बार्बी डॉल्स / नीला प्रसाद

Gadya Kosh से
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मैंने खुद को आईने के सामने खड़ी होकर देखा - फूले-फूले गालों, झरकर पतले हो गए बालों, पसरकर कमरा हो चुकी कमर, झुर्रियों को निमंत्रित करते चेहरे, थकी हुई आँखों और परत दर परत चर्बी लदे पेट को... मैं अफसोस से भर उठी। मैंने खुद को एक बार फिर दाएँ और बाएँ घूमकर देखा; इधर-उधर, आगे-पीछे हर कोण से देखा। नहीं, किसी भी कोण से छरहरेपन की कोई आशा शेष नहीं बची थी। मैं, जिसे छुटपन में प्यार से सब गुड़िया-सी कहा करते थे, अब किसी कोण से प्यारी या गुड़िया-सी नहीं लगती थी। शादी के बाद सागर भी लाड़ में कह देता था कि मैं तो उसकी एडल्ट बार्बी हूँ। सधे शरीर, आकर्षक चेहरे वाली बार्बी... मेरे दिल में दर्द का समंदर पछाड़ें खाने लगा कि मैं अपनी उम्र से ज्यादा की दिखने लगी हूँ तभी तो इन दिनों सागर को मुझे देखकर परेशानी होने लगी है। कहता रहता है वह कि मुझे खुद पर ध्यान देना चाहिए। सागर भले ही जताए कि वह मेरे शानदार फिगर या आकर्षक शक्ल पर नहीं, मेरी तीक्ष्ण बुद्धि पर मर मिटा था, मुझे अपने व्यक्तित्व की दूसरी खूबियों को धता बताते, शानदार फिगर मेनटेन करने या सजी-धजी आकर्षक लगती रहने को उकसाने का सिलसिला उसकी ओर से कभी खत्म नहीं हुआ। अब तो शादी के तीन दशक होने को आए और मुझे अच्छी तरह पता है कि खूबसूरत चेहरा और छरहरा शरीर उसकी कितनी बड़ी कमजोरी है।

दरअसल पति को खुश रखने और उसकी पसंद से ही सजने के संस्कार मेरे भीतर इतने गहरे समाए हैं कि जैसे ही चेहरे पर कोई दाग-धब्बा दीखे, खुरदुरापन आ जाए या फिगर खराब होने लगे, मैं इतनी परेशान हो जाती हूँ कि पार्लर के फेरे पर फेरे लगाने, खान-पान में सावधानी बरतने या स्किन स्पेशलिस्ट के चक्कर काटने तक से बिल्कुल नहीं शरमाती! इन समस्याओं का कोई हल न निकले तो हताशा के काले अँधेरे में डूबने लगती हूँ... आखिर पति की प्यारी बनी रहने का मामला जो ठहरा! वह भी उस पति की - खूबसूरत लड़कियाँ जिसे बड़ी आसानी से लुभा लेती हैं। सोचती ही रह गई कि काश सागर खूबसूरती का इस कदर दीवाना नहीं होता! तब मैं चेहरे और फिगर को लेकर इतने तनाव में जीते होने की बजाय, इनसे ध्यान हटाकर, अपने व्यक्तित्व के दूसरे हिस्से सँवारने पर ज्यादा ध्यान दे पाती। कभी तो अंदर से शिकायतों या विद्रोह का उबाल आने लगता है कि मेरे व्यक्तित्व के दूसरे शानदार हिस्सों को क्यों वह प्राथमिकता पर नहीं रख पाता? मेरे अंदर क्यों नहीं देख पाता, बाहर ही क्यों अटका रहता है? पर आईने ने अभी जो चेहरा दिखाया, उससे घबरा ही उठी मैं कि आखिर इतनी जल्दी बूढ़ी कैसे हो गई? भले ही दूसरे ही क्षण यह लगा कि इतनी जल्दी कैसे कहा जाय जब मैं मध्य वय की ड्योढ़ी छू चुकी, पोस्ट मेनोपॉज महिलाओं की खतरनाक जमात में शामिल, बेटा-बेटी ब्याहने की उम्र वाली महिला हूँ, जिसने रिटायरमेंट के साल गिनने शुरू कर दिए हैं। चाहत तो यह है कि मैं अपने ऑफिस की उन महिलाओं की जमात का हिस्सा बनूँ, जिन्हें उनके रिटायरमेंट के दिन तक कभी चालीस से ज्यादा की मानने का दिल नहीं हुआ... पर अब मैं क्या कर सकती हूँ आखिर? क्या-क्या आजमा सकती हूँ? बोटोक्स, जिम, डाइटिंग या सब कुछ? शायद साठ की उम्र में चालीस की दिखने वाली मेरे ऑफिस की उन महिलाओं का जीवन मेरी तरह पेचीदा नहीं रहा होगा। अगर पेचीदा रहा भी होगा तो दुख में डूब जाने की बजाय वे खुश रहना सीख चुकी होंगी। मेरी तरह दस चिंताओं से लदी नहीं जीती रही होंगी। फिगर और खूबसूरती को लेकर अनरियल, अनएंडिंग चाहना से घिरे किसी ऐसे पति की पत्नी तो नहीं ही होंगी, जो अपनी करनियों और सोच से पत्नी को हर वक्त सूली पर लटकाए रखे... परिणाम यह हो कि पत्नी तमाम तनाव झेलती, हर वक्त चेहरे से चली जाती सुंदरता और देह के खत्म होते जाते अनुपातों को लेकर ज्यादा से ज्यादा चिंतित, अपनी उम्र से ज्यादा बूढ़ी होती जाय... युवा दीखती वे सारी महिलाएँ शायद निश्चिंत जीती उस भाग्यशाली समूह का हिस्सा थीं, जिनके पति को पत्नी के बुढ़ापे से कोई समस्या नहीं थी, इसीलिए वे शान से बूढ़ी हो सकती थीं पर निश्चिंतता ने उन्हें बूढ़ी होने दिया नहीं था...

आश्चर्य कि किसी चिर-युवा फैशनेबल पत्नी की चाहना में खोए ऐसे पति के जाल में मुझ जैसी कोई आ फँसी थी जिसके घर फैशन वगैरह का कोई चलन ही नहीं था। फैशन तो मैंने अपने घर की अति पारंपरिक सोच के विरोध में अपनाया था। ब्यूटी पार्लर जाना विद्रोह के इंगित की तरह चुना था। इसी विद्रोही को उसके फैशनेबल और स्मार्ट लुक ने एक सौंदर्यपिपासु, खूबसूरत पुरुष की नजरों में लुभा, उसकी पत्नी बना दिया था और अब वह अपनी स्मार्टनेस और अपना सौंदर्य बरकरार रख सकने की कोशिश में हलकान हुई जीती थी ताकि पति की नजरों से न गिरे।

शायद यह पिछले पूरे महीने कॉन्फ्रेंसों, मीटिंगों में खाते रहने और घर पर मेहमानों के आने से पकने वाले व्यंजनों का असर था। साथ ही मीठा खाने की न छूटने वाली मेरी आदत... ऐसा क्यों करती हूँ मैं, जब जानती हूँ कि मेरे मोटापे से सागर कितना परेशान हो जाता है! वैसे भी जब दिन-भर तन्वंगी, छरहरी, सुडौल, सजी-धजी, निमंत्रण देती युवा लड़कियों से घिरा कोई शाम को घर आने पर एक बिन सजी, ऑफिस से वापस आकर मुसड़े कपड़े लाद चुकी, थकी-हारी, बुझी बीवी से टकरा जाय तो परेशान तो हो ही जा सकता है न! वह चाहता है कि वह घर लौटे तो मैं भी सजी-धजी, अच्छे कपड़ों में, इंतजार में मुस्कुराती मिलूँ... शायद वैसे ही जैसे टी.वी. सीरियलों, विज्ञापनों या फिल्मों में दिखाते हैं। पर मैं यह कर नहीं पाती। सागर के जाने के बाद आपाधापी में तैयार होकर ऑफिस निकलती हूँ और उसके घर आने से पहले ही नाश्ता तैयार कर लेने की ख्वाहिश में, ऑफिस से आते ही बाहर पहने जाने वाले कपड़े एक ओर फेंक, कुछ भी पहन सीधा रसोई का रुख करती हूँ। कहाँ संभव होता है कि प्रेस किए, अच्छे कपड़े पहनूँ या सज-धज लूँ... वैसे तो यह सही है कि वह मुझे कभी सजी-धजी नहीं देख पाता, अच्छे कपड़ो में भी नहीं, पर इससे उसे इतना फर्क क्यों पड़ना चाहिए आखिर! मेरे अंदर की वह लड़की, जिसे घर पर बस दिमाग बनी जीते रहने की शिक्षा मिली थी, अक्सर विद्रोही हो उठती है। क्या पति की नजरों में लुभाए रखने को एक चमकता-दमकता, सुंदर चेहरा ही हमेशा प्राथमिकता पर रहेगा, छरहरी काया ही मुख्य रहेगी... कभी पत्नी की सिंसियरिटि, उसका केयरिंग नेचर, उसकी रिश्तों में ईमानदारी, उसकी मेधा, दुनिया में कुछ कर दिखाने की चाहत... कुछ भी मायने नहीं रख पाएगी? खैर, वजन घट जाना तो अच्छी बात है। यह कोशिश मेरे ही हित में है - मैंने खुद से कहा। इससे मैं दस्तक देते रोगों से छुटकारा पा लूँगी, तो खुद को आईने में देख खुश भी हो लूँगी। और चमकता चेहरा? भई, वह भी हो जाए तो क्या बुरा है! मैंने खुद को दिलासा दिया।

पर सुबह की वॉक पर जाना शुरू करने, एक्सरसाइज करने का समय निकालने या खाना कंट्रोल करने की प्लानिंग से पहले अभी तो पार्लर जाना था। अपॉइंटमेंट साढ़े बारह बजे का था और बारह का समय हो चुका था। शनिवार का दिन था, इसीलिए मंगल-शनि बाल कटाने से बचने वाली पारंपरिक महिलाओं की भीड़ वहाँ होने की संभावना नहीं थी। इन दो दिनों वहाँ जाती हैं तो मुझ जैसी आजादखयाल महिलाएँ, जिन्हें ऐसी परंपराओं से बगावत करने में आनंद आता है, या फिर किशोरियाँ जिन्हें बड़ो की बात न मानना ही भाता है। साथ ही मिल सकती हैं वे महिलाएँ जिनकी मजबूरी है शनिवार को ही पार्लर जाना, क्योंकि रविवार को यह बंद रहता है। तो वे इस दिन बाल कटाने से बचती हुई बाकी के काम, जैसे फेशियल वगैरह कराती हैं। इस पार्लर में तो वैसे भी मध्यवर्गीय लड़कियाँ या महिलाएँ ही आती हैं, जो या तो ज्यादा पैसे खर्च करने की स्थिति में नहीं होतीं या मेरी तरह आर्थिक रूप से सक्षम होते हुए भी उन्हें पार्लर पर ज्यादा पैसे खर्चना गवारा नहीं होता... और फिर पार्लर भी कैसा? एक बेडरूम के एलआईजी फ्लैट की पिछली बालकनी में एक हाउस वाइफ द्वारा चलाया जा रहा पार्लर, जहाँ बाहर कोई बोर्ड तक नहीं लगा। अंदर-अंदर सबों को पता कि यहाँ कोई कमर्शियल ऐक्टिविटि चलती है पर कोई इसे पुलिस के सामने न स्वीकारे... पुलिस के आने से पहले ही वहाँ से सारा साजो- सामान लापता कर दिया जाए और सारे पड़ोसी मुकर जाएँ कि यहाँ कोई पार्लर चलता है। तो एक झूठ, या कहें कि मिलीभगत के तहत चलता है यह सब, जहाँ हम जैसे उसके कस्टमर कम पैसों में काम चला लेते हैं और वह पुलिस को घूस देने या सरकार को टैक्स देने से बच जाती है।

दरअसल खूबसूरती और बदसूरती के बीच की दीवार को पाटती ऐसी जादुई जगहें मुझे बचपन से लुभाती रही हैं। यह खयाल अपने आप में कितना आकर्षक है कि कोई असुंदर-सी दीखती लड़की यहाँ घुसकर सुंदर-सी दीखती बाहर आए। पहले जब अपने रूप- रंग को लेकर हीनता से घिरी कोई, आत्मविश्वास से भरपूर-सी बनी यहाँ से निकलती तो मुझे इन जगहों की सार्थकता पर गर्व होने लगता, मानो यह सब, खुद मेरा ईजाद किया हुआ हो। पर धीरे-धीरे समझ में आने लगा था कि यह आत्मविश्वास नकली है... असली तो है अपने पैरों खड़े होने, रंग-रूप से परे, अपनी बुद्धि के बूते कुछ कर दिखा सकने का आत्मविश्वास! यह जादुई दुनिया चेहरे को खूबसूरत तो बना सकती थी, उस पर असली आत्मविश्वास की परत नहीं चढ़ा सकती थी। मैं याद करती तो हैरान हो जाती कि खुद मुझे इस जादुई दुनिया में घुस पाने की शुरुआत करने में कितनी जद्दोजहद करनी पड़ी थी। हमारा घर उन घरों में से था जहाँ इंटेलिजेंट होना काफी था, चाहे आप अनाकर्षक से ही क्यों न दीखते हों! पढ़ाई में अच्छा होना आपकी पहली प्राथमिकता होनी तय थी, चेहरा-मोहरा, कपड़े वगैरह दूसरी! वातावरण ऐसा कि पढ़ाई में एक्सेल करने के बदले सुंदर दिखने की चाह गलत ही नहीं, गुनाह मानी जाय। किसी बेटी का ध्यान इस बात की बजाय कि वह परीक्षा में ज्यादा से ज्यादा नंबर कैसे लाए या क्लास में अपनी रैंकिंग कैसे सुधारे, इस बात पर होना कि कैसे वह ज्यादा सुंदर दिखे, एक हंगामेदार खबर थी, जो घर पर डाँट खिलाने या उपहास का पात्र बनाने को काफी थी। अपने इंटेलिजेन्स के बूते, अच्छे चरित्र और अच्छी नौकरी के बूते, साधारण रंग-रूप की होते हुए भी, हमें बिना दहेज अच्छा वर मिल जाएगा, ऐसा पिता का मानना था। खुद की साज-सज्जा की बजाय, घर की साज-सज्जा करने, खुद से ज्यादा दूसरों की परवाह करने वाली, केयरिंग नेचर की उनकी कमाऊ बेटियाँ होनहार लड़कों को आकर्षित करेंगी, उन्हें तय-सा लगता था। पर जल्दी ही उन्हें समाज ने समझा दिया था कि उनकी यह सोच नितांत अव्यावहारिक थी। पर यह कहानी तो बाद की है। उससे पहले तो मैंने एक आदर्शवादी वातावरण में, छोटे शहर में रहते, भाई-बहनों, माता-पिता की सोच को धता बताते, एक तरह से उनसे बगावत करते, उस पनाहगार में घुसना चुना, जो मेरे जाने एक जादू था। बड़ी बहन पर मेरी इस गुहार का कोई असर नहीं होने पर कि वह मेरे बाल कंधे तक छोटे कर दे ताकि मैं उन्हें खुला रखकर चोटी बनाने और असुंदर दिखने से बच जाऊँ, मैंने ठान लिया था कि शहर में पार्लर खुलते ही चुपके से वहाँ चली जाऊँगी। बहन का तर्क था कि पहले ही पढ़ाई पर कम ध्यान होने की वजह से मैं क्लास में पहले पाँच में नहीं आ पा रही, अब अगर खुले बाल लहराती-झुलाती, खुद को शीशे में निहारती समय गँवाती रही तो शायद पहले दस में पहुँचना भी दूभर हो जाए... तो जिस घर में फिल्मी गाने गाना, जब-तब फिल्में देखने और लड़कों से दोस्ती की चाहत, बिगड़ जाने का इशारा समझी जाती थी, मैंने कई गुनाह एक साथ कर डाले। आईने में देखकर अपनी घनी, आपस में जुड़ी भौंहों को कैंची से अलगा, खुद ही धनुषाकार कर डाला और शहर में पहला पार्लर खुलते ही, वहाँ घुस, जेब खर्च के पैसों से बाल छोटे ही नहीं, लहरियादार भी करा लिए। जाहिर है कि मैं सुंदर नहीं तो आकर्षक तो दिखने ही लगी हूँगी तभी मुझे लोगों का अटेंशन मिलने लगा था... फिर तो बिना पहले पाँच में आए, बिना जी-तोड़ मेहनत वाली पढ़ाई किए, किस्मत से अच्छी नौकरी मिल गई, चुपके से प्यार हुआ और प्रेमी से विवाह न हो पाने पर पिता की रजामंदी से अपनी पसंद का विवाह भी... पर वह कहानी भी अलग है। अक्सर लगता रहा कि झोंक में शादी तो कर ली पर महानगर में पले-बढ़े पति को छोटे शहर की पत्नी लाने का अफसोस जब-तब होता रहा... पत्नी को अपनी स्मार्टनेस बरकरार रखने और चेहरे- मोहरे, रखरखाव पर पूरा ध्यान देते रहने को लगातार उकसाया जाता रहा। वैसे भी छोटे शहर के हमारे फैशन सेंस और महानगर के फैशन सेंस में बहुत अंतर था और साज-सज्जा पर कम से कम पैसे खर्च करने के संस्कार मेरे चरित्र में इतने गहरे घुसे थे कि पति की नजरें मेरे कस्बाई फैशन सेंस पर जब-तब अफसोस जताती रहीं... पर मैंने कोशिश जारी रखी और शादी के लगभग तीन दशक बाद भी पति की नजरों में अच्छा दिखने की चाहत त्याग नहीं पाई। पति के और मेरे विचारों में, जीने के तरीके और फैशन सेंस में अंतर, मेरे महानगर में बस जाने के बावजूद कभी खत्म नहीं हो पाया। अब तो मैं एक बाल-बच्चेदार, अधेड़, लगभग मोटी महिला में तब्दील हो चुकी थी... ब्यूटी पार्लर के चक्कर तो अब भी लगते थे, चेहरा और फिगर सुधारने की ख्वाहिश भी सागर त्यागने नहीं देता था पर अंदर-अंदर मैं समझ चुकी थी कि बाल कट जाएँ, कामकाजी महिला होने के नाते रोज-रोज हड़बड़ी में किए गए कौवानहान की वजह से चेहरे पर जमती जाती मैल निकल जाए, भौहों की तराश बनी रहे... और हाँ, चेहरे की मालिश से तनाव कम होकर थोड़ा रिलैक्सेशन हो जाए, यही काफी है। पार्लर विजिट इस उम्र में कॉस्मेटिक कम, थेराप्यूटिक जरूरत ज्यादा था। थेराप्यूटिक ही सही, महीने-दो महीने में था तो जरूरी! किशोरावस्था में कंधे तक कटाए गए बाल, अब थोड़े और छोटे होकर, बस कानों को ढकते थे। खुद को आईने में देखती थी तो भरोसा नहीं होता था कि वह मैं ही थी कभी - कमर से नीचे तक बालों की चोटी किए और आपस में जुड़े भौंहो से खुद को आईने में देखती परेशान होती किशोरी...

मैं पार्लर टाइम पर पहुँच गई। इस पार्लर में जाने पर पारंपरिक मॉल वाले रेट्स की तुलना में पैसे तो कम लगते ही हैं , किसी मॉल वाले पार्लर के फॉर्मल वातावरण का अहसास भी नहीं होता। लगता है जैसे कोई घरेलू मंडली जमी है, गपशप के लिए महिलाएँ इकट्ठा हैं और साथ ही बाल काटे जा रहे हैं, फेशियल हो रहा है, आईब्रो बनाई जा रही है... मैनिक्योर, पैडिक्योर... ब्लीच... इस बीच कामवाली आ जाए तो सबों के लिए फटाफट चाय का इंतजाम भी हो जाए और महिलाओं की भीड़ चाय की चुस्कियाँ लेती, गप्पें मारती, मजे से अपनी बारी आने का इंतजार कर लें। तभी तो इस माहौल में धीरे-धीरे काफी सारी लड़कियाँ-महिलाएँ एक दूसरे को जानने लगी थीं।

आज भी वहाँ पहचान वाले कई चेहरे मिल गए।

कविता - जो बिहार के मधुबनी से भागकर प्रेमी के साथ दिल्ली चली आई थी और यहाँ आकर शादी कर ली थी। वह दिनों-दिन मोटी होती जा रही थी और उसका पति जोर डालता रहता था कि वह मोटापे के साथ यौवन और ताजगी खोते जा रहे चेहरे की उम्र किसी तरह थामे रखे। किसी भी हाल में अपनी उम्र से ज्यादा तो नहीं ही दिखे। वह जिम जाती थी, तो वजन घट जाता था, पर जैसे ही जाना बंद करती, पहले से ज्यादा वजनी हो जाती। चेहरे पर चर्बी की परतें चढ़ी-सी लगतीं। समूह की महिलाएँ उसे तरह- तरह की सलाह देती रहती थीं कि वह खुद को कैसे फिट रख सकती है। वह ध्यान से सुनती और हर सलाह को आजमाती थी।

सुंदर-सी तनु, जिसे शादी के पाँच साल बाद भी कोई संतान नहीं हो पाई थी। समय काटने को पति के ऑफिस निकल जाने के बाद पार्लर आ जाती थी। धीरे-धीरे पार्लर का काम सीख रही थी। अपने चेहरे की मालिश करवाकर, पैसे देने के बदले दूसरी महिलाओं के बाल काट देती थी। उसकी इच्छा थी कि माँ नहीं बन पा रही तो कम-से-कम खूबसूरती के बल पर तो पति का दिल जीते रखे।

साइज जीरो में आ जाने और किसी फिल्मी तारिकानुमा धज में तब्दील हो जाने को तत्पर प्रज्ञा, जिसकी शादी की बातचीत चल रही थी।

ममता दीदी - जो बस आइब्रो बनवाने आती थीं पर लंबे समय तक जमी रहकर पास-पड़ोस की तमाम खबरें सुना जाती थीं। हमें पता था कि कैसे उनकी बहू ने महँगे पार्लर में जाकर चेहरा दमकाने पर हजारों-हजार फूँक डाले, पर कोई फायदा नहीं हुआ। पड़ोसी की ठिगनी-सी रागिनी ने छह इंची हील पहनकर खुद को लड़के वालों के सामने प्रस्तुत किया और शादी ठीक हो गई... साँवली या काली-सी रूबी, जिसने फेशियल- ब्लीचिंग के इतने सेशन करवाए पर न ही रंगत में सुधार आया, न शादी ठीक हो पाई... और वो जो चर्बी हटाने की इंस्टेंट क्रीम आई है, जिससे तीन हफ्तों में शरीर की सारी चर्बी गल जाती है, वो ही तो इस्तेमाल की थी अनन्या ने... तो अमरीकी दूल्हा तो उसे देखता ही रह गया... फिर जब छह महीने बाद शादी का वक्त आया तो फिर इस्तेमाल कर ली... पर कोई साल दर साल तो यह सब इस्तेमाल नहीं कर सकता न, तो शादी के बाद तो पोल खुल ही गई। वह तो कहो कि उसका पति बहुत अच्छा है। कोई तलाक, वलाक की बात नहीं की। बस कहा कि जिम जाओ और खुद को मेनटेंड रखो। मोटापा नहीं होना चाहिए,बस...

एक नई लड़की भी थी वहाँ जो नीलम से कह रही थी 'नीलम दीदी, आपने मेरे बाल इतने अच्छे काटे कि ब्वाय फ्रेंड ने कह दिया कि कंगना राणावत-सी दिखती हूँ... मैंने तो खुश होकर उसके द्वारा 'फैशन' फिल्म में पहनी ड्रेस जैसी एक ड्रेस भी ले ली। मैंने कहा उससे कि जैसे तुम चाहोगे, मैं वैसे ही रहूँगी; जैसे चाहोगे, वैसे जिऊँगी, बस मुझे प्यार करना कभी बंद मत करना...' मैंने अंदर से असहज महसूस करते उससे नाम पूछा। वह मुस्कुराती-इतराती बोली - 'अनामिका।' यह असली नाम था या प्रेमी की छाया बनी जीने को आतुर किसी लैला का छाया नाम... सोच नहीं पाई!

सोमा को चिंता थी कि उसका फेस क्रीम कुछ काम नहीं कर रहा, चेहरा मुरझाया-सा लगता है और सब इस बाबत टोकते रहते हैं, तो वह चाहती थी कि वहाँ उपस्थित महिलाएँ उसे सलाह दें कि वह कौन-सी नई क्रीम खरीदे...

...और सोनाली के बाल झर रहे थे... खासकर ललाट के ठीक ऊपर वाले... 'तो क्या ओलिव ऑयल सचमुच कारगर होता है?' उसने पूछा। 'सामने से ही बाल झर जाएँ तो कितना बुरा लगता है न! महिला होने की दिक्कत यह है कि क्या पति, क्या बच्चे, परिवार-समाज-ऑफिस, सबों की - कहा न, सबों की - चाहना यही होती है कि आप सुंदर दिखें... अब चाहती तो हर महिला यही है कि वह सुंदर दिखे पर अगर उसे फर्क नहीं पड़ता हो तब भी वह इस चाहत से लाद दी जाती है।' मैंने प्रशंसा भरी निगाहों से उसकी समझदारी की दाद दी।

...पर मेरी नजरें तो दीपाली को खोज रही थीं। पिछली बार आई थी तब भी वह नहीं मिली थी और आज भी दिख नहीं रही। वैसे तो ऐसा संयोग हो ही सकता था कि उसके और मेरे आने के दिन अलग-अलग हों पर उसे लेकर एक आशंका इन दिनों मुझे घेरे हुई थी, इसीलिए मैं उससे मिलने को बेचैन थी। जब मैंने उसे पहली बार देखा तो उसे कॉलेज में पढ़ रही कोई फैशनेबल कुँवारी लड़की समझा, पर बात निकलने पर उसने हँसते हुए ललाट पर झूलते बालों की लटें हटाकर सिंदूर का निशान दिखा दिया। वह हर वक्त हँसती रहती थी पर उसकी आँखें कोई दूसरा नजारा पेश करती थीं इसीलिए मुझे उसके लिए डर लगता था। उसका पति बहुत कड़े स्वभाव का था - उससे अच्छा बर्ताव नहीं करता था और जब भी कहीं गैदरिंग या पार्टी वगैरह में जाना हो उसे सख्त हिदायत देता था कि वह प्रेजेंटेबल दिखे... यानी किसी फिल्मी हिरोइननुमा! उसका कहना था कि पत्नी में और कोई गुण तो है नहीं - न वह पढ़ी-लिखी कुछ कर दिखा सकने वाली पत्नी है, न ही कमाऊ... न बखानने लायक दहेज लाई है, न ही घर पति की पसंद का सजा-सँवारकर रख सकती है... तो चेहरा-मोहरा अच्छा है, उसे ही सजा सँवारकर रखे न! मुझे आशंका हुई थी कि वह झूठ तो नहीं बोल रही?

'नहीं आंटी, झूठ क्यों बोलूँगी?', जवाब देते उसके चेहरे पर आश्चर्य उभर आया था। 'मुझे तो प्लस टू पास करके ग्रैजुएशन की पढाई शुरू किए कुछ माह ही बीते थे कि मेरा रिश्ता पक्का हो गया। झटपट सगाई भी हो गई। वो मेरी सास और ननद आईं एक दिन और मेरे भाई-भाभी से कहा कि हमें तो दीपाली को अपने घर ले जाना है, किसी भी कीमत पर... अंदर की बात ये थी कि मेरे पति को कोई लड़की पसंद ही नहीं आती थी, उन्हें कोई हिरोइननुमा जो चाहिए थी! तो जैसे ही मेरा फोटो देखकर उन्होने 'हाँ' की, मेरी सास को लगा कि फिर तो ये रिश्ता छोड़ना नहीं चाहिए। वे झटपट हमारे घर आकर बात पक्की कर गईं। पर जब शादी हो गई तो उन्हें लगने लगा कि हड़बड़ी में शादी कर दी, दहेज की बात तय हुई नहीं और मेरे भाई-भाभी ने बहुत कम सामान दिया... तो ताने देती रहती हैं कि मेरे इतने काबिल लड़के को ठग लिया।'

'पर पति तो अच्छा बर्ताव करते हैं न?', पूछने पर उदास हो गई।

'उन्हें तो बस हर समय मेरी देह और साज-सज्जा की पड़ी रहती है। बिन सजी दिख जाऊँ तो नाराज हो जाते हैं। कहते हैं कि बनी-ठनी रहा करो, रूप के अलावा तुम्हारे पास है ही क्या! कभी तो ऐसा लगता है कि जैसे वे मुझे प्यार ही नहीं करते... अकेले में मिले नहीं कि छूना शुरू कर दिया... कभी गिफ्ट देना हो तो खूबसूरत ब्रा, पारदर्शी गाउन, घुटने तक की नाइट ड्रेस... यही सब लाएँगे। माँ-पापा पहले ही गुजर गए, भाई पर बोझ थी, उन्होंने उतार दिया... पढाई भी पूरी करने नहीं दी। अब न तो हाथ में पैसे होते हैं, न ससुराल में इज्जत है, पर क्या करूँ... जीना तो है! पति जब भी कहते हैं कि पार्लर जाकर फेशियल करा आओ, बाल कटा आओ, चली आती हूँ यहाँ! मैं तो भाई-भाभी से बात करती हूँ तब भी आसपास कोई न कोई खड़ा रहता है कि कहीं ससुरालवालों की शिकायत तो नहीं कर रही... वैसे भी किस दोस्त को कॉल किया या किसे क्या मैसेज भेजा, पति चेक करते रहते हैं। इतनी बंदिशें हैं कि...'

'तो पढ़ाई पूरी कर लो पहले, फिर ही तो आगे कुछ सोच पाओगी'

'पढ़ने देना नहीं चाहते। घर के काम, खाना पकाना, यहाँ तक कि बर्तन तक तो मुझे ही माँजने होते हैं। उसके ऊपर से सब चाहते हैं कि हर वक्त सजी-धजी रहूँ। क्या करूँ, क्या न करूँ, समझ नहीं पाती... कोई आपकी तरह थोड़े हूँ कि घर पर कामवालियाँ हैं। सुबह उठे और तैयार होकर, नाश्ता करके काम पर निकल गए... बीस की उम्र में ये हाल है, पता नहीं सारी जिंदगी कैसे कटेगी? मैं आपकी तरह बनना चाहती हूँ आंटी! मैं चाहती हूँ कि मैं भी सुबह वॉक पर जाऊँ, बना बनाया खाना खाऊँ, ऑफिस में कुरसी पर बैठकर हुक्म चलाऊँ', वह उदास दिखती हुई भी मुस्कुरा दी थी और माँगने पर बहुत डरते-डरते अपना मोबाइल नंबर दिया था।

फिर जब बाद में कई बार पार्लर जाने पर भी उससे भेंट नहीं हुई तो मैंने झिझकते हुए उसका मोबाइल नं. घुमा दिया। उसने ठीक से बात नहीं की। शायद कोई पास खड़ा था। मुझे चिंता हुई। दो-एक दिन बाद मैसेज किया कि 'सब ठीक तो है?' उसने एक शब्द लिखा - 'हाँ'। 'मिलो न एक दिन...' मैंने हिम्मत करके लिख दिया। उधर से कोई जवाब नहीं आया। अगली बार मिली वहीं पार्लर में तो देखकर संकोच से मुस्कुराई। मैंने सबों के सामने कुछ नहीं कहा पर बाहर निकलकर कहा 'मैं चाहती हूँ कि मैं तुम्हारी ससुराल आऊँ, तुम्हारी सास से बात करूँ। इस तरह तो तुम खत्म हो जाओगी... सिर्फ साज-सज्जा के बल पर कब तक पति को बांधे रख पाओगी? कभी तो बाल-बच्चेदार होकर बूढ़ी होगी, कभी तो तुम्हारी भी इच्छा होगी कि पास में पैसे हों... कभी तो मन होता होगा तुम्हारा कि अपनी पसंद से कुछ खरीदें, खाएँ... अपने मन से किसी को कुछ दें। हाथ खर्च के पैसे तुम्हारा अधिकार है'।

वह डर गई। 'किसी अधिकार की बात आप मेरी ससुराल में नहीं करेंगी आंटी... आप वहाँ नहीं जाएँगी। मैंने बेकार ही आपको इतनी बातें बता दीं', और वह मुड़कर तेजी से चल दी। मुझे उसके घर का पता मालूम नहीं था, वहाँ जाने को उसने मना भी कर दिया था पर उसके बारे में सोचते ही, उसकी याद आते ही, चिंता सताने लगती थी - वह ठीक तो है? तब मैं एक एसएमएस भेज देती थी - 'ठीक हो?', वह लिखती थी - 'हाँ।' बात खत्म हो जाती थी। फोन वह उठाती नहीं थी - शायद व्यस्त रहती होगी या फिर बात करने की इजाजत नहीं होगी... या फिर पास कोई खड़ा हो जाता होगा और वह संकोच में पड़ जाती होगी... या फिर वह बात करना ही नहीं चाहती होगी कि कहीं मैं कुछ ऐसा न पूछ लूँ कि जवाब देते न बने... या फिर... ऐसे ही कितने महीने बीत गए। पर एक दिन वह मिल ही गई वहीं पार्लर में। वह हाल में ही, बल्कि कुछ हफ्ते पहले ही माँ बनी थी। बेटे को दादी के पास छोड़कर पूरे शरीर की वैक्सिंग करवाने पार्लर आई थी। साथ ही पार्लर की मालकिन नीलम से पूछती भी जा रही थी कि हाथ फिराने पर कहीं बाल या खुरदुरापन महसूस तो नहीं होता? वह बोली मुझसे कि वह चाहती है कि पति उससे हमेशा खुश रहे। कम दहेज लाने के कारण मिलने वाले तानों से अगर साज-सज्जा बचा ले, हर तीसरे हफ्ते पार्लर आने, सास-बहू सीरियलों में पहने जाने वाले कपड़ों की नकल खरीदने-पहनने या पति की पसंद से कम या अधिक वजनी हो जाने से जिंदगी ठीक-ठाक चलती रहे तो क्या बुरा है? असली बात यह है कि पति खुश रहें, सास खुश रहें... अब मायके वालों ने ब्याह दिया, तो पति ही तो घर-संसार है, यहाँ से निकाल दी गई तो मायके में भाई-भाभी मन से रखने को तैयार थोड़े होंगे... और जब पहली शादी में ही इतना कम दहेज दे पाए, तो दुबारा शादी तो हो ही नहीं पाएगी न! शायद बेटा यानी वंशज पैदा करके दे देने के बाद ससुराल में उसे इज्जत मिलने लगे... वह मेड या बिस्तर की सज्जा मात्र बनी नहीं जिए; एक बहू, पत्नी और माँ की इज्जत पा जाए... उस दिन वह खुश दिख रही थी और इसीलिए उसे लेकर मेरी बेचैनी कुछ कम हो गई थी। मैंने सोचा था कि अगली बार मिलने पर उसे छेड़ूँगी कि पति को तुम्हारी पीठ पर खुरदुरापन महसूस तो नहीं हुआ? ... नीलम ने बाल ठीक से हटाए थे न! ...पर पहले वह मिले तो... दिखे तो, ठीक तो हो... जाने क्यों कुछ दिनों बाद ही आशंकाएँ फिर से सताने लगी थीं, जिनका कोई आधार नहीं था।

एकदम कोई आधार नहीं था, यह कहना भी पूरा सच नहीं। हाल-हाल में दो एसएमएस उसकी ओर से आए थे, जिन्होंने मुझे परेशानी में डाल रखा था। एक तो जाने क्यों 'गुड नाइट आंटी' का था, जिसके जवाब में मैंने भी उसे 'गुड नाइट। स्वीट ड्रीम' लिख भेजा था... और दूसरा था अगली ही रात 'गुडबाई आंटी' का... जिसके जवाब में मैंने उसे एक प्रश्नचिन्ह(?) भेजा था, जो आज तक अनुत्तरित था।

तो आदत के विपरीत अपनी पहल से भेजा गया उसका 'गुडबाई आंटी' मेरे जेहन में अटका पड़ा था। अपने प्रश्नचिह्न का कोई जवाब न पाकर मैंने अगले दिन फोन मिलाया तो वह स्विच्ड ऑफ था। मैं उस गुड़िया से मिलना चाहती थी। मैं तसल्ली करना चाहती थी कि वह ठीक है। मन तो होता था कि उस भोली-भाली को उठा लाऊँ ससुराल से, जहाँ वह मेड की तरह और मात्र देह, यानी बिस्तर की सज्जा की तरह इस्तेमाल की जा रही थी। साथ ही यह बात भी छू गई थी कि वह मेरी तरह बनना चाहती है। अपने जीवन के कॉम्प्लिकेशन्स मैं उसे बताना नहीं चाहती थी पर तय है कि सब कुछ के बावजूद मेरा जीवन उससे लाख गुने बेहतर है।

आखिरकार मन नहीं माना तो मैंने पूछ ही लिया।

'दीपाली नहीं आती इन दिनों? कई महीनों से नहीं देखा। अब तो बेटा खेलने लायक हो गया होगा?'

सभी महिलाएँ एक दूसरे का मुँह देखने लगीं। मुझे कुछ अजीब-सा लगा। ठीक है कि मैं इस मंडली से बहुत घुली-मिली नहीं, पर किसी का हाल पूछ लिया तो क्या बुरा किया?

तब नीलम धीरे से बोली - 'आपको मालूम नहीं कि दीपाली नहीं रही?'

'क्या?' मैं चौंकी। 'क्या हुआ उसको?'

'उसने तो जी, सुसाइड कर लिया।' ममता मैम बोलीं।

'हाय राम, क्यों भला? ...इतनी प्यारी लड़की! अभी तो बेटा साल का भी नहीं हुआ होगा... इतने प्यार से पति के लिए बन-सँवरकर रहती थी।' मैंने चौंकते हुए कहा।

'प्यार से नहीं, मजबूरी में... बन-सँवरकर नहीं रहती तो वैसे भी पति छोड़ देता। उसे वह पसंद नहीं थी। उसका लाया कम दहेज भी पसंद नहीं था। फिर बेटे की सूरत न पापा जैसी थी, न माँ जैसी, तो झगड़े होने लगे थे।' वहाँ बैठी किसी महिला ने कहा, जिसे मैं पहचानती नहीं थी।

'ना जी, बच्चे की सूरत तो दादी से पूरी मिलती है। वह तो बहाना था।' ममता मैम बोलीं।

नीलम ने कहा - 'दीपाली बेचारी पति को लुभा सकने को, नन्हें दूध पीते बच्चे को छोड़कर यहाँ आती रही कि उसके चेहरे-मोहरे में, देह में, बालों में कोई कमी न दिखे... अच्छा फिगर, अच्छा स्वभाव, अच्छी सूरत... पति पर तो वह जान देती थी। अब अगर मायके वाले दहेज ज्यादा न दे पाए तो उसका क्या कसूर...'

'दहेज की बात नहीं थी जी। असल में पति का दिल पहले से ही कहीं और था, तो पत्नी को परेशान करता था। हर बात में नुक्स निकालता रहता था। खासकर उसकी साज-सज्जा, चेहरे में, देह में... वह सजी-धजी रहे तब भी उसे शिकायत, न सजे तब भी... सुना तो यह भी है कि उसने दीपाली के कई न्यूड फोटो और गंदे वीडियो नेट पर डाल दिये थे... किसी और को चाहता था तो इसे तरह-तरह से अपमानित करता रहता था। घर का सारा काम करती थी तब भी सास दिन भर परेशान करती, डाँटती रहती थी। अब कहाँ जाती वह? पिता पहले ही चल बसे, भाई रखने को तैयार नहीं... जाने क्या बात हुई कि उसने पंखे से लटककर...' मैं सिहर गई।

'कोई भी समझ सकता है कि अपना ही पति अगर इंटरनेट पर पत्नी की न्यूड तस्वीरें डाले, पत्नी को घर पर रख छोड़ किसी और को प्यार करे तो पत्नी को कैसा लगेगा... और फिर मायके में कोई पूछने वाला नहीं... क्या करती, कैसे जीती, कोई उपाय ही नहीं था।' ममता मैम अपनी रौ में बोलीं।

मेरा दिल रो पड़ा। तो यह था उसका 'गुडबाई आंटी...'

'भई, हम तो चेहरा सँवार सकते हैं, जिंदगी नहीं सँवार सकते...' नीलम बोली। 'किस्मत पर हमारा क्या वश...'

मैं ठक बैठी रही। ममता मैम कहे जा रही थीं 'औरत तो हर तरह से पति की पसंद की बनने को तैयार रहती है। अगर पति को लंबी पत्नी चाहिए थी, तो नाटी पत्नी बेचारी सारी जिंदगी पति की बगल में हील पहनी खड़ी होगी, चाहे इसके कारण कमर में तकलीफ ही क्यों न हो; पति को गोरी चाहिए थी और पत्नी साँवली या काली है, तो बुढ़ापे तक गोरेपन की क्रीम लगाएगी, किसिम-किसिम के नुस्खे आजमाएगी कि रंगत सुधरे पर पति कहेगा नहीं कभी कि तुम जैसी भी हो, मुझे पसंद हो... कम पढ़ी-लिखी हो या सुंदर नहीं हो तब तो पति का हक बनता ही है कि घर पर पत्नी को रोती छो़ड़ पढ़ी-लिखी या सुंदर औरत से दोस्ती कर ले, अफेयर चलाए... कम बोलने वाली हो तो हो सकता है कि पति कह दे कि तुम तो हँसती-बोलती ही नहीं, मुझे तो खिलखिलाती, हँसती लड़कियाँ पसंद हैं... और ज्यादा बोले तो क्या पता पति ऐसा मिल जाय जिसे गंभीर, चुप्पी, पढ़ाकू-सी पसंद हो... तो जो भी हो जी, लड़की को तो हर समय कोई और बन जाने, पति की पसंद में ढल जाने को तैयार रहना ही होता है... दीपाली ने भी ऐसा ही करने की कोशिश की, पति और सास जैसे कहें, वैसे ही जीने की कोशिश की पर उसकी किस्मत ही खराब थी... बैड लक नहीं तो और क्या है यह कि लड़की कठपुतली बनकर जीने को तैयार है तब भी आप...'

वातावरण भारी हो गया। इतनी सारी चुप्पियाँ, इतनी सारी अनकही सिसकारियाँ, इतने सारे अंदर छुपे दुख... सब सतह पर आ चेहरे दिखाने, दिल के अंदर झाँकने लगे।

ममता मैम कहे जा रही थीं 'अब देखो न, क्या शादी के समय किसी लड़के से किसी ने पूछी है उसके कंधे की माप... कमर की माप, जैसे कि लड़की की जानना चाहते हैं। छातियाँ बढ़ाने या घटाने के विज्ञापन, इतने तरह के लोशन, क्रीम, रंगत निखारने की तरकीबें... उसके मुकाबले लड़कों के लिए कितने विज्ञापन हैं? क्या आज भी शादी के वक्त मिडिल क्लास में कोई परवाह करता है कि लड़के का शरीर कैसा है... दुबला है, तो चलो लड़की खिला-पिला के ठीक कर देगी... मोटा है, कोई बात नहीं, चलता है। नाटा है, तो क्या हुआ, मोटा कमाता तो है न... जो भी जैसा भी है, लड़की का काम है उसे वश में करके रखना, उसके दुर्गुण नहीं देखना और उसके पसंद की बनकर रहना... पति जैसा चाहे, वैसे ही ढल जाना... पर लड़के को यह नहीं सिखाते कि पत्नी के दुर्गुण मत देखो, उसे कोई और बनने पर मजबूर किए बिना प्यार करो' वे लगातार बोले जा रही थीं और मैं अपने अंदर मौन बहते दुखों को सँभालती, चकित हो रही थी कि वे मुहल्ला पुराण सुनाने के अलावा सोच भी सकती हैं, तर्क भी कर सकती हैं।

'चलो, जाने वाली तो चली गई। अब हम तो जी लें।' अनामिका बोली, तो पहले सब चौंक गए। फिर सचमुच रुके हुए हाथ चलने लगे। बाल कट-कटकर नीचे गिरने लगे, भौंहे तराशी जाने लगीं, चेहरा चमकाने को मालिश शुरू हो गई। मेड को चाय बनाने को कह दिया गया... धीरे-धीरे मुस्कुराहटें पसरने लगीं, ठहाके हवा को फोड़ने लगे।

पर कुछ था जो मेरे अंदर ठहर गया।

दरअसल मेरे दिमाग ने सुनना बंद कर दिया था। एक ही धुन बज रही थी अंदर कि वह मर गई है, वह अब इस दुनिया में नहीं है... मैंने उसके लिए सिर्फ सोचा, कुछ किया नहीं... मैं अपराधी हूँ। सोचते-सोचते इतनी देर कर दी मैंने और वह मेरी पहुँच से इतनी दूर चली गई कि हाथ अब उसे छू नहीं सकते... और जब यहाँ इकट्ठा महिलाओं को उसके बारे में इतना सब मालूम है तो मुझे क्यों मालूम नहीं हो पाया पहले... सब मेरी गलती है, मेरी! वह मेरी तरह बनना चाहती थी और मैंने ही उसको धोखा दिया। मैं उसके घर जा सकती थी। चली जाती तो सास और पति को मालूम तो होता कि कोई है जो दीपाली के साथ है। वह अकेली नहीं है।

यह एक भयावह अंत था।

मेरा दिमाग सुन्न हो गया और पार्लर की हवा में फैली खुशबू मुझे विकर्षित करने लगी। वहाँ बैठी लड़कियों की खिलखिलाहटें और ठहाके चुभने लगे। उन ठहाकों और खिलखिलाहटों के पीछे बसे चीत्कार साफ सुनाई पड़ने लगे।

मैं बिना बाल कटाए, बिना फेशियल करवाए उठकर बाहर आ गई। वह नहीं है, वह जा चुकी है, मैंने खुद को याद दिलाया। क्यों जा चुकी है वह और उसने मुझे पूरा सच क्यों नहीं बताया? ये न्यूड फोटो, सेक्स वीडियो वाली बात क्यों नहीं कही? एक-दूसरे को अपने जीवन का पूरा सच क्यों नहीं बतातीं महिलाएँ?

हम दुख भुगतती और उसे खुद ही न स्वीकारती औरतें क्यों है?

मेरी आँखों में आँसू आने लगे। काश कि दीपाली ने खुद को सजी-धजी गुड़िया बनाए रखने से, पति की फर्माइश पर पार्लर आने से इनकार कर दिया होता! पर मुझे एक झटका लगा। वह बिन पढ़ी, बिन माँ-बाप की बेटी ऐसा कैसे कर सकती थी, जब अपने पाँवों खड़ी, पीठ पर पिता का हाथ होते हुए भी मैं ऐसा नहीं कर पाई? हमेशा यही तो सोचती रही कि कैसे खुद को सागर की नजरों में काम्य बनाए रखूँ... शादी होते ही पति की पसंद का खाना, उसी के पसंद की घर की साज-सज्जा, उसकी पसंद से स्लिम बनी रहने के चक्कर में बार-बार मालन्यूट्रिशन की शिकार होना... पति की पसंद के बाल कटाने के चक्कर में एक बार तो मैंने बाल इतने छोटे करा लिए थे कि बंदरिया-सी दीखने लगी थी और ऑफिस में बॉस से लेकर, सहेलियाँ तक परेशान हो गई थीं। मुझे रोना आने लगा। फिर मेरा रोना और तेज हो गया।

जी भरकर रो लेने की ख्वाहिश में मैं बगल के पार्क में बैठ गई। दीपाली, दीपाली... तुम ऐसे हार क्यों गई? एक बार तो कहा होता, बस, एक बार! काश कि थोड़ी-सी हिम्मत की होती... पर वह जैसे मेरी आँखों के सामने मुझे 'गुडबाई आंटी' लिखकर, बार-बार पंखे से लटक रही थी, मर रही थी...

काफी देर बाद मैं उठी। मैंने पार्लर को मुड़कर देखा। नहीं, वह बदसूरती और खूबसूरती को पाटती कोई जादुई जगह नहीं थी। वह दोजख की आग थी, जिसमें सिर्फ इस वक्त वहाँ बैठी लड़कियाँ या महिलाएँ नहीं, सारी नारी जाति जल रही थी - पूरी की पूरी नारी जाति! उनको कोई और बनने, किसी और के वैल्यू सिस्टम के अनुसार सजने, जीने को उकसा रही थी यह जगह!

मैं पार्लर से उल्टी दिशा में भारी कदमों से चलने लगी। अब जिंदगी में कभी पार्लर नहीं जाऊँगी, मैंने अनचाहे भी बार-बार आ जाते आँसुओं के साथ सोचा।

पर क्या मैं कभी सिखा पाऊँगी किसी को कि वह सिर्फ खुद से प्यार करे, भीड़ में लोगों की अपनी ओर उठती निगाहों से नहीं? आखिर मैं पूरे समाज की इस सोच से कैसे लड़ पाऊँगी कि वह किसी लड़की को काम्य समझी जाने के लिए खूबसूरत बनने पर जोर नहीं डाले? पुरुषों को रिझाने के खेल में उसे न डाले?

पता था मुझे कि हमें खुद को प्यार करना नहीं, खुद को प्यार किया जाना भाता है।

मैं घर वापस आ गई। जाकर आईने के सामने खड़ी हो गई। मैं रो रही थी... माँ की सलोनी, गोल-मटोल गुड़िया रो रही थी। वह बहुत जल्दी बूढ़ी हो गई थी और उसे ऐसा लग रहा था मानो किसी ने उसका सब कुछ छीन लिया हो। जार-जार रो रही थी वह प्यारी गुड़िया, जिसने युवावस्था में अपने आकर्षक चेहरे, आइडियल फिगर की इतनी धूम मचा रखी थी। आईने के सामने खड़ी उस बदशक्ल, बूढ़ी, स्थूलकाय गुड़िया को जैसे कोई चिढ़ा रहा था - माँ की बूढ़ी गुड़िया, माँ की बूढ़ी गुड़िया... बदशक्ल, भद्दी, मोटी गुड़िया... मैं हैरान थी - बदशक्ल, भद्दी, मोटी और मैं? मैं परेशान थी - माँ की बूढ़ी गुड़िया? पर बार्बी कभी बूढ़ी नहीं होती। जो बूढ़ी हो जाए, वह बार्बी नहीं हो सकती... मैं हिचक-हिचककर रोने लगी।

'माँ, आपने भूरे बाल और गोरे गालों वाली अपनी चिकनी गुड़िया को सिखाया क्यों नहीं कि सफल, काम्य बनी रहने को पति के पसंद की गुड़िया बनी रहना जरूरी नहीं! उस बार्बी-सी बनना कतई जरूरी नहीं जिसे उसके अनजाने-अनचाहे उसकी कीमत माँगकर, उससे दहेज लेकर, उसका मालिक बना पति मनमर्जी मरोड़, तोड़ रहा होता है... उससे खेलता, खुश होता, उस पर अपना हक जताता कभी सीने से लगाता, कभी लतिया रहा होता है।', मैंने सुबकते हुए बुदबुदाकर कहा।

'पापा, मुझे माफ कर दो। आपकी बात ही सही थी कि मुझे खुद को किसी ऐसे को सौंपना चाहिए था जो चेहरे की नहीं, बुद्धि की कीमत लगाता, पर मैंने आपकी सोच का साथ नहीं दिया...', मेरा रोना और तेज हो गया, पर दो हजार किलोमीटर दूर रहते माँ या पापा ने नहीं सुना।

गुड़िया बनी रहने की कोशिश में दीपाली और मैं दोनों मारे गए थे। उसका मरना सबों को पता था पर मेरा रोज-रोज धीरे-धीरे मरते जाना किसी को पता तक नहीं था!

रोती हुई मैं, खुद को और दुनिया की हर लड़की को, पार्लर से और किसी बार्बी डॉल में तब्दील होने से बचा लेना चाहती थी। मैं ठानना चाहती थी कि अनाकर्षक दिखने की कीमत पर भी दुनिया में अपनी जगह बनाऊँगी... अब साज-सज्जा की जगह वो करूँगी जो करना दिल से भाता है... पर कल्पना में दिखते दृश्यों ने मुझे दहला दिया। सागर किसी और की बाँहों में था... और ऑफिस में बॉस मुझे किसी भी फंक्शन, किसी भी मीटिंग में प्राइम रोल नहीं दे रहे थे... कह रहे थे कि जो प्रेजेंटेबल है, वही दिखाया जा सकता है। मेरे सर पर हथौड़े पड़ने लगे। मुझे पता था कि खुद से किए अपने वादे पर मैं टिक नहीं पाऊँगी। आज तो वापस आ गई पर अगले हफ्ते पार्लर जरूर जाऊँगी।