बिद्दा बुआ / रूपसिह चंदेल

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आवाज बुआ की ही थी, जिन्हें सारा गांव बिद्दा बुआ कहकर पुकारता है

"उठो भाइयो भोर भया, कुछ काम करो मत सोओ तुम. जो सोवत है सो खोवत है, जो जागत है सो पावत है."

पूरे छः महीने बाद गांववालों को उनकी आवाज सुनाई पड़ी है. छः महीने अपने भतीजे गोपाल के पास जमशेदपुर में गुजारकर वे रात ही लौटी थीं, लेकिन किसी को पता न चल पाया था. ऎसा पहली बार हुआ था. नहीं तो बुआ कहीं बाहर से आएं, चाहे भतीजे के पास जमशेदपुर से या मामा के पोते रमेश के पास भोपाल से, आते ही टोले-मोहल्लेवालों से मिले बिना अपनी देहरी नहीं लांघतीं. लेकिन गाड़ी ही रात देर से पहुंची थी, और लम्बे सफर के कारण वे थक भी बहुत गयी थीं---- बुढ़ापे का शरीर ----- घर पहुंचते ही सो गयी थीं.

वे दिशा-मैदान से फरागत होकर लौट रही थीं. महुए के दरख्त के नीचे से गुजरीं तो कोई पखेरू पंख फड़फड़ाता हुआ उड़ गया. उन्होंने ऊपर की ओर देखा. लेकिन आकाश में फैले अंधेरे में वह कहां समा गया, वे देख न पायीं. सोचा, कोई चील होगी और गाने लगीं, "जगे पखेरू, तुम भी जागो, माटी तुम्हें बुलाती है. आलस त्यागो, काम करो, मेहनत से लक्ष्मी आती है."

बुआ अपने चबूतरे पर आकर बैठ गयीं और फिर मानस की चौपाइयां गाने लगीं, "सियाराम मय सब जग जानी, करहुं प्रणाम जोरि जुग पानी-----" यह उनकी वर्षों पुरानी आदत है. बहुत सबेरे उठकर गांववालों को जगाना, फिर रमभजन में लीन हो जाना. तभी तो उनके रहने पर गांव में जीवन्तता बनी रहती है. वे सबके दुख-दर्द की बराबर की भागीदार जो बनी रहती हैं. और जब वे कुछ दिनों के लिए कहीं चली जाती हैं----- जमशेदपुर या भोपाल------ सभी को लगता है जैसे उनके साथ गांव की जीवन्तता भी चली गई.

एकाएक बुआ चौंक उठीं. मानस की चौपाई अधूरी ही रह गई. उनकी नजर चबूतरे के दूसरे कोने पर किसी हिलती-डुलती वस्तु पर जा टिकी.

"कौन----- कौन है रे-----?"

आवाज सुनकर हिलती-डुलती वस्तु उठ बैठी.

"तू कौन है----- बोलता क्यों नहीं ---- इधर आ---- अरे, इधर आ न."

उनके बुलाने से जब वह टस से मस नहीं हुआ तो उन्हें कुछ भय हुआ. ’कहीं कोई चोर-उचक्का तो नहीं. रात उनके आने की भनक पाकर----- और अब उनसे चाबी छीनकर-----’ हालांकि वे इस प्रकार के भय को कभी पास फटकने तक नहीं देतीं, लेकिन मन की बात तो बड़ी विचित्र होती है. वह कब क्या सोच बैठेगा, कुछ पता नहीं होता. और इस समय उनके मन में यही विचार उछल-कूद कर रहा था कि ’हो न हो, यह कोई चोर-उचक्का ही है, तभी तो कुछ बोलता नहीं.’

अंधेरा अभी भी गली-मकानों में दुबका हुआ है. लेकिन घरों में हलचल शुरू हो गयी है. बैलों के गले में बंधी घंटियों की टुन-टुन, बछड़ों के रंभाने और पड़वों के रेंकनें की आवाजें उनके कानों से टकराने लगीं. दूर किसी घर से जानवरों को दी जाने वाली सानी की गंध पाकर उन्होंने सोचा, ’अब यह चाहे कोई भी हो, उनका कुछ बिगाड़ नहीं सकता.’ वे अपनी जगह से हिलीं-डुलीं नहीं, बैठी रहीं और मन- ही-मन नियमतः शेष रह रही मानस की पांच चौपाइयां समाप्त कीं, फिर उसकी ओर मुड़कर कुछ ऊंची आवाज में बोलीं, "तू जो भी है, बोलता क्यों नहीं----- यहां किसलिए बैठा है ?"

"अरे बिद्दा हुआ----- केहका बुला रही हैं ?"

"कौन ---- गुरनाम ?"

"हां, बुआ----पांय लागी---- कब आयीं---- केहका बुला रही हो ?"

"खुश रहो---- कल रात आयी थी." बुआ बोलीं, "देखो बेटा, पता नहीं कौन बैठा है उधर कोने में."

"ई तो पगला है बुआ----- उतर स्साले चबूतरे से नीचे----- ऊ बुला रही हैं और तू बोलताई नहीं." गुरनाम ने पगले के पास लाठी पटकी तो वह चीखकर नीचे कूद पड़ा. गुरनाम ने उसका कान उमेठकर तड़ातड़ दो तमाचे जड़ दिए. "बोल, अब तो नहीं आयेगा कभी इधर ----- बोल."

"मत मार गरीब को गुरनाम ---- मत मार----- मैं तो समझी थी कि कोई चोर-उचक्का है. मुझे क्या मालूम कि ये बेचारा......" बुआ बीच में आ गईं और पगले को छुड़ाकर चबूतरे पर बैठा दिया. वह ऊं ऊं कर सिसकने लगा था.

"तूने नाहक मार दिया बेचारे को----- ऎसों पर कभी हाथ नहीं उठाना चाहिए----- आखिर यह भी तो हम सब की तरह इंसान है न !" बुआ पगले के सिर पर हाथ फेरने लगीं.

"बुआ, तुम्हारे जांय के थोड़े दिन बाद ही ई पता नहीं कहां ते आ मरा था. और जब ते ई आवा गांव मा तब ते कुछ-न कुछ विपदा पड़तीई चली आ रही है. कभी कोऊ बीमार तो कभी कोऊ. आते ई तुम्हारे चौतरा पे अपना अड्डा जमा लीन्हेसि. भलि-भलि कोसिस कीन्हि गै, मारा-पीटा भी गवा----- पर ई जाताई नहीं. " चुनौटी से खैनी निकालकर गदोली पर मलता हुआ गुरनाम बोला.

"बेटा, विपदा जब आनी होती है तब आती ही है, इसमें इस बेचारे का क्या दोष! तुम देखो न, यह तो खुद ही विपदा का सताया हुआ है----- पागल है. फिर इसे मारने से क्या लाभ---- हो सकता है इसका इस गांव से किसी जनम का रिश्ता रहा हो---- तभी यहां आ गया हो." बुआ कुछ दार्शनिक-सी हो उठीं. गुरनाम नीचे के होंठ उठाकर और मसूढ़ों के बीच खैनी को इत्मीनान से दबाकर उठ खड़ा हुआ और बोला, "अपन बात तो हम कहि दीन कि ई पगला गांव के लिए अपसकुनी है.---- और गांव वाले भी यहै कहत हैं." फिर कुछ चिरौरी भरे स्वर में बोला, "बुआ, कमलिया को चार दिन ते बुखार आ रहा है, जरा से----."

"चिन्ता न करो----- मैं देख आऊंगी."

गुरनाम चला गया तो बुआ पगले से बोलीं, "चल उठ, चाय बनाती हूं, तू भी पी." लेकिन वह टुकुर-टुकुर उन्हें ताकता रहा. वे भी उसकी ओर देखती रहीं, फिर बैठ गयीं. तब तक सूरज की किरणें पास के नीम के पेड़ पर आकर लटक गयीं थीं. लोग अपने-अपने काम पर जाने लगे. गली से गुजरते लोग, दिशा-मैदान के लिए जाते बच्चे और औरतें ’बुआ पांय लागी, ’ ’बुआ राम-राम’, ’बुआ नमस्ते, कब आयीं!’ कहते और बुआ सबको आशीषती-जवाब देतीं उस पगले को घर के अन्दर चलकर चाय पीने के लिए मना रही थीं. पगला डर से सहमा-सिकुड़ा केवल टुकुर-टुकुर उन्हें देख रहा था, न कुछ बोल रहा था और न ही उठ रहा था.

उस दिन के बाद पगला बुआ के यहां भली भांति जम गया. सुबह उठते ही वे उसे भी उठा देतीं. सबेरे की चाय प्यार से बुलाकर देतीं और जो रूखा-सूखा खुद खातीं, उसे भी खिलातीं. इससे उसका शरीर भी हरियाने लगा. थोड़े ही दिनों में वह बातें भी ढंग की करने लगा, लेकिन दिमाग का कुछ मोटापन तब भी बना ही रहा. बुआ ने अपने ज्ञान के अनुसार अनेक जड़ी-बूटियां कूट-पीसकर उसे चटाईं-खिलाईं पर वे उसे भली-भांति ठीक नहीं कर पायीं. धीरे-धीरे वे उसके प्रति अधिकाधिक आत्मीय होती गईं. उसे खिला-पिलाकर वे उतनी ही तृप्ति महसूस करतीं, जितनी कोई मां अपने छोटे बेटे को खिला-पिलाकर महसूस करती है.

उसे खाना खिलाते समय वे कितनी बार सोचतीं कि यदि वह उनकी ही औलाद होता तो---- लेकिन कैसे होता उनकी औलाद ! वे तो अभागी ही इस धरती पर उतरी थीं. दस साल की रही होंगी जब पिता को खो बैठी थीं. छोटे भाई को गोद से चिपटाये और उन्हें संभाले मां मायके में भाई के पास जाकर रहने के लिए विवश हो गईं थीं. दो वर्ष भी न बीते थे कि मां भी चल बसीं----दोनों भाई-बहन को मामा के सहारे छोड़कर. लेकिन धन्य मामा, जिन्होंने दोनों को पाल-पोसकर बड़ा किया. पंद्रह की होते ही उनके हाथ पीले कर दिए, लेकिन दुर्भाग्य वहां भी उनका पीछा कर रहा था. साल बीतने के पहले ही उनकी मांग का सुन्दूर मिट गया. वे विधवा होकर मामा के पास लौट आयीं. एक बार वापस आयीं तो फिर एक बार के अलावा कभी ससुराल नहीं गईं. जाना चाहकर भी नहीं. एक बार भाई को लेकर पहुंची थीं------ विधवा होने के डेढ़ साल बाद----- लेकिन दरवाजे पर जेठ ने दुत्कार दिया था, "कुलच्छिनों के लिए इस घर में कोई जगह नहीं है. खबरदार जो ड्योढ़ी के अन्दर पैर रखा ! भूल जा कि तू कभी इस घर में आयी भी थी----- ब्याह कर."

वे उल्टे पैर लौट आयी थीं खून का घूंट पीकर और कसम खायी थी कभी उस ओर मुंह न करने की. अब तो उन्हें यह भी याद नहीं कि उनकी ससुराल के गांव का नाम क्या था और क्या नाम था उनके जेठ-ससुर का. करतीं भी क्या वे उनके नाम याद रखकर जिनमें मानवता नाम की चीज तक नहीं थी.

उस दिन से ही वे न केवल समझदार, बल्कि जिम्मेदार भी हो उठी थीं. भाई सुखराम जैसे ही चौदह साल का हुआ, वे उसे लेकर अपने गांव रामगढ़ी वापस लौट आयीं अपने पिता की जायदाद संभालने. सुखराम से केवल सात साल बड़ी थीं वे, लेकिन उसके प्रति मां और पिता दोनों की जिम्मेदारी उन्होंने ओढ़ ली थी. चार साल बाद उसकी शादी की और ठाठ से रहने लगीं. दिन भर भाई के साथ खेतों में काम करतीं, मजदूरों से काम करवातीं और रात भौजाई के हाथ की पकी खाकर वे अपने को धन्य समझतीं. उस क्षण वे सोचतीं, ’अब बुरे दिनों की छाया टल गई है----- भगवान, इन दोनों को सदा सुखी रखना----- जो भी कष्ट देना हो ईश्वर, मुझे दे लेना----- इनको कभी न सताना." लेकिन भगवान ने उनकी प्रार्थना अनसुनी कर दी. भरी जवानी में भौजाई नन्हे गोपाल को उनकी गोद में छोड़कर चल बसी. उनका दिल चीत्कार कर उठा. लेकिन विपदाओं की अटूट धरा में अपने को बहने से उन्होंने साहसपूर्वक रोक लिया. खुद संभलीं, गोपाल को संभाला और सुखराम को ढांढ़स बंधाया.

गजब का धैर्य और साहस है उनमें. दुधमुंहे गोपाल को उन्होंने मां, पिता और बुआ --- तीनों का ही प्यार दिया. क्योंकि पत्नी की मृत्यु के बाद सुखराम ने तो अपने को केवल खेत और खलिहान तक ही सीमित कर लिया था. दिन भर वह खेतों में खटता और रात घर आकर सो रहता. वे सुखराम के दर्द को समझती थीं, इसीलिए उन्होंने कभी उसे इस बात के लिए नहीं टोका कि वह गोपाल को कभी प्यार क्यों नहीं करता, दो बोल उससे बतियाता क्यों नहीं. वे समझती थीं कि बेटे के प्रति बाप का यह रुख स्थाय़ी नहीं है. एक दिन स्वयं सुखराम बेटे से बतियायेगा, उसे प्यार करेगा. और उनकी धारणा ठीक थी.जब एक बार गोपाल बुखार से तप रहा था, सुखराम ने अपने आप कांपती आवाज में पूछा था, "दीदी, डॉक्टर को लेने जाऊं? बबुआ की तबीयत कुछ ज्यादा ही-----मुझे फिर डर लग रह है."

"डॉक्टर कोई एक-दो मील पर थोड़े ही बैठा है जो तुम दौड़कर बुला लाओगे. दस मील की दूरी तय करके जाने-आने में ही इतना वक्त बीत जायेगा कि----- तुम चिन्ता न करो------ मैं जो दवा दे रहीं हूं, ईश्वर ने चाहा तो सुबह तक बबुआ बिलकुल चंगा हो जायेगा."

और सच ही सुबह गोपाल बिलकुल चंगा था. बुखार गायब था. अब तो उनकी दवा के गुण गांव में घर-घर गाये जाने लगे. उस दिन से वे केवल गोपाल की ही बुआ नहीं, सारे गांव की बुआ हो गयीं थीं. पहले विद्या बुआ, क्योंकि यही उनका नाम था, बाद में वे विद्या बुआ से हो गयीं बिद्दा बुआ. छोटा-बड़ा, जवान-बूढ़ा उन्हें इसी नाम से पुकारने लगे.

जब भी किसीके घर कोई बीमार होता, बिद्दा बुआ को बुलाया जाता, दवा पूछी जाती. लेकिन वे दवा कभी बताती न थीं. कभी-कभी केवल इतना कहतीं--"दवा तो तुम्हारे गांव के आस-पास के जंगल-बगीचों और खेतों में चारों तरफ---- दवा ही दवा है. लेकिन तुम लोग पहचानते जो नहीं हो. अरे, कितने ही मर्जों की दवा धनीराम के बगीचे में छैली गुरुचि, भैरों बाबा जाने के रास्ते पर फैली है ----लटजीरा, भटकटैया के फल, घी-कुंवर, गोखरू, और भी न जाने कितनी चीजों के वे नाम गिना जातीं जिन्हें सुन लोग कहते, "हाय बुआ, हम तो जनतै न रहन कि ई भी कोई दवा है." बुआ हंस देतीं और अपने पास से कुटी-पिसी जड़ी-बूटियों की दवा देकर कहतीं, "दवा तो देना ही, लेकिन ईश्वर पर विश्वास भी रखना, दुआ भी करनी चाहिए----- दवा और दुआ का असर जरूर होता है." लोग वैसा ही करते और मरीज ठीक हो जाता.

अजीर्ण, खांसी और पेचिश जैसी बीमारियों से ग्रस्त कितने ही मरीज उनकी दवा से ठीक हो गये. लेकिन वे कभी किसी ऎसे मरीज को हाथ नहीं लगातीं जो उनकी समझ से बाहर हो. उसे शहर ले जाने की सिफारिश करती हैं. इस बात की शिक्षा उन्हें अपने मामा से मिली थी, जिनसे उन्होंने जड़ी-बूटियों का उपचार सीखा था. मामा से ही उन्होने कुछ पढ़ना-लिखना भी सीख लिया था, जो अब उनके काम आ रहा था.

तबसे गोपाल की देखभाल के साथ-साथ बुआ इस ओर भी ध्यान देने लगीं. वे प्रयः बगीचों-खेतों में खुरपी लिये घूमती नजर आतीं. जो दवा वहां न मिलती, उसे वे शहर से मंगा लेतीं. लेकिन उन्होंने कभी किसी से पैसे नहीं लिए. इस सब में उन्हें आत्मिक सुख मिलता. तभी तो वे आधी रात को भी बुलाए जाने पर दौड़ी चली जातीं. इसके लिए उनके मन में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं रहा. वे दीनानाथ दुबे के घर जिस भाव से जातीं, उसी भाव से रहमान अली, बुधवा चमार, या बंसी पासी के यहां भी जातीं. प्रारंभ में बड़े मोहल्ले वालों ने दबी जुबान कहा भी, "बुआ, तुम नीच कौम के घर न जाया करो------ उन सबका रहन-सहन ठीक नहीं है." बुआ ने तुरन्त उत्तर दिया था, "व्यक्ति कौम से नीच नहीं, विचार और कर्म से होता है------ मुझे तो कुछ अटपटा नहीं लगता उनके यहां जाकर------“

उसके बाद किसी का साहस नहीं हुआ उनसे कुछ कहने का.

बुआ की सबसे बड़ी चिन्ता थी गोपाल को किसी योग्य बनाने की. वे उसे पढा-लिखाकर अफसर बनाना चाहती थीं. और एक दिन गोपाल ने उनकी यह इच्छा पूरी कर दी तो वे फूली न समायी थीं. गोपाल किसी प्रशासनिक पद पर जमशेदपुर चला गया था. गांव भर में बुआ ने प्रसाद बांटा था. रात में सोचती रहीं थीं, ’भौजाई अगर आज होती तो कितना खुश होती!’

उन्होंने भाई पर दबाव डालकर जल्दी ही गोपाल को सात फेरों में बंधवा दिया और भाई को भी खेती की जिम्मेदारियों से कुछ दिनों के लिए मुक्त कर बेटे के साथ जमशेदपुर भेज दिया, थोडे दोनों तक आराम करने के लिए. लेकिन सुखराम वहां जाते ही बीमार पड़ गये और बीमारी ऎसी कि जानलेवा सिद्ध हुई. खबर पाते ही बुआ दौड़ी गयीं, लेकिन तब तक सुखराम भी जा चुके थे. बुआ ने पहली बार अपने को हारी-थकी और टूटी महसूस किया. उन्हें लगा कि जैसे वे एकाएक बूढ़ी हो गयी हैं---- बेहद बूढ़ी. वे कुछ महीने गोपाल के पास रहीं, परंतु उनका मन वहां नहीं रमा. वापस रामगढ़ी लौट आयीं.

उसके बाद बुआ का जैसे दिल ही टूट गया. उनका मन अशांत-सा रहने लगा. गांव लौटते ही उन्होंने खेत बटाई पर दे दिए और दिन भर चारपाई पर लेटी आसमान की ओर शून्य में निहारती रहतीं, जहां उनके देखते ही-देखते कितने ही उनके अपनों की आत्माएं विलीन हो चुकी थीं. कभी मन हुआ तो किसी के चबूतरे पर जा बैठतीं या खेतों और बगीचों में भटकती रहतीं--- कभी किसी दवा की तलाश में और कभी निरुद्देश्य ही.

रमेश को जब पता चला तो वह एक दिन लिवाने आ पहुंचा. मन बदलने के लिए वे भोपाल चली गयीं. लेकिन वहां भी उनका मन नहीं रमा और चौथे महीने ही वापस लौट आयीं. फिर तीन साल तक कहीं नहीं गईं. गोपाल और रमेश ही कभी-कभी दो-चार दिन के लिए उनके पास आकर रह जाते. जाते समय वे साथ चलने का आग्रह करते तो वे कहतीं, "बुढ़ापा भी यहीं कट जाने दो, बबुआ. गांव से कटकर जीना मुश्किल हो जायेगा."

"बुढ़ापे में ही तो आपको किसी की सेवा की जरूरत है----- बीमारी में यहां कौन देखभाल करेगा आपकी?"

"अरे, ये गांववाले जो हैं---- सब अपने ही तो हैं." बुआ तपाक से कहतीं तो वे चुप हो जाते.

लेकिन न जाने की कसम उन्होंने नहीं खायी थी. रमेश की बहू के जब पैर भारी थे, वे कुछ दिनों के लिए फिर भोपाल गयी थीं और इस बार गोपाल की बहू की बीमारी की खबर पाकर वे जमशेदपुर दौड़ी चली गयीं और पूरे छः महीने रहीं. चलते समय वे गोपाल से बोली थीं, "बबुआ, अब शरीर साथ नहीं देता. दौड़-धूप नहीं हो पाती. तुम कुछ दिन की छुट्टी लेकर गांव आओ और खेतों का कुछ बन्दोबस्त कर जाओ."

"बुआ, नौकरी और गांव की जमीन एक साथ कैसे संभाल पाऊंगा---- बेच क्यों न दी जाय."

"पुरखन की निशानी है, बबुआ!" उदास नजरों से गोपाल की ओर देखते हुए उन्होंने कहा था, "फिर जैसी तुम्हारी मर्जी---- पर मेरे जीते-जी मत बेचना---- बाद में जो इच्छा हो---." बुआ की आंखें डबडबा आयी थीं और गोपाल नजरें झुकाए उनके खुरदरे पैरों की ओर देखता रह गया था. रात भर की सर्दी के बाद दोपहर की कुनकुनी धूप कुछ भली लग रही थी. घर के सामने नीम के पेड़ से कुछ परे हटकर चारपाई डालकर बुआ लेटे धूप सेंक रही थीं और सोच रहीं थी गोपाल के बारे में. वे उसे तीन चिट्ठियां डाल चुकी थीं, लेकिन एक का भी उत्तर उन्हें नहीं मिला था. तीन महीने बीत चुके थे. "कहीं बहू की तबीयत फिर तो खराब नही हो गई? कहीं मेरे जीते-जी जमीन बेचने की बात कहने पर बबुआ नाराज तो नहीं हो गया? एक विचार की लहर उनके मन में उठती और समाधान न पा दूसरे विचार का रूप ले लेती. तभी उन्हें पगले की चीखने की आवाज सुनाई पड़ी. वे उठ बैठीं. देखा मोहल्ले के तीन लड़के उसे दौड़ाए ला रहे हैं. बुआ को देखते ही वे तीनों पेड़ के पीछे ठिठक गये. लड़कों से भयभीत पगला बुआ की चारपाई पर औंधा आ गिरा.

"क्यों सता रहे हो इसे तुम लोग----- इधर आओ कुन्नू, रम्मू---- बिज्जू----."

तीनों पेड़ की ओट में खड़े रहे.

"अगर नहीं आओगे तो मैं सबके घर शिकायत करूंगी."

तीनों कुछ कदम आगे बढ़े, लेकिन फिर वापस मुड़कर भाग खड़े हुए. बुआ पगले पर बिगड़ने लगीं, "कितनी बार कहा, उधर मत जाया कर, लेकिन तू है कि पिटने के लिए जायेगा जरूर. जब अकल नहीं तो क्यों मरता है जाकर उन सबके बीच!"

"क्यों डांट रही हैं बुआ?" गुरनाम अपनी बेटी को कन्धे से चिपकाए निकला.

"पिटता है, फिर भी लड़कों के बीच जा घुसता है." पगले की पीठ पर हल्की-सी चपत लगाते हुए वे बोलीं, "तुम कहां लिए जा रहे हो कमली को?"

"डॉक्टर बाबू के पास."

"डॉक्टर----?" बुआ चौंकी.

"हां, बुआ ! कस्बे के एक डॉक्टर बाबू आ गए हैं गांव मा. पन्द्रह दिन ते ऊपर हुई गए. परधान के बैठका में खोला है उन्होंने अपना दवाखाना. पराईवेट है इलाज पर चारज ठीक-ठाक ही करत हैं----- बड़ी अच्छी दवा देत हैं."

"ओह!" बुआ ने निश्वास छोड़ी और फिर लेट गयीं.

गुरनाम चला गया तो वे सोचने लगीं उस डॉक्टर के बारे में और गांव के बारे में. पगला उनके सिरहाने बैठकर उंगलियों से उनके बाल सहलाने लगा.उन्हें नींद आ गई. वे स्वप्न देखने लगीं. स्वप्न में कोई उन्हें पुकार रहा है. आवाज पहचानी-सी लग रही है. वे आवाज का पीछा करते-करते शून्य में उड़ने लगीं. जैसे-जैसे वे आवाज के निकट पहुंचने की कोशिश करती हैं, वह दूर और दूर होती जाती है. वे अचम्भित हैं कि जानी-पहचानी होते हुए भी वे उसे पहचान क्यों नहीं पा रहीं----- और तभी उन्हें लगा कि यह तो सुखराम की आवाज है----- नहीं, यह भौजी------ नहीं, मां नहीं, पिता की आवाज है. लेकिन तभी डाकिए की आवाज से उनकी नींद खुल गयी. वे उठ बैठीं. उनका दिल धड़क रहा था.

डाकिए ने उन्हें पत्र थमा दिया. गोपाल का है.

"तुम्हीं पढ़ दो, डाकिया बाबू." वे अभी भी प्रकृतिस्थ न हो पायी हैं.

डाकिए ने पत्र पढ़कर सुना दिया. गोपाल कल शाम की गाड़ी से आ रहा है, सुनकर उनका मन कुछ शांत हुआ.डाकिया चला गया. धूप भी सिमटकर नीम की शाखाओं पर चढ़ गई थी. उन्होंने पगले से चारपाई उठवाई और अन्दर चली गईं. सर्दी फिर बढ़ने लगी है. धीरे-धीरे सांझ मुंडेर से नीचे उतरने लगी तो उन्होंने बरौसी में कुछ लड़कियां और कंडे डाल दिए और पगले को तापने के लिए बैठाकर खुद भी तापने लगीं.

रात में सर्दी का आलम कुछ विचित्र ही रहा. शायद ही कभी ऎसी गजब की सर्दी पड़ी हो. रात भर बर्फीली हवा दरवाजे से सिर टकराती रही किसी उन्मत्त हाथी की तरह. पगला रात भर तख्त पर रजाई में उकड़ूं हुआ कांपता रहा और सोचता रहा, कब सबेरा हो और कब बुआ बरौसी गर्माएं--- चाय बनाएं. वह जागता रहा और कुड़कुड़ाता रहा. और यों ही रात बिता दी. कौओं का झुण्ड कांव-कांव करता हुआ आंगन के ऊपर से गुजरा तो उसने सोचा, ’शायद सबेरा हो गया है. लेकिन बुआ अभी तक क्यों नहीं जागी?’ ठण्ड के कारण उसकी हिम्मत उठने की नहीं हुई, अतः वह लेटा ही रहा.

थोड़ी देर बाद गली से कुछ लोगों के आने-जाने की आहट उसे मिली. उसने रजाई से सिर बाहर निकाला तो देखा उजाला चारों ओर फैला हुआ है. बुआ की चारपाई पर नजर डाली, वे अभी भी सिर ढंके गुड़ी-मुड़ी हुई लेटी हैं.पगला परेशान हुआ. वह उनकी चारपाई के पास गया और कुछ देर तक खड़ा देखता रहा. फिर उसने उनके सिर पर से रजाई हटा दी. बुआ के शरीर ने तब भी कोई हरकत नहीं की. उसने उनके माथे और बालों पर हाथ फेरा, लेकिन बुआ का शरीर निस्पन्द रहा. अब वह विचलित हो उठा.उसने उनके ऊपर रजाई डाल दी और दरवाजा खोलकर बाहर निकल आया. वह दौड़ने लगा और चीखते हुए कहने लगा, "गांववालों ----- बुआ हमें छोड़ गयीं----- देखो बुआ चली गयीं----- बिद्दा हुआ मर गयीं----- सब कुछ खतम हुई गवा."

वह पूरे गांव में दरवाजे-दरवाजे दौड़ता-चीखता फिरा, लेकिन किसी ने भी उसे रोककर कुछ नहीं पूछा. अपने-अपने काम में मशगूल सबने केवल इतना ही कहा, "स्साले पर फिर पगलाहट सवार हो गई है."

गांव में चक्कर लगाकर हांफता हुआ वह बुआ के पैताने आकर जमीन पर घुटने टेककर बैठ गया और उनके पैर पकड़कर फूट-फूटकर रोने लगा.