बारहखम्भा / भाग-8 / अज्ञेय

Gadya Kosh से
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किन्तु यह क्या! श्यामा वहाँ से गायब थी। हेमचन्द्र को आश्चर्य हुआ, कुछ कष्ट भी; केतकी की उस स्थिति में सहानुभूति के लिए नहीं तो शिष्टाचार के नाते ही श्यामा को कुछ देर ठहरना चाहिए था। उसके जी में आया कि बाहर सड़क पर निकल कर श्यामा को ढूँढ़ लाये, या कम-से-कम उसके पहुँचाने का प्रबन्ध कर दे, पर केतकी की क्लिष्ट स्थिति ने उसे वहीं रुके रहने को विवश किया।

“श्यामा जी चली गयीं, न जाने क्यों मुझसे इतनी नाराज हैं।” केतकी ने अपनी लम्बी बरौनियों को रूमाल से स्पर्श करते हुए कहा।

हेम ने कोई उत्तर नहीं दिया। सोच रहा था : क्योंकि श्यामा केतकी से सदैव ऐसी बेरुखी का व्यवहार करती है। इस नारी के व्यक्तित्व में इतना तनाव, इतनी गाँठें क्यों हैं? क्षण ही भर पहले वह कितनी कोमल और स्निग्ध हो रही थी! हेम अभी भी उस कोमलता और स्निग्धता की स्मृति से भीगा है, पर श्यामा जैसे एक ही क्षण में बदल गयी। उसके मन पर उसका मस्तिष्क कितना हावी है।

केतकी और हेम दोनों बैठ गये हैं - केतकी सोफे पर और हेम उसकी दाहिनी ओर की कुरसी पर। केतकी के कोमल चेहरे पर उदासी है; यत्न करने पर भी वह आँसुओं की उन बूँदों को बार-बार कोरों में उमड़ आने से नहीं रोक पा रही है और लगातार वे बूँदें उसके भीगे रूमाल को तर बनाती जा रही हैं।

हेम ने केतकी को मुस्कराते हुए देखा है, हँसते हुए भी देखा है; दोनों ही मुद्राओं में वह आकर्षक और प्रिय लगती है। आज पहली बार उसे क्लिष्ट और विषण्ण मुद्रा में देख रहा है और वह किंचित् विस्मय से लक्ष्य कर रहा है कि केतकी इस स्थिति में भी नितान्त मधुर और मोहक जान पड़ती है।

“केतकी जी”, हेम ने धीरे से कहा, “मुझे खेद है कि आज मेरे घर पर उपस्थित न रहने से आपको इतना कष्ट हुआ। वस्तुतः मैं आज ही दौरे से लौटा था।”

“मुझे मालूम है,” केतकी ने एक बार फिर नेत्रों को पोंछ कर कहा, “मैं परसों से ही तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही थी, तुम्हारे पत्र के अनुसार।”

“हाँ, मैं परसों ही आने वाला था, पर रुक जाना पड़ा।” कह कर हेम केतकी के 'तुम' प्रयोग के बारे में सोचने लगा। इधर केतकी ने उसे जो पत्र लिखे हैं उनसे पता लगता है जैसे वह उसे बहुत ही अपना समझती है, समझना चाहती है; और आज वह उसे 'तुम' कह कर संकेत कर रही है। उसकी इस भावना को वह कैसे अस्वीकार कर सकता है।

“लेकिन तुम इतनी परेशान क्यों हो, केतकी; क्या इधर कोई खास घटना घटित हुई है?” हेम ने कोमल स्वर में पूछा।

केतकी कुछ क्षण चुप रही। फिर बोली, “कोई अप्रत्याशित बात नहीं हुई - और शायद हुई भी है। पर जो आज हुआ है उसे एक दिन होना ही था... मैंने सेठजी से अपना सम्बन्ध तोड़ने का निश्चय कर लिया है, हेम।”

हेम के हृदय में धक्-सी हुई। केतकी अपने पत्रों में इस सम्भावना का बराबर संकेत देती रही है और वह इस कदम को उठाने तथा आगे की जिन्दगी के बारे में उससे परामर्श भी माँगती रही है। फिर भी उसे लगा कि केतकी का यह निश्चय एक नयी, अनहोनी बात है। चकित असमंजस के भाव से वह केतकी की ओर देखने लगा।

केतकी ने कुछ रुक कर कहा, “हेम, तुम कहोगे कि मैंने जल्दी की। तुमने लिखा था कि जल्दबाजी में कोई कदम उठाना ठीक नहीं। लेकिन जो करना ही है, जो होना चाहिए, उसके बारे में कोई कहाँ तक विमर्श करे? यों तो पिछले चार वर्ष से, हाँ हेम, मेरा विश्वास करोगे, जिस दिन... जिस दिन मेरी सुहागरात हुई थी, तब से... मैं लगातार सोचती और विमर्श करती आ रही हूँ...”

केतकी की बड़ी-बड़ी आँखों में फिर बूँदें झलक आयीं। उन्हें पोंछ कर शान्त होती हुई बोली, “यह नहीं कि कभी मुझे इसमें सन्देह हुआ कि जो हो रहा है, जो कि विवश हो कर किया जा रहा है, वह गलत है। लेकिन फिर भी जान-बूझ कर मैं जो गलती की साझीदार बनी रही हूँ सो सिर्फ इसलिए कि मैं नारी हूँ।”

हेम का असमंजस और आश्चर्य बढ़ता जा रहा है। केतकी जिस सहज भाव से, हँसते-गाते, हलके निर्लिप्त कदमों से जीवन की राह पर चलती रही है उसे देख कर कौन कह सकता है कि इस नारी के अन्तःकक्ष में कोई गहरा अभाव या पीड़ा भी है, कि कार में बैठ कर तितली-सी उड़ती फिरने वाली यह रमणी अपने साथ असन्तुष्ट अरमानों का तीखा भार भी लादे रही है, कि उसकी स्निग्ध चितवन और सहज-सरल मुस्कान के पीछे अतृप्त आकांक्षा की बिजलियाँ तड़पती रही हैं।

“हेम,” केतकी ने कुछ क्षण रुक कर कहा, “मेरे पिताजी जज थे। स्वभाव से वह जितने न्यायप्रिय और शान्त थे, उतने ही निर्भीक भी थे। उन्हें झूठ से घृणा थी, और निरर्थक रूढ़ियों से भी। हम लड़कियों पर उन्होंने कभी कोई अनावश्यक दबाव नहीं डाला। एक दिन मैंने कॉलेज से आ कर उनसे समाजवाद की प्रशंसा की तो बोले, 'सिर्फ प्रशंसा करने से कोई लाभ नहीं, कुछ करो भी तो।' और फिर हँस कर कहा, 'ग्रेजुएट हो जाओ तो पार्टी ज्वाइन कर लेना। लेकिन देश का काम करने के लिए दो चीजें जरूरी हैं, सादा रहन-सहन और कष्ट झेलने का अभ्यास; तुम यह कर सकोगी? ' मैंने उत्तर दिया था, क्यों नहीं कर सकूँगी, बाबूजी; आपके आशीर्वाद से जरूर कर सकूँगी। और इसके बाद, मुझे खूब याद है, अगले छः महीने तक मैंने सचेत प्रयत्न से सिर्फ तिहाई कपड़ों में गुजर करने का अभ्यास किया था, और तभी से लिपस्टिक, रूज आदि लगाना भी छोड़ दिया। घर में सिर्फ कुन्तल इस परिवर्तन के असली कारण को जान सकी थी। आज भी हम दोनों बहनों में कोई इन चीजों का व्यवहार नहीं करती।

“हेम, आज जब मुझे पिताजी की बातें याद आती हैं तो कभी-कभी घंटों बैठ कर रोती हूँ। पिताजी यदि जीवित रहते, तो कभी मेरी शादी सेठजी के साथ न होती। उन्हें बिजनेस वालों से खास चिढ़ थी। लेकिन उनकी मृत्यु ने, और चाचाजी की जिद ने, मुझे एक ऐसे व्यक्ति के साथ बाँध दिया, जिसका एकमात्र ध्येय धन-संचय है और जो नारी के व्यक्तित्व का सिर्फ एक ही उपयोग जानता है...”

सुनते-सुनते हेम सिहर उठा। उसे इतने खुल कर बात करना पसन्द नहीं है। वह अपेक्षाकृत रिजर्व्ड प्रकृति का है। फिर भी न जाने केतकी के इस प्रकार निश्चल, अनावृत ढंग से बात करने में क्या अपूर्व आकर्षण है कि वह उसकी एक भी ध्वनि और भंगी को अश्रुत या अनदेखा नहीं होने देना चाहता।

कुछ अवज्ञा से हँसती हुई केतकी कह रही थी : उस समय उसकी दृष्टि एक तटस्थ दिशा में थी, “लोग समझते हैं मैं बड़ी फैशनप्रिय हूँ, और बड़ी नाजुक, कि मुझे नौकर-चाकरों की अपेक्षा है, और कार की। मेरी एक पुरानी सखी कहती थी कि मैं क्रमशः पूँजीपति बनती जा रही हूँ। हेम, मैं सच कहती हूँ कि मैंने कभी रुपये की कदर करनी नहीं सीखी और न सीख ही सकूँगी। बचपन से, स्कूल-प्रवेश के दिन से, महीने में शायद ही कोई दिन बीता हो जब मैं कार में न बैठी होऊँ-अपनी कार में या अपनी किसी दोस्त की। भला मुझे कार में बैठने की लालसा होगी? मैं कार की चिन्ता करूँगी और सेठजी की सम्पत्ति की? मुझे कभी-कभी लगता है कि मैं इस कृत्रिम, नीरस, सिर्फ पैसे के लिए जीने और मरने वाली दुनिया से एकदम ऊब गयी हूँ।

“यह ठीक है कि मैं मित्रों के साथ घूमती-फिरती हूँ, लेकिन किसलिए? इसलिए नहीं कि मुझे चाय और सिनेमा बहुत पसन्द है, कि मैं क्लबों की गपशप और उबाने वाले विनोदों पर जान देती हूँ; बल्कि इसलिए... इसलिए कि मैं लगातार अपने से, अपने सूने मन और व्यक्तित्व से, अपने दिशाहीन, लक्ष्यहीन जीवन से पलायन करना चाहती हूँ, बचना चाहती हूँ।”

“हेम, मैं सच कहती हूँ कि इधर मैं अपनी जिन्दगी से बेहद ऊब गयी हूँ। सोचती हूँ, मेरा वह पाँच-छः वर्ष पहले का जीवन, वह उल्लास और उमंग, वे आकांक्षाएँ और संकल्प सब कहाँ चले गये? सोचती हूँ, मैं यह सब क्या कर रही हूँ, क्यों मैं जीवित हूँ, क्यों इधर-उधर गतिशील हूँ? मैं दुनिया के लिए क्या कर रही हूँ, देश के लिए क्या कर रही हूँ, और स्वयं अपने लिए, अपनी कला के लिए भी, क्या कर रही हूँ।”

सहसा केतकी चुप हो रही। हेमचन्द्र भी चुप था। वह उस नयी नारी या पहेली को, जिसका निराला परिचय इस समय मिला था, समझने का प्रयत्न कर रहा था।

थोड़ी देर बाद जैसे साँस ले कर हेमचन्द्र ने कहा, “लेकिन इस निश्चय का सद्यः हेतु क्या है, सेठजी तो बाहर हैं न?”

“बाहर थे, पर आज ही वापस आये हैं। आ कर उन्होंने पाया कि मैं घर पर नहीं हूँ। इससे वह कुछ अप्रसन्न हुए। कहने लगे कि मैं बच्ची की भी ठीक से देखभाल नहीं करती। ...और कुछ देर बाद उन्होंने कहा कि उन्हें अपने स्वास्थ्य-सुधार के लिए बम्बई जाना होगा और उनकी इच्छा है कि मैं उनके साथ चलूँ। मेरे मुँह से निकल गया कि मैं उनके साथ नहीं जा सकूँगी। इस पर...” कहते-कहते केतकी चुप हो गयी।

हेम ने इस चर्चा को आगे बढ़ाने का कोई प्रोत्साहन नहीं दिया। पूछा, “आर्ट-स्कूल में आवेदन-पत्र भेज दिया था?”

“हाँ, भेज दिया था।”

“लेकिन इस समय... और फिर यह निश्चय भी तो नहीं कि वहाँ जगह मिल ही जाएगी।” हेम ने व्यावहारिक स्वर में कहा।

“जगह की चिन्ता से अभी कोई लाभ नहीं, हेम। रही इस समय की बात, सो यदि तुम्हारे या चाचाजी के पास आश्रय न मिला तो किसी होटल या धर्मशाला में जा पड़ूँगी। इसमें हर्ज ही क्या है।”

हेम अपनी समग्रता में संकुचित हो उठा। हाल के पत्र-व्यवहार से जो केतकी और उसके बीच घनिष्टता या अपनापन पैदा हो गया है, उसकी परीक्षा का अवसर इतनी जल्दी आ जाएगा, यह कल्पना उसने नहीं की थी। और वह केतकी से कहे भी तो किस साहस से, कि तुम यहीं ठहरी रहो, कहीं दूसरी जगह जाने की कोई जरूरत नहीं है।

उधर जंगबहादुर आ कर पूछ रहा था, “बाबूजी, खाना लाऊँ?”

हेम ने कोमल स्वर में केतकी से पूछा, “थालियाँ मँगवाऊँ न - यद्यपि बेवक्त हो गया है।”

केतकी ने उदास भंगी से कहा, “मँगवा लीजिए।”

दोनों भोजन करने बैठे, उदास और खामोश; बीच में जंगबहादुर को आदेश देने को ही हेम ने कुछ शब्द बोले होंगे। फिर भी उसे लग रहा था जैसे वह साथ खाने की क्रिया अनिर्वाच्य रूप में, दोनों को भावना और एक चिन्ता के सूत्र में आबद्ध कर रही थी।

निवृत्त होने के कुछ ही क्षण बाद केतकी सहसा उठ खड़ी हुई और बोली, “अच्छा हेम, अब मैं चलती हूँ।”

हेम के मुख से कोई उत्तर नहीं निकला, बिना किसी स्पष्ट संकल्प के ही वह उठ खड़ा हुआ। केतकी धीरे-धीरे गेट की ओर चली, जैसे कोई पदभ्रष्ट राजरमणी अज्ञातवास के लिए जा रही हो। कष्ट की स्थिति ने उसे एक अभूतपूर्व गरिमा, एक नये उदास सौन्दर्य से मंडित कर दिया था। किंकर्तव्यविमूढ़ हेम उसके साथ हो लिया।

गेट पर पहुँचते-पहुँचते हेम को जैसे होश आया कि आज केतकी अपनी कार में नहीं आयी है। तो आज से उसने मदनराम की कार का उपयोग करना छोड़ दिया है। “ठहरो, मैं जंगबहादुर को भेज कर ताँगा मँगवा लूँ,” हेम ने केतकी से कहा।

“क्या जरूरत है, पास ही तो चौराहा है।”

हेम विवश हो केतकी के साथ चल दिया।

हेम अपने बँगले में वापस लौट आया, कुछ अप्रतिभ-सा, कुछ परेशान-सा। उसने केतकी से कहा था कि वह उसके साथ चले किन्तु केतकी ने उत्तर दिया था, “नहीं, इस समय इसकी जरूरत नहीं; धन्यवाद!” और फिर ताँगा चलते-चलते, न जाने किस संयोग से, दोनों ने एक साथ एक-दूसरे को नमस्ते किया था, और हेम तथा केतकी दोनों बढ़ती हुई दूरी के बीच, एक-दूसरे की दिशा में देखते रहे थे।

मसहरी पर लेट कर, जाली से घिरे हुए एकान्त में, विश्राम और नींद की पहुँच से दूर हेम आज के असाधारण अतिथियों और उनकी असाधारण बातों के सम्बन्ध में सोच रहा है।

श्यामा के साथ बिताये हुए मीठे समय की याद कुछ धुँधली-सी हो गयी है। वह याद जैसे केवल मस्तिष्क में है, हृदय में नहीं; उसके और हृदय के बीच जैसे लम्बा व्यवधान पड़ गया है। आखिर इस श्यामा को सूझी क्या, क्यों वह इस प्रकार केतकी को देख कर एकाएक बिदक गयी, भाग खड़ी हुई। कुछ नहीं तो मैनर्स का खयाल तो होना चाहिए।

लेकिन श्यामा कभी भी केतकी की समक्षता में मैनर्स का निर्वाह नहीं कर पाती -उस दिन वह कैसे लड़ गयी थी। उसकी तुलना में केतकी का व्यवहार कितना सन्तुलित था। केतकी के व्यक्तित्व में सहज शिष्टता है, सहज स्निग्धता और खुलापन। और आज उसने इस नारी का एक नया रूप देखा था - सहज आभिजात्य की दीप्ति से उद्भासित, सहज आत्मगौरव की चेतना से प्रदीप्त। उस व्यक्ति की व्यक्तित्व की इस नवीन किन्तु स्वाभाविक विवृत्ति से हेम की चिन्तावृत्ति सहसा अभिभूत हो गयी थी।

हेम ने कई बार अपने से यह प्रश्न किया - श्यामा केतकी की उपस्थिति में स्वाभाविक क्यों नहीं रह पाती - क्यों वह उसके सामने व्यर्थ की कटु अथवा उद्दण्ड बन जाती है और उसके व्यक्तित्व में इतनी कटुता, इतनी सशंकता और अविश्वास कहाँ से घुस पड़े हैं? एकान्त वार्तालाप के कोमल क्षणों में भी जैसे यह आशंका और अविश्वास, किसी प्रच्छन्न कोने में छिपे हुए, उसके नारी-सुलभ माधुर्य की अभिव्यक्ति को लगाम देते रहते हैं।

- श्यामा का नारीत्व कभी अपने प्रकृत रूप में प्रस्फुटित नहीं होता, स्पर्श की सम्भावना-मात्र से सिकुड़ने वाली छुई-मुई की भाँति वह प्रतिक्षण अपने में सिमटने को तैयार रहता है। जैसे उसे किसी की वास्तविक अपेक्षा न हो, किसी भी व्यक्ति या चीज की, किसी भी लक्ष्य की ओर बढ़ने की। वह सहयोग लेना नहीं, देना चाहती है। अभिमान ही उसके जीवन का सम्बल है, निरुद्देश्य, निष्प्रयोजन अभिमान! जैसे वह किसी अन्तर्निष्ठ हीनता से, हीनता-बुद्धि से, लड़ रही हो और उसके लिए अपरिमित, अतर्कित अभिमान के अस्त्र को निरन्तर धार देती रहती हो!

- केतकी में भी अभिमान है, पर कितना भिन्न! व्यक्तित्व की सहज उच्चता और महत्ता का अभिमान। जीवन के समुचित लक्ष्य की चेतना और उसकी ओर बढ़ने की साहसपूर्ण तत्परता का अभिमान। और इस सुनिश्चित जीवन-यात्रा में वह स्नेह का आह्वान देने और सुनने को समान रूप में उत्सुक है।

- केतकी की मन-बुद्धि में श्यामा की जैसी गाँठें नहीं हैं। अपने जीवन के गन्तव्य को वह अधिक स्पष्टता से देख सकी है, कल्पित कर सकी है। लेकिन क्यों? क्या इसलिए कि वह श्यामा से अधिक प्रतिभाशालिनी है? अथवा उससे अधिक सबल और सप्राण है? हेम का मन इन दोनों ही समाधानों को स्वीकार नहीं करता। उसे लग रहा है जैसे श्यामा ने अपनी प्रतिभा और सप्राणता दोनों ही का गलत उपयोग किया है।

- श्यामा समाज के एक अपेक्षाकृत निचले स्तर से उठ कर आयी है, वह तिरस्कार और अवहेलना के वातावरण में पली है। अपने प्राणों की समूची शक्ति से, अपनी समस्त बुद्धि और मनस्विता से वह मानो यह प्रमाणित करती रही है कि वह उस स्तर की नहीं है, उसका स्थान वहाँ नहीं है। और एक वर्ग से दूसरे वर्ग तक संक्रमण के इस संघर्ष में वह जैसे यह पूछना भूल गयी है कि उसके नारीत्व का वर्गों से परे उसकी मनुष्यता का गन्तव्य या लक्ष्य क्या है।

हेम को श्यामा पर करुणा हो आयी; और सिर्फ श्यामा पर ही नहीं, उस समूचे मध्यवित्त समुदाय पर, जो उच्च वर्गों के समान दीखने के संघर्ष में अपने व्यक्तित्व को जर्जर और निःसत्व बना डालता है। हेम स्वयं इस समुदाय के सम्बन्धितों के बीच पला है, और वह उनकी क्षुद्र फैशनपरस्ती को नफरत की नजर से देखता आया है। हमेशा से वह महसूस करता आया है कि उसका जीवन किसी उच्चतर ध्येय के लिए है, किसी ऊँचे प्रयत्न के लिए। वह वर्ग-विशेष की मर्यादाओं के चौखटे में फिट होने के लिए नहीं है।

लेकिन वह उच्चतर ध्येय है क्या? आज केतकी ने मानो इस प्रश्न को ज्वलन्त रूप में उसके समक्ष उल्लिखित कर दिया है। अन्ततः वह चाहता क्या है? उसे किधर जाना है? जीवन की अनेक भूमिकाओं में वह अनेक अभिनेताओं का पार्ट खेल चुका है, उसमें से कोई भी उसके अनुकूल नहीं पड़ा। नहीं, नहीं, हेम यह साधारण पार्ट खेलने के लिए नहीं है - साधारण टीचर, पेंटर, जर्नलिस्ट का जीवन उसके लिए नहीं है। और यह तथाकथित अभिजात वर्ग का फूँक-फूँक कर चलने वाला सुरक्षाप्रिय, एडवेंचर विहीन जीवन-उसका भी हेम को रंगमात्र मोह नहीं है। इसीलिए हेम सोच रहा है कि वह निकट भविष्य में ही नौकरी से इस्तीफा दे दे, और... और अपनी न जाने कितने - हैंड कार को निर्लिप्त हो कर बेच दे।

और फिर... फिर वह अबाध, अकम्प गति से बढ़ता चला जाए आगे, और आगे... एक ऐसे लक्ष्य की ओर जिसकी रूप-रेखा यात्रा की प्रगति में ही स्पष्ट होती है। लेकिन उस लक्ष्य का उसे कुछ भी भान न हो, ऐसा नहीं है। उसका आभास उसे मिलता रहा है और आज विशेष रूप में मिला है। वह लक्ष्य किसी वर्ग-विशेष की खोज और प्रतिष्ठा सिर्फ अपने लिए नहीं, मानव-मात्र के लिए करनी है।

और वह सोच रहा है, इस लम्बी निर्मम यात्रा में उसकी सहचरी कौन होगी -केतकी? - अथवा श्यामा?