बाह्यदृश्य चित्रण / गोस्वामी तुलसीदास / रामचन्द्र शुक्ल

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यहाँ तक तो गोस्वामीजी की अन्तर्दृष्टि की सूक्ष्मता का कुछ वर्णन हुआ। अब पदार्थों के बाह्य स्वरूप के निरीक्षण और प्रत्यक्षीकरण पर भी थोड़ा विचार कर लेना चाहिए, क्योंकि ये दोनों बातें भी कवि के लिए बहुत ही आवश्यक हैं। प्रबन्धगत पात्र के चित्रण में जिस प्रकार उसके शील स्वरूप को, उसके अन्तस् की प्रवृत्तियों को भी प्रत्यक्ष करना पड़ता है; उसी प्रकार उसके अंगसौष्ठव आदि को भी प्रत्यक्ष करना पड़ता है। यहीं तक नहीं, प्रकृति के नाना रूपों के साथ मनुष्य के हृदय का सामंजस्य दिखाने और प्रतिष्ठित करने के लिए उसे वन, पर्वत, नदी, निर्झर आदि अनेक पदार्थों को ऐसी स्पष्टता के साथ अंकित करना पड़ता है कि श्रोता या पाठक का अन्त:करण उनका पूरा बिम्ब ग्रहण कर सके। इस सम्बन्ध में पहले ही यह कह देना आवश्यक है कि हिन्दी कवियों में प्राचीन संस्कृति कवियों का सा वह सूक्ष्म निरीक्षण नहीं है। जिससे प्राकृतिक दृश्यों का पूरा चित्र सामने खड़ा होता है यदि किसी में यह बात थोड़ी बहुत है, तो गोस्वामी तुलसीदासजी में ही।

दृश्यचित्रण में केवल अर्थ ग्रहण कराना नहीं होता, बिम्ब ग्रहण कराना भी होता है। यह बिम्ब ग्रहण किसी वस्तु का नाम ले लेने मात्र से नहीं हो सकता। आस-पास की और वस्तुओं के बीच उसकी परिस्थिति तथा नाना अंगों की संश्लिष्ट योजना के साथ किसी वस्तु का जो वर्णन होगा, वही चित्रण कहा जाएगा। 'कमल फूले हैं', 'भौंरे गूँज रहे हैं', 'कोयल बोल रही है' यदि कोई इतना ही कह दे तो यह चित्रण नहीं कहा जायेगा। 'लहराते हुए नीले जल के ऊपर कहीं गोल हरे पत्तोंो के समूह के बीच कमलनाल निकले हैं जिनके झुके हुए छोरों पर रक्ताभ कमलदल छितराकर फैले हुए हैं' इस प्रकार का कथन चित्रण का प्रयत्न कहा जायेगा। यह चित्रण वस्तु और व्यापार के सूक्ष्म निरीक्षण पर अवलम्बित होता है। आदि कवि वाल्मीकि तथा कालिदास आदि प्राचीन कवियों में ऐसा निरीक्षण करानेवाली समग्र बाह्य सृष्टि से संयुक्त सहृदयता थी जो पिछले कवियों में बराबर कम होती गई और हिन्दी के कवियों के तो हिस्से में ही न आई। उन्होंने तो कुछ इनीगिनी वस्तुओं का नाम ले लिया, बस पुरानी रस्म अदा हो गई। फिर भी कहना पड़ता है कि यदि प्राचीन कवियों की थोड़ी बहुत छाया कहीं दिखाई पड़ती है, तो तुलसीदासजीमें।

चित्रकूट, पंचवटी आदि स्थानों में गोस्वामीजी राम लक्ष्मण को ले गए हैं; पर उनके राम लक्ष्मण में प्रकृति के नाना रूपों और व्यापारों के प्रति वह हर्षोल्लास नहीं है जो वाल्मीकि के राम लक्ष्मण में है। वाल्मीकि के लक्ष्मण पंचवटी पर जाकर हेमन्त ऋतु की शोभा का अत्यन्त विस्तीर्ण और सूक्ष्म वर्णन करते हैं, उसके एक एक ब्योरे पर ध्या न ले जाते हुए अपनी रागात्मिका वृत्ति को लीन करते हैं; पर गोस्वामीजी के लक्ष्मण बैठकर राम से 'ज्ञान, विराग, माया और भक्ति' की बात पूछते हैं। वाल्मीकि के लक्ष्मण तो जहाँ तक दृष्टि जाती है, वहाँ तक का एक एक ब्योरा इस प्रकार आनन्द से सामने ला रहे हैं-

अवश्यायनिपातेन किंचित्प्रक्लिन्नशाद्वला।

वनानां शोभते भूमिर्निविष्टतरुणातपा।।

स्पृशंस्तु विपुलं शीतमुदकं द्विरद: सुखम्।

अत्यंततृषितो वन्य: प्रतिसंहरते करम्ड्ड

वाष्पसंछन्नसलिला रुतविज्ञेयसारसा।

हिमार्द्रवालुकैस्तीरै: सरिता भान्ति साम्प्रतम्ड्ड

जराजर्जरितै: पद्मै: शीर्णकेसरकर्णिकै:।

नालशेषैर्हिमधवस्तैर्न भान्ति कमलाकर:।।

और तुलसीदासजी के लक्ष्मण राम से यह सुन रहे हैं कि-

गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानेहु भाई।।

इतना होने पर भी गोस्वामीजी सच्चे सहृदय भावुक भक्त थे; इस जगत के 'सियाराममय' स्वरूपों से वे अपने हृदय को अलग कैसे रख सकते थे। जबकि उनके सारे स्नेह सम्बन्ध राम के नाते से थे, तब चित्रकूट आदि रम्य स्थलों के प्रति उनके हृदय में गूढ़ अनुराग कैसे न होता, उनके रूप की एक एक छटा की ओर उनका मन कैसे न आकर्षित होता? जिस भूमि को देखने के लिए उत्कंठित होकर वे अपने चित्ता से कहते थे-

अब चित चेत चित्रकूटहिं चलु।

भूमि बिलोकु राम पद अंकित बन बिलोकु रघुबर बिहार थलु।।

उसके रूप की ओर वे कैसे ध्या न न देते। चित्रकूट उन्हें कैसे अच्छा न लगता? गीतावली में उन्होंने चित्रकूट का बहुत विस्तृत वर्णन किया है। यह वर्णन शुष्क प्रथापालन नहीं है, उस भूमि की एक एक वस्तु के प्रति उमड़ते हुए अनुराग का उद्वार है। उसमें कहीं कहीं प्रचलित संस्कृत कवियों का सूक्ष्म निरीक्षण और संश्लिष्ट योजना पाई जाती है; जैसे-

सोहत स्याम जलद मृदु घोरत धातु रँगमगे सृंगनि।

मनहुँ आदि अंभोज बिराजत सेवित सुर मुनि भृंगनि।।

सिखर परस घन घटहिं मिलति बग पाँति सो छबि कबि बरनी।

आदि बराह बिहरि बारिधि मनो उठयो है दसन धरि धरनी।।

जल जुत बिमल सिलनि झलकत नभ बन प्रतिबिम्ब तरंग।

मानहुँ जग रचना बिचित्र बिलसति बिराट ऍंग ऍंग।।

मंदाकिनिहि मिलत झरना झरि झरि भरि भरि जल आछे।

तुलसी सकल सुकृत सुख लागे मानौ राम भगति के पाछे।।

इस दृश्य की संश्लिष्ट योजना पर ध्याान दीजिए। इसमें यों ही नहीं कह दिया गया है कि 'बादल छाए हैं' और 'बगुलों को पाँति उड़ रही है।' मन्द मन्द गरजते हुए काले बादल गेरू से रँगे (लाल) शृंगों से लगे दिखाई देते हैं और शिखर स्पर्शी घटाओं से मिली श्वेत बकपंक्ति दिखाई दे रही है। केवल 'जलद' न कहकर उसमें वर्ण और ध्व नि का भी विन्यास किया गया है। वर्ण के उल्लेख से 'जलद' पद में बिम्ब ग्रहण कराने की जो सामर्थ्य आई थी, वह रक्ताभ शृंग के योग में और भी बढ़ गई और बगुलों की श्वेत पंक्ति ने मिलकर तो चित्र को पूरा ही कर दिया। यदि ये तीनों वस्तुएँ-मेघमाला, शृंग और बकपंक्ति-अलग अलग पड़ी होतीं, उनकी संश्लिष्ट योजना न की गई होती; तो कोई चित्र ही कल्पना में उपस्थित न होता। तीनों का अलग अर्थग्रहण मात्र हो जाता, बिम्ब ग्रहण न होता। इसी प्रकार काली शिलाओं पर फैले हुए जल के भीतर आकाश और वनस्थली का प्रतिबिम्ब देखना भी सूक्ष्म निरीक्षण सूचित करता है। अलंकारों पर 'वाह वाह' न कहने पर शायद अलंकार प्रेमी लोग नाराज हो रहे हों उनसे अत्यन्त नम्र निवेदन है कि यहाँ विषय दूसरा है।

अब यहाँ प्रश्न यह होता है कि गोस्वामीजी ने सारा वर्णन इसी पद्धति से क्यों नहीं किया। गोस्वामीजी हिन्दी कवियों की परम्परा से लाचार थे। कहीं कहीं इस प्रकार की संश्लिष्ट योजना और सूक्ष्म निरीक्षण का जो विधान दिखाई पड़ता है, उसे ऐसा समझिए कि वह उनकी भावमग्नता के कारण आप से आप हो गया है। तुलसीदासजी के पहले तीन कैड़े के कवि हिन्दी में हुए थे-एक तो वीरगाथा गानेवाले पुराने चारण; दूसरे प्रेम की कहानी कहनेवाले मुसलमान कवि, और तीसरे केवल वंशीवट और यमुना तट तक दृष्टि रखनेवाले पद गानेवाले कृष्णभक्त कवि। इनमें से किसी की दृष्टि विश्वविस्तृत नहीं थी। भक्तिमार्ग के सम्बन्ध से तुलसीदासजी का सान्निध्यि सूरदास आदि तीसरे वर्ग के कवियों से ही अधिक था पर उक्त वर्ग में सबसे श्रेष्ठ कवि जो सूरदासजी हैं उन्होंने भी स्थलों और ऋतुओं आदि का जो कुछ वर्णन किया है, वह एक दूसरे भाव के उद्दीपन की दृष्टि से। वर्णन की शैली भी उनकी वही पिछले खेवे के कवियों की है जिसमें गिनाई हुई वस्तुओं का उल्लेख मात्र अलंकारों से लदा हुआ होता है। ऐसी अवस्था में भी गोस्वामीजी की लेखनी से जो कहीं कहीं प्राचीन कवियों के अनुरूप संश्लिष्ट चित्रण हुआ है, वह उनके हृदय का स्वाभाविक विस्तार प्रकट करता है और उन्हें हिन्दी के कवियों में सबसे ऊँचे ले जाता है।

पर गोस्वामीजी के अधिकांश वर्णन पिछले कवियों के ढंग पर शब्द सौन्दर्य प्रधान ही हैं जिनमें वस्तुओं का परिगणन मात्र है; जैसे-

(क) झरना झरहिं सुधा सम बारी। त्रिबिध ताप हर त्रिबिध बयारी।।

बिटप बेलि तृन अगनित जाती। फल प्रसून पल्लव बहु भाँती।।

सुन्दर शिला सुखद तरु छाँहीं। जाइ बरनि बन छबि केहि पाहीं।।

सरनि सरोरुह जल विहग कूजत, गुंजत भृंग।

बैर बिगत बिहरत बिपिन मृग बिहंग बहुरंग।।

(ख) बिटप बेलि नव किसलय; कुसुमित सघन सुजाति।

कंदमूल जल थल रुह अगनित अनबन भाँति।।

मंजुल मंजु, बकुल कुल, सुरतरु ताल तमाल।

कदलि कदंब सुचंपक पाटल, पनस रसाल।।

सरित सरनि सरसीरुह फूले नाना रंग।

गुंजत मंजु मधुपगन कूजत बिबिध बिहंग।।

पिछले कवियों की शैली पर वर्णन करने में भी वे सबसे बढ़े चढ़े हैं। यह चित्रकूट वर्णन देखिए-

फटिक सिला मृदु बिसाल, संकुल सुरतरु तमाल,

ललित लता जाल हरति छबि बितान की।

मंदाकिनी तटिन तीर मंजुल मृग बिहग भीर,

धीर मुनि गिरा गभीर सामगान की।।

मधुकर पिक बरहि मुखर, सुन्दर गिरि निरझर झर,

जल कन, छन छाँह, छन प्रभा न भान की।

सब ऋतु ऋतुपति प्रभाउ, संतत बहै त्रिबिध बाउ,

जनु बिहार बाटिका नृप पंचबान की।।

इस वर्णन से इस बात का इशारा मिलता है कि गोस्वामीजी ऋतु वर्णन करने में रीतिग्रन्थों में गिनाई वस्तुओं तक ही नहीं रहते हैं-वे अपनी ऑंखों से भी पूरा काम लेते हैं। 'ऋतुपति' की शोभा के भीतर केवल रीति पर चलनेवाले मोर नहीं लाया करते; पर तुलसीदासजी ने उनकी बोली नहीं बन्द की। केवल पद्धति का अनुसरण करनेवाले कवि वर्षाकाल में कोकिल को मौन कर देते हैं। पर तुलसीदास अपने कानों की कहाँ तक उपेक्षा करते? वे गीतावली के उत्तरकांड में, हिंडोले के प्रसंग में वर्षा का वर्णन करते हुए कहते हैं-

दादुर मुदित; भरे सरित सर, महि उमग जनु अनुराग।

पिक, मोर, मधुप, चकोर, चातक सोर उपवन बाग।।

उपमा, उत्प्रेक्षा, दृष्टान्त आदि के साथ गुथे वर्णन भी बहुत से हैं, पर उनमें वस्तुओं और व्यापारों का उल्लेख बहुत पूर्ण है। चित्रकूट की वस्तुओं और व्यापारों को लेकर उन्होंने होली का उत्सव खड़ा किया है-

आजु बन्यो है बिपिन देखो रामधीर।

मानो खेलत फागु मुद मदनबीर।।

बट बकुल कदंब पनस रसाल।

कुसुमित तरु-निकर कुरव-तमाल।।

मानो बिबिध बेष धरे छैल-जूथ।

बिच बीच लता ललना बरूथ।।

पनबानक निर्झर, अलि उपंग।

बोलत पारावत मानौ डफ मृदंग।।

गायक सुक कोकिल, झिल्लि ताल।

नाचत बहु भाँति बरहि मराल।।

पर उनकी यह उत्प्रेक्षा भी उल्लाससूचक है। इसी प्रकार भागवत के दृष्टान्त उदाहरण-लेकर उन्होंने किष्किन्धाकांड में वर्षा और शरत् का वर्णन किया है जिससे प्रस्तुत वस्तु और व्यापार दृष्टान्तों के सामने दबे से हैं। श्रोता या पाठक का ध्यानन वर्ण्य वस्तुओं की ओर जमने नहीं पाता। फिर भी जहाँ जहाँ स्थलवर्णन का अवसर आया है, वहाँ वहाँ उन्होंने वस्तुओं और व्यापारों का प्रचुर उल्लेख करते हुए विस्तृत वर्णन किया है। केशवदास के समान नहीं किया है कि पंचवटी का प्रसंग आया तो बस 'सब जाति फटी दुख की दुबरी' करके और अपना यह श्लेष चमत्कार दिखाकर चलते बने-

सोभत दंडक की रुचि बनी। भाँतिन भाँतिन सुन्दर घनी।।

सेव बड़े नृप की जनु लसै। श्रीफल भूरि भाव जहँ लसै।।

बेर भयानक सी अति लगै। अर्क-समूह जहाँ जगमगै।।

अब कहिए, इसमें 'श्रीफल', 'बेर' और 'अर्क' पदों के श्लेष के सिवा और क्या है? चित्रण क्या, यह तो वर्णन भी नहीं है। इसमें 'हृदय' का तो कहीं पता ही नहीं है। क्या 'बेर' को देखकर भयानक प्रलयकाल की ओर ध्या न जाता है और आक को देख प्रलयकाल के अनेक सूर्यों की ओर? इससे तो साफ झलकता है कि पंचवटी के वन दृश्य से केशव के हृदय का कुछ भी सामंजस्य नहीं है। उस दृश्य से उनके हृदय में किसी प्रकार के भाव का उदय नहीं हुआ।

दूसरी बात ध्यारन देने की यह है कि वाल्मीकि, कालिदास आदि प्राचीन कवियों ने वृक्षों आदि के उल्लेख में देश का पूरा ध्याेन रखा है; जैसे हिमालय के वर्णन में भूर्ज, देवदारु आदि और दक्षिण के वर्णन में एला, लवंग, ताल, नारिकेल, पुंगीफल आदि का उल्लेख है। गोस्वामीजी ने भी देश का ध्या न रखा है। चित्रकूट के वर्णन में कहीं एला, लवंग, पुंगीफल का नाम वे नहीं लाए हैं। पर केशवदासजी मगध के पुराने जंगल के वर्णन में, वृक्षों के जो नाम याद आए हैं, उन्हें अनुप्रास की बहार दिखाते हुए जोड़ते चले गए हैं-

तरु तालीस तमाल ताल हिंताल मनोहर।

मंजुल बंजुल तिलक लकुच कुल नारिकेल वर।।

एला ललित लवंग संग पुंगीफल सोहै।

सारी सुक कुल कलित चित्ता कोकिल अलि मोहै।।

केशवदासजी ने इस बात का कुछ भी विचार न किया कि एला, लवंग और पुंगीफल अयोध्याह और मिथिला के बीच के जंगलों में होते भी हैं या नहीं।

भिन्न भिन्न व्यापारों में तत्पर मनुष्य की मुद्रा का चित्रण भी रूपप्रत्यक्षीकरण में बहुत प्रयोजनीय है। पर यह हम गोस्वामीजी को छोड़ और किसी में पाते ही नहीं। और कवियों ने केवल अनुभाव के रूप में भ्रूभंग आदि का वर्णन किया है; पर लक्ष्य साधने, किसी का मार्ग देखने आदि व्यापारों में जो स्वाभाविक मुद्रा मनुष्य की होती है, उसके चित्रण की ओर उनका ध्याअन नहीं गया है। गोस्वामीजी ने ऐसा चित्रण किया है। देखिए, आखेट के समय मृग को लक्ष्य करके बाण खींचते हुए रामचन्द्र का कैसा चित्र उन्होंने सामने खड़ा किया है-

सुभग सरासन सायक जोरे।

खेलत राम फिरत मृगया बन बसति सो मृदु मूरति मन मोरे।।

जटा मुकुट सिर सारस नयननि गौहैं तकत सुभौंह सकोरे।।

मारीच के पीछे लक्ष्य साधते हुए राम की छबि देखिए-

जटा मुकुट, कर सर धनु, संग मरीच।

चितवनि बसति कनखियनु ऍंखियन बीच।।

एक और चित्र देखिए। शबरी की झोंपड़ी की ओर राम आनेवाले हैं। वह उनके लिए मीठे मीठे फल इकट्ठे करके कभी भीतर जाती है, कभी बाहर आकर भौं पर हाथ रखे हुए मार्ग की ओर ताकती है-

अनुकूल अंबक अंब ज्यों निज डिंभ हित सब आनिकै।

सुन्दर सनेह सुधा सहस जनु सरस राखे सानिकै।।

छन भवन छन बाहर बिलोकति पंथ भू पर पानिकै।।

निशाना साधने में भौं सिकोड़ना और रास्ता देखने में माथे पर हाथ रखना कैसी स्वाभाविक मुद्राएँ हैं।

दृश्यों को सामने रखने में गोस्वामीजी ने अत्यन्त परिमार्जित रुचि का परिचय दिया है। वे ऐसे दृश्य सामने नहीं लाए हैं जो भद्दे या कुरुचिपूर्ण कहे जा सकें। उदाहरण के लिए भोजन का दृश्य लीजिए। 'मानस' में दो प्रसंगों में इसके अवसर आए हैं-राम की बाललीला के प्रसंग में और विवाह के प्रसंग में। दोनों अवसरों पर उन्होंने भोजन के दृश्य का विस्तार नहीं किया है। दशरथ भोजन कर रहे हैं, इतने में-

धूसर धूरि भरे तनु आए। भूपति बिहँसि गोद बैठाए।।

भोजन करत चपल चित इत उत अवसरु पाइ।

भाजि चले किलकत मुख दधि ओदन लपटाइ।।

भोजन का यह उल्लेख बालक्रीड़ा और बालचपलता का चित्रण करने के लिए है। पकवानों के नाम गिनाते हुए भोजन के वर्णन का विस्तार उन्होंने नहीं किया है। इसी प्रकार विवाह के अवसर पर भी भोजन का वर्णन नहीं है। किसी भद्दी रुचिवाले को यह बात खटकी और उसने उनके नाम पर रामकलेवा बना डाला।

अब सूर और जायसी को देखिए। वे लड्डू, पेड़ा, जलेबी, पूरी, कचौरी, बड़ा, पकौड़ी, मिठाइयों और पकवानों के जितने नाम याद आए हैं-या लोगों ने बताए हैं-सब रखते चले गए हैं। जायसी तो कई पृष्ठों तक इसी तरह गिनाते गए हैं-

लुचुई पूरि सोहारी पूरी। इक तौ ताती औ सुठि कोंवरी।।

भूँजि समोसा घी महँ काढ़े। लौंग मिरिच तेहि भीतर ठाढ़े।।

इसी प्रकार चावलों और तरकारियों के पचीसों नाम देख लीजिए। सूरदासजी ने भी यही किया है। 'नन्द बाबा' कृष्ण को लेकर खाने बैठे हैं। उनके सामने क्या क्या रखा है, देखिए-

लुचुई, लपसी, सद्य जलेबी सोइ जेंवहु जो लगै पियारी।।

घेवर, मालपुआ, मोतिलाडू सुघर सजूरी सरस सँवारी।।

दूध बरा, उत्तम दधि, बाटी, दाल मसूरी की रुचि न्यारी।।

आछो दूध औटि धौरी को मैं ल्याई रोहिणि महतारी।।

इन नामों को सुनकर अधिक से अधिक यही हो सकता है कि श्रोताओं के मुँह में पानी आ जाय। भोजन का ऐसा दृश्य सामने रखना साहित्य के मर्मज्ञ आचार्यों ने भी काव्य शिष्टता के विरुद्ध समझा था; इसी से उन्होंने नाटक में इसका निषेध किया था-

दूराह्वानं, वधो, युध्दं, राज्यदेशादिविप्लव:।

विवाहो भोजनं शापोत्सर्गौ मृत्यु रतं तथा।।

कुछ हिन्दी कवियों ने बहुत सी वस्तुओं की लम्बी सूची देने को ही वर्णनपटुता समझ लिया था। इसके द्वारा मनुष्य के भिन्न भिन्न व्यवसायक्षेत्रों की अपनी जानकारी भी वे प्रकट करना चाहते थे। घोड़ों का प्रसंग आया तो बस 'ताजी, अरबी, अबलक, मुश्की' गिना चले। हथियारों का प्रसंग आया तो सैकड़ों की फिहरिस्त मौजूद है। महाराज रघुराजसिंह ने तो यह समझिए कि अपने समय के राजसी ठाट और जलूस के सामान गिनाने के लिए ही 'रामस्वयंवर' लिखा। इस प्रणाली का सबसे अधिक अनुसरण सूदन ने किया है। उनके 'सुजान चरित्र' को तो हथियारों, घोड़ों, कपड़ों, सामानों की एक पुस्तकाकार नामावली समझिए।

गोस्वामीजी को यह हवा बिलकुल न लगी। इस अनर्गल विधान से दूर रहकर उन्होंने अपने गौरव और गाम्भीर्य की पूर्ण रक्षा की।

वस्तु प्रत्यक्षीकरण के सम्बन्ध में यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि वह काव्य का साध्यर नहीं है। यदि वह साध्यक या चरम लक्ष्य होता तो किसी कुरसी या गाड़ी का सूक्ष्म वर्णन भी काव्य कहला सकता। पर काव्य में तो उन्हीं वस्तुओं का वर्णन प्रयोजनीय होता है जो विभाव के अन्तर्गत होती हैं अथवा उनसे सम्बद्ध होती हैं। अत: 'काव्य एक अनुकरण कला है' यूनान के इस पुराने वाक्य को बहुत दूर तक ठीक न समझना चाहिए। कवि और चित्रकार का साध्यक एक ही नहीं है। जो चित्रकार का साध्यक है वह कवि का साधन है। पर इसमें सन्देह नहीं कि यह साधन सबसे आवश्यक और प्रधान है। इसके बिना काव्य का स्वरूप खड़ा ही नहीं हो सकता।