बिना शीर्षक / कामतानाथ / पृष्ठ 1

Gadya Kosh से
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मैं सूरथखल में रीजनल इंजीनियरिंग कालेज के गेस्ट हाउस में ठहरा हुआ था। एक सेमिनार के सिलसिले में यहाँ आया था। अब यहाँ से गोवा जाना था मुझे। यदि मैं कालेज के अधिकारियों से कहता तो वे मेरा सारा प्रबंध कर देते। शायद यहाँ से गोवा तक का किराया भी दे देते। लेकिन यह मुझे उचित नहीं लगा। इसीलिए मैं स्वयं मंगलौर जाकर बस से अपना रिजर्वेशन करा आया था। रात नौ बजकर पचास मिनट पर बस वहाँ से पणजी के लिए रवाना होती थी।

इस समय आठ बजने वाले थे। मुझे किसी भी सूरज में साढ़े नौ या अधिक से अधिक नौ चालीस तक मंगलौर पहुँच जाना था। वैसे पूर्ण जानकारी न होने के कारण मुझे यह कष्ट उठाना पड़ रहा था क्योंकि मंगलौर से पणजी जाने वाली बस इसी रास्ते से गुजरती थी और यदि मैं पहले से बस वाले को नोट करा देता कि मैं बस में सूरथखल में बोर्ड करूँगा तो वह बस यहाँ रोक कर मुझे ले लेता।

लेकिन अब क्या हो सकता था। अब तो मुझे यहाँ से बस पकड़ कर मंगलोर ही जाना था। अपनी मूर्खतापूर्ण आदर्शवादिता के कारण मैंने कालेज के अधिकारियों को कार के लिए भी मना कर दिया था।

मेरे पास सामान अधिक नहीं था। मात्र एक अटैची। उसे लेकर मैं सड़क के उस पार आ गया जहाँ से मुझे मंगलौर के लिए बस मिलनी थीं। यहाँ एक वृक्ष के नीचे एक चबूतरा सा बना था। संभवत: बस यात्रियों की सुविधा के लिए ही यह बनाया गया था। एक आदमी वहाँ पहले से बैठा था। मैं भी उसी की बगल में बैठ गया। उसने मुझे, गौर से देखा। तब पूछा, "कहाँ जाएँगे आप?" "मंगलौर" मैंने कहा, "वहाँ से मुझे पणजी जाना है। अभी रात नौ पचास वाली बस से" "रिजर्वेशन है आपका?" "सो तो सुबह ही करा लिया था।" मैंने कहा। "तब तो आपने भूल की। पणजी वाली बस तो इधर से ही जाती है। आप उनको बता देते तो वह आपको यहाँ से ले लेते।" "हाँ। यह भूल तो हो ही गई। असलियत में तब मुझे इस बात की जानकारी नहीं थी।" "खैर अभी समय है आप आराम से पहुँच जाएँगे। बीस-बाईस किलोमीटर की ही तो बात है। बस समय और पैसे का कुछ नुकसान होगा।" "सही जानकारी की कमी का इतना मुआवजा तो देना ही चाहिए मुझे।" मैंने कहा।

तभी दाहिनी ओर सड़क पर किसी चोपहिए वाहन का तेज प्रकाश देखकर मैं कुछ सतर्क हो गया कि शायद मंगलौर जाने वाली कोई बस ही हो।" बस वाला ऐसे ही रोक देगा या मुझे हाथ दिखाना होगा।" मैंने उस व्यक्ति से पूछा।

उसने गाड़ी के प्रकाश की ओर देखा। तब बोला, "यह तो कार है। आप बैठे रहिए। बस आपको अभी थोड़ी देर में मिलेगी। साढ़े आठ पर पहली बस आएगी लेकिन मेरी मानिए तो उसे आप मत लीजिए। वह स्लो बस है रूकते-रूकाते जाएगी। कोई ठीक नहीं आपको समय से पहुँचाए भी या नहीं। उसके बाद दूसरी बस नौ बजकर दस मिनट पर मिलेगी। वह एक्सप्रेस बस है। वह आपको ठीक नौ चालीस पर मंगलौर पहुँचा देगी। यहाँ से छूटी तो सीधे मंगलौर ही रूकेगी।"

तब तक जिस गाड़ी का प्रकाश मैंने देखा था वह हमारे सामने से निकल गई। वास्तव में वह कार ही थी। मुझे आश्चर्य हुआ कि इस आदमी ने इतनी दूर से कैसे जान लिया कि वह कार ही है।

"आप क्या उत्तर भारत के रहने वाले हैं?" मैंने उससे पूछा। "क्यों?" "हिंदी आप बहुत अच्छी बोलते हैं।" वह हँसा। "हिंदी ही नहीं, मैं कन्नड़ और कोंकणी भी बहुत अच्छी बोल लेता हूँ। इसके अलावा मराठी, मलयालम, पंजाबी, असमिया और बंगला भी टूटी-फूटी बोल लेता हूँ। लेकिन मैं कहाँ का हूँ, मेरे माता-पिता कौन थे, क्या भाषा बोलते थे, उनका धर्म क्या था, यह मैं आज तक नहीं जानता।" "ऐसा कैसे?" मुझे आश्चर्य हुआ। "बहुत पुरानी बात है।" उसने इस प्रकार कहना शुरू किया जैसे वह कहीं बहुत पीछे किसी अँधेरे अतीत में डुबकी लगा रहा हो। "आज से कोई पचास-बावन वर्ष पहले इसी मंगलौर पणजी मार्ग पर एक बहुत भयानक बस दुर्घटना हुई थी। आप शायद तब पैदा भी नहीं हुए होंगे।" उसने मेरी ओर गौर से देखा तब बोला, "पहले कभी इस रूट पर यात्रा की है आपने?" "नहीं।" मैंने कहा। "तब आपको यह यात्रा दिन में करनी चाहिए थी। इस देश की बहुत ही खूबसूरत यात्राओं में से एक है यह। पूरा मार्ग वेस्टर्न घाट्स के बीच से गुजरता है। दोनों ओर पहाड़, घाटियाँ, झरने जंगल, फल और फूलों से लदे हुए वृक्ष। अगर हल्की बारिश हो रही हो तब तो यात्रा का आनंद और भी बढ़ जाता है।" "आप किसी दुर्घटना की बात कर रहे थे" "हाँ। आज से पचास-बावन वर्ष पहले की बात है। इस मार्ग के लगभग बीचोबीच एक स्थान पर सड़क लगभग यू टर्न लेती है। उसी स्थान पर यह दुर्घटना घटी थी।"

सड़क पर किसी वाहन का प्रकाश देखकर मैं फिर उस ओर देखने लगा। "ट्रक है।" उसने कहा। मुझे लगा जैसे मैं चोरी करते पकड़ा गया हूँ। "क्षमा कीजिएगा।" मैंने कहा, "आप दुर्घटना की बात कर रहे थे।" "वही बात कर रहा हूँ। सवारियों से पूरी तरह लदी हुई बस तेज रफ्तार से भागी चली जा रही थी। तभी क्या हुआ यह तो आज तक कोई बता नहीं पाया, बहरहाल, उसी यू टर्न के पास बस अचानक एक गहरे खड्डे में जा गिरी। कोई दो हजार फुट गहरा खड्डा रहा होगा। नीचे घाटी तक पहुँचने से पहले ही बस में आग लग गई और आग की भयंकर लपटों से घिरे एक विशाल गोले की तरह बस लुढ़कती हुई नीचे घाटी में जा गिरी। सारे यात्री बस में ही जल कर मर गए। एक प्राणी भी नहीं बचा। बचा तो बस एक डेढ़ साल का बच्चा जिसे एक खरोंच तक नहीं आई।"

मुझे उसकी बात पर आश्चर्य हुआ। तभी वह गाड़ी हमारे सामने से गुजरी और मैंने देखा वास्तव में ही ट्रक था। "अरे यह तो बड़े आश्चर्य की बात है कि बच्चे को जरा सी खराश भी नहीं आई।" मैने कहा। "हाँ।" उसने कहा, "असलियत में इधर फालसाही रंग का एक तरह के फूल का वृक्ष होता है बिल्कुल गुलमोहर जैसा। लेकिन ऊँचाई में उससे काफी छोटा। सितंबर के महीने में, जिन दिनों की बात है वह, अपने पूरे शबाब पर होता है। पूरा पेड़ फूलों का एक स्तूप सा लगने लगता है। इस मार्ग पर यह पेड़ बहुतायत से पाया जाता है।