बिन्दी / डॉ. रंजना जायसवाल

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एक छोटे से शहर का एक बड़ा-सा मोहल्ला जिसकी छतें आपस में जुड़ी हुई थी। कभी-कभी लगता मानों आपस में गलबहियाँ कर रही थी वो...छतों पर सूखते पापड़, चिप्स और उड़द-मूंग की सादी और मसालेदार बड़िया और उनकी रखवाली करते वे नन्हे-नन्हे हाथ और उन हाथों में अपनी लम्बाई से भी लम्बी वह बड़ी-बड़ी लाठियाँ। आलू के पापड़ के मसाले को चखने के बहाने वह बढ़ाये हुए हाथ और उस कच्चेपन के स्वाद को चखने के बहाने तेल में लिपटी हुई आलू की न जाने कितनी लोइया उनके उदर तक पहुँच जाती। आज विन्नी का मन यादों के गलियारों में यूँ ही तफरीह करने चल पड़ा था।

उस मुहल्ले में रामराज और चूने में आवश्यकता से अधिक नील डालकर कूँची से पोते हुए मकान लगभग एक जैसे ही दिखते थे। इन मोहल्लों की एक बात कभी समझ नहीं आई, माचिस की डिबिया से बन्द दरबों में एक-दूसरे के ऊपर तल्ले पर तल्ले खिंचवाते मकानों को बाहर से प्लास्टर करवाने में लोग न जाने क्यों कंजूसी कर जाते थे। बजबजाती नालियों से बचते-बचाते मुँह पर हाथ रखकर निकलते लोग फिर भी कितने खुश थे। उस मुहल्ले के घर के चबूतरे भी एक-दूसरे से लगे हुए थे। वह चबूतरे कम, संसद भवन का प्रांगण से कम नहीं थे, जहाँ बैठे-बैठे सत्ता बनाई और पलट दी जाती थी। बंदरों की उछल-कूद से धाराशाही हुए तारों को संगम कराने वाले हाथों के इंतजार में पूरी रात उसी चबूतरे पर रात्रि जागरण के साथ इंतजार में कट जाती। माँ नींद में कुलबुलाते बच्चों को पंखा झलते-झलते नींद में ऊँघने लगती पर ढिबरी की रौशनी में खेलते हाथ बड़ी फुर्ती के साथ गमछे के ऊपर ताश की पत्तियाँ फैला देते और जीत-हार की उत्तेजना में ये भी भूल जाते कि बच्चे बिजली के इंतजार में वही चटाई पर ही लुढ़क गए हैं। माँओं की बड़ी-बड़ी आँखें बच्चों की नींद में ख़लल के डर से क्रोध में और भी बड़ी-बड़ी हो जाती।

उस बड़े से मुहल्ले की सँकरी-सी गलियों में तीसरी गली में चौथा मकान था बुआ जी का। बुआ जी! ...उनका नाम क्या था कोई नहीं जानता...सच पूछो तो किसी को ज़रूरत भी नहीं थी। किसी भी उम्र का आदमी हो, सब उन्हें बुआ जी ही तो कहते थे। जब से होश संभाला था तब से उन्हें बस हँसते-मुस्कुराते ही देखा था। लम्बी गोरी छरहरी-सी बुआ जी... जिनके तम्बाई रंग में हर रंग का वस्त्र घुल-मिल जाता, मानों वह रंग उन्हीं के लिए बना हो। उस वक्त ये समझना मुश्किल था कि घर किसका है और बच्चे किस घर के... विन्नी भी तो दिनभर बुआ जी के घर पर ही पड़ी रहती। बुआ जी, काका और काकी की इकलौती सन्तान थी, सुघड़ तो इतनी कि पूछो मत। उन दिनों लड़कियों का पढ़ाई का चलन कम ही था पर काका ने उनकी पढ़ाई में कोई कसर न छोड़ी थी। घर पर गुरु जी आकर हिंदी, अंग्रेजी और संस्कृत की शिक्षा देते थे।

"छोरी को इतना न पढ़ाओ, वरना ब्याह में दिक्कत आयेगी।"

नन्ही-सी विन्नी को समझ नहीं आता कि बुआ जी की पढ़ाई से उनका ब्याह का क्या रिश्ता...? बुआ जी का वह गुदगुदा-सा शरीर गालों पर पड़ते गड्ढे विन्नी को हमेशा आकर्षित करता। अपनी बड़ी-बड़ी कजरारी आँखों को वह न जाने क्यों और कजरारी करने में लगी रहती थी। अपनी लम्बी-लम्बी सधी उंगलियों में चांदी की शलाका को पकड़े जब वह आँखों के पास ले जाती तो नन्ही विन्नी डर जाती। कहीं उनकी आँखें घायल न हो जाये...एक दिन नन्ही विन्नी ने उनकी उस शलाका से काजल निकाल कर अपने माथे पर बिंदी लगा ली...

"विन्नी! पागल है क्या...ये क्या कर रही।"

नन्ही विन्नी सहम कर सिकुड़ गई, डर से उसके हाथ से शलाका गिर गई।

"वो$$$...वो मैं..."

बुआ जी ने विन्नी ने गालों को प्यार से थपथपाया और उसको गोदी में बैठा लिया।

"विन्नी! काली रंग की बिंदी नहीं लगाते, अशुभ होता है।"

"अशुभ! ...पर माँ भी तो मेरे छोटे भाई को लगाती है।"

बुआ जी के चेहरे पर एक मासूम मुस्कान बिखर गई,

"वो बिंदी नहीं नज़र का टीका होता है, दुनिया की बुरी नजर से बचाने के लिए.।"

"पर लगाते तो उसको भी माथे पर ही है।"

बुआ जी के पास विन्नी के सवालों का कोई जवाब नहीं था। विन्नी के सवाल खत्म नहीं हो रहे थे पर विन्नी गलत तो नहीं कह रही थी। विन्नी का बिंदी के प्रति प्रेम कभी खत्म नहीं हुआ। बुआ जी काका-काकी का इकलौता सहारा थी। उनके बिना तो वह जीवन के बारे में सोच भी नहीं सकते थे पर लड़कियों को कौन जीवनभर अपने पास रख पाया। बुआ जी उस दिन विन्नी से कितना लिपट कर रोई थी। विन्नी आश्चर्य से बुआ जी को देख रही थी। लाल साड़ी, मांग में लाल सिंदूर और माथे पर वही विन्नी की चहेती बिंदिया चमक रही, सच कहूँ तो विन्नी का मुँह चिड़ा रही थी। विन्नी मुँह फुला कर बैठी थी, बुआ को नये-नये कपड़े, गहने और बक्सा भर कर सामान मिला और वह तब भी रो रही थी। काश उसे भी ऐसे सामान मिलता तो वह खुशी से नाच उठती। न जाने कितनी रातों तक विन्नी की आँखों के सामने बुआ जी वह सिंदूरी गोल-गोल बिंदी घूमती रही। हाय... बुआ कितनी सुंदर लग रही थी।

ससुराल वाले बुआ जी को विदा करने को तैयार नहीं हो रहे थे। काका से बिटिया का विछोह झेला नहीं जा रहा था, आखिर कब तक मन को मनाते। काका बुआ जी के ससुराल वालों के हाथ-पैर जोड़कर आखिर सावन में विदा कर ले ही लाये। काकी ने अम्मा को बताया था, " पूरे एक महीने के लिए कहकर लाये हैं। अरे भाई कन्यादान किया है कोई पिंडदान थोड़ी नहीं किया कि मायका पलट कर नहीं देखेगी। ऐसा भी क्या कि बिटिया को विदा नहीं करेंगे।

विन्नी के पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे, बुआ जी के बिना वह मुरझा-सी गई थी। सच भी तो था विन्नी का अधिकतर समय उन्ही के पास तो बीतता था। काकी ने विन्नी के माथे को चूमते हुए कहा था, "आ रही है तेरी बुआ अब मन भर के रहना उनके साथ...एक दिन तुम भी ऐसे ही किसी के घर चली जाओगी, तब पुछूँगी कि बुआ के बिना मन कैसे लगेगा।" उस दिन अम्मा और काकी ठठा मारकर हँस पड़ी थी। कितने दिनों बाद काकी को इस तरह हँसते देखा था। बुआ जी के जाने के बाद तो मानो वह हँसना भूल गई थी।

हाथों में मेंहदी, पैरों में महावर, भर-भर चूड़ियाँ और उजले माथे पर बड़ी-सी नगदार बिंदी... हाय कितनी सुंदर थी न, मानो कोई तारा टूटकर बुआ जी के माथे पर चिपक गया हो। विन्नी ने ऐसी बिंदी पहली बार देखी थी। अम्मा तो हमेशा वही सादी-सी बिंदी लगाती थी। बुआ जी के आने से विन्नी के चेहरे की रौनक लौट आई थी। बुआ जी अपने साथ कितने सुंदर-सुंदर कपड़े लाई थी, साड़ियाँ तो ऐसी मुलायम कि मुट्ठी में आ जाये। अम्मा बता रही ससुराल वालों ने कलकत्ता से खरीदारी की थी, वहाँ का कपड़ा बहुत अच्छा होता है पर नन्ही विन्नी की आँखें तो बुआ जी की बिंदी पर अटकी रहती थी। कितने सारे पत्ते लाई थी वो...हर रंग के गोल, चौकोर, तिलक, अंडाकार, नग वाली, मोती वाली। बुआ जी बता रही थी सब कलकत्ता की है... कोई-कोई पत्ता तो पचास रुपये का है। नन्ही विन्नी को तो इतनी गिनती भी नहीं आती थी। बुआ जी की बिंदिया कभी बिस्तर के सिरहाने पर तो कभी गुसलखाने की दीवारों पर चिपकी मिल जाती।

हरदम हँसती-मुस्कुराती बुआ जी ने अपने सपनों की दुनिया में खोई हुई थी और नन्ही विन्नी उनकी बिंदी में...आज भी याद है उसे वह मनहूस दिन। बुआ जी सुबह से भूखी थी, सावन का पांचवा सोमवार था। बुआ जी अक्सर कहती थी

"विन्नी! तू भी व्रत रखा कर शकंर जी बड़े दयालु है। तुझे भी राजकुमार मिलेगा..."

और नन्ही विन्नी एकदम से खिल गई। तब तो उसे सुंदर-सुंदर कपड़े, गहने और रंग-बिरंगी बिंदियाँ भी मिलेगी।

"बिल्कुल आप की तरह...!"

"हाँ-हाँ! बिल्कुल मेरी तरह, बल्कि मैं तो कहूँगी मुझ से भी अच्छा राजकुमार मिलेगा तुझे।"

बुआ जी दिन भर अपने राजकुमार के सपनों में खोई रहती, कभी-कभी बैठे-बैठे अचानक से कुछ सोचकर मुस्कुरा देती तो कभी फिस्स से लजाकर हँस पड़ती, मानो उनका राजकुमार चुपके से हौले से उन्हें गुदगुदा गया हो। नन्ही विन्नी सोच में पड़ जाती, बुआ यहाँ तो अच्छी-भली थी ससुराल जाकर क्या हो गया? विन्नी अम्मा के साथ हर सोमवार को पहाड़ी वाले मंदिर पर जाती थी, वहाँ मैले-कुचैले कपड़ों में एक आदमी ऐसे ही तो मुस्कुराता रहता था, कभी अचानक से रोने लगता तो कभी बच्चों की तरह खिलखिला कर हँस पड़ता। कितना डर गई थी वह उस दिन...अम्मा ने बताया था अच्छा-भला आदमी था, यही पास में नुक्कड़ पर दुकान लगाता था, शायद किसी ने टोना-टोटका कर दिया था बस तभी से... विन्नी कितना डर गई थी उस दिन, रात भर उसे सपनें में वही आदमी दिखता रहा। कभी अपने गन्दे नाखूनों से बाल खुजाता तो कभी शरीर...अचानक से ऐसे हँस पड़ता जैसे कोई चुटकला सुन लिया हो। कही बुआ जी के ऊपर ससुराल वालों ने कोई टोटका तो नहीं कर दिया। नन्ही विन्नी को क्या पता था कि बुआ जी के ऊपर अपनी नई-नई शादी और कुँवर-सा का टोना चढ़ा हुआ था। सुंदर तो वह थी ही पर शादी के बाद उनकी रंगत और भी खिल गई थी। अम्मा कहती थी कि "छोरी पर सिंदूर का असर है।" बुआ का मन खुशियों के सागर में डूब-उतरा रहा था, काकी-काकी बिटिया के सुख से सुखी हो रहे थे। अम्मा ने कई बार काकी से कहा, "बिटिया से पूछ तो ससुराल में सब ठीक तो है..." और काकी की आँखें बिटिया के सुख की कल्पना मात्र से भीग-भीग जाती। "पूछना क्या विन्नी की अम्मा, उसका चेहरा तो देखो खुशी उसके चेहरे से टपकती है, भगवान जोड़ी बनाये रखे।"

पर शायद काकी की गुहार भगवान तक नहीं पहुँची। किसे पता था कि बुआ जी के सपनों का राजकुमार उनका सपना तोड़कर यूँ चला जायेगा। सुना था बुआ को विदा कराने आ रहे थे पीछे से गाड़ी को ट्रक ने धक्का दे दिया और कुँवर-सा अपनी दुल्हिन की छवि आँखों में लिए इस दुनिया से चले गये। निर्मोही ने एक बार भी बुआ के बारे में नहीं सोचा, अभी तो बुआ जी को कुँवर-सा के साथ झूले पर कजरी सुनना बाकी थी। बुआ के पैरों की पायल की रुनझुन अचानक से खामोश हो गई थी। चूड़ियाँ खनकना भूल गई। बुआ दहाड़े मारकर रो रही थी, उनका रुदन देख सबकी आँखें भीग गई। बुआ से कहाँ गलती हो गई, भोले बाबा ऐसे रुष्ट हो जायेंगे किसी ने नहीं सोचा था...बुआ रोते-कलपते ससुराल पहुँची और उल्टे पाँव मायके लौट भी आईं। बुआ की मांग का सिंदूर कुँवर-सा के अंतिम स्नान के साथ चला गया था। पहले सावन में भर-भर हाथ पहनी हरे काँच की चूड़ियाँ जमीन पर पटक-पटक तोड़ दी गई थी। निर्मोही हाथों ने एक-एक शृंगार एक-एक सुहाग की निशानी नोच-नोचकर बुआ के शरीर से अलग कर दी थी। हमेशा गहरे चटक रंग के कपड़ें पहनने वाली बुआ के तन पर सफेद साड़ी लपेट दी गई। उन्हें इस रूप में देख एक पल को ऐसा लगा मानो सफेद रंग भी लज्जित होकर मुँह छिपाये उनके गोरे तन में कही घुल-मिल गया था।

जिस ससुराल ने हाथ बढ़ा कर बुआ का स्वागत किया था, कुँवर-सा के जाने से अचानक से निर्मोही हो गया था। "जब बेटा ही नहीं रहा तो बहू किस काम की..." यही तो कहा था ससुराल वालों ने। बुआ की सिंदूरी बिंदी न जाने किस सागर में डूब गई, कभी भी न निकलने के लिए... नन्ही विन्नी बुआ का सूना माथा देखकर डर गई थी। विन्नी ने कभी नहीं सोचा था कि न जाने कितनी ही रातों और सपनों में विन्नी ने जिन बिन्दियों की उसने कल्पना की थी वह इस तरह नोंच कर फेंक दी जायेगी। कुँवर-सा जो बुआ की जिंदगी थे वह हाथ छुड़ा कर इस दुनिया से चले गये थे।

दिन बीतते रहे बुआ के आँसू सूख से गये थे, बुआ ने अपने आपको कमरे में बंद कर लिया था। जिस ससुराल में राजरानी की तरह स्वागत हुआ था, वहाँ से ऐसे दुत्कार दी जायेगी...ये बात उन्हें जीने नहीं दे रही थी। अम्मा बुआ और काकी का दर्द अच्छी तरह समझ रही थी, काकी तो फिर भी अम्मा के सामने रोकर जी हल्का कर लेती पर बुआ...बुआ तो पत्थर हो गई थी। वो घण्टों छत की तरफ देखती रहती...बुआ की चुप्पी ने मासूम विन्नी को भी झकझोर कर रख दिया था। बुआ बिस्तर के सिरहाने पर चिपकी अपनी बिन्दियों को घूरती रहती, क्या किसी ने सोचा था इन बिंदियों की उम्र इतनी कम होगी। काकी से बुआ का दुख देखा नहीं जा रहा था, एक दिन कलेजे पर पत्थर रखकर काकी ने उनके बिस्तर और गुसलखाने की दीवारों से सारी बिंदिया निकाल कर फेंक दी। बुआ तड़पकर रह गई, हफ़्तों से जमा दर्द आँखों की सीमा-रेखा को तोड़कर भरभरा कर निकल आया। बुआ घण्टों रोती रही, उनके सिसकने की आवाज बाहर तक आ रही थी। उस दिन घर में चूल्हा नहीं जला, क्योंकि अंदर जो आग जल रही थी आज उसको बुझाना सबके लिए भारी हो रहा था। काकी ने बुआ को चुप कराने का प्रयास नहीं किया,

समय तेजी से बदल रहा था पर बुआ के लिए वक्त कहीं ठहर-सा गया था। काकी ने गृह शांति के लिए पूजा रखवाईं थी। बुआ मुस्कुरा रही थी...जीवन में हलचल मचा देने वाली परिस्थितियाँ को आखिर कौन-सी पूजा शांति प्रदान कर सकती है। बुआ दीवार का सहारा लिए एक कोने में चुपचाप बैठी थी...नन्ही विन्नी दौड़-दौड़कर सबको प्रसाद बाँट रही थी, अम्मा ने उठकर भगवान के चरणों में चढ़े चंदन का टीका बुआ के माथे पर लगा दिया। नन्ही विन्नी बहुत खुश थी...बुआ के माथे पर चंदन का टीका सज रहा था पर विन्नी नहीं जानती थी कि बिंदी के हर रंग के साथ बुआ का जीवन का रंग अब कितना बदल चुका था।