बिडम्बना / राजनारायण बोहरे

Gadya Kosh से
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तनु चकित रह गई.

कार्यालय को पूरी तरह सुनसान देख उसे अजीब-सा लगा। बिस्मय के कारण भोंहों के ऊपर माथे पर उभर आई सिकुड़नों को छिपाने का प्रयास करते हुए उसने रुककर अपने बॉस के कमरे की तरफ एक क्षण को ताका फिर तेज गति से उधर ही बढ़ गई. वह कमरा भी बाकी दफ्तर की तरह सूना था। रात को यहाँ रहने वाला चौकीदार बॉस के कमरे की हर चीज को साफ पोंछ के चमका गया था। सामने की उनकी सूनी कुर्सी, खाली टेबिल को घूरते हुए जब उसकी नजर एक तरफ रखे कंप्युटर पर गईं तो उसकी आँखें चमक उठी।

जबसे कंप्युटर चलन में आये हैं, तमाम नये एटीकेट पैदा हो़ गये हैं, तनु यह बात भली भांति जानती थी। फिर भी अपने बॉस के खाली कमरे में रखा नया पी-फोर श्रेणी का कम्प्युटर उसे इस तरह खींच रहा था कि वह अपना लोभ संवरण नहीं कर सकी और बेहिचक कंप्युटर के सामने जम गई.

कंप्युटर ऑन करके उसने अपने हैड-ऑफिस की वेब साईट खोली फिर अपने ऑफिस का ई-मेल एकाउंट।

ई-मेल बॉक्स में कोई अर्जेन्ट और खास संदेश मौजूद होने का संकेत था।

सहज रूप से तनु ने अपनी ई-मेल चैक करी। लेकिन उसका अपना डाकथैला खाली था, यानी कि कंप्युटर में ऑफिस के इंचार्ज के लिए कोई ज़रूरी संदेश था।

तनु भूल गई कि किसी का पासवर्ड जानना ग़लत होता है और उसे प्रयोग में लाना तो सरासर गलती। इस बारे में बस मिनट भर सोचा तनु ने, फिर अपने बॉस का पासवर्ड एप्लाइ किया और उनकी डाक खोल ली।

मॉनीटर के स्क्रीन पर एक ख़ास ख़त झिलमिला रहा था, जिसके बांये कोने पर तुरन्त और ज़रूरी जैसे कार्यालयीन शब्द बोल्ड अक्षरों में चमक रहे थे।

तनु ने ध्यान से वह ख़त पढ़ना शुरू किया और खत पूरा होते-होते उसके माथे के बल गहरे होते चले गये।

हैडऑफिस ने निगम का व्यावसायीकरण करने का फैसला लिया था, जिसके लिए ज़रूरी था कि मैन्युअल वर्कर कम से कम हों सो निगम ने अपने कार्यरत लोगों में से कर्मचारियों की छंटनी की नई योजना बनाई थी और हैडऑफिस यह स्कीम यहाँ भी लागू कर रहा था। छंटनी के लिए तैंतीस प्रतिशत लक्ष्य था-यानीकि यहाँ के स्टाफ के कुल बारह में से चार कर्मचारियों की छुटटी!

उसके मन और मस्तिश्क में एक साथ प्रश्न उठा-कौन होंगे ये चार कर्मचारी?

एकाएक उसे लगा कि बाहर कहीं कुछ आहट हुई है, तनु ने जल्दी से कंप्युटर शट-डाउन किया और हड़बड़ी में वहाँ से उठकर बाहर चली आई. बाहर कोई नहीं था, शायद दरवाजे के बाहर सड़क पर कहीं कोई आवाज हुई होगी। यह जान कर उसे राहत मिली और अपनी सीट पर आकर बैठ गई.

उसके मन में एक ही उत्सुकता थी-चार लोग कौन होंगे!

... जाने क्यों रह-रह कर ऐसा लग रहा था कि चार में से एक शायद वह खुद ज़रूर होगी।

...और खुद की छंटनी की आशंका के लिए तमाम वजहें थीं उसके पास। जिन पर वह फुरसत में बैठ कर विचार करना चाहती थी। सहसा उसे लगा कि आज जैसी फुरसत कब होगी! उसने विचार करना शुरू किया-पहली वजह है ज़्यादा लीव पर रहना! ऑफिस में रिकॉर्ड भी है इसका। इसके लिए उसे पूरे एक दर्जन मेमो दिये गये है। हाँ, पिछले एक बरस में उसने स्टाफ में सबसे ज़्यादा छुट्टियाँ ली हैं। हालांकि ये छुट्टियाँ उसने बिला वजह नहीं लीं, अपनी माँ को अस्पताल में ले जाकर उनका इलाज कराने और बाद में घर पर उनकी खिदमत करने के लिए उसने अपनी नौकरी के अब तक के कार्यकाल में पहली बार इतनी ज़्यादा छुटिटयाँ ली हैं। माँ की देखभाल के लिए उसके अलावा कोई दूसरा नहीं है, सो मजबूरी है।

एकाएक उसे लगा कि इस बार सचमुच कोई आहट हुई और कोई उसके सामने खड़ा है। वाकई एक अधेड़ आदमी उसकी टेबिल के सामने खड़ा उससे कुछ जानना चाहता था। तनु ने भौंह चढ़ाई-"फरमाइये, मैं आपकी क्या सेवा कर सकती हूँ।"

"वो, वह आपके ऑफीसर कब मिल सकेंगे?"

"देखिये मैं कई दिन बाद आयी हूूं, सो 'आइ कान्ट से' मतलब मैं नहीं बता सकती कि वे कब मिल सकेंगे।"

"लगता है, आपके सिवाय आज पूरा स्टाफ किसी खास मिशन में उलझ गया है।" अधेड़ उससे सहमत था या उसे उलाहना दे रहा था, तनु समझ नहीं पाई.

वह आदमी बिना कुछ पूछताछ किये वापस चला गया तो तनु फिर से अपने भाव संसार में डूब गयी। छंटनी सूची में अपना नाम होने की आशंका का दूसरा कारण था तनु का निर्मम और रिज़र्व नेचर का होना। उसने आज तक किसी भी सहकर्मी को हद से ज़्यादा नहीं बढ़ने दिया है, जहाँ उसे लगा कि सामने वाला द्विअर्थी संवाद बोल रहा है-वहीं वह अकड़ गई और सारे लिहाज़ और अदब उठाकर ताक में रख दिये उसने। सो निश्चित ही इस बार सीनियर्स को मौका मिला है तो अपने मन की लगी जाने कब-कब की लगी बुझा लेंगे लोग!

...तीसरा कारण था तनु की अंग्रेज़ी की अज्ञानता। हालांकि उस जैसे कई लोग अंग्रेती में ढपोरशंख थे, पर उसे तो इस बाबत कई दफा लिखित में चेताया जा चुका है, इस कारण उसका नाम आना स्वाभाविक था।

...चौथा कारण था तनु का कोई सोर्श न होना, सचमुच हैड ऑफिस में तनु का कोई भी मददगार न था इस वक्त, सो आसमानी गाज से खुद को बचाने में अपने को कतई असमर्थ पा रही थी वह।

अपने नाम की निश्चिंतता जानके मायूस हो उठी वह

दूसरा, तीसरा और चौथा कर्मचारी कौन-सा होगा? वह अब तक अंन्दाज नहीं लगा पा रही थी।

उसका वह पूरा दिन अकेले ही बीता। सांझ पांच बजे चौकीदार आया तो पता लगा कि आज शहर में निगम के एम0 डी0 आये थे सो पूरा स्टाफ उनके सामने अपनी हाजिरी लगवाने गया था। उसे झटका लगा-यानी कि उसकी गैर हाजिरी एमडी के सामने लग गयी, मतलब कि उसकी जबरिया छंटनी पक्की। यह सोचते ही उसके माथे में दर्द की एक तीखी तरंग-सी दौड़ी। आँखों के आगे अंधेरा-सा घिरने लगा। मायूस होतीे वह बाहर निकली और अपनी स्कूटी संभालने लगी।

अगले दिन सुबह कार्यालय के इंचार्ज यानीकि तनु के बॉस पदमन साहब और ऑफिस-सुप्रिण्टेडेट शुक्ला सिर से सिर भिढ़ाये बैठे मिले तो तनु का मन कंप गया-छंटनी वाले कर्मचारियों के नाम पर ही चर्चा चल रही है शायद!

स्टाफ के बीच यही चर्चा थी-'हैड ऑफिस आखिर कैसे कर देगा यहाँ से कर्मचारियों की कोई छंटनी! पिछले साल हैड ऑफिस ने ही तो यहाँ के स्टाफ को "ऑल वर्कर टैलेंण्टेड" का पुरस्कार दिया है। इस एक बरस में कैसे मिलेंगे ढीले और नाकारा कर्मचारी! हम तो अपनी यूनियन की तरफ से कोर्ट में जायेंगे।' तनु को मन ही मन कुछ राहत मिली।

अगले कई दिन दफ्तर का हर आदमी तनाव मंे रहा। हरेक को आशंका थी कि कहीं उसी का नाम छंटनी वालों में शामिल न हो जाये।

उस दिन रविवार था, जब फोन पर शाम को तनु को पता लगा कि ऑफिस का हर आदमी किसी न किसी बहाने पदमन साहब या शुक्ला के घर हो आया है। उन दोनों की बड़ी पूछ-परख हो रही है इन दिनों। जो देखो उनकी खुशामद में लगा है। तनु पूरे स्टाफ में एक अकेली महिला है, वह आखिर किस के साथ जायेगी, छोटे साहब और बड़े साहब के घर। फिर किसी महिला कर्मचारी का किसी पुरूश अफसर के घर जाना लोग कहाँ से पचा पायेंगे! शायद झूठमूठ की गप्पें उड़ने लगें। बवण्डर मच जाये बेकार का।

आखिर संकोच और हिचक से भी तो बात नहीं बनेगी न, तनु ने फिर सोचा। इस तरह संकोच में फंसी बैठी रही तो शायद नौकरी से हाथ धोना पड़ेगा। फिर क्या होगा उसका? उसका और माँ का भी। बैंक में जमा पूंजी भला कितने दिन चल पायेगी। नई नौकरी तलाश करना इतना आसान है क्या? हर जगह छंटनी चल रही है। फिर सरकारी निगम से छंटनी किये गये कर्मचारियों को कौन झेल सकेगा? भले ही पुरस्कृत स्टाफ हो, लेकिन प्राइवेट कंपनियों की तुलना में तो आलसी और नाकारा ही कहे जायेंगे वे सब के सब।

संकोच और हिचक तो उसमें कभी नहीं रही। दो की चार पकड़ाने की सदैव से आदत है उसकी। इसी आदत और दम के बल पर ही तो वह अपनी अस्मत बचा पाई है, निगम की ज़लालत भरी नौकरी में। इसके अध्यक्ष और एम डी तो अपनी जागीर समझते हैं, इन सस्थाओं और उसके स्टाफ को। मनमानी करते हैं, सबके साथ-नियम-कायदों के साथ, स्टाफ के साथ, निगम की सम्पत्ति के साथ भी। इसी वजह से तो तमाम महिला कर्मचारी। या फिर नौकरी छोड़ना पड़ती हैं बेचारियों को।

हादसे याद आते हैं तनु को। तब वह नई-नई आई थी नौकरी में। राजधानी की मेन ब्रांच में काम करती थी वह।

चाटुर्ज्या साहब ब्रांच के इंचार्ज थे। पैंतालीस वर्शीय, स्थूल काय लेकिन स्मार्ट और मृदुभाशी! उसका खास ख्याल रखते थे-तनु को चाय दो भाई! तनु का इन्क्रीमेंट लगाओ भाई! तनु को टेबुल कुर्सी का नया सेट दो यार! तनु की टेबुल पर इंटरकॉम लगाओ सबसे पहले!

खुद को इतनी तरज़ीह दी जाती देख कर मन ही मन गदगद होती थी वह।

लेकिन उन्ही दिनों वह एक घटना ऐसी घटी कि वह सनाका खा गई थी।

उस दिन विधानसभा प्रश्न का उत्तर तैयार करने के लिए सारा स्टाफ उपस्थित था, तनु भी थी और चाटुर्ज्या साहब भी। रात ग्यारह बजे काम निबटा, तो चाटुर्ज्या साहब ने तनु को अपनी कार में लिफ्ट देने की पेशकश की। उस वक्त दूसरा कोई साधन मिल भी नहीं सकता था, सो तनु खुशी-खुशी उनकी कार मंे बैठ गयी। कार तनिक आगे चली तो चाटुर्ज्या साहब शुरू होगये-"तनु, यू आर वेरी स्मार्ट! कहाँ छोटी-सी नौकरी में पड़ी हो! तुम्हे अपनी कीमत ही पता नहीं है। तुम तो बहुत आगे जाओगी। हम जैसे अफसर तुम्हारी खुशामद करेगे। करेंगे क्या, हम तो अभी भी तुम्हारी ख़िदमत में हाजिर हैं। बस एक बार ।"

हठात तनु ने कार रूकवाई और चाटुर्ज्या साहब को सकते में डालती बेधड़क दरवाजा खोल के बाहर निकल आई थी।

उस रात बड़ी परेशानी हुई उसे अपने घर पहुंचने में। पापा ने पूछा-"क्या हुआ?" वे हैरत में थे कि बेटी का चेहरा इतने तनाव में क्यों है?

वह कुछ न बोली। लड़कियों को बचपन से यही तो सिखाया जाता है न कि ऐसी बातें कहने से अपनी ही बदनामी होती है, सो घर-बाहर का कोई भी आदमी ऐसी-वैसी हरकत करे तो भूलकर भी कभी किसी से मत कहो।

वैसे बचपन से अब तक किस-किस की शिकायत करे वह पापा से! मामा का लड़का रानू, बुआ का दीपू, बड़ी बहन का देवर चंदू ... हरेक ने कुछ न कुछ जोड़ा है तनु के स्मृति कोश में। जिसने जब भी मौका पाया उसके बदन को छुआ ज़रूर। हर बार एक तूफान उठा, मगर बात पराई नहीं होने दी उसने...

होने को तो ऑफिस सुप्रिण्टेडेंन्ट शुक्ला भी कम उचक्का नहीं है, उस दिन वह भी द्विअर्थी संवाद बोल रहा था-"देखो तनु, तुम केबिन में अकेली कब तक बैठोगी? किसी न किसी को तो अपना साथी बना के बिठाना ही पड़ेगा। बोलो क्या कहती हो?"

वह सब समझती है वे जिस भाषा में बात कर रहे थे... उसकी त्यौरियाँ चढ़ गईं "क्या होता है साथी बनाना? आप बैठना चाहते हैं इधर! मेरे केबिन में बैठने के लिए आपको महिला आयोग से परमीशन लेना पड़ेगी। आपको शायद पता नहीं कि किसी महिला कर्मचारी के अलग केबिन में कोई पुरूश उस महिला की अनुमति के बिना नहीं बैठ सकता।"

मगर वह बात भी तनु ने अपने घर नहीं बताई थी। आखिर वह क्या-क्या बताती? यूं तो अब तक हर बाबू किसी न किसी बहाने उससे निकटता की याचना कर चुका है! जिसे जब मौका मिलता उसे छूने, वेवजह धकियाने या पारदर्शी दुपट्टे के पार दिख रहे कुर्ते के गले से भीतर झांकने से नहीं चूकता। लेकिन अब वह इन छोटी-मोटी चीजों पर ध्यान नहीं देती...हालांकि तब तक इस देश के एक आई ए एस अफसर के खिलाफ उसकी सहकर्मी महिला अफसर ने इन्ही सब हरकतों के कारण अदालत में मुकद्दमा दायर किया था और यह बात सरे-आम चाय की गुमटियो से लेकर हजामत की दुकानों तक में चर्चा का विशय बन चुकी थी।

तनु ने अंदाजा लगाया-छंटनी में आने वाला उसके अलावा दूसरा कर्मचारी ज़रूर ही निगम होगा! वह इसलिये कि निगम दांये हाथ से विकलांग है और उसकी कार्यक्षमता एक सामान्य आदमी से कम है, इस कारण उस बेचारे पर भी छंटनी की गाज गिर सकती है। निगम का भी हैड-ऑफिस में कोई मददगार नहीं है सो उसी के रिटायर होने की ज़्यादा संभावना है। ...लेकिन तीसरा और चौथा कौन होगा! उसका मस्तिश्क यह पहेली हल नहीं कर पा रहा है।

अगले दिन से ऑफिस में एक नयी हवा उड़ने लगी है कि छोटे बाबुओं की छंटनी का आधार बड़े बाबूओं की गोपनीय रपट बनाई जायेगी। यानीकि हर छोटा बाबू अब अपने बड़े बाबू का मोहताज है। तनु खुद बड़े बाबू के पद पर है, उसे भी अपने अधीनस्थ तीन बाबुओं की रपट बनाना पड़ेगी। उसे याद आया कि तीन छोटे बाबू हैं तो शायद बड़े बाबुओं में से भी एक कोई होगा! बड़े बाबुओं की रपट शायद ऑफिस सुप्रिण्टेंडंेट शुक्ला बनायेगा और जहाँ तक वश चलेगा, वह तो ज़रूर ही तनु को रिटायर करवा के दम लेगा!

सोमवार को डिवीजनल हैड क्वार्टर से एक अफसर आये थे, उनके साथ सभी बड़े बाबुओं की मीटिंग हुई. आगन्तुक पदमन साहब ने उन सबको एक-एक फॉर्म थमाया-"इसमें आप को अपने अधीन काम कर रहे उस कर्मचारी का नाम लिखना है, जिसे आप रिटायर कराना चाहते है। नाम के आगे वाले कालम में वे कारण है जिनके कारण आप उसे हटाना चाहते हैं जैसे लेट लतीफी, काम में ढीला होना, काम न आना, ऑफिसियल लंेंगवेज की जानकारी न होना वगैरह।"

"इसके अलावा भी आप कोई कारण चुन सकते है।" ये ओ एस शुक्ला के वचन थे।

"इसके अलावा क्या कारण हो सकते है?" तनु हैरान थी।

"अरे कोई भी कारण!" शुक्ला बाबू हँस रहे थे-"जैसे किसी का ग़लत ढंग से कपड़े पहनना, या ज़रूरत से ज़्यादा लम्बी मूूंछे रखना, बिना मोजे के गंदे जूते पहनना या बात करते में तुतलाना, गलत-सलत अंग्रेज़ी बोलना वगैरह-वगैरह कुछ भी।"

"सर, ये बचकाना बातें इस मीटिंग में न की जायें तो बेहतर होगा। आप ही बताइये, क्या ये भी कोई कारण हो सकता है कि कोई कैसे कपड़े पहनता है, कैसे जूते रखता है, कैसे बोलता है! इन चीजों को आधार बनाकर हम उसे रिटायर कर देंगे। सर, हर आदमी की इंडीजुयल्टी भी तो होती है, उसमें दखल देने वाले हम कौन होते है? ये तो मानवता नहीे हुई कि हम किसी की ज़रा-सी कमजोरी की वजह से उसे अपने यहाँ से बाहर निकाल दें।" बोलते-बोलते तनु भूल गयी कि वह ऑफिस में हैं।

"मिस तनु, क्या होती है मानवता! हमे अपना ऑफिस चलाना है, दफ्तर का काम करना है, मानव कल्याण की कोई संस्था नहीं चलानी। आपको पता होना चाहिए कि दुनिया में उसे ही जीने का हक़ होता है जो ताकतवर और कुशल होता है! ...आज विश्व बाज़ार का जमाना है, ग्लोवनाइजेसन का युग! इन दिनों हर चीज आधुनिक हो रही है। आप किस जमाने की बातें कर रही हैं? वह जमाने गये जब मानवता वगैरह की दुहाई दी जाती थी। आज तो वही आदमी आगे बढ़ेगा, जो समर्थ होगा, योग्य होगा।" यह पदमनसाहब थे जो अभी-अभी एक महीने का कोर्स करके विदेश से लौटे थे।

"इस का मतलब यह है सर कि अगर कोई आदमी हमको व्यक्तिगत रूप से अच्छा नहीं लगता है तो हम उसकी नौकरी छीन सकते हैं।" तनु के विस्मय का पारावार न था।

"हाँ!" डिवीजन से आये अफसर ने बेझिझक उत्तर दिया था।

बैठक के अंत में तनु ने प्रश्न किया-"सर मुझे यानी दफ्तर में जितने भी बड़े बाबू हैं उन्हे किस आधार पर छंटनी में शामिल किया जायेगा?"

"इसके लिये हम लोग अलग से नीति तय करेंगे।" पदमन साहब ने शुक्ला को शामिल करते हुए कहाँ कारपोरेट जगत में बॉस लोगों के बोलने का यही कायदा था।

तनु को बुरा लगा, छंटनी की ये नीतिे इसी कारपोरेट संस्कृति का एक हिस्सा है। छंटनी का तरीका भी-यानी कि अपने बीच के ही किसी आदमी को हर हालत में घर बिठा देना, इसके लिए चाहे कोई मनचाही नीति काहे न बनाना पड़े ...यही है इस कारपोरेट कल्चर की देन।

"तो साथियों आपको खोजना है वह दरार जिससे आपकी नीतियाँ लीक हो रही है, अपनी इमारत का वह कमजोर पाया जिससे बिल्डिंग धराशायी होने जा रही है, वह सड़ा-गला पुर्जा जिसके कारण पूरा यंत्र कमजोर हो रहा है। ढूढ़िये कि कौन है हमारी जंजीर की कमजोर कड़ी, ताकि उसे निकाल कर बाहर फेंका जा सके. लेकिन ध्यान रहे कि आप लोगों से ऐसी चूक न हो जाय कि वह आदमी किसी यूनियन या पॉलिटिकल पार्टी की दखलंदाजी कराये। बहुत कमजोर आदमी को टारगेट बनाइये आप लोग।" पदमन साहब मीटिंग की समाप्ति पर अपने अधीनस्थों को निर्देश दे रहे थे। उनका एक-एक शब्द तनु को कानांे के रास्ते हृदय में उतरता हुआ पिघला सीसा लग रहा था! तैश बढ़ रहा था कि कुछ सुना दे उन्हे। लेकिन यहाँ उसकी मरजी नहीं चलना थी, उसकी खुद की नौकरी ख़तरे में ंथी। उसे तो अब उन चार नामों पर अपनी सहमति जताना थी जो पदमन साहब और शुक्ला जी चुनें, बस प्रयास इतना करना है कि उस सूची में खुद का नाम न हो। ...