बिन पूछे मेरा नाम और पता... / जयप्रकाश चौकसे

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बिन पूछे मेरा नाम और पता...
प्रकाशन तिथि :18 नवम्बर 2015


स्वानंद किरकिरे ने अपने नियमित फिल्मकार राजकुमार हीरानी की 'पीके' के लिए एक गीत लिखा था, जिसके बोल इस तरह है, 'बिन पूछे मेरा नाम और पता, रस्मों को रखकर परे चार कदम बस चार कदम, चल दो ना साथ मेरे।' यह एक सच्चा प्रेम गीत है। हमारे नाम से हमारी जाति और धर्म का ज्ञान हो जाता है और पते से आर्थिक तथा सामाजिक स्थिति की जानकारी मिलती है। इस तरह रस्में भी अपने क्षेत्र के बारे में सबकुछ बता देती हैं। किरकिरे का आशय है कि सच्चे प्यार के लिए ये सब अनावश्यक है। हमारी सहज प्रवृत्ति बन गई है कि हम जाति और धर्म जानना चाहते हैं। यह जानकारी व्यक्ति के चरित्र के विषय में कुछ नहीं कहती। विशुद्ध प्रेम बिना किसी शर्त के होता है। 'इश्क वो आतिश है गालिब लगाए न लगे'- यह मनुष्य के हृदय की विलक्षण, अपरिभाष्य अनुभूति है। इसके उजास में समय को उसकी तीनों सतहों को एक साथ देख सकते हैं। जगह-जगह खाप पंचायतों की तरह की संस्थाएं हैं, जो प्रेम पर पाबंदी, प्रेम के डर से नहीं वरन् वह जो उजास देता है, उससे डरकर लगाते हैं। अंधकार उनके जीने की आवश्यक शर्त है। प्रेमहीन अवस्था में अंधविश्वास और कुरीतियां पनपती है। अगर धर्म एक भवन है, जिसमें रोशनी और हवा के लिए सारी खिड़कियां खुली होती हैं, तो इस भवन के नीचे बने तलघर में अंधविश्वास के चमगादड़ लटके होते हैं। कुरीतियों के जालों से तलघर पटा है और उसी में रहने वाले भूत-प्रेत, अंधविश्वास, पूर्वग्रह सब रात में धर्म के भवन में पहुंच जाते हैं। कुछ लोगों ने इस भवन को दिन में देखा है और कुछ रात में देखे को ही सत्य मान लेते हैं।

इसी गीत का अंतरा है, 'बिन कुछ कहे, बिन कुछ सुने, हाथों में हाथ लिए, चार कदम बस चार कदम चल दो ना साथ मेरे।' आशय है कि प्रेम में किसी संवाद की आवश्यकता नहीं है, दिल की बात दिल समझ लेता है बिना किसी माध्यम के। हाथों में हाथ लेना ऐसा स्पर्श है, जिससे आत्मा झंकृत हो जाती है। अगला अंतरा है, 'राहों में तुमको जो धूप सताए, छांव बिछा देंगे हम, अंधेरा डराए तो फलक पर चांद सजा देंगे हम, छाए उदासी, लतीफा सुनाकर तुझको हंसा देंगे हम, हंसते-हंसाते यूं ही गुनगुनाते, चल दो न साथ मेरे।' इसका आशय है प्रेम एक सुरक्षा कवच है। प्रेम एक आनंद की अवस्था है। इसके बाद प्रेमिका का अंतरा है, 'तुमसा मिले कोई रहगुजर, दुनिया में कौन डरे, चार कदम क्या सारी उम्र चल दूंगी साथ तेरे।' सफर का साथी मनपसंद हो तो सारा जीवन ही आनंद है और इंटरल्यूड में इतालवी प्रभाव है, जो शायद छायांकन को मद‌्देनजर रखकर बनाया है। जाने क्यों इस गीत का वाद्य संयोजन शंकर-जयकिशन की याद दिलाता है। बहरहाल, इस खेल का सबसे खतरनाक पहलू यह है कि कई बार प्यार इंजीनियर्ड होता है। हम जिसे इंस्टिंक्ट (स्वाभाविक अनुभूति) कहते हैं, वह भी प्रोग्राम्ड हो सकती है। इंस्टिंक्ट या इंट्यूशन (सहज मन का निर्णय) पर भी एक शोधपरक किताब है।

उसमें वर्णन है कि एक पेंटिंग विशेषज्ञ कृति देखकर उसे पिकासो की नकल समझता है। उसका नज़दीक से गहरे अध्ययन करने पर उसे लगता है कि यह असल है। अन्य विशेषज्ञ भी उसे असल मानते हैं। उसके रंग और कैनवास के अत्यंत अल्प भाग को रसायन शाला भेजते हैं तो रिपोर्ट आती है कि यह नकली है। आशय यह है कि विशेषज्ञ ने पहली झलक देखकर, जो इंट्यूशन महसूस किया था कि यह नकल है, वही सही निकलता है, जबकि नजदीकी परीक्षण उसे भ्रम में डालता है। शिशु के नामकरण के साथ ही उसकी सामाजिक प्रोग्रामिंग प्रारंभ हो जाती है। माता-पिता जब अपनी इच्छा या महत्वाकांक्षा उस पर लाद देते हैं तब यह खेल गहरा हो जाता है। एक मान्यता है कि हर शिशु के जन्म के साथ ऊपर वाले की तस्वीर में इजाफा होता है और ऊपर वाले की छवि हर शिशु के जन्म के साथ अपनी पूर्णता की ओर बढ़ती है।

समय की नदी के इस पार आए शिशु में अध्यात्म का अंश होता है परंतु लालन-पालन और अत्यंत दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली उसे कुछ और ही बना देती है। हम ऊपर वाले द्वारा रोपित रोपे को उसकी स्वाभाविक बढ़त से वंचित कर देते हैं और यह सब हमसे अनजाने ही हो जाता है। राजकुमार हीरानी को नाम और पते पर एतराज है। उनकी 'थ्री इडियट्स' का नायक भी किसी और के नाम से प्रमाण-पत् प्राप्त करता है, क्योंकि उसका उद्देश्य ज्ञान था न कि डिग्री जिसे डैगर बनाकर इस्तेमाल किया जाता है। एक और भयावह राजनीतिक दर्शन है, जिसमें नाम के बदले मनुष्य को किसी नंबर से पुकारे जाने की बात है। मनुष्य का रेजीमेंटेशन करने के प्रयास सदियों से जारी है। बीच का रास्ता यह हो सकता है कि नाम से उसकी जाति न मालूम पड़े। सार्थक नाम रखने का लाभ यह है कि उसे बार-बार पुकारने पर घर का वातावरण शुद्ध हो जाता है।