बिहार प्रांतीय किसान-सभा / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती

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मुंगेर की घटना के बाद सर गणेश के पिट्ठू लोग अखबारों में कुछ ऊलजलूल बातें लिखते रहे। उसका जवाब उन्हें दिया गया, सो भी मुँहतोड़। फिर तो वे लोग चुप्पी साधा गए। मुंगेर के बाद श्री कृष्ण सिंह को पटनामें लोगों की बातें, उन लोगों की जो कटु समालोचक और छिद्रान्वेषी थे, सुनने के बाद मैंने यह कहते खुद ही सुना या यों कहिए मेरे ही सामने उन्होंने कहा कि विरोधीलोगों ने भी स्वीकार कियाहैकि आप लोगों ने साफ सिद्धकर दिया कि आपका समाज पक्का राष्ट्रवादीहै, "They have proved that they are nationalists" लेकिन यदि मैं न रहता तो यकीन करना चाहिए कि ठीक उलटी बात कही जाती। क्योंकि वह कांड होता ही नहीं। फिर तो एक ही नतीजा निकाला जाता कि ये सभी जातिवादी हैं।

उसके बाद, जैसा कि लिख चुका हूँ, तौली चला गया। वहाँ से सितंबर में लौटा। ठीक उसी समय कौंसिल के मेंबर स्वराज्य पार्टी की तरफ से श्री रामदयालु सिंह, बाबू श्री कृष्ण सिंह, श्री बलदेव सहाय वगैरह थे। काश्तकारी कानून में सुधार करने के लिए उसी कौंसिल में एक बिल सरकार की तरफ से आनेवाला था। चारों ओर उसकी चर्चा थी। क्या किया जाना चाहिए यह सोचा जा रहा था। इतने ही में नवंबर का महीना आ गया। सन 1929 ई. के नवंबर का महीना बिहार प्रांतीय किसान-सभा के इतिहास में चिरस्मरणीय रहेगा। मैं अचानक किसी कार्यवश मुजफ्फरपुर गया हुआ था। पं. यमुनाकार्यी के मकान में जहाँ प्रेस भी था, ठहरा था। छत के ऊपरवाली कोठरी में था। वह मकान 'कल्याणी चौक' पर था। भूकंप में धवस्त हो गया। सवेरे का समय था। श्री रामदयालु बाबू आ गए और कार्यी जी के साथ मेरे स्थान पर पहुँच कर बातों के सिलसिले में शुरू किया कि बिहार प्रांतीय किसान-सभा की नींव दी जानी चाहिए। उन लोगों ने समझ लिया था कि बिना किसान-सभा के सरकार मानेगी नहीं, काश्तकारी कानून में खतरनाक तरमीम (संशोधन) करके किसानों का गला रेत देगी और हम लोग कुछ कर भी न सकेंगे। कारण, बहुमत कौंसिल में है नहीं। इसीलिए बिहार प्रांतीय किसान-सभा की बात सूझी।

मैंने कहा, ठीक है बनाइए। सभा तो बननी ही चाहिए। फिर सोचा गया कि उसके पदाधिकारी कौन हों। उन्हीं लोगों ने बाबू श्री कृष्ण सिंह को जेनरल सिक्रेटरी तथा पं. यमुनाकार्यी, श्री गुरु सहाय लाल, श्री कैलाशबिहारी लाल को डिवीजनल सेक्रेटरी चुना। इसीलिए कि यदि हर डिवीजन या कमिश्नरी के लिए एक-एक मंत्री रहें तो काम ठीक चले। इसके बाद सभापति कौन हो यह सवाल आया। मैंने कहा कि बाबू राजेंद्र प्रसाद को सभापति बना लीजिए। इस पर वे लोग कुछ देर चुप रहे। फिर रामदयालु बाबू ने कहा कि सभापति तो आपको ही बनना चाहिए। मैं ताज्जुब में आया कि मेरा नाम क्यों लेने लगे। मैंने सपने में भी यह सोचा न था कि प्रांतीय किसान-सभा बनेगी और मैं उसका अध्यक्ष बनूँगा। इसीलिए तैयार होने की बात सोची तक न थी। मैंने फौरन इन्कार किया कि मैं इसमें पड़ नहीं सकता। फिर तो कहा-सुनी चली। दोनों आदमियों का हठ होने लगा कि मेरे बिना सभा का काम ठीक नहीं चल सकता। वह जैसी चाहिए बन नहीं सकती।

लेकिन मेरा जैसा स्वभाव है धीरे-धीरे आगे बढ़ता हूँ। मैं उसी की जवाबदेही लेता हूँ जिसे अच्छी तरह सँभाल सकूँ। अभी तक तो एक जिले की भी किसान-सभा न चलाकर सिर्फ आधे पटनाकी ही पश्चिम पटना किसान-सभा चलाता रहा। फिर एकाएक प्रांत भर की जवाबदेही कैसे लेता? इसीलिए मैं बराबर नाहीं करता रहा। उधरवह लोग भी कहते ही रह गए कि आप ही को बनना होगा। बात तय न पाई। फिर सोचा गया कि सोनपुर का मेला इसी नवंबर में ही होनेवालाहै। इसलिए अभी से नोटिसें बाँटीजाए और तैयारी कीजाएकि मेले में ही इस सभा को बाकायदा जन्म दियाजाए। तदनुसार ही नोटिसें छपीं और बँटने लगीं। अखबारों में भी खबर निकली। तैयारी भी होने लगी। मेला भी आ गया। वहाँ हम लोग ठीक समय पर पहुँच भी गए।

खासा लंबा शामियाना खड़ा था। लोगों का जमावड़ा भी अच्छा था। एक तो सभा, दूसरे मेला। फिर जमावड़े में कमी क्यों हो? मैं ही उस मीटिंग का सभापति चुना गया। रामदयालु बाबू बहुत मुस्तैद थे। मेरा भी भाषण हुआ और बाकी लोगों का भी। बिहार प्रांत में किसान-सभा की जरूरत बताई गई। काश्तकारी कानून में किए जानेवाले खतरनाक संशोधनों का भी जिक्र किया गया। यदि किसान-सभा के द्वारा किसानों का संगठन न होगा तो काश्तकारी कानून बहुत ही खराब बन जाएगा। लोगों में काफी जोश था। नई चीज थी। सभी चाहते थे। कुछ लोगों ने सभा बनाने का विरोध भी किया औरों की तो याद नहीं। लेकिन श्री रामवृक्ष बेनीपुरी ने तो खासा विरोध किया। कांग्रेस के रहते किसान-सभा कायम करने की कोई जरूरत नहीं यह बात उन्होंने कही। उनका ख्याल था कि कांग्रेस ही सब कुछ कर सकती है। फिर किसान-सभा अलग क्यों बनें? कांग्रेस में तो अधिकांश किसान ही हैं। असल में वही तो किसान-सभा है। अलग किसान-सभा बनने से कांग्रेस कमजोर हो जाएगी। क्योंकि जो लोग किसान-सभा में काम करेंगे वह कांग्रेस का पूरा काम न कर सकेंगे। कांग्रेस के लिए आगे खतरा भी किसान-सभा से हो सकता है, यह भी कहा गया। उन दिनों श्री बेनीपुरी से मेरा कोई विशेष परिचय न था। विशेष परिचय तो हुआ तब जब वह सोशलिस्ट नेता बने और भूकंप के बाद सन 1934-35 में किसान-सभा के समर्थक हुए।

आखिर में राय ली गई और सभा स्थापित करने का फैसला हुआ। इसके बाद पदाधिकारी चुने गए। मैं बराबर ही अस्वीकार करता रहा। लेकिन मैं ही सभापति और पूर्वोक्त सज्जन मंत्री आदि चुने गए। सदस्यों में बाबू राजेंद्र प्रसाद से लेकर जितने प्रमुख कांग्रेसी थे सभी का नाम दिया गया। तय किया गया कि सभी लोगों से फौरन इसके बाद ही पूछकर स्वीकृति भी ले ली जाएगी। किया भी ऐसा ही गया। सबने स्वीकार किया। किसी ने भी इन्कार नहीं किया सिवाय बाबू ब्रजकिशोर प्रसाद के। उन्होंने कहला भेजा कि मेरा नाम हटा दिया जाए। सोनपुरवाली इस मीटिंग की पूरी कार्यवाही लिखी-लिखाई पड़ी है, जिसमें सभी के नाम है। इतना ही नहीं। उसके बाद की हर मीटिंगों की कार्यवाही लिपिबद्ध पड़ी हुई है।

एक दिलचस्प बात इसी संबंध में हुई। कुछ कांग्रेसी लोगों के नाम मेंबरों में न दिए जा सके और छूट गए। दृष्टांत के लिए बाबू मथुरा प्रसाद का नाम छूटा था। उन्होंने इसका उलाहना दिया। फिर तो बाबू बलदेव सहाय के डेरे पर जो मीटिंग शीघ्र ही हुई उसमें उनका नाम भी सदस्यों में जोड़ दिया गया।

आज तो मेरे और कार्यी जी के सिवाय उन लोगों में शायद ही कोई हैं जो इस बिहार प्रांतीय किसान-सभा के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष विरोधी न हों। अब तो वे लोग इसे फूटी आँखों देख नहीं सकते, इसे बर्दाश्त नहीं कर सकते और जड़-मूल से मिटा देना चाहते हैं। मगर इसका इतिहास साफ कहताहैकि शुरू में वही लोग इसके आश्रयदाता औरकर्ता धर्ता थे। शुरू में ही क्यों? सन1934 ई. तक बराबर इस सभा के साथ रहे, इससे सहानुभूति रखते रहे और इसमें रहना चाहते थे। उन्होंने इसकी बड़ाई की,इसका समर्थन किया। लेकिन समय एक सा नहीं रहता। वह तो बदलता रहताहै। पाँच-छ: वर्षों तक जिस सभा का समर्थन किया उसका विरोध उन्हीं लोगों को करना होगा और उसके खिलाफ जेहाद करना होगा यह पता उस समय किसी को भी कहाँ था? जिन लोगों ने मुझे घसीट कर इसमें आगे किया, आज वही मेरी टाँग पकड़ के बेमुरव्वती से खींच रहे हैं। यह भी एक जमानाहैऔर वह भी एक समय था। पता नहीं मैं आगे गया, सभा आगे गई, या वही लोग पीछे चले गए? कौन बताएगा? शायद इतिहास लिखनेवाले बताएँ! समय तो बताएगा ही। लेकिन इसमें तो शक नहीं कि मैं और सभा दोनों ही आगे गए। हाँ, उन लोगों के हिसाब से हो सकताहै,हम बहुत आगे चले गए हों।