मन में सन्देह का छिपा हुआ साँप फन उठाता है - कहीं वह प्लेटफार्म से बाहर निकलते-निकलते रुक न जाय!

सन्देह और आशा एक ही भावना के दो पहलू हैं शायद : जिस चीज की हम जितनी अधिक आशा करते हैं; उस पर उतना ही सन्देह भी करते हैं। हर चीज के शायद ऐसे ही दो पहलू हैं। जो हम जितना अधिक चाहते हैं, उससे हम उतना ही अधिक डरते हैं।

...केतकी शायद लौटती हुई उसे लिफ्ट देगी। क्या हुआ - वह भी सही। जिन्दगी सहने के लिए ही बनी है : केतकी भी सही। पर नहीं, इस मूड को प्रश्रय नहीं देगी। क्यों वह बार-बार केतकी से अपनी तुलना करती है? माना कि भेद देखने के लिए ही तुलना करती है, पर कुछ तो कहीं साम्य होता है तभी तो तुलना होती है! हाँ, केतकी भी वंचित है, वह भी - हाँ, है ही, उसे मान ही लेना होगा। पर केतकी वंचित हो कर अपने को भुलावे देती है, और उनके झूठ में फँस भी जाती है; और वह - वह भुलावा नहीं देती, सस्ते उपाय नहीं ढूँढ़ती। यानी केतकी वंचिता है, कुंठित भी है; वह वंचिता तो है, पर कुंठित - अभी नहीं।

पर क्या वह झूठ नहीं कहती है - स्वयं अपने से झूठ? केतकी अल्ताफ जैसों के पीछे दौड़ती है। बहुत दूर नहीं दौड़ पाती होगी, पर दौड़ती है। पर वह - श्यामा? अल्ताफ से रमानाथ किस बात में अच्छा है - यह क्या अच्छाई है कि एक जानते-बूझते खिलवाड़ करने वाला है, यानी केवल एक फ्लर्ट रूमानियत का सौदागर, झाबे में सस्ती मनियारी सजाए, सुर से आवाजें लगाता हुआ फेरीवाला - तो दूसरा अनजाने में वही है, सस्ती भावुकता में धुत् रहने वाला नशेबाज! कोई भी गैर-जिम्मेदार प्रेम-संकेत निरी वल्गैरिटी है, चाहे वह नशे में किया गया हो, चाहे होश में : उसकी वल्गैरिटी का निर्णय नशे की मात्रा पर नहीं, जिम्मेदारी की मात्रा पर निर्भर है। और नशा तो गैर-जिम्मेदारी का एक हीला है! शराब श्यामा ने भी पी है, पर उसे वह कभी बहाना नहीं बना सकी है। शराब विवेक को भोंडा कर देती है, ठीक; पर जो अविवेक पीने वाले में पहले से मौजूद नहीं है, उसे पैदा नहीं कर देती, इसलिए - पर वह उलझती जा रही है। असल सवाल वही है : रमानाथ किस बात में अल्ताफ से अच्छा है? नहीं, यह भी नहीं; उनकी तुलना भी श्यामा का दम्भ है। वह स्वयं किस बात में केतकी से अच्छी है, जबकि प्रेम को परचून बना कर बेचने वालों के साथ वह भी उसी प्रकार हिल-मिल सकती है... उसमें प्रतिक्रिया होती है, हाँ; पर क्या जाने केतकी में भी होती हो? वह झूठा अहंकार है उसका; वह भी झूठ के सहारे जी सकती है - स्वयं झूठ की ओट खड़ी करती रही है -

गाड़ी ने सीटी दी। श्यामा ने जाना, केतकी और अल्ताफ धीरे-धीरे कुछ कुछ बातें कर रहे हैं, उसकी अन्यमनस्कता का उन्हें बोध है। वह उतर कर प्लेटफार्म पर आ गयी। अपने को सँभाल कर उन्हें देखने लगी। यह भी मानो उन्होंने जान लिया; उसके पीछे-पीछे वह दोनों भी उतर आये। सहसा अल्ताफ ने कहा, “अच्छा केतकी जी, इजाजत दीजिए : आपकी वजह से अब की बार दिल्ली के कयाम की याद बहुत मीठी रहेगी - और श्यामा जी,” अल्ताफ तनिक-सा उसकी ओर मुड़ा, “आपने यहाँ फिर दर्शन दे कर मुझ पर जो किरपा की है उसके लिए मैं...”

श्यामा ने हँसते हुए कहा, “रहने दीजिए शायर साहब!” फिर, हँसी में ही एक व्यंग्य छिपाये हुए, जिस पर स्वयं उसे अचम्भा हुआ, बोली, “मैं तो सोच रही थी, चलते-चलते भी दो-एक शेर हो जाते तो - हमें पीछे याद करने को कुछ रह जाता - “ कुछ रुक कर, “लेकिन गाड़ी तो चल दी - “ उसका मन हुआ कि कह जाय 'गाड़ी वैरिन,' - लोकगीतों में तो 'गाड़ी सौतिन!' - पर उस लोभ को उसने दबा दिया।

अल्ताफ ने केतकी से मिलाने के लिए हाथ बढ़ाया था। केतकी का हाथ पकड़ते-पकड़ते उसने श्यामा की बात सुनी थी; हाथ पकड़ कर बोला, “हाँ हाँ, लीजिए...” और क्षण-भर के सोचने के बाद बोला, “कहा है -

मेहरबाँ हो के बुला लो मुझे चाहो जिस वक्त

मैं गया वक्त नहीं हूँ कि फिर आ भी न सकूँ।”

गाड़ी चल पड़ी थी, अल्ताफ शेर कहता-कहता केतकी का हाथ पकड़े हुए उसके साथ-साथ बढ़ रहा था, और श्यामा भी साथ चल रही थी। अल्ताफ ने फिर जोर से केतकी का हाथ झकझोरते हुए कहा, “खुदा हाफिज - अगर खुदा है तो - “ फिर श्यामा की ओर मुड़ कर हाथ बढ़ाते-बढ़ाते सहसा रुक कर हाथ जोड़ता हुआ बोला, “नमस्ते, श्यामा जी।” और गाड़ी पर सवार हो गया।

गाड़ी चली गयी। प्लेटफार्म पर और भी लोग थे; श्यामा को लगा कि अब वह और केतकी साथ हैं; और जैसे यह साथ होना मनोरंजक बात है।

केतकी को भी शायद ऐसा लगा हो; उसने कहा, “अजीब चीज है मशीन... वह रेल हो या मोटर... वह लोगों को मिलाती भी है, दूर भी ले जाती है।”

श्यामा मन-ही-मन हँसी। यह भी सस्ती भावना है; वह ऐसी बात नहीं कह सकती! उसने कहा, “हाँ केतकी जी; असल में मशीन के लिए दोनों इर्रेलेवेंट हैं... मिलना भी, बिछ़ड़ना भी। बल्कि इन्सान इर्रेलेवेंट है - जब कि इन्सान के लिए मशीन इर्रेलेवेंट नहीं है। इसलिए मैं कहती हूँ, खतरा मशीन से इन्सान को है, इन्सान से मशीन को नहीं।”

केतकी ने बात बदलते हुए कहा, “आप - यहाँ से कहाँ जायेंगी?”

“घर ही जाऊँगी - आप मुझे नयी दिल्ली में कहीं तक भी लिफ्ट दे दें तो...”

“हाँ हाँ श्यामा जी, घर ही पहुँचा दूँगी, आप भी क्या-”

“नहीं, कनॉट प्लेस में कहीं छोड़ दीजिएगा - “

“चलिए तो -”

श्यामा ने पिछले सूत्र से ही कहा, “पर इन्सान को मशीन से खतरा इसलिए तो है कि उससे उसका काम भी निकलता है - काम की चीजें खतरनाक हो सकती हैं - क्योंकि गुलाम बना सकती हैं।”

केतकी ने अनमने भाव से कहा, “आप भी खूब जेनेरेलाइज करती हैं, श्यामा जी। प्रेम के बारे में आप क्या कहेंगी - वह क्या गुलाम नहीं बना सकता? - “

श्यामा का जोर से हँसने का जी हुआ। पर शान्त-गम्भीर स्वर से बोली, “जरूर बना सकता है। यानी खतरनाक हो सकता है। क्योंकि काम की चीज हो सकता है।” कुछ रुक कर उसने कहा, “यों बिल्कुल बेकाम की चीज भी हो सकता है - शायद - पर वह फिर खतरनाक हो सकता है, हालाँकि - गुलाम शायद वह नहीं बनाता - “

“यह तो इस पर है कि खतरा हम किसे मानते हैं। बदनामी - हाँ, वह भी एक प्रकार का खतरा तो है ही; पर वह बाहर का खतरा है; मैं तो उन खतरों की बात सोचती हूँ जो व्यक्तित्व को तोड़ सकते हैं - फ्लर्टेशन भी प्रेम है, मान लीजिए, पर उसमें व्यक्ति के लिए वह खतरा नहीं है जो - “

“ओ, आप तो बिल्कुल दूसरी बात कर रही हैं!”

श्यामा ने सहमत होते हुए कहा, “हाँ, हम लोग दूसरी-दूसरी चीजों की बात कर रहे हैं।” इस बात में काफी पैना डंक हो सकता था; पर श्यामा को सन्तोष हुआ कि वह उसकी बात में लक्ष्य नहीं था, उसका लहजा काफी साधारण हो सका था...

बारहखम्भे के पास आते-आते श्यामा ने कहा, “बस, यहीं कहीं मुझे उतार दीजिए...”

केतकी चला रही थी; रामसिंह पिछली सीट पर बैठा था। केतकी बोली, “घर ही पहुँचा आती हूँ - आप तकल्लुफ क्यों...”

“नहीं, नहीं, मुझे यहाँ जरा-सा काम भी था।”

केतकी कुछ नहीं बोली। उसने गाड़ी को कनॉट प्लेस के चक्कर के अन्दर लिया और एक जगह जा कर गाड़ी रोक दी। श्यामा ने उतरते हुए धन्यवाद दिया, फिर दरवाजा बन्द करके एक तरफ खड़ी रही कि कार चली जाय।

केतकी के जाने पर ही सहसा उसके मन में हुआ, केतकी ने कार ठीक वहीं ला कर क्यों खड़ी की - उसने तो नहीं कहा था! उसे ध्यान आया, वह रमानाथ के फ्लैट के नीचे खड़ी है। तो केतकी ने उसके कनॉट प्लेस आने का यह अर्थ समझा! और कोई समय होता तो वह दाँत पीस देती; पर इस समय वह केवल मुस्करा दी; केतकी के प्रति एक अजब करुणा उसके मन में उत्पन्न हुई। फिर उसने कुछ आगे बढ़ कर ताँगे को पुकारा और फुर्ती से उस पर सवार हो गयी।

किवाड़ उढ़काये हुए थे, सिटकनी नहीं लगी थी। हल्की-सी दस्तक दे कर श्यामा भीतर चली गयी; कमरे में कोई नहीं था। कुछ सामान इधर-उधर बिखरा था। हेम कहाँ है? तभी स्नानघर की ओर से पानी का शब्द सुन कर श्यामा ने समझ लिया, हेम नहा रहा है। एक नजर उसने चारों ओर डाली। लापरवाही से खोले गये होल्डाल से उसने ड्रैसिंग गाउन निकाला; एक स्टूल उठा कर स्नानघर के बाहर रख कर उस पर रख दिया। फिर होल्डाल समेट कर पास की कोठरी में रख दिया; एक मैला तौलिया ले कर जल्दी से कमरे की चीजें झाड़ीं - समय और झाड़ू होता तो सारा कमरा उस समय बुहार देती... और जल्दी से जितनी तरतीब दे सकती थी दे दी। क्षण-भर रेडियो के पास ठिठकी - उँहुक्, रेडियो का गाना अपने नियन्त्रण में नहीं है, क्या जाने क्या गा दे। उसकी एक परिचिता को 'देखने' जब लड़का आया था तब रेडियो चलाया गया था और उससे आवाज आयी थी... क्या? “तू हाँ कर जा या ना कर जा!” ग्रामोफोन होता तो वह बजा देती कोई पसन्द का रिकार्ड; वह हेम से कहेगी कि रेडियो की बेहूदगी के बदले अच्छा ग्रामोफोन रखे -

कि उसके विचार एकाएक सहम कर रुक गये। हेम से कहेगी वह - किस अधिकार से कहेगी! क्यों, यह तो केवल एक फ्रेंडली सजेशन है, यह तो कोई भी कह सकता है, अजनबी भी - पर उसका मन नहीं माना। वह हेम से कहेगी, कैसे कहेगी, कौन होती है वह, और हेम तो चार सप्ताह गायब रहा तो उसे पता भी नहीं दे गया - अधिकार तो कोई माने तब होता है, अपने आप थोड़े ही ले लिया जाता है...

रेडियो और ग्रामोफोन! फिर वही मशीन की गुलामी। क्या अवस्था हो गयी है इन्सान की, कि संगीत चाहेगा तो रेडियो और ग्रामोफोन की सोचेगा - क्यों, स्वयं उसके जीवित स्वर को क्या हुआ है कि वह न गा सके? हेम का घर है, होने दो।

वह धीरे-धीरे गुनगुनाने लगी। पहले कुछ सहमी, उदास और जैसे अकेलेपन के बोझ से दबी हुई, मानो डरती हुई कि आवाज भी अकेलेपन में खो जाएगी; फिर जैसे वह गुंजन उसे अच्छा लगा; उसमें कुछ सख्य मिला, और उसकी सान्त्वना से सहसा विभोर हो कर वह जोर से गा उठी।

उसका सुर अच्छा है; हेम ने उसे गाने को नहीं कहा, पर उसका सुर अच्छा है, कमरे को भर रहा है, जब बन्द हो जाएगा तब भी उसकी गूँज कमरे को भरती रहेगी, और शायद वह गूँज हेम को भी रणरणित कर देगी... एक स्वरोन्माद-सा उस पर छा गयाः क्या भोर का पक्षी भी इस तरह कभी अपने गान से उन्मत्त हो कर गाता है? आँधी में पीपल के पत्ते? कितनी उन्मत्त, कितनी स्वच्छन्द है प्रकृति की साँस, जिससे ओट हो कर उसने बन्द कमरे में बैठ कर कदन्नों का सड़ाया हुआ रस पिया है - रमानाथ के साथ - ! नहीं, इस समय नहीं, विचारों की और कोई दिशा नहीं; केवल संगीत का आप्लुत उन्माद, वह उन्माद जिसमें मानव की आत्मा मुक्त होती है, और प्रकृति के साथ एकप्राण होती है एक साझी मुक्ति में - आने दो हेम को, वह उसे कहेगी कि अभी बाहर चले, और वहाँ चल कर वह और गाएगी - अवचेतन में उसने जाना, स्नानघर में पानी का शब्द बन्द हो गया है - और क्या यह उसका भ्रम है कि हड़बड़ा कर हुआ है? कोई डेढ़ मिनट बाद किवाड़ खुलने का शब्द, किवाड़ के स्टूल से टकराने का शब्द, हेम की 'ओ - ' उसका स्वर और भी भर उठा।

सहसा कमरे में तेजी से प्रविष्ट होते हुए हेम ने कहा, “तुम यहाँ, श्यामा! मैं तो तैयार हो रहा था तुम्हारी तरफ जाने को - “

श्यामा ने, अव्याहत भाव से गान की पंक्ति पूरी करके उलाहने से कहा, “बड़ी मुस्तैदी दिखा रहे थे न तैयार होने में - मैं स्टेशन से आ भी गयी और तुम नहा कर भी नहीं चुके?” तनिक-सा रुक कर, “कब आने वाले थे तुम - कल सवेरे?”

एक हल्का पुलकित विस्मय हेम के चेहरा पर लक्ष्य हुआ - क्या इस आग्रह से या 'तुम' के मान-भरे प्रयोग से? वह सफाई देता हुआ-सा बोला, “मैंने तो कुछ सामान भी नहीं ठीक-ठाक किया; होल्डाल फेंक कर नहाने चल दिया था; सूट भी निकाल कर यहीं डाल गया था।” थोड़ा रुक कर मुस्कराता हुआ बोला, “बल्कि तुम ड्रेसिंग गाउन वहाँ न फेंक आती तो - खासी उलझन हो जाती, या पुकार कर तुम से माँगना पड़ता!”

श्यामा क्षण-भर स्थिर भाव से देखती रही। फिर उसने पूछा, “क्यों जंगबहादुर कहाँ है?”

“क्या पता? उसे मेरे आज लौटने का पता थोड़े ही था... कहीं मटरगश्ती कर रहा होगा; देखो न कमरे का क्या हाल - “ उसकी नजर चारों ओर घूमी कि सहसा सन्देह से कंटकित हो कर उसने पूछा, “श्यामा, ह्वट आन अर्थ हैव यू बीन डूइंग?”

श्यामा ने वक्र हँसी के साथ कहा, “क्यों? कुछ काम ऐसे होते हैं कि स्त्री पुरुष की निस्बत अच्छे कर ही सकती है चाहे मुझ जैसी इनकाम्पीटेंट क्यों न हो!”

हेमचन्द्र अवाक् उसका चेहरा देखने लगा।

श्यामा ने पूछा, “अच्छा, जरा अपने घर का सिर-पैर मुझे समझा दो तो कुछ चाय बना दूँ... कुछ खाया है कि नहीं? मैं बाहर ले चलती पर अभी बाहर चलने की मेरी इच्छा नहीं है। स्वार्थिन हूँ न!”

हेमचन्द्र ने कुछ झिझकते हुए कहा, “समझने को क्या है... है ही क्या यहाँ! खाना तो मैं खाता आया था; चाय - “

“क्यों, चाय भी घर में नहीं है क्या? कॉफी, कोको, कुछ भी? और स्टोव, अँगीठी कुछ - “

“हो भी सकती है शायद; पर तुम - “

“तुम क्यों कष्ट करोगी; और जाने मेरी क्राकरी ही तोड़ डालो, यही न? हेम बाबू, मैं जैसी दीखती हूँ, उससे बहुत सीधी हूँ और - “ क्षण-भर वह शब्द तौलती हुई रुकी, “और बहुत गरीब भी; बहुत कुछ जानती भी हूँ, और जानने के प्रति अवज्ञा भी नहीं सीख पायी हूँ।”

“क्या कह रही हो तुम, श्यामा; मुझे तो ऐसी कोई बात सूझी भी नहीं थी। मैं तो इतना ही... अच्छा तुम बैठो, मैं चाय बना देता हूँ...”

वह मुड़ा और मुड़ते हुए एक तरफ पड़ा हुआ सूट भी उठाता चला।

श्यामा ने सहसा आदेश से भर कर कहा, “आज, अभी जितनी देर तक मैं यहाँ हूँ, तुम अक्षरशः मेरी आज्ञा मानोगे। उसके बाद हम घूमने चलेंगे... बाहर निकलते ही मैं फिर विनीत हो जाऊँगी, 'आप' कहूँगी, जहाँ आप ले जायेंगे चलूँगी और आपको लगेगा कि इतनी देर रात गये आपके यहाँ आना अनुचित हुआ तो क्षमा माँग कर वापस भी चली जाऊँगी।”

हेम ने रुक कर कहा, “आदेश दीजिए।”

“चाय मैं बनाऊँगी। तुम तब तक कपड़े पहन आना चाहो तो पहन आ सकते हो, इजाजत है।”

तैयार हो कर वह पहले लौटा; श्यामा अभी रसोई में ही थी, बिजली के स्टोव पर पानी गर्म हो रहा था। ट्रे पर बर्तन सज गये थे। वह बर्तन उठा कर ले जाने के लिए झुकने को ही था कि रुक कर बोला, “इजाजत है न?”

श्यामा ने विचारपूर्वक निर्णय करते हुए-से कहा, “अच्छा, ले जाओ - “ और पीछे-पीछे चायदानी में पानी ढाल कर ले आयी। सब सामान मेज पर लगा कर हेमचन्द्र फिर रसोई की ओर गया, और थोड़ी देर में प्लेट में बिस्कुट और डिब्बों में मक्खन और पनीर लेता आया; पास आ कर उसने फिर पूछा, “इजाजत - “ और बिना उत्तर की प्रतीक्षा किये चीजों को यथास्थान रख दिया।

श्यामा ने एक बार चारों ओर दृष्टि फिरायी। नहीं, कहीं कुछ भी भिन्न, असाधारण नहीं है; बड़ा साधारण कमरा है, ऐसा कहीं भी किसी का भी हो सकता है और वे दोनों भी कोई भी हो सकते हैं; और यह रात कोई भी रात हो सकती है... हाँ, हो तो सकती है; पर अपने को यह याद दिलाने की क्यों जरूरत है? क्योंकि हो सकती है, पर है नहीं!

स्त्रियाँ भीरु होती हैं, ऐसा माना जाता है। पर जब वे नहीं होतीं तब उनके सब साहस दुस्साहस भी माने जाते हैं... सब मान्यताएँ पुरुषों की बनायी हुई हैं; और वह तथ्य के आधार पर धारणाएँ नहीं बनाते, अपनी इच्छाओं के आधार पर ही बनाते हैं। स्त्री के भीरु चाहते हैं, इसलिए मान लेते हैं कि स्त्री भीरु होती है, ताकि मान्यता के बोझ के नीचे ही वह भीरु बन जाय! केवल स्त्री सहज यथार्थवादी होती है; पुरुष चाहते हैं पहले, देखते हैं पीछे, और उनका देखना उनकी इच्छा की गहरी रंगत लिए हुए होता है...

उस दिन वह बेहोश हो गयी थी सिनेमा से लौटती हुईः आज क्यों नहीं उसे फिट आ सकता? सुना है हिस्टीरिया के फिट तो छिपी इच्छा से ही लाये जाते हैं! पर उसे वैसी सस्ती सहानुभूति नहीं चाहिए, वह करुणा नहीं माँगती, और पुरुष की करुणा - छिः!

वह चाय ढालने लगी और बोली, “यह लौंद का साल होता, और आज उनतीस फरवरी का दिन, तो ठीक होता है।”

कुछ चौंक कर हेमचन्द्र ने कहा, “क्यों?”

“और क्या, कुछ तो असाधारण होता! और - “ सहसा श्यामा ने चायदानी रख कर एक लम्बी स्थिर चितवन हेमचन्द्र को दी, और फिर निश्चय करते हुए कहा, “और मैं कुछ अनाप-शनाप कह बैठती तो उसे तुम अनवुमनली न मान सकते!”

“श्यामा, मुझसे बात करने में बेतकल्लुफी के लिए तुम्हें हर बार चार-चार साल की प्रतीक्षा करनी पड़ती रहेगी, यह मेरे लिए बहुत फ्लैटरिंग नहीं है यह तुम समझती हो?”

उसके चेहरे पर प्रतिवाद, आहत अभिमान और थोड़े विस्मय की रेखाएँ देख कर श्यामा को हँसी आ गयी। हँसती हुई बोली, “तुम सचमुच इतने भोले हो, हेम, या कि यह भी एक खोल है?” फिर गम्भीर होते हुए आगे को झुक कर तेजी से किन्तु धीमे स्वर में उसने कहा, “तो - तो मैं कहती कि - “ एक हाथ भी तनिक उठ कर हेम की ओर बढ़ गया और पलकें आधी मुँद गयीं, “हेम, यह मैं हूँ, किस मी!”

कह दिया गया तो कह दिया गया! यह बात एक तथ्य हो कर उनके बीच में आ गयी; अब उसे मान्य किया जा सकता है या अमान्य किया जा सकता है, अनदेखा नहीं किया जा सकता... श्यामा ने यह जानते हुए कि हेम एक चकित दृष्टि से उसकी ओर देख रहा है, बड़े मनोयोग से चायदानी उठा कर दूसरे प्याले में चाय ढाली, दूध-चीनी मिला कर प्याला हेमचन्द्र की ओर बढ़ाया; तब उसकी दृष्टि धीरे-धीरे प्याले पर से हेमचन्द्र के हाथ और बाँह के साथ उठती हुई उसकी ठोड़ी, मुँह, नाक को निहारती उसकी आँखों से मिल गयी। हेम वैसे ही चकित भाव से उसे देखता रहा।

“क्या देख रहे हो? तुम्हें शॉक लगा - लगा न? मर्दों के दिमाग बड़े कन्वेशनल होते हैं; दिल टूटने से उन्हें उतना सदमा नहीं पहुँचता जितना कोई कन्वेशन टूटने से!”

हेमचन्द्र फिर भी वैसे ही देखता रहा, बोला नहीं। और एकाएक श्यामा को वह चुप्पी असह्य हो आयी - सीधे-सीधे प्रत्याख्यान से भी अधिक असह्य; क्यों नहीं हेमचन्द्र कुछ भी कहता है? यह ठीक है कि बात जो है उसकी अनदेखी नहीं हो सकती; पर बात जहाँ है वहीं अटकी भी कैसे रह सकती हैः किसी ओर उसे आगे बढ़ना ही होगा! उसका जी हुआ कि, किसी तरह हेमचन्द्र को गहरी ठेस पहुँचाये; तब तो वह बोलेगा, तिलमिला कर तो बोलेगा... उसने कहा, “क्या सोच रहे हो? - यही कि कैसी मुँहजोर औरत है यह; एक तो रात के दस बजे बिन बुलाये घर आ गयी, और अब साहस इतना बढ़ गया; इस रेट पर तो सुबह तक न जाने क्या होगा! और कहीं मेरा मन रखने के लिए तुम मेरी बात मान ही लो तो तुम बँध जाओगे, और - “

तीर लगा। गहरा लगा। तिलमिला कर थरथराते स्वर में हेमचन्द्र ने कहा “श्यामा!”

श्यामा चुप हो गयी। लेकिन हेमचन्द्र ने भी आगे कुछ नहीं कहा। थोड़ी देर प्रतीक्षा कर के श्यामा ने ही कोमल स्वर में कहा, “बोलो - “

हेमचन्द्र ने सोचते-से स्वर में धीरे-धीरे कहा, “जो सुन्दर है, वह है तो है, नहीं है तो नहीं है; उसे घटिया बना कर नहीं पाया जा सकता।” कुछ रुक कर, “यह हमारे शहरी जीवन की परिस्थितियों की सजा है कि हम उसे घटिया बनाते चलते हैं - और उस घटियापन पर झल्लाते भी चलते हैं। बल्कि - “ वह बात अधूरी छोड़ कर फिर चुप हो गया।

श्यामा ने कुछ बदलते हुए स्वर में कहा, “यह उपन्यास होता, और कुछ पहले का, तो इस स्टेज पर हिरोइन एक जबरदस्त सीन खड़ा कर देती, चिल्लाती कि मेरा अपमान किया गया है, और - शायद - “ वह एक कृत्रिम-सी हँसी हँसी, “हीरो के एक चाँटा भी लगा देती। फिर फेंट कर जाती और हीरो उसे गोद में उठा कर सोफे पर लिटाता, गले से लगा कर पानी के छींटे देता या रूमाल से सहलाता।” वह रुकी और फिर एक रूखी हँसी हँस दी - “और इस प्रकार सचेत अवस्था की माँग से अधिक वह अचेत अवस्था में पा लेती!” फिर रुक कर और भी बदले, कुछ थके स्वर में उसने कहा, “लेकिन मैं पुराने नावेल की हिरोइन नहीं हूँ, आज की परिश्रमजीवी स्त्री हूँ। फटकार खाना और फटकार खा कर अपना दोष पहचानना जानती हूँ। तुम ठीक कहते हो, हेम; मैं भी जीवन के वल्गेराइजर्स में से एक हूँ।”

हेमचन्द्र ने बहुत नरम स्वर में उसे रोकते हुए कहा, “श्यामा!”

“न, हेम, दया नहीं... वह सबसे अधिक वल्गर चीज है; कम-से-कम उससे बचने लायक आत्माभिमान मुझमें बाकी है।”

एक सन्नाटा दोनों पर छा गया; केवल प्याले की बहुत हल्की खनक ही कभी-कभी उसे तोड़ती रही। जब वह बहुत भारी हो आया, जब हेम ने कुछ बात करने के लिए पूछा, “इतने दिन क्या-क्या किया, श्यामा? अल्ताफ कैसे शायर हैं?”

श्यामा ने भी साधारण बातचीत का स्तर अपनाते हुए कहा, “और तुम इतने दिन कहाँ रहे-कहाँ चले गये थे?”

“सच बताऊँ, श्यामा? मेरा दौरे पर जाना आवश्यक नहीं था; मैंने माँग कर ही वह अपने सिर लिया था; और दौरे से ही छुट्टी भी ली थी और कुछ घूम आया। दिल्ली से बीच-बीच में चले जाना चाहिए, नहीं तो - “

श्यामा ने थोड़ी देर प्रतीक्षा कर के पूछा, “नहीं तो क्या हेम? और - जिस दिल्ली से बीच-बीच में चले जाना चाहिए उस दिल्ली का मैं भी अंश हूँ क्या... क्या जाना चाहने के कारणों में मैं भी थी?”

हेम चुप रहा।

“कह दो हेम; यह नहीं समझो कि मेरी वैनिटी है; अगर मैं कारण नहीं थी तो मुझे अच्छा ही लगेगा क्योंकि - तुम्हारे जाने से पहले जो हुआ उसकी बड़ी ग्लानि मुझमें है, और उसे तुम पर प्रकट करना भी बराबर चाहती रही हूँ।”

“तो इस बात को इतने तक ही रहने दिया जाय, श्यामा?” हेम ने मधुर स्वर में कहा।

थोड़ी देर बाद श्यामा ने कहा, “अच्छा, अब थोड़ा घूमने चलोगे न?”

“लेकिन गाड़ी तो इतने दिन की बन्द पड़ी है, अभी - “

“गाड़ी में नहीं, पैदल। अधिक-से-अधिक ताँगे में। या कि थके हो?”

“नहीं-नहीं, जरूर चलेंगे।”

बरामदे में श्यामा रुकी, हेमचन्द्र ताला बन्द करने को मुड़ा। उसकी पीठ को लक्ष्य करके श्यामा ने सहसा कहा, “अच्छा मिस्टर हेमचन्द्र, लीजिए, अब मैं 'आप' कहना शुरू करती हूँ, और पोलाइटनेस के सारे नियम अब लागू हैं। आपको असमय कष्ट देने के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ।”

हेमचन्द्र वाक्यारम्भ के लहजे से कुछ अचकचा गया था; फिर समझ कर हँसता हुआ दरवाजे से श्यामा की ओर मुड़ा बोला, “श्यामा जी, तो मैं अब बिल्कुल स्वाधीन हूँ न?”

“हाँ, मेरी ओर से तो हैं - “

हेमचन्द्र ने अप्रत्याशित भाव से निकट आ कर कहा, “ठीक कहती हो, श्यामा... बिल्कुल स्वाधीन!” और सहसा झुक कर उसका माथा चूम लिया। “यह एक स्वाधीनता-प्राप्त व्यक्ति का पहला कृत्य है, याद रखना।”

श्यामा ने एक हल्का हाथ उसके कोट की आस्तीन पर रखा, लेकिन हेमचन्द्र आगे बढ़ रहा था।

“कहाँ चल रहे हैं हम लोग?” हेमचन्द्र के स्वर में स्फूर्ति थी।

“सूत्रधार मैं नहीं हूँ,” श्यामा ने मुदित भाव से कहा।